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जिनभाषित
वीर निर्वाण सं. 2530
श्री चौबीसी एवं पंचबालयति दि. जैन मंदिर रामटेक का प्रस्तावित मन्वयमाए
VVVI
चैत्र, वि.सं. 2061
मार्च 2004
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आदर्श त्यागी
बनें
आचार्य श्री विद्यासागर जी
प्रवचन, चातुर्मास स्थल : गोम्मटगिरी, इन्दौर, दीपावली : निर्वाण लड्डू, सोमवार, ८ नवम्बर १९९९
।
आज महावीर भगवान के निर्वाण को २५०० वर्ष पूर्ण हो गये हैं। अब तक जो श्रमण परम्परा चली है, वह उसी वीतराग परम्परा का प्रतीक है। यद्यपि महावीर भगवान् हमारे बीच नहीं हैं किन्तु उन्होंने आत्मा के स्वरुप को प्राप्त करने के लिये जो साधना अपनाई और उस साधना के जो चिन्ह विद्यमान हैं, उन्हें वे हमारे पास छोड़कर चले गये हैं। आज दुनिया में जो रास्ता बनाता है और आगे बढ़ता है उसे वह स्वयं समेट कर ले जाता है, क्योंकि उसे उसने बनाया था। जैसे भवनों में लिफ्ट ऊपर चढ़ती है, तो अपना चिन्ह नहीं छोड़ती। वेसे ही महावीर भगवान् भी अपने साथ कुछ भी लेकर नहीं गये । अपना जो कुछ था उसे रख लिया। बाकी को यहाँ यथावत् ज्यों का त्यों छोड़कर चले गये।
विचार आता है। सबसे ज्यादा फोन करने वाले आज त्यागी हो गये हैं। ये कौन हैं ? किस आधार पर इनके फोन चलते हैं ? इनकी कोई बिजली की दुकान या मकान है। किसलिये इनको इसकी (फोन की) क्या आवश्यकता है ? ये सब बातें मैं इसलिये कह रहा हूँ, त्यागी को कह सकता हूँ, गृहस्थों को नहीं। मेरे पास त्यागी एक नहीं बहुत सारे हैं। इसलिये इन्हें अपनी मर्यादा कायम रखना अनिवार्य है।
ब्रह्मचारियों के लिये मेरा कहना है वे अपनी सीमा में रहकर के ही निष्परिग्रहता का परिचय देते हुए समाज को परिग्रह से उबारने का ही प्रयास करते रहें। समाज में किसी प्रकार का पक्षपात, क्षोभ और शैथिल्य न हो। 'सादा जीवन उच्च विचार' वाली बात आना चाहिए।
ब्रह्मचारियों से आज मेरा विशेष रूप से कहना है कि वे अपनी सादगी को भूलें नहीं । वैराग्य को भूलें नहीं। अपने पहनावे में परिवर्तन न लावें। गाँधी जी जैसे सादगी से घुटने तक पहनकर रहते थे, उसी प्रकार पहना करें। सादगी इसी में है। लोग कहते हैं कि महाराज ! आप किसी को कुछ कहते नहीं । मैं कहता हूँ, बात आपको पता नहीं है। इसीलिये आज कह रहा हूँ कि आप मर्यादा कायम रखें। त्यागी मर्यादा भंग करता है, तो गृहस्थ उससे भी ज्यादा करता है क्योंकि उसकी कोई मर्यादा होती ही नहीं है। संयम की रेखा तो हमारी रहती है। त्यागी किसी भी प्रकार से अपनी आत्म गौरव, मूल्य व सीमा नहीं | खोएँ । समाज को कुछ देना चाहते हैं, तो यही मार्ग सही है । गुरुवर ज्ञानसागर जी ने मुझसे कहा था कि यदि ब्रह्मचारी एकदो प्रतिमा वाला भी हो, तो समाज को हिला सकता है। पूरा समाज उसकी ओर आकृष्ट हो सकता है । चाहिए उसके पास सादगी। दो प्रतिमाधारी भी समाज में बहुत काम करके गये हैं। अगर आगे की प्रतिमाएँ ले लें, किन्तु सादगी नहीं रखें, पैसे और लोभ-लालच के साथ रहें, मोटर गाड़ी के साथ आना-जाना हो, तो गड़बड़ है। आज तो सबसे ज्यादा मोटर गाड़ियों का उपयोग होने लगा है।
सादगी की दृष्टि से आरम्भ त्याग प्रतिमा है । हु अनिवार्य हो, तो वाहन में बैठो। आज वाहन तो क्या रेल में, बस में भी कोई नहीं जाता। ए.सी. (एयर कण्डीशन) कार चाहिए। उसमें ब्रह्मचारियों की यात्रा होती है। यह सुन जानकर मुझे बहुत
आप कह सकते हैं कि महाराज! आपको आज क्या हो गया है ? हमने बहुत सी बातें कानों से सुनी और आँखों से देखी भी हैं। इसलिये कह रहा हूँ । गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज ने कहा था- 'देखो, ऐसे वस्त्र पहनना चाहिए, जिनमें से भीतरी अंग नहीं दिखे।' हाँ, बिल्कुल इसीप्रकार के वस्त्र ब्रह्मचारियों, ब्रह्मचारिणियों को पहनना चाहिए। उनमें टिनोपॉल, रानीपॉल वगैरह कभी भी नहीं लगाना चाहिए । निर्वाण लड्डू चढ़ाते समय आप लोग (ब्रह्मचारीगण ) संकल्प लीजिये। नहीं लेंगे, हम आप लोगों से बातें नहीं करेंगे। बिल्कुल (संकल्प लीजिये) इसमें क्या बात हो गयी ? हमारे निर्देशन का पालन करो, करके दिखाओ। बिल्कुल मैं ऐसा ही करता था महाराज (ज्ञानसागरजी ) प्रसन्न होते थे। मैं कहता था- 'महाराज ! मुझे तो जल्दी-जल्दी (वस्त्र) उतारना है। इनको क्या पहनना ?' इन्हें अंग ढकने व मर्यादा रखने के लिये पहनना चाहिए। इनमें कोई आकर्षण नहीं, सादगी होना चाहिए। दुनिया रागी है और आप वैराग्य पथ के उपासक हो ।
गाँधीजी गृहस्थ आश्रम में रहते हुए साधु जैसे रहते थे। आज के त्यागियों को देखकर के ऐसा लगता है जैसे कोई रईस आ रहा हो। ऐसा क्यों है ? वस्त्र स्वच्छ, साफ, निश्छिद्र रखिये ।। इसमें कोई बाधा नहीं है। मान लो वस्त्र फटने को हों, तो उसे पहले ही छोड़ दीजिये । इस व्यवस्था के लिये पहले से गृहस्थ लोग तैयार हैं। उनके पास दुकानें हैं, कपड़ों की कोई कमी नहीं है। लेकिन कपड़े कोई शोभा नहीं है ।
