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________________ रक्षा हेतु अकलंक-निकलंक एवं चंदनवाला बनने की | ब्रम्हस्वरूप बताते हुए कहा कि भारत की प्रतिष्ठा यहां के प्रेरणा देना चाहिये। अवैतनिक शिक्षकों के लिये ज्ञानावरणीय साध, संतों और उनके आचरण के कारण है। टाटा, बिड़ला कर्म का क्षयोपशम, स्वाध्याय परमं तपः, तपसा निर्जरा च | और अम्बानी के कारण नहीं। उन्होंने करतल ध्वनि के ये तीन ऐसे प्रेरक तत्त्व हैं, जो उन्हें शिक्षक बनने के लिये | बीच रीवा विश्वविद्यालय में जैन धर्म पर शोध को प्रोत्साहित उत्साहित करते हैं। करने के लिये जैन विद्या शोध पीठ की स्थापना करने की सासांरिक ज्ञान गौण है, आत्मज्ञान मुख्य है। ज्ञान घोषणा की। उक्त अवसर पर मुनिश्री प्रमाणसागर जी महाराज जानना मात्र है। आचरण करना चरित्र है। विषयानुराग ने अपने सारगर्भित प्रवचन में कहा कि केवल बौद्धिक मिथ्याचारित्र है, आत्मानुराग सम्यक्चरित्र है। राग सहित और तकनीकी विकास ही जीवन का परिपूर्ण विकास नहीं आचरण में प्रतिकूलतायें आती हैं। राग रहित जीवन में है। जीवन के परिपूर्ण विकास के लिये इनके साथ-साथ अनुकूलतायें आती हैं। परमार्थ से जुड़ा ज्ञान समीचीन ज्ञान नैतिक, चारित्रिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक विकास है। विद्वान वही है जो सार्थक एवं अर्थवान् वचन बोलता भी होना चाहिए। आजकल पश्चिमी जीवन मूल्य तेजी से है। जो अधातु सहित होता है वह रोगी है। हावी होते जा रहे हैं वे हमें सिर्फ लर्निंग और अर्निंग की ही प्रेरणा देते है लीविंग की नहीं। जीवन की कला ही महत्वपूर्ण विद्यार्थी को आज के दूषित वातावरण से अलग रखना है, जो हमें भारतीय तत्व-विद्या सिखलाती है। मुनिश्री ने संभव नहीं है। किन्तु जैन पाठशाला के माध्यम से उसमें कुलपति जी की आध्यात्मिक विचारधारा की सराहना करते हंस का स्वभाव धारण कराया जा सकता है, ताकि नीर हए कहा कि यदि विद्या केन्द्रों के प्रमुखों में, ऐसी ही क्षीर का विवेक आ जाये। पुस्तकें वह हैं, जिनके पढ़ने से आध्यात्मिकता आ जाए तो उसमें अध्ययनरत छात्रों का न मन प्रसन्न हो जाये, विचार शुद्ध हो जायें तथा उपयोगी हो। केवल भविष्य बदलेगा अपितु देश का नक्शा ही बदल शास्त्र वह है, जिसके पढ़ने से आत्मा जग जाये। ग्रंथ वह है, जो मोह ग्रंथि को भेद कर, मोह निद्रा दूर करे। रोगी वह जायेगा। मुनिश्री ने तत्त्वार्थसूत्र के माहात्म्य पर भी प्रकाश डाला। है, जो बलहीन एवं शक्तिहीन हो और स्वस्थ तो मात्र सिद्ध परमेष्ठी ही हैं । नास्तिक वह है जिसमें देवशास्त्रगुरु के प्रति तीन दिनों तक चलने वाली यह संगोष्ठी प्रतिदिन तीन विश्वास न हो। सत्रों में चली। जिसमें क्रमशः निम्न विद्वानों ने अपने शोध लेख पढ़े उसमें व्रती राकेशभैया सागर (तत्त्वार्थसूत्र की इंजी. धरमचन्द्र बाझल्य, ए-92, शाहपुरा, भोपाल व्याख्याओं का वैशिष्ट्य), श्री निर्मल जैन सतना (तत्वार्थ सतना में सर्वोदय विद्वत्संगोष्ठी सफलतापूर्वक सम्पन्न सूत्र में रत्नत्रय की विवेचना), श्री मूलचंद लुहाडिया किशनगढ़ (सम्यक्त्व का स्वरूप एवं साधन : एक विमर्श), संत शिरोमणी आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के श्री डॉ. श्रेयांशकुमार बड़ौत (जीव के आसाधारण भावों परम भास्वर शिष्य मुनिश्रेष्ठ 108 श्री प्रमाणसागर जी महाराज की विवेचना आधुनिक सन्दर्भ में) श्री अशोक कुमार जैन के सतना में वर्षायोग स्थापित होते ही पूरा शहर ग्वालियर (तत्त्वार्थसूत्र में प्ररूपित लिंग व्याख्या एवं प्रमाणसागरमय हो गया। आधुनिक विचार), डॉ. निहालचन्द जैन बीना (अजी पतत्त्व मुनिश्री के सान्निध्य में 4, 5, 6 सितम्बर को आचार्य : आधुनिक विज्ञान की दृष्टि में),श्री प्रा. नरेन्द्र प्रकाश जैन उमास्वामी के तत्त्वार्थसूत्र पर आधारित सर्वोदय विद्वद्गोष्ठी | फिरोजाबाद(व्यक्तित्व के विकास में बाधक कारक), श्री के आयोजन ने सतना शहर में एक नया इतिहास रच पं. शिवचरणलाल मैनपुरी (तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर पुण्यदिया। देश के ख्याति प्राप्त पच्चीस विद्वानों की उपस्थिति में पाप की मीमांसा), प्रो. रतनचन्द जैन भोपाल : (कर्मास्रव होने वाली इस संगोष्ठी का उदघाटन सुप्रसिद्ध विचारक के कारण एक उहापोह), श्री सुरेशजैन आई.ए.एस., भोपाल माननीय श्री डॉ. ए.डी.एन. वाजपेयी कुलपति कप्तान अवधेश (तत्त्वार्थसूत्र - ऐन इम्पार्टेन्स सोर्स आफ इंडियन ला), श्री प्रताप सिंह विश्वविद्यालय, रीवा ने दीप प्रज्जवलन कर अनपचंद जैन एडवोकेट फिरोजाबाद (सल्लेखना. समाधि किया। आध्यात्मिक विचारों से ओतप्रोत कुलपति महोदय | भारतीय दण्ड विधान के परिप्रेक्ष्य में), श्रीमती डॉ. नीलम ने अपने सारगर्भित उद्बोधन में मुनिश्री को साक्षात | जैन गुड़गांव (तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित. श्रावकाचार का समाज 30 अक्टूबर 2004 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524290
Book TitleJinabhashita 2004 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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