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________________ धर्म के संरक्षण में धर्मधारी ही समर्थ आचार्य श्री विद्यासागर जी 16 सितम्बर 2004 दयोदय तीर्थ तिलवारा घाट, जबलपुर में परमपूज्य आचार्य विद्यासागर जी द्वारा किया गया प्रवचन प्रस्तुत है। आचार्यश्री का मन्तव्य है कि परमपूज्य आचार्य शान्तिसागर जी ने भट्टारकों को यह उपदेश दिया था कि 'आप धर्म का संरक्षण करें।'धर्मसंरक्षण का उपदेश उसे ही दिया जाता है, जो धर्म का संरक्षण न कर रहा हो। शान्तिसागर जी महाराज का संकेत इस ओर था कि भट्टारक पहले मुनिदीक्षा ग्रहण करते हैं (पिच्छी-कमण्डलु उसी का प्रतीक है), पश्चात् श्रावकों के कहने पर या उनसे कहलवाकर सर्वांगवस्त्र धारण कर लेते हैं, पर पिच्छी-कमण्डलु का परित्याग नहीं करते। उन्हें ग्रहण किये रहते हैं। पिच्छी-कमण्डलु रखते हुए सर्वांगवस्त्र एवं पगड़ी, टोपी आदि पहन लेने पर कोई पुरुष क्षुल्लक भी नहीं रहता, मुनि रहने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। यहाँ तक कि किसी श्रावकप्रतिमा का विधिवत् ग्रहण न करने से वह जघन्य या मध्यम श्रावक भी नहीं कहला सकता। इस प्रकार जो धर्म से च्युत हो अथवा धर्म में स्थित न हो, वह धर्मसंरक्षण का अधिकारी नहीं हो सकता। उसे पहले स्वयं धर्म का पालन करना.चाहिए, तभी वह धर्म का संरक्षण कर सकता है। इसीलिये आचार्य शान्तिसागर जी ने भट्टारकों को धर्मसंरक्षण का उपदेश दिया था। सम्पादक धर्म आत्माश्रित होता है। उस धर्म की रक्षा के लिए | लेकिन मठ बना करके, मठ का स्वामी बन करके वह श्रावकों का भी कर्तव्य है और श्रमणों का भी कर्तव्य है। रहता है, तो यह गलत बात । प्रतिक्रमण प्रतिदिन उनको भी करना चाहिए, वो है ही नहीं, प्रतिश्रय की अभिलाषा लेंगे। ज्ञानार्णवकार ने ज्ञानार्णव में लिखा है क्या पता विहार करूँगा तो आहार मिलेगा कि नहीं मिलेगा, धर्मनाशे क्रियाध्वंसे सुसिद्धान्तार्थ विप्लवे। आजकल तो आहार की बड़ी समस्या है। महाराज तो कुछ अपृष्टैरपि वक्तव्यं तत्स्वरूपप्रकाशने॥ समझते तो हैं नहीं, क्या करें? एक स्थान पर रह जाएँ, एक उन्होंने कहा है कि नहीं पूछने पर भी बताना है। | बार ही तो भोजन करना है। एक कुटिया बना दो महाराज, पूछने पर तो बताना ही है, नहीं पूछते हैं, तो भी जिस समय | तो हम वहीं पर रह जाएँ। श्रावकों को कह दो श्रावक तो धर्म का, क्रियाओं का विध्वंस हो रहा है, उस समय बताना चाहते हैं अपने गांव में रह जाएँ, लेकिन चाहते हैं, रहना है । क्रिया का अर्थ पंथवाद नहीं है। क्रिया का अर्थ श्रमण | चालू कर दें, तो आप ही भगा देंगे। ये बुन्देलखंड एक ऐसा की क्रियायें तेरह प्रकार की अथवा 28 मूलगुणात्मक होंगी | खण्ड है जैसे चक्रवर्ती षटखण्ड में, आर्यखण्ड में विचरण और श्रावक शिरोमणि जो क्षुल्लक होता है, उसकी क्रियायें | ज्यादा करके, दिग्विजय करता है, उस प्रकार का खण्ड है कितनी होती है, तो 11 प्रकार की प्रतिमाएँ होती हैं। 11 | ये। यहाँ चारित्र और विवेक स्वाध्याय इत्यादि के माध्यम प्रकार की प्रतिमाओं वाले व्यक्ति का वेश क्या होना चाहिए, | से इस प्रकार का हुआ है। प्रतिश्रय, वहाँ पर एक ही स्थान दैनेन्दिक क्रियायें क्या होना चाहिए? पर बैठना। क्षुल्लक के लिए कहाँ पर कहा, कि एक ही स्थान पर बैठे, श्रमण के लिए तो कहा ही नहीं। क्षुल्लक __ हमारे यहाँ प्रतिदिन प्रतिक्रमण होता है। उसमें प्रतिश्रय एक स्थान पर कैसे बैठेंगे, इससे आहार दूषित हो जायेगा। के अभिलाषा के परिणाम हो गये हों तो महाराज भगवन् मैं क्योंकि भैक्ष्याशनस्तपस्यन्' कहा, भिक्षावृत्ति के साथ गुरु उसके लिए 'तस्समिच्छामि दुक्कडं' करता हूँ। प्रतिश्रय महाराज के पीछे-पीछे रहो और आहार कर आओ, ये किसको बोलते हैं। प्रतिश्रय का अर्थ मठादिक नहीं हो भैक्षासन । समन्तभद्र महाराज ग्यारहवीं प्रतिमा में कहते हैं। सकता। एक स्थान पर रुग्ण अवस्था में रहना अलग वस्तु, ७ | 11वीं प्रतिमा से पूर्व में 10 वीं प्रतिमा तक वह निमन्त्रण से - अक्टूबर 2004 जिनभाषित 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524290
Book TitleJinabhashita 2004 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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