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________________ Jain Education International विद्यासागरगंगा आर्यिका श्री मृदुमति जी विद्यासागरगंगा, मन निर्मल करती है। ज्ञानाद्रि से निकली है, शिवसागर मिलती है ॥ इक मूलाचार का कूल, इक समयसार तट है। दोनों होते अनुकूल, संयम का पनघट है। स्याद्वाद वाह जिसका, दर्शक मन हरती है। विद्यासागर गंगा मन निर्मल करती है। ज्ञानाद्रि से निकली है, शिवसागर मिलती है ॥ मुनिगण राजा हंसा, गुणमणि मोती चुगते । जिनवर की संस्तुतियाँ, पक्षी कलरव करते। शिवयात्री क्षालन को, अविरल ही बहती है। विद्यासागरगंगा मन निर्मल करती है। ज्ञानाद्रि से निकली है, शिवसागर मिलती है ॥ नहीं राग द्वेष शैवाल, नहीं फेन विकारों का । मिथ्यात्व का मकर नहीं, नहीं मल अतिचारों का । ऐसी विद्यागंगा, 'मृदु' पावन करती है। विद्यासागरगंगा मन निर्मल करती है। ज्ञानाद्रि से निकली है, शिवसागर मिलती है ॥ जिसमें परीषह लहरें, और क्षमा की भँवरें हैं। करुणा के फूलों पर, भक्तों के भौंरे हैं। तप के पुल में से वह, मुक्ति में ढलती है। विद्यासागरगंगा, मन निर्मल करती है। ज्ञानाद्रि से निकली है, शिवसागर से मिलती है ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524290
Book TitleJinabhashita 2004 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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