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________________ रूप से प्रेम का संदेश सम्प्रेषित किया। इस प्रेम का संदेश | ऑस्टमोटिक दबाव बढ़ता है और पसीना छूटना, क्रोध प्राप्त जल के रवे अत्यंत सुन्दर षट्कोणीय आकृति में आ | आना, कंपकंपी छूटना, नेत्र लाल होना, भुजाएं फड़कना गए। जापान के फ्यूजीवारा बांध का जल लेकर प्रार्थना के | जैसी क्रियाएं होती हैं। इस पूरी प्रक्रिया में जल की भूमिका पहले एवं बाद में उसके रवे बनाए गए । रवों के विन्यास में | निर्णायक होती है। सम्भवतः मंत्रों से अभिसिक्त जल की प्रार्थना के पहले व प्रार्थना के बाद के स्वरूपों में उल्लेखनीय | गुणवत्ता उसे जिस पात्र में या हाथ में रखा गया है उसकी परिवर्तन देखा गया। इसी प्रकार भारी धातु के संगीत तथा | विद्युत चुम्बकीय शक्ति से भी आविष्ट हो जाती हो। उच्चरित समूह नृत्य के पश्चात रवों ने जो आकृतियां ग्रहण की | मंत्रों की ध्वनि तरंगों के प्रभाव से मंत्रपूरित जल के अणु उनसे डा. ईमोटो ने यह निष्कर्ष निकाला कि जल भावनाओं, | एक विशेष प्रतिमान में संयोजित हो जाते हों। यह मंत्रसिक्त विचारों, क्रियाकलापों तथा घटनाओं से प्रभावित होता है | जल जिस व्यक्ति या वस्तु पर फेंका जाता हो तो वह वहां और उनका अंकन भी करता रहता है। अवशोषित होकर तदनुसार प्रभाव उत्पन्न करता हो। वेद डा. ईमोटो तथा उनके दल ने यह देखा कि पहाड़ी और पुराणों में जल के विभन्न गुणधर्मों का स्थान-स्थान झरने के जल से जहां षट्कोणीय रवा विन्यास बनता है, | पर उल्लेख है। अथर्ववेद में एक स्थान पर कहा गया हैवहीं प्रदूषित जल से प्रायः रवा विन्यास बनता ही नहीं। इमा आपः प्र भराम्ययक्ष्मा यक्ष्मनाशनीः । गृहानुप प्रपसीदाम्यमृदेन सहाग्नि॥ विश्व के विभिन्न शहरों के आसपास वर्षा का जल रवे के (अथर्ववेद 3/12/9) रूप में अव्यवस्थित सा प्रतीत हुआ। धुव्रीय प्रदेशों का जिसका आशय है- भली भांति रोगाणु रहित तथा जल अत्यंत स्वच्छ रवे का निर्माण करता है। डा. ईमोटो के अनुसार जल एक प्रकार के तरल टेप रिकार्ड के रूप में रोगों को दूर करने वाला जल लेकर आता हूँ। इस शुद्ध कार्य करता है जो अपने आसपास के वातावरण का अंकन जल के सेवन से यक्ष्मा (टीबी) जैसे रोगों का नाश होता एवं प्रत्त्यावर्तन करता है। गुफाओं के जल ने गुफाओं जैसा है। अन्न, दूध, घी आदि द्रव्यों में जल का महत्वपूर्ण स्वरूप प्रदर्शित किया, झरने के जल के रवे ने माला का स्थान है और इनमें जल अग्नि सहित निवास करता है। स्वरूप लिया, हीरे की खदानों के निकट के जल के रवे ने यदि डा. ईमोटो का प्रयोग वस्तुतः सत्य है तो भारतीय हीरे जैसी आकृति ली। डा. ईमोटो ने यह देखा कि पानी न अध्यात्म को समझने में कुछ और सहूलियत हो जाएगी केवल अपने निकट के वातावरण का अंकन एवं प्रत्त्यावर्तन जिसने सम्पूर्ण चराचर सृष्टि को संवेदनायुक्त माना है। करता है बल्कि ध्वनि से भी प्रभावित होता है। ईमोटो के इससे हमारे रोजमर्रा के अनेकानेक कार्यों के लिए भी प्रयोगों में जल ध्वनि को सुनता हुआ सा प्रतीत हुआ। डा. तार्किक आधार प्राप्त होगा। जैसे भोजन करने के पूर्व प्रार्थना ईमोटो और उनके सहयोगियों ने टेलिविजन पर हो रहे करना, पवित्रता प्राप्त करने के लिए जल का प्रयोग करना, राजनैतिक वाद-विवाद के दौरान भी जल के व्यवहार का अनेक कर्मकाण्डों में विविध प्रकार से जल का प्रयोग अध्ययन किया और निष्कर्ष निकाला कि जल दिग्भ्रम करना आदि। जल के प्रति बदलता यह दृष्टिकोण हमें और संशय की स्थिति में है। जल ध्यान, प्रार्थना तथा इसके प्रति अपना व्यवहार परिवर्तित करने का संदेश देता विचार आदि से भी प्रभावित होता प्रतीत हुआ। है। अपनी जीवन शैली को सहिष्णु, प्रेममय तथा संजीदा बनाने का निवेदन जल हमसे चिल्ला-चिल्लाकर कह रहा शास्त्र कहते हैं, मनुष्य का शरीर पंचमहाभतों से है। वर्तमान जीवनशैली में यदि हमने परिवर्तन नहीं किया मिलकर बना है। जल उसका प्रमुख घटक है। शरीर में तो हम स्वतः अपने विनाश का कारण बनेंगे। नदियों के पुष्टि, तृष्टि, क्षुधा आदि की प्रवृत्तियां तभी सक्रिय होती हैं | प्रदूषित जल के पीड़ित रवों को देखकर यही संदेश हम जब जल का उचित अनुपात कोशिकाओं में संतुलन पा तक आता है कि जल चीत्कार कर रहा है-हे मनुष्य! बहुत लेता है। एक उदाहरण लें किसी को हमने कटु वचन कहे, हुआ अब बस करो। यदि जल संवेदनशील है तो वह उसका अपमान किया तो तत्काल उसकी श्रवणेन्द्रियां प्रतिक्रिया भी करता होगा। जल की कोई कठोर प्रतिक्रिया मस्तिष्क को उत्तेजित करती हैं। परिणामस्वरूप अन्तः हो इसके पहले ही हमें अपना व्यवहार निसर्ग के प्रति स्रावी ग्रंथियों में हार्मोन के रूप में संग्रहित जल उद्वेलित सँवार लेना चाहिए। होता है और छलककर रक्त में आ मिलता है। इसकी निदेशक-प्रबंधन अध्ययन संस्थान, सांन्द्रता रक्त में बढ़ते ही शरीर की कोशिकाओं में संचारित देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इन्दौर (म.प्र.) - अक्टूबर 2004 जिनभाषित 15 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.524290
Book TitleJinabhashita 2004 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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