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जैन समुदाय हेतु संवैधानिक सुरक्षा कवच
भारत के संविधान निर्माताओं ने स्वतंत्रता संग्राम समर के उस आधारभूत सिद्धांत को माना कि सभी नागरिकों को समान अधिकार दिए जाएं। तथा धर्म, जाति, वर्ग, लिंग अथवा जन्म स्थान के आधार पर कोई भेदभाव न हो। उन्होंने यह भी आवश्यक समझा कि जो वर्ग कमजोर है अथवा जिनकी संख्या कम है, उनके साथ ताकतवर वर्ग या बहुसंख्यकों द्वारा अन्याय न हो। भाषा तथा धर्म, दोनों के आधार पर अल्पसंख्यक हो सकते हैं।
अल्पसंख्यक समुदायों के संवैधानिक अधिकारों का संरक्षण तथा उनका सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक विकास भारतीय गणतंत्र की प्राथमिकता में है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 से 30 में भी अल्पसंख्यक समुदाय को संवैधानिक संरक्षण प्राप्त है। इस व्यवस्था के अनुसार देशवासियों का कोई एक वर्ग भी अपनी भाषा, लिपि अथवा संस्कृति की अक्षुण्णता को बनाए रखने का पूर्ण अधिकार रखता है। किसी भारतीय नागरिक को किसी भी शिक्षण संस्था में प्रवेश से, जिसका संचालन राज्य द्वारा किया जा रहा है अथवा जो राज्य की आर्थिक सहायता से संचालित होता है, जाति, धर्म, भाषा व मूलवंश के आधार पर वंचित नहीं किया जा सकता। अनच्छेद 30 यह भी स्पष्ट करता है कि अल्पसंख्यक चाहे उसका आधार भाषा अथवा धर्म हो, वे अपने विवेक के आधार पर शिक्षण संस्थाओं की स्थापना, उनका संचालन, शिक्षा के मापदंडों को मानते हुए कर सकते हैं। यानि ऐसे अल्पसंख्यक समुदाय अपने समुदाय के शिक्षार्थियों को अपने द्वारा स्थापित शैक्षणिक संस्थाओं में अपनी भाषा में शिक्षा देने का अधिकार रखते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस बात की पुष्टि की है, कि केन्द्र तथा प्रदेशों में धार्मिक अल्पसंख्यकों की मान्यता जनसंख्या के आधार पर अलग-अलग की जा सकती है। उदाहरणार्थ-यदि केन्द्र में मुसलमान अल्पसंख्यक समुदाय है, तो कश्मीर राज्य में वह बहुसंख्यक है और हिन्दू अल्पसंख्यक है। __ अल्पसंख्यकों के हितों की सुरक्षा की ओर प्रेरित भारतीय संसद ने अपने संसदीय सत्र 1992 में एक कानून भी पारित कर दिया जिसका नाम दिया 'दि नेशनल कमीशन
फार माइनोरिटी एक्ट 1992'। इस कानून में अल्पसंख्यक शब्द को परिभाषित किया। केन्द्र सरकार ने बौद्ध, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, पारसी को तो अल्पसंख्यक समुदाय घोषित कर दिया, किन्तु जैनियों को नहीं किया। जब सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयानुसार कानूनन धर्म एवं भाषा को उसका आधार प्रमाणित माना और राज्य सरकारों को अल्पसंख्यक समुदाय घोषित करने का अधिकार दिया, तो कई राज्य सरकारों ने जैन धर्मावलम्बियों को अल्पसंख्यक समुदाय घोषित कर दिया है। जैन धर्मावलंबी भारतीय समझे जाने के साथ-साथ धर्म आधारित एक सम्प्रदाय है। श्रमण संस्कृति का आधार है निवृत्ति मार्ग, अहिंसा, तपस्या, ध्यान । वैदिक संस्कृति प्रवृत्तिमार्ग पर बल देकर ईश्वर को सर्वशक्तिमान मानकर पूजा आदि पर जोर देती है। श्रमण संस्कृति में ईश्वर को कर्त्ता नहीं मानते, जैन आत्मवादी हैं, वीतरागता, अहिंसा परमोधर्म को प्रधान मानते हैं। जैन चाहे वे दिगम्बर हों या श्वेताम्बर मत को मानने वाले हों इनकी अपनीअपनी धार्मिक क्रियाएं हैं, अनुष्ठान पद्धति, पूजा पद्धति, साधुओं की मर्यादाएं इत्यादि, विशिष्ट संस्कृतियाँ प्रमाणित एवं निर्धारित हैं। इन्हीं कारणों विशेष से जैन धर्म हिन्दु धर्म ये विभक्त धर्म नहीं है। हिन्दू धर्म का आधार है- वेद, किन्तु जैन धर्मावलंबी वेदों की अलौकिकता को स्वीकार नहीं करते। वे वेदों का सम्मान करते हैं, किन्तु उनमें आस्था नहीं रखते। जैनियों के रीति-रिवाज, परम्पराएं, चिन्तन, दर्शन, इत्यादि भी हिन्दूओं से भिन्न हैं। कुछ परंपराओं में समानता का होना जैन धर्म की धर्म निरपेक्षता का प्रमाण है। इसमें भी दो मत नहीं है कि जैन धर्म के प्रथम प्रर्वतक तीर्थंकर ऋषभनाथ के पुत्र भरत के नाम पर ही हमारे देश का नाम भारतवर्ष पड़ा है।
जैन धर्मावलम्बियों ने धर्म के आधार पर अपने संवैधानिक अधिकारों की माँग की थी और संवैधानिक अल्पसंख्यक का वर्गीकरण प्राप्त किया है। वे भारतीय हैं किन्तु धर्म जैन है, इसलिए यह कहना या मानना है कि जैन समुदाय को दिया गया अल्पसंख्यक का दर्जा हिन्दू धर्म में एक फूट है, सवर्था गलत है, दुर्भावना पूर्ण दुष्प्रचार है। हमारी मान्यता के अनुसार जैन लॉ (कानून) एक स्वतंत्र सिद्धांत है जिसके आदि रचियता महाराज भरत चक्रवर्ती थे, इसमें अनेक बातें हिन्दू लॉ से भिन्न हैं। वर्तमान
- अक्टूबर 2004 जिनभाषित 19
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