आप कितनी वीतरागता के उपासक हैं ? महावीर भगवान को लड्डू चढ़ाने का यही एकमात्र फल है। हम वीतरागता का मूल्यांकन करें। राग की ओर न जायें। गृहस्थ का राग समाप्त हो, इस प्रकार की प्रक्रिया करें। कल चातुर्मास समाप्त हो गया। मैं महावीर भगवान् से प्रार्थना करता हूँ- 'हे भगवन् ! जैन-धर्म जो विश्व धर्म के रूप में है, उसकी प्रभावना में हमारा मन, वचन, काय लगा रहे और जो कोई भी व्यक्ति हैं उनके लिए भी मेरा यही कहना है ।'
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प्रस्तुति: निर्मल कुमार पाटोदी २२, जाय बिल्डर्स कॉलोनी, इन्दौर (म. प्र. ) ४५२००३
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रजि. नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC
डाक पंजीयन क्र.-म.प्र./भोपाल/588/2003
मार्च 2004
जिनभाषित
वर्ष 3,
अङ्क 2
सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन
अन्तस्तत्त्व
कार्यालय ए/2, मानसरोवर, शाहपुरा भोपाल-462 039 (म.प्र.) फोन नं. 0755-2424666
आपके पत्र धन्यवाद
सहयोगी सम्पादक पं. मूलचन्द्र लुहाड़िया, (मदनगंज किशनगढ़) पं. रतनलाल बैनाड़ा, आगरा डॉ. शीतलचन्द्र जैन, जयपुर डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत प्रो. वृषभ प्रसाद जैन, लखनऊ डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती', बुरहानपुर
सम्पादकीय
: नाटक का अनाट्यशास्त्रीय प्रयोग . प्रवचनांश
आदर्श त्यागी बनें : आ.श्री विद्यासागर जी आव.पृ.2
मरण सुधारना अपने ... : मुनिश्री सुधासागर जी आव.पृ. 3 लेख
श्री दि. जैन अतिशय क्षेत्र रामटेक का इतिहास महाकवि आचार्य विद्यासागर कृत महाकाव्य मूक माटी में प्रकृति-चित्रण : सुरेश सरल क्या एकल विहार का आगम में सर्वथा निषेध है
: पं. सुनील जैन 'शास्त्री' । महावीर के सिद्धान्त : सुशीला पाटनी
आत्मा और शरीर की भिन्नता : चिकित्सीय विज्ञान की साक्ष्य : डॉ. प्रेमचंद जैन
शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कँवरीलाल पाटनी (मे. आर.के.मार्बल्स लि.)
किशनगढ़ (राज.) श्री गणेश कुमार राणा, जयपुर
महासभाध्यक्ष जी के नाम
: मूलचंद लुहाड़िया
प्रकाशक
खुला पत्र सर्वोदय जैन विद्यापीठ
पशुपक्षी-बलि-प्रतिषेध 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी,
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साहित्य समीक्षा शिरोमणि संरक्षक 5,00,000 रु. जिज्ञासा-समाधान परम संरक्षक 51,000 रु.
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: डॉ. वन्दना जैन : डॉ. विमला जैन : पं. रतनलाल बैनाड़ा : मुनिश्री क्षमासागर जी
: डॉ. विमला जैन
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लेखक के विचारों से सम्पादक का सहमत होना आवश्यक नहीं है। जिनभाषित से सम्बन्धित समस्त विवादों के लिए न्याय क्षेत्र भोपाल ही मान्य होगा।
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आपके
'जिनभाषित' का सम्पादकीय मन को छू गया । भट्टारकों पर आपकी समीचीन दृष्टि अत्यन्त उपादेय है। सराहनीय है ।
भोपाल में १४, १५, १६, १७ एवं १८ मार्च २००४ को भगवान आदिनाथ कथा का आयोजन था। जिसमें आदिकुमार जी की बारात का भव्य जुलूस रात्रि में निकाला गया। यद्यपि यह जुलूस प्रातः निकालने का निश्चय किया गया था। न जाने क्यों समय परिवर्तन कर रात्रि में बारात का जुलूस निकाला गया। भोपाल में प्राय: 'दिन में शादी - दिन में भोज' की अहिंसक परम्परा का प्रचलन है। इसे ही जैनों को प्रश्रय देना चाहिए। बारात के रात्रि में निकालने वरमालादि का रात्रि में आयोजन के निषेध की व्यवस्था की इस उदाहरण कमर तोड़ दी है। जो नहीं होना चाहिए था वह हुआ । श्रीपाल जैन 'दिवा' एल-७५, हर्षवर्द्धन नगर, भोपाल
मैं 'जिनभाषित' पत्रिका का नियमित पाठक हूँ। 'जिनभाषित' पत्रिका जैन संस्कृति की उच्च कोटि की पत्रिका है, पत्रिका के नये अंक का परिवार के सभी सदस्यों को इंतजार रहता है।
भोपाल में मुनि श्री पुलक सागर जी महाराज का जैन समाज एवं अन्य समाज को उनके क्रांतिकारी प्रवचनों का लाभ मिल रहा है। सभी लोग प्रवचन के समय का बेसब्री से इंतजार करते हैं।
पत्र, धन्यवाद : सुझाव शिरोधार्य
भोपाल में प्रथम बार 'ऋषभ कथा' का स्वयं मुनिश्री के कर कमलों से वाचन हुआ एवं काफी तादाद में धर्म प्रेमी बन्धुओं ने ज्ञान अर्जित किया ।
परन्तु मुनिश्री के आदेशानुसार प्रथम तीर्थंकर ऋषभ देव भगवान की बारात निकाली गई जो शाम को ७ बजे प्रारम्भ होकर रात्रि ११ बजे स्थान पर पहुँची । जब रात्रि में
