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________________ जिज्ञासा-समाधान पं. रतनलाल बैनाड़ा प्रश्नकर्ता - सौ. उज्ज्वला सुरेश गोसावी, औरंगाबाद। | फूलों को तोड़कर जीवहिंसा क्यों की जाए? धर्म तो अहिंसा जिज्ञासा - जिस मूर्ति के चरणों पर चन्दन लगा हो या | प्रधान कहा गया है। मूर्ति के ऊपर फूल चढ़े हुए हों वह मूर्ति दर्शनीय है या नहीं? | जिज्ञासा - "धर्म फलसिद्धांत" लेखक - पं. समाधान - प्रतिमा के ऊपर या चरणों में चन्दन । माणिकचंद जी कौन्देय, फिरोजाबाद, में लिखा है कि तीर्थंकर लगाने के बहुत प्रकार होते हैं। आगरा में भ.शीतलनाथ जी प्रकृति का उत्कृष्ट स्थितिबंध संक्लेश परिणामों से होता है। की एक प्रतिमा श्वेताम्बरों के अधिकार में है। कई बार तो | तो क्या तीर्थंकरों के भी संक्लेश परिणाम होते हैं? उस प्रतिमा पर आँख लगाने की तथा आभरण पहनाने की समाधान - आ. पंडित जी ने बिल्कुल ठीक लिखा है। कोशिशें हुई हैं, परन्तु उनको सफलता नहीं मिली। या तो | गोम्मटसार कर्मकाण्ड गाथा-136 में तीर्थंकर प्रकृति की लगाने वाला अन्धा हो जाता है या उसे दिखना बंद हो जाता | उत्कृष्ट स्थितिबंध करने के संबंध में लिखा है- "तित्थयरं है। अब वे उस प्रतिमा पर इस प्रकार चन्दन लगाते हैं कि । चमणुस्सो अविरदसम्मो समज्जेदि॥ 136 ॥ अर्थ- तीर्थंकर प्रतिमा आभूषण पहने जैसी लगे। परन्तु कई स्थानों पर मात्र | प्रकृति का उत्कृष्ट स्थिति बंध अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य ही चरणों के एक अंगूठे पर चन्दन की एक बिन्दी लगाई जाती | बांधता है। विशेषार्थ- जिस मनुष्य ने मिथ्यात्व की अवस्था है। इन दोनों तरीकों में बहुत अंतर है। पहले तरीके में तो - में दूसरे या तीसरे नरक की आयु का बंध कर लिया हो तथा मूर्ति की वीतरागता ही नष्ट हो जाती है। जबकि दूसरे में ऐसा | बाद में जिसे क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त हुआ हो। ऐसा नहीं। अतः जिन मूर्तियों पर ऐसा चन्दन लगा हो जिससे | मनुष्य यदि तीर्थंकर प्रकृति का बंध प्रारंभ कर ले, तो उसके मूर्ति की वीतरागता नष्ट हो जाये उस मूर्ति के दर्शन करने के | मरण से अन्तर्मुहूर्त पूर्व सम्यक्त्व नष्ट होकर मिथ्यात्व रूप भाव ही नहीं होते। हम वीतरागता के उपासक हैं अतः ऐसी | परिणाम होना अवश्यंभावी है। तो ऐसा वह मनुष्य जब मरणं मूर्तियों के दर्शन करना उचित नहीं है। लेकिन जिन मूर्तियों | से अन्तर्मुहूर्त पहले संक्लेश परिणामों के कारण चतुर्थ गुणस्थान पर मात्र चरणों में एक चन्दन की बिन्दी आदि लगी हो | से गिरकर प्रथम गुणस्थान के सम्मुख होता है तब उसके उनके दर्शन करने में आपत्ति नहीं माननी चाहिए। चतुर्थ गुणस्थान के अंतिम समय में तीर्थंकरप्रकृति का उत्कृष्ट जहाँ तक मूर्ति के ऊपर फूल चढ़ाने का रिवाज है वह | स्थिति बंध होता है। जैसे- श्री कृष्ण नारायण ने मिथ्यात्व बिल्कुल गलत है। उससे तो वीतरागता नष्ट हो ही जाती है। | की दशा में नरकायु का बंध कर लिया था। बाद में सम्यक्त्व मैंने सम्मेदशिखर जी में मुनि अमितसागर जी महाराज प्राप्त करके तीर्थंकर प्रकृति का बंध भी प्रारंभ कर लिया था। तथा आर्यिका स्याद्वादमति माताजी से 5-6 वर्ष पूर्व | जब उनका अंतिम समय आया तब उनके मरण से अन्तर्मुहूर्त निवेदन किया था कि 20 पंथी कोठी में मूर्तियों के ऊपर | पहले चतुर्थ गुणस्थान से प्रथम गुणस्थान में गिरने से पूर्व जो फूल चढ़ाने का रिवाज है क्या यह सही है। इस पर | तीर्थंकर प्रकृति का उत्कृष्ट स्थितिबंध हुआ होगा। यह भी उन्होंने उत्तर नहीं दिया। मेरे कई बार पूछने पर भी वे दोनों | ज्ञातव्य है कि तीन शुभ आयु, (तिर्यंचायु, मनुष्यायु तथा मौन ही रहे। उनसे अन्य कई विषयों पर चर्चा हुई। शास्त्रों में | देवायु) को छोड़कर शेष 145 प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध भी मूर्तियों के ऊपर फूल चढ़ाने का कोई प्रमाण नहीं मिला। | तीव्रसंक्लेश में ही होता है अर्थात् आहारक प्रकृति, अतः मूर्ति के समक्ष चाहे फूल चढ़ा दिए जाएं, पर मूर्ति वे | सातावेदनीय, उच्चगोत्र आदि शुभ प्रकृति का भी उत्कृष्ट ऊपर फूल कभी भी नहीं चढ़ाने चाहिए और जिस मूर्ति के | स्थिति बंध तीव्र संक्लेश में ही होता है लेकिन तब अनुभागबंध ऊपर फूल चढ़े हों उसके दर्शन भी नहीं करने चाहिए। उस | मंद रहता है।" मूर्ति को वीतराग प्रभू की मूर्ति नहीं कहा जा सकता। उपरोक्त प्रकरण से यह भी स्पष्ट हो गया होगा कि श्रेष्ठ तो यही है कि मूर्ति पर चन्दन न लगाया जाए। । तीर्थंकर प्रकृति के उत्कृष्ट स्थिति बंध रूप परिणाम तीर्थंकरों उसको पूर्णरूप से वीतराग ही बने रहने दिया जाए। तथा | के गृहस्थ अवस्था में भी नहीं होते। यह उत्कृष्ट स्थिति बंध जब शास्त्रों में अचित्त द्रव्यों से अर्थात् चावलों को पीले । तो, मात्र नरकाभिमुख मनुष्यों को ही होता है। करके पुष्प चढ़ाने का विधान दिया हुआ है तब अनावश्यक जिज्ञासा - भगवान ऋषभदेव के 100 पुत्र थे या एक 26 अक्टूबर 2004 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524290
Book TitleJinabhashita 2004 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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