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________________ मनुष्य शरीर एक अदभुत और सम्पूर्ण यंत्र है। जब | अगर उपवास करके,एनीमा द्वारा आँतें साफ करके, वह बिगड़ जाता है, बिना किसी दवा के अपने को सुधार | कटिस्नान,घर्षणस्नान वगैरह विविध स्नान लेकर तथा शरीर लेता है। बशर्ते उसे ऐसा करने का मौका दिया जाए। अगर | के विभिन्न अंगों की मालिश करके भीतर के विष से मुक्त हम अपनी भोजन की आदतों में संयम का पालन नहीं | होने की इस प्रक्रिया में हम अपने शरीर की सहायता करें करते, या हमारा मन आवेश भावना या चिंता से क्षुब्ध हो | तो वह फिर से पूर्ण स्वस्थ हो सकता है। कम शब्दों में जाता है, तो हमारा शरीर अन्दर की सारी गंदगी को बाहर कुदरती उपचार से गांधी जी का यही मतलब था कि नहीं निकाल सकता और शरीर के जिस भाग में गंदगी | उन्होंने स्वयं हिंद स्वराज में लिखा है, 'अस्पताल पाप की बनी रहती है,उसमें अनेक प्रकार के जहर पैदा होते हैं। ये जड है। उनकी बदौलत लोग शरीर का जतन कम करते हैं जहर ही उन लक्षणों को जन्म देते हैं, जिन्हें हम रोग कहते | और अनीति को बढ़ाते हैं '.... अंग्रेजी या यूरोपियन पद्धति हैं। रोग शरीर का अपने भीतर के विष से मुक्त होने का | की डाक्टरी सीखना गुलामी की गांठ को मजबूत करने प्रयास ही है। जैसा ही होगा। कार्ड पैलेस, वर्णी कालोनी, सागर म.प्र. बोध कथा श्रद्धा और विवेक की परम्परा वाराणसी नगरी के राजा एक दिन प्रजा के दुःख-सुख । ब्राह्मण ने कहा- तपस्या का महत्व ब्राह्मण से भी अधिक को जानने के लिए राज पुरोहित के साथ राज्य में भ्रमण करने | है। तप के द्वारा जो ब्रह्मतेज उत्पन्न होता है उससे ब्रह्मकर्म से निकले। उन्होंने वेश बदल लिया ताकि कोई उन्हें पहचान न | भी अधिक लोकहित की संभावना बनी रहती है। तपस्या का सके। भ्रमण करते-करते वे किसी उपनगर में पहुँचे। पुरोहित साहस कोई विरले ही करते हैं सो उस पुण्य परम्परा का नित्य कर्म करने दूर गये थे। राजा पेड़ के नीचे सुस्ता रहे थे। | पोषण आवश्यक है। मैंने स्वार्थ का नहीं उपयोगिता का ध्यान उधर से एक सद्गृहस्थ निकला तो सुन्दर आभा वाले इस | रखा और आगत भोजन तपस्वी को दे दिया। तेजस्वी व्यक्ति को अतिथि समझ कर घर से भोजन लेने चला ___गृहस्थ ने तपस्वी से पूछा- आपने वह भोजन भिक्षु को गया। लौटकर आया तो उनके व्यंजनों से सुसज्जित थाल किस कारण दे डाला भगवन्! उसके हाथ में था। उसे अतिथि के आगे रख दिया। तब तक ___तपस्वी ने शान्त स्वर से कहा- भद्र, मैं इन्द्रियों को पुरोहित भी वापस आ चुके थे। राजा ने स्वयं भूखे होते हुए भी | जीतने की साधना कर रहा हूँ। इसके लिये हठ पूर्वक उनका वह थाल पुरोहित को दे दिया। पुरोहित ने उसे खाया नहीं। वे | विरोध करना आवश्यक है। स्वादिष्ट व्यंजनों का आहार मेरी कुछ देर सोचते रहे और थोड़ी दूर तपश्चर्या में निरत एक | स्वादेन्द्रिय को विचलित करने वाला, बाधक सिद्ध होता, सो तपस्वी को वह भोजन अर्पित कर दिया। तपस्वी ने चारों ओर | मैंने यही उचित समझा कि अपने से अधिक सत्पात्र उस दृष्टिपात किया तो उसे एक भिक्षुक दिखाई दिया। तपस्वी ने | अपरिग्रही भिक्षु को दे दूँ। गृहस्थ ने भिक्षु से पूछा- आपने थाल का भोजन भिक्षु के भिक्षा पात्र में डाल दिया। भिक्षु ने | किस कारण से वह भोजन स्वयं ही कर लिया? भिक्षु बोलाउसे सन्तोषपूर्वक खा लिया। जो सद्गृहस्थ थाल लेकर आया हे सद्गृहस्थ! मैं विवेक को जागरण करने के लिये द्वार-द्वार था, उसने यह सब देखा और आश्चर्य चकित हो अतिथि से | पर परिभ्रमण करता हूं ताकि व्यक्ति स्वार्थी न बने उपयोगिता पूछा-"बन्धु! आपके लिये आगत भोजन को स्वयं न करके | का ध्यान रखकर ही उपलब्ध साधनों का उपभोग किया जाय। दूसरे को दे देने का क्या कारण है?" यह प्रशिक्षण मेरे जीवन का व्रत है। इन तीनों में इस पुण्य अतिथि ने उत्तर दिया- "मैं साधारण परम्परा को फलित होते मैंने देखा और प्रेम-पूर्वक भोजन कर उपयोगिता मेरे निज के जीवन तक ही सीमित है। किन्तु यह | लिया। अतिथि ने सद्गृहस्थ को और भी अधिक स्पष्टता से ब्राह्मण जिन्हें मैंने उपलब्ध भोजन दिया संसार के लिये अधिक | समझाते हुए कहा- विवेक ही इस संसार का मेरुदण्ड है। उपयोगी है। इनका शरीर असंख्य मानवों को ज्ञान-दान करके मनुष्य स्वार्थ ही सोचे और उपयोगिता एवं लोकहित की उन्हें सन्मार्ग पर लगाता है, इनकी उपयोगिता अधिक है। बात को भुला दे तो फिर यहां नरक और अशान्ति के अतिरिक्त इसलिये मैंने अपनी तुलना में उन्हें अधिक उपयोगी पाया और | और कुछ शेष न रहेगा। यह धरती पुण्य के बल पर ही चलती वह भोजन उन्हें दे दिया।" है। सो हे सद्गृहस्थ! हम सबको श्रद्धा और विवेक की गृहस्थ ने ब्राह्मण से पूछा- भगवन्, भला आपने अपना | पारमार्थिक पुण्य परम्पराओं को भूखे रहकर भी सींचते रहना भोजन दूसरे को क्यों दे दिया? चाहिये। 'आत्मोत्कर्ष की गौरव गाथाएं' अक्टूबर 2004 जिनभाषित 25 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.524290
Book TitleJinabhashita 2004 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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