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महाराज स्वयं पैदल नहीं चलते तो क्या भगवान की बारात निकालना एक सुसज्जित रथ पर भगवान की मूर्ति को लेकर लगभग ४ घंटे तक बाजार के मुख्यमार्गों से गाजे-बाजे के साथ निकालना क्या उचित है ? मेरे मन में जो शंका है मैं आपसे मार्ग दर्शन चाहता हूँ। मेरे जैसे और भी लोग हैं जो इस पर सही या गलत को लेकर वाद-विवाद कर रहे हैं। आपका क्या सुझाव है, क्या विचार हैं। कृपया पत्रिका के माध्यम से अपने विचार देने का कष्ट करें।
दिनेश जैन स्टेशन क्षेत्र, भोपाल
हमें 'जिनभाषित' पत्रिका बराबर मिल रही है। आपके द्वारा सम्पादित जिनभाषित में अच्छे विचार व समाचार आते हैं।
अभी हाल में भोपाल में आयोजित 'ऋषभ कथा' कार्यक्रम के दौरान राजकुमार आदिकुमार की बारात रात्रि में निकाली गई। साथ में भगवान की प्रतिमा भी थी। हमारे मुनिमहाराज जहाँ रात्रि में बारात एवं विवाह का निषेध करते हैं, वहीं इस प्रकार की बारात का आयोजन कहाँ तक उचित है ? मार्ग दर्शन देने की कृपा करें।
शिखरचंद जैन शंकराचार्य नगर, भोपाल
'जिनभाषित' पत्रिका की सामग्री देखकर मन आनन्द विभोर हो उठा, कई नये क्षेत्रों की जानकारी होती है, मेरे कुछ सुझाव हैं:
1. जैन समाज में निषिद्ध खाद्य आदि पदार्थों के बारे में भी लेख प्रकाशित किये जावें। जैसे: चाँदी के वर्क, पेप्सी, कोकाकोला, लिपस्टिक, सेन्ट, जिलेटिन वाले पदार्थों की जानकरी एवं उनके हानिकारक प्रभाव ।
प्रेमचन्द्र जैन सेवानिवृत प्रधानाचार्य रामगंजमण्डी, जिला - कोटा, राजस्थान
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सम्पादकीय
नाटक का अनाट्यशास्त्रीय प्रयोग
8 फरवरी 2004 को आचार्य श्री पुष्पदन्त सागर जी के शिष्य मुनिश्री पुलकसागर जी का भोपाल में पहली बार पदार्पण हुआ। उनकी भव्य अगवानी की गई। यह स्वाभाविक भी था, क्योंकि बहुत पहले से ही उनके आगमन की सूचना देने के लिए भोपाल के मन्दिरों और सार्वजनिक स्थलों पर मुनिश्री के चित्रसहित रंगीन पोस्टर चिपका दिये गये थे, जिसमें उनकी भव्य अगवानी के कार्यक्रम की घोषणा की गयी थी। पोस्टर में मुनिश्री के नाम के साथ 'अलौकिक सन्त' और 'प्रखर वक्ता' की उपाधियाँ जुड़ी हुयी थीं। 'अलौकिक सन्त' का अर्थ बुद्धिगम्य नहीं हुआ, क्योंकि अलोक में कोई साधु नहीं रहता। सभी साधु लोक में ही रहते हैं। इसीलिए णमोकारमन्त्र में ' णमो लोए सव्वसाहूणं' कहा गया है। पोस्टर छपवानेवाले ने यह ध्यान नहीं रखा कि जब 'णमो लोए सव्वसाहूणं' कहा जायेगा तब अलौकिक (लोकसे बाहर का) साधु इस नमस्कार की सीमा में नहीं आ पायेगा । हाँ, लक्षणा से 'अलौकिक' शब्द का अर्थ 'मानवेतर शक्तियों अर्थात् दैवी या चमत्कारी शक्तियों से युक्त' होता है। शायद लोगों ने यही अर्थ समझा, जिससे उनके मन में मुनिश्री के दर्शन की इच्छा बलवती हो उठी। इसके अतिरिक्त पोस्टर में मुनिश्री का भोपालवासियों के नाम यह सन्देश भी छपा था कि 'मुझे भोपाल में आपसे कुछ कहना है।' लोगों ने सोचा : मुनिश्री इतनी दूर से अपने-आप हमसे कुछ कहने के लिए आ रहे हैं। इसके पूर्व किसी मुनि ने हमसे कुछ कहने की इच्छा प्रकट नहीं की । अवश्य ही इनके मन में हमारे प्रति तीव्र वात्सल्य भाव है। इस वात्सल्यभाव की अनुभूति ने श्रावकों के हृदय में मुनिश्री के प्रति आकर्षण द्विगुणित कर दिया। तथा उनके मन में यह भी आया कि मुनिजी भोपालवासियों से ऐसा 'कुछ' कहने आ रहे हैं, जो इसके पहले आये किसी मुनि ने नहीं कहा। इस भावना ने भी मुनिश्री के दर्शन की आकांक्षा को उत्कर्ष पर पहुँचा दिया ।
निस्सन्देह मुनिश्री की अगवानी के लिए भारी भीड़ जुटी। और उसके बाद तो उनके प्रवचनों में जनसैलाब उमड़ पड़ा। मुनिश्री की प्रवचनशैली ओजस्विनी है, जो श्रोताओं की हृदयतन्त्री को झंकृत किये बिना नहीं रहती । मुनिश्री ने भोपालवासियों से जो कुछ | कहा वह सचमुच अनोखा था। उन्होंने कहा, 'गतवर्ष आपके शहर में आचार्य श्री विद्यासागर जी आये थे, वे शांति के दूत हैं। इस वर्ष मैं आया हूँ, किन्तु मैं क्रान्तिदूत हूँ । आचार्य विद्यासागर जी ने युवकों को मुनि बनाया है, लेकिन मेरे गुरु ने बालकों को मुनि बनाया है।' मुनिश्री ने एक बड़ी साहसपूर्ण स्वीकारोक्ति की। उन्होंने कहा, "हममें केवल दस प्रतिशत शिथिलाचार है, शेष आचरण भगवान महावीर के समान है। " मैं आज तक यह नहीं समझ पाया कि अट्ठाईस मूल गुणों का कितना-कितना पालन न करने पर | दस प्रतिशत शिथिलाचार होता है ? क्या ऐसा है कि बिलकुल न नहाने पर 'अस्नान' मूलगुण का शत-प्रतिशत पालन होता है और थोड़ा सा नहा लेने पर दस प्रतिशत शिथिलाचार होता है ? कभी भी दन्तधावन न करने पर 'अदन्तधावन' मूलगुण का सौ फीसदी पालन होगा और कभी-कभी दन्तधावन कर लेने पर दस प्रतिशत शिथिलाचार होगा ? तो क्या कभी-कभी नहा लेने या दन्तधावन कर लेनेवाला मुनि 'मुनि' कहला सकता है ? क्या कोई स्त्री नब्बे प्रतिशत व्यभिचार न करे और दस प्रतिशत करे, तो वह सती कहला सकती है ? नहीं, इसलिए मैं तो उक्त मुनिश्री में एक प्रतिशत भी शिथिलाचार नहीं मानता।
मुनिश्री ने भोपाल से एक नए धार्मिक उत्सव की शुरुआत की है। वह है हिन्दुओं में रामकथा, भागवतकथा आदि के वाचन के समान दिगम्बर जैन परम्परा में ऋषभकथा का वाचन । किन्तु हिन्दुओं में कथावाचन का कार्य साधुसन्त नहीं, पण्डित महाराज करते हैं। साधुसन्त तो ब्रह्म, जीव, माया, प्रकृति और पुरुष जैसे गूढ़ दार्शनिक सिद्धान्तों का विवेचन करते हैं। जैनपरम्परा में साधुसन्त तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि रत्नकरण्ड श्रावकाचार, समयसार, इष्टोपदेश जैसे तात्त्विक एवं आध्यात्मिक ग्रन्थों का अर्थ समझाते हैं। पद्मपुराण, महापुराण जैसे कथाग्रन्थों का वाचन तो रात्रि में पण्डितों द्वारा मन्दिरों में प्रतिदिन किया जाता है और मुनिजन भी अपने प्रवचनों में यथाप्रसंग इन कथाओं का वर्णन अपनी शैली में करते ही हैं। फिर यह मुनियों के द्वारा पृथक् से कथावाचन जैसा जैनेतर प्रयोग मुनिधर्म के कहाँ तक अनुकूल है, यह विचारणीय है।
भोपाल में जो ऋषभकथा का वाचन हुआ है, वह केवल कथावाचन नहीं था, अपितु कथावाचन और नाटक का मिश्रित रूप था। नाटक भी पूरी तरह रंगमंचीय नहीं था, आधा सड़कीय था, आधा रंगमंचीय महाराज नाभिराय के राजमहल जाकर भेंट अर्पित करना तथा उन्हें जुलूस में अयोध्यापुरी लाना तथा एकदिन के बाद श्री आदिकुमार की बारात निकालना और नगरभ्रमण करते हुए उनकी ससुराल जाना, इन दो घटनाओं का नाटक भोपाल नगर की सड़कों पर किया गया तथा आदिकुमार का जन्म, बालक्रीडाएँ, वैराग्य एवं भरत- बाहुबली के युद्ध का अभिनय रवीन्द्र भवन के खुले मंच पर दिखलाया गया।
सड़क-नाटक में जैन-जैनेतरों में एक गलत सन्देश पहुँचानेवाला अनाट्यशास्त्रीय प्रयोग हो गया। श्री आदिकुमार की बारात रात्रि में 8:30 बजे जैन धर्मशाला चौक से निकाली गई और बारात का विशाल जुलूस विद्युत ट्यूबों की जगमगाती रोशनी में फिल्मी धुनों पर फिल्मी नृत्य करता हुआ अनेक मुहल्लों में से होता हुआ तीन घंटे में रात 11:30 बजे प्रोफेसर कॉलोनी पहुँचा और वहाँ उतनी
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रात में ही आदिकुमार की वैवाहिक क्रियाएँ सम्पन्न की गयीं।
लगभग तीन वर्ष पूर्व भोपाल में पूज्य मुनिद्वय समतासागर जी एवं प्रमाणसागर जी का चातुर्मास हुआ था। उसमें मुनिद्वय ने अपने प्रभावशाली मार्मिक उपदेशों से श्रावकों को रात्रिकालीन विवाह एवं भोज आदि की कुप्रथाओं को समाप्त करने की प्रेरणा दी थी। भोपाल के समस्त श्रावकों ने उनके उपदेश से प्रभावित होकर रात्रि में विवाह और भोजन करने तथा किसी भी रात्रिकालीन विवाह और भोज में शामिल न होने की प्रतिज्ञा की थी। तब से सागर, जबलपुर आदि नगरों के समान भोपाल में भी दिन को ही बारात, विवाह एवं भोज की क्रियाएँ सम्पन्न होती हैं । अतः आदिकुमार की बारात-यात्रा और विवाहविधि का नाटक रात्रि में किये जाने से अनेक श्रावकों को क्षोभ हुआ है। उनका कथन है कि आदिकुमार की बारात रात्रि में निकालकर और विवाहविधि रात्रि में सम्पन्न करके जैनेतर लोगों में यह सन्देश पहुँचाया गया है कि जैनतीर्थंकरों के विवाह रात्रि में हुए थे। तथा जैनों की नई पीढ़ी के सामने भी अनुचित दृष्टान्त रखा गया है। अनेक श्रावकों ने मुझसे फोन पर अपना क्षोभ प्रकट किया है। कई श्रावकों ने व्यक्तिगत वार्तालाप में तथा कुछ ने सम्पादक के नाम पत्र लिखकर अपने मन की पीड़ा व्यक्त की है। तीन पत्र मैं 'जिनभाषित' में 'आपके पत्र' स्तम्भ में प्रकाशित कर रहा हूँ।
पोस्टर में तो वरयात्रा का समय प्रात: 6:30 ही छपा था, फिर वह रात्रि को क्यों निकाली गई, इसकी जानकारी पाने के लिए जब मैंने कार्यक्रम के आयोजकों से बात की, तो उन्होंने बतलाया कि "प्रातःकाल के लिए लड़के और स्त्रियाँ तैयार नहीं थी, क्योंकि लड़कों की परीक्षाएँ चल रही थी और स्त्रियाँ उस समय स्नान-पूजन और भोजनादि कार्यों में संलग्न रहती। इसलिए महाराज जी ने शाम की अनुमति दे दी।" मैंने पूछा कि लड़कों और स्त्रियों के कहने से मुनिश्री के द्वारा एक धर्मविरुद्ध कार्य की अनुमति कैसे दी जा सकती है? तब उन्होंने उत्तर दिया कि "महाराज जी का कहना था कि यह तो नाटक है, यथार्थ नहीं। इसलिए रात्रि में बारात निकालने में कोई हर्ज नहीं है।"
किन्तु बारात निकालने का नाटक रात में सड़कों पर करने से दर्शकों को यह समझने का कोई संकेत नहीं मिलता कि जिसकी बारात रात में निकालने का यह नाटक किया जा रहा है, उसकी बारात वास्तव में दिन में निकली थी। इस कारण बारात को रात में निकलते हुए देखकर उनका यह समझ लेना स्वाभाविक है कि बारात वास्तव में रात को ही निकली होगी। और उन्हें दीर्घकाल से बारातों का रात में निकलते हुए देखने का अभ्यास भी है। अत: सड़क-नाटक में दिन में घटित घटना का दिन में ही घटित होने का अनुभव कराने के लिए उसका दिन में ही नाटक किया जाना चाहिए। यदि सड़क-नाटक तीन घंटे का नहीं है, अपितु तीन दिन या अधिक दिन का है, तो उसमें दिन की घटना दिन में और रात की घटना रात में दिखलाने की बहुत सुविधा होती है। ऐसा करने से दर्शकों को यह अपने-आप समझ में आ जायेगा कि कौनसी घटना वास्तव में किस समय घटी थी।
वस्तुतः ऐतिहासिक नाटक में पात्र जरूर नकली होते हैं, किन्तु घटनाएँ और घटनाओं के देश और काल तो वास्तविक ही प्रदर्शित किये जाते हैं । अत: रंगमंच पर ऐसे दृश्य उपस्थित किये जाते हैं, जिनसे घटनाएँ जिस देश और काल में घटित हुई थीं, उसी देश और काल में घटित प्रतीत हों। किसी घटना का रात्रि में घटित होना दिखलाना हो, तो मंच पर किंचित् अँधेरा कर दिया जाता है। इसीप्रकार रात्रि में खेले जाने वाले नाटक में किसी घटना का दिन में घटित होना दर्शाना हो, तो नेपथ्य में सूत्रधार के द्वारा यह आकाशवाणी करायी जाती है कि "इस समय पूर्वाह्न, मध्याह्न या अपराह्न है और अमुक-अमुक पात्र इस समय अमुक-अमुक कार्य करने जा रहा है।" किन्तु यह नाट्यशास्त्रीय प्रयोग रंगमंचीय नाटक में ही किया जा सकता है, सड़कीय नाटक में नहीं। यदि कहा जाय कि रात्रिकालीन सड़क-नाटक में ऐसी घोषणा 'माईक' से की जा सकती है, तो सड़क-नाटक में ऐसा करना अस्वाभाविक हास्यास्पद एवं अनाट्यशास्त्रीय होगा, क्योंकि सड़क-नाटक में किसी घटना का दिन में घटित होने का बोध उसे दिन में प्रदर्शित करके स्वाभाविक रूप से कराया जा सकता है और रात्रि में प्रदर्शित करने से जो असंख्य जीवों की हिंसा हो सकती है, उसका परिहार किया जा सकता है। किन्तु उक्त सड़क-नाटक में माईक से वैसी घोषणा भी नहीं की गयी।
इस प्रकार आदिकुमार की जो बारात यथार्थतः दिन में निकली थी, उसे सड़क-नाटक में रात में निकालने की अनुमति देना नाट्य-निर्देशन सम्बन्धी भयंकर भूल है। इससे जैन-जैनेतरों में यह गलत सन्देश गया है कि जैनतीर्थंकरों के विवाह रात्रि में हुए थे अतः श्रावकों के विवाह यदि रात्रि में होते हैं, तो धर्मसम्मत ही हैं। इसके अतिरिक्त श्री आदिकुमार की बारात का नाटक करनेवाले एक विशाल जुलूस का रात्रि में सड़कों पर नाचते-गाते हुए तीन किलोमीटर की यात्रा करने से विद्युत ट्यूबों की ओर खिंचकर आये हुए कितने जीवों की हिंसा हुई होगी, कितने जीव पैरों के तले कुचले गये होंगे, यह कल्पना कर हृदय काँप जाता है। तथा आदिकुमार के बारातियों का रास्ते में पेप्सी, कोकाकोला, जैसे बाजारू शीतल पेय पीने से आदिकुमार को कितना लज्जित होना पड़ा होगा, यह सोचकर आत्मा रोने लगती है। समाज के अग्रणियों से प्रार्थना है कि वे शान्तमन से विचार करें कि क्या ऐसे कार्य वास्तव में धर्म की प्रभावना करते हैं या इससे उलटा करते हैं?
रतनचन्द्र जैन
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श्री दि. जैन अतिशय क्षेत्र रामटेक का इतिहास
रामटेक क्षेत्र को प्रसिद्धि कैसे हुई
अनेकों उपचारों से भी अच्छी नहीं हुई। इस अवसर पर दयालु अब से लगभग ४०० वर्ष पूर्व नागपुर जिले में भोसले | सेवाभावी मंत्री ने निवेदन किया राजन आपने धर्मकार्य मंदिर वंश का राज्य था। राजा विष्णुमत का पालने वाला था एक दिन | निर्माण रुकवा दिया इसका प्रत्यक्ष फल आपको मिला है। आप राजा मन्त्रियों एवं सैनिकों के साथ राममंदिर के दर्शनार्थ गया। | मंदिर निर्माण कार्य पुनः आरम्भ करा दीजिए। उसके पुण्य से रानी दर्शन के पश्चात राजा भोजन करने हेतु बैठे। राजा व्यवहार कुशल | का असाता कर्म नष्ट होकर रानी अच्छी हो जावेंगी। मंदिर निर्माण थे। उन्होंने मंत्रीजी से कहा कि आप भी भोजन कर लें। मंत्री मौन | आरंभ की आज्ञा होते ही रानी का स्वास्थ्य सुधर गया। रहा किन्तु राजाज्ञा टलने के भयसे मनमें भयभीत रहा। इसी बीच एक बार भगवान की एक छोटी प्रतिमा वेदी से गुम हो राजा ने पुन: मंत्री से वही बात कही। मंत्री ने मनमें विचार किया | गई। पुजारी के द्वारा भगवान से प्रार्थना करने पर यह दो दिन बाद कि राजा से धर्मगुरु बड़े हैं अतः धर्मगुरु का दिया हुआ व्रत दृढ़ता | अपने आप दूसरी वेदी में प्राप्त हुई। से पालन करना चाहिए। मंत्री ने राजा से निवेदन किया। 'मेरे एक बार मध्यान्ह काल में शेर आया तथा भगवान के पितातुल्य राजन् । मुझे यह प्रतिज्ञा है कि वीतराग प्रभु के दर्शन के | दर्शन किए। पश्चात् गायब हो गया। ऐसा कहते हैं कि वह शेर बिना मैं आहार तो क्या जल भी ग्रहण नहीं करता। जैन की यह | नहीं यक्षपाल देव था। यह दृष्य मुनिश्री ऋषभसागरजी ने स्वयं पहचान है कि वह अष्टमूलगूणों का पालन करे। प्रथम मांस, | देखा। द्वितीय मधु, तृतीय मदिरा, चतुर्थ रात्रि भोजन त्याग, पंचम संकल्पी इसी तरह अनेकों चमत्कार हुए हैं तथा गुप्त फल मिलते हिंसादी पांचपापों का त्याग, षष्ट पानी छानकर पीवे, सप्तम | रहते हैं। वीतराग भगवान के दर्शन करे, अष्टम पंचउदुम्बर फलों का त्याग, इसी तरह एक चमत्कार कथा यह भी सुनी जाती है कि इन सब दोषों का त्याग तथा वीतराग प्रभु का दर्शन यही जैन के | राजमंत्री को भगवान के दर्शन न मिलने से चार उपवास हो गए लक्षण हैं। मंत्री की बात सुनकर राजा प्रसन्न हुआ तथा मंत्री से | तथा मंत्री दृढ़ता के साथ प्रतिज्ञा निभाता रहा। एक दिन सोते समय कहा कि आप शीघ्र ही हाथी पर बैठकर कामठी में सुन्दर विशाल | मंत्री ने स्वप्न में देखा कि ऐसी वाणी सुनाई पड़ रही है 'हे मंत्री, जैन मंदिर है सो जावें तथा वहाँ भव्य शांत मुद्रासन प्रतिमाओं का | तुम भूखे क्यों रह रहे हो, इसी जंगल में भगवान शान्तिनाथ की दर्शनकर प्रतिज्ञा पूर्ण करें।'
प्रतिमा है, उसे खोजलो।' मंत्री ने जागने के उपरान्त स्वप्न वाणी यह सुनकर मंत्री ने कहा कि २० वे तीर्थंकर श्री | के अनुरुप वन में खोज कराई तो प्रतिमा मिली। मंत्री ने जिनदर्शन मुनिसुव्रतनाथ के समय में भगवान राम, सीता एवं लक्ष्मणजी इस | कर चार उपवास का पारणा किया। प्रतिज्ञा में दृढ़ रहने का यह क्षेत्र में आये एवं ठहरे थे अत: यहाँ कहीं न कहीं जिनमंदिर | प्रत्यक्ष फल देखिये। अवश्य ही होना चाहिए। तुरन्त ही राजाज्ञा से सैनिकों ने जंगल | इसी भाँति अनेकों चमत्कार होते रहते हैं आप भी भक्ति छान मारा वहीं एक ग्वाले से ज्ञात हुआ कि इसी जंगल में एक | करके अपनी बाधाएँ दूर कर सकते हैं। वृक्ष के नीचे एक मूर्ति विराजमान है। वहाँ जाने पर ज्ञात हुआ की यहाँ यह शंका उपस्थित हो सकती है कि चमत्कार तो विशाल मुद्रा शान्तिनाथ भगवान की १५ फुट ऊँची प्रतिमा विराजमान | राग का कार्य है एवं भगवान वीतरागी हैं अतः भगवान चमत्कार थी। भगवान के दर्शन कर मंत्री ने भोजन ग्रहण किया। बाद में | कैसे कर सकते हैं। इसका समाधान यह है कि भगवान तो राजाज्ञा से शान्तिनाथ मंदिर एवं निकटस्थ पहाड़ी पर राममंदिर का | वीतरागी हैं। वे पर द्रव्य का अच्छा बुरा न करते न कर सकते निर्माण कार्य आरम्भ हुआ।
लेकिन उनकी शांत मुद्रा युक्त प्रतिमा हमारे परिणामों को निर्मल अतिशय क्षेत्र में हुए चमत्कारों की कथा -
करने का वाहय साधन है हमारा भला बुरा हमारे पुण्य पाप कर्मों एक बार मंत्री जैन मंदिर निर्माण करा रहा था उस समय | के अधीन है। कभी-कभी भगवान भी भक्त की मनोकामना पूर्ण किसी अन्य मंत्री ने ईर्ष्यावश राजा से शिकायत कर दी कि यह | करने एवं धर्म प्रभावना करने हेतु धर्मानुरागी शासन देवी देवता भी मंत्री जैन होने के कारण राज खजाने से जैन मंदिर बनवा रहा है | चमत्कार दिखाते हैं । अतः यह सिद्ध हुआ कि भगवान स्वयं कुछ तथा दूसरा अन्य मंदिर ठीक से नहीं बन रहा है। राजा ने बिना | नहीं करते। विचारे ही जैन मंदिर का कार्य रुकवाने का आदेश दे दिया। आज्ञा | क्षेत्र स्थिति दर्शन होते ही आत्म कल्याण का साधन जिनमंदिर का कार्य रुकवा | इस क्षेत्र पर प्रथम तो एक विशाल सुन्दर दरवाजा है मानो दिया गया। दूसरे ही दिन से रानी भयंकर बीमार हो गई तथा । इसमें सुख शांति के मंदिर का प्रवेश द्वार ही हो। विशाल मंदिरों
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को परकोटे से घेरा हुआ है। जिस तरह व्रत, त्याग, तपस्या रूपी । वे एक दिन शयनागार में दर्पण में अपना मुख देख रहे थे परकोटा आत्मा की दुखों से, कर्मों से रक्षा करता है उसी प्रकार इन कि उन्हें दर्पण में अपने दो प्रतिबिम्ब दिखाई दिए। इतना ही निमित्त सुन्दर मंदिरों की वह परकोटा रक्षा करता है। परकोटे के बाहर उनके वैराग्य का कारण बन गया तथा वे संसार, शरीर भोगों से सुन्दर पहाडियाँ एवं वन है। वन की शुद्ध वायु एवं जड़ी बूटी | विरक्त हो गए। तीनों पदों के वैभव को त्यागकर दीक्षा ग्रहण की एवं आदि औषधियों से जिस तरह रोगशांति होती है उसी तरह भगवान । | घोर तपस्या करके अपने कर्मों का नाश कर भगवान बने। शांतिनाथ के दर्शन करने से आत्मा के राग रूपी रोग शान्त होते हैं। | भगवान शान्तिनाथ द्वारा त्यक्त वैभव क्षेत्र से निकट ही एक किलो मीटर दूरी पर रामटेक नगर स्थित है। । चौदह रत्न, नव निधियाँ, बत्तीस हजार देश, बत्तीस हजार क्षेत्र व्यवस्था :
मुकुटबद्ध राजा, छब्बीस हजार पुर, चौरासी लाख हाथी, चौरासी यहाँ यात्रियों के लिए सुन्दर व्यवस्था है। यहाँ यात्रियों के | लाख रथ, अठारह करोड़ घोड़े, चौरासी करोड़ पदधारी, छियानवें ठहरने के लिये कमरों वाली धर्मशाला है। यहाँ के कार्यकर्ता एवं | हजार रानियाँ, छह खण्ड का राज्य, चौरासी खण्ड का महल, मुनीम आदि धर्मानुकूल अच्छी व्यवस्था कर देते हैं।
चक्र, अनेक चेतन, अचेतन मिश्र सम्पत्तियों का जीर्ण तृण वत् रामटेक क्षेत्र जाने पर करने योग्य कार्य
त्याग किया। जिस तरह धन कमाने हेतु विदेश जाया जाता है उसी अरे भव्यो। विचार करो। शान्तिनाथ जी के पास इतनी भाँति सच्चे अविनाशी सुख हेतु, सम्यग्दर्शन हेतु, शांति हेतु, पुण्य | सम्पदा थी, वह उन्होंने छोड़ दी। आपके पास उस तुलना में कुछ हेतु इस लोक एवं परलोक सुख हेतु वहाँ जाकर भगवान की पूजा, | भी नहीं। फिर भी आप इसमें चिपके पड़े हैं। आपके पास आशा भक्ति करना चाहिए। यदि अपनी शक्ति हो तो खूब दान देना | रुपी सम्पत्ति भरपूर है। इसलिए आप त्याग नहीं पाते। अरे भैय्या। चाहिए ताकि क्षेत्र की विकास योजनाएँ पूर्ण हो सकें। धर्म स्थान कहा भी हैजितने सुन्दर होंगे, भक्तों का मन उतना ही आकर्षित होगा, प्रसन्न
धन भोगन कीखान है,तन रोगन कीखान। होगा, विशेष पुण्य बंध होगा सम्यग्दर्शन होगा। आगे चलकर
ज्ञान सुख की खान है, दुख खानी अज्ञान॥ आत्मा भगवान बनेगा एवं अविनाशी सुख को प्राप्त करेगा। अत:
आप धन के लिए कितना अनर्थ करते हैं। परिवार, भाई वहाँ खूब दान दीजिए तथा वहाँ की योजनाओं को पूर्ण कीजिए। बहिन, माता-पिता, गुरु सम्बंधी किसी को नहीं देखते और मरने शान्तिनाथ भगवान कैसे बने
मारने के लिए तैयार हो जाते हैं। जबकि धन का एक कण भी ऐरावत् क्षेत्र में तिलक नामक नगर था। वहाँ का राजा | तुम्हारे साथ जानेवाला नहीं है। आजकल धन के पीछे मानव मेघरथ था जो कि न्यायवान एवं धर्मात्मा था कहा जाता है- भिखारी हो गया है। लज्जा, शर्म सब छोड़कर मनमानी दहेज की
बीज राख फल भोगवे, ज्यों किसान जगमाहि। भीख मांगता है। भैय्या, भीख मांगनेवाला कौन होता है, भिखारी। त्योंचक्री नृपराज करे, धर्म विसारेनाहि॥
सोचें आप कौन हैं? इस देहज प्रथा से तो हमारी अनेकों बहन, . इसी कथन के अनुरुप वह राजा संसार भीरु था, पाप से | बेटियों ने धर्म, समाज, प्राणों को छोड़ दिया इस पाप के भागी डरता था एवं दान पूजादि धर्मकार्य किया करता था। एक दिन वह | वही हैं जो दहेज के भूखे हैं। इस पाप से नरकों में बुरी तरह हवा तीर्थंकर की वाणी सुनकर संसार, शरीर, भोगों से विरक्त हो गया | खानी पडेगी। अत: हे भव्यो ! सावधान हो जाओ। तथा अपने पुत्र को राज्य देकर दीक्षा ग्रहण कर ली। समस्त | उद्बोधन इच्छाओं का त्याग किया। इच्छानिरोधस्तपः इस सूत्र के अनुरुप | हे भव्य जीवो! यह भारत भूमि सदियों से पवित्र, उत्तम घोर तपस्या करने लगा। ध्यान, तपादि के द्वारा परम शत्रु मिथ्यात्व, | तीर्थ है। इसमें २४ तीर्थंकर, राम आदि बलदेव, भरत आदि दर्शन मोह का नाश किया, चारित्र मोह की शक्ति मन्द की तथा | चक्रवर्ती, हनुमान आदि कामदेव, सीता आदि सतियाँ, कृण्ण आदि सोलह कारण भावनाओं का चिन्तवन करने लगा फलतः तीन | नारायण ऐसे अनेकों महापुरुष पैदा हुए। महान ऋपि, तपस्वी लोक का उत्कृष्ट पुण्य तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध किया। मनुष्य भव | आत्माएँ पैदा हुईं। इस भारत में अनेकों सिद्ध क्षेत्र, अतिशय क्षेत्र का सार रुप समाधिमरण करके शिवपुर (मोक्ष) के मार्ग में | इसीलिए यह देश महान है। आज भी इस देश में अनेक महर्षि रेस्टहाउस स्वरूप स्वर्ग को प्राप्त हुए। वहाँ के इन्द्रिय सुख | मुनि विराजमान हैं। इनसे भारत शोभनीय है। जब तक ये विभूतियाँ उदासीनता से भोगकर आयु पूर्ण होने पर वहाँ से च्युत होकर | भारत में रहेंगी तब तक मोक्षमार्ग चालू रहेगा। हे भव्यो ! इस हस्तिनापुर में राजा अजितसेन की प्रियदर्शना रानी के गर्भ में आए | पंचम काल में तो धर्म एवं धर्मानुयायी हैं, उनके निमित्त से अपना तथा एक साथ ही तीर्थंकर, कामदेव एवं चक्रवर्ती पदवी के धारक कल्याण कर लो। भव से भवान्तर जाने के लिए मार्ग का पथ्य पुत्र हुए। उनकी सेवा, पूजा, भक्ति इन्द्र, देव देवियाँ सभी करते रुप, मोक्ष की साधनभूत मनुष्य पर्याय पाने हेतु पुण्य उपार्जन कर थे। आनंद से जीवन व्यतीत करते हुए धीरे-धीरे वृद्धि को प्राप्त | लो। अगर यहाँ चूक गए तो छटवाँ काल भयंकर आने वाला है। हुए। एवं राजगद्दी के स्वामी बने । वे न्याय नीति से राज्य करते थे।। जिसमें पाप ही पाप रहेगा। दुख ही दुख रहेगा। न खाने को अन्न 6 मार्च 2004 जिनभाषित
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होगा न पीने को जल । न पहनने को कपड़ा होगा न रहने को मकान। धर्म कर्म कुछ भी नहीं होगा। देव शास्त्र गुरु का भी साधन नहीं मिलेगा। नरक से प्राणी आएगा, नरक जाएगा। इसलिए हे भव्यो ! पांचवे काल से बचने के लिए दान, पूजा, भक्ति, त्याग, तप आदि यथाशक्ति करते रहो। यही हमारा आशीर्वाद है। आचार्य श्री के ऐतिहासिक दो चातुर्मास
अनेक अतिशय समेटे भगवान शांतिनाथ की मनोहारी मूर्ति और पर्वतीय प्रदेशों से युक्त रामटेक अतिशय क्षेत्र और अधिक महान अतिशय क्षेत्र के रूप में तब धन्य हो उठा जब १९९३ और दूसरी बार पुनः १९९४ में प. पू. संत शिरोमणि दिगम्बराचार्य श्री १०८ विद्यासागरजी महाराज के पावन वर्षायोग (चातुर्मास) हुए। रामटेक ही क्यों पूरा महाराष्ट्र धन्य हो गया। कण-कण में आज भी मंगल प्रवचनों की दिव्य ध्वनि गुंजायमान हो रही है। आचार्यश्री एवं मुनिसंघ के आशीर्वाद तथा सान्निध्य में भगवान शांतिनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार, लेपन कार्य की पूर्णता, महामस्तकाभिषेक एवं रामटेक क्षेत्र का चतुर्मुखी विकास हुआ। हजारों यात्रियों के ठहरने की सुविधा अब इस क्षेत्र में उपलब्ध है। एक वृहत् प्रवचन हाल परिसर में स्थायी रुप लिए है जिसमें हजारों भक्त प्रवचन श्रवण कर सकते हैं।
आचार्य श्री का मंगल आशीर्वाद एवं भूमिपूजन
चातुर्मास काल में एक परम ऐतिहासिक मांगलिक धर्म ध्वजाविस्तारक प्रस्ताव आचार्यश्री के समक्ष अनेकानेक दिगम्बर जैन धर्मप्रेमी बन्धुओं ने निवेदन किया कि इस रामटेक अतिशय क्षेत्र को चिरस्थायी गरिमा एवं धर्म प्रभावक मांगलिक तीर्थ संज्ञा प्रदान करने हेतु वर्तमान चौबीसी एवं पंचबालयति जिनालय का निर्माण आपके आशीर्वाद से हो जो विलक्षण एवं अनोखा हो ।
प्रकाशन स्थान प्रकाशन अवधि
मुद्रक-प्रकाशक
राष्ट्रीयता
पता
सम्पादक
पता
स्वामित्व
'जिनभाषित' के सम्बन्ध में तथ्यविषयक घोषणा
1/205, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.)
मासिक
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अनेक आर्किटेक्ट, इंजीनियर, वास्तुकला पारखी कलाकारों से परामर्श के पश्चात् आचार्यश्री ने अद्वितीय धातुनिर्मित खडगासन चौबीसी एवं पंचबालयति के भव्य पाषाण जिन मंदिर के नवनिर्माण हेतु शुभाशीर्वाद प्रदान किया और शीघ्र ही जिनालय का भूमिपूजन विधान कार्य श्रीमान सेठ मौजीलाल हरप्रसादजी जैन नागपुरवालों
शुभहस्ते सम्पन्न हुआ । यह भी निर्धारित हुआ कि इस धार्मिक कलात्मक वास्तुकृति में ईंट-लोहा और सीमेन्ट का उपयोग नहीं होगा । पाषाण और चूना ही इसमें प्रयुक्त होगा।
जैन सिद्धान्त, जैन दर्शन, जैन पुरातत्व, जैन कलाकृति, जैन संस्कृति तथा जैन वास्तुभूमि का आकलन ऐसे अनुपम धर्म प्रभावक जिनबिम्बों से ही होता है। युग-युग तक इतिहास इन कलाकृतियों के माध्यम से जैनाचार्यों, जैन धर्म, जैन सन्तों तथा जैन प्राचीनतम इतिहास को विज्ञापित करता है। निःसन्देह ऐसी अद्वितीय वास्तुकृति कालान्तर में कृत्रिम जिनमंदिर (चैत्यभूमि ) की उपमा से विभूषित होती है। यह अद्वितीय पाषाण कृति जिनालय रामटेक जैसे अतिशय क्षेत्र महान, महानतर, महानतम अतिशय से युक्त सम्यकदर्शन का कारण बने । १००८ भगवान शांतिनाथ के सान्निध्य में निर्मित विश्व की अद्वितीय, अद्भुत, अनुपम यह चौबीसी एवं पंचबालयति जिन मंदिर चैत्य वास्तुकला की दृष्टि से श्रेष्ठ कलाकृति सिद्ध ऐसा अथक प्रयास किया जा रहा है। इस मनोहारी विश्व की अद्वितीय पुण्यवर्धक पाषाण कलाकृति को भारत चिरकाल तक, शताब्दियों तक स्मरण रखेइसमें आप सबका मुक्तहस्त से सहयोग अति आवश्यक है। जैन शास्त्रों में भी वर्णन कि प्रत्येक श्रावक को अपनी आय का दसवाँ भाग दान में अवश्य ही देना चाहिए ताकि कर्मों की निर्जरा होती रहे।
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रतनलाल बैनाड़ा भारतीय
1/205, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) प्रो. रतनचन्द्र जैन
ए/2, मानसरोवर, शाहपुरा, भोपाल- 462039 (म.प्र.) सर्वोदय जैन विद्यापीठ, 1/205, प्रोफेसर्स कालोनी,
आगरा- 282002 ( उ. प्र. )
मैं, रतनलाल बैनाड़ा एतद् द्वारा घोषित करता हूँ कि मेरी अधिकतम जानकारी एवं विश्वास के अनुसार उपर्युक्त विवरण
सत्य है।
रतनलाल बैनाड़ा, प्रकाशक
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महाकवि आचार्य विद्यासागर कृत महाकाव्य
मूक माटी में प्रकृति -चित्रण
श्री सुरेश सरल प्रकृति का अवलोकन करने के उपरान्त उसका चित्रण | माध्यम से सामने लाते हैं- लज्जा के बूंघट में/डूबती सी करना एक बात है और कल्पना क्षेत्र में रचे गये प्राकृतिक-दृश्य | कुमुदनी/प्रभाकर के कर-छुवन से/बचना चाहती है वह अपनी का वर्णन करना पृथक बात है। आचार्य विद्यासागर जी ने मूकमाटी | पराग को/सराग मुद्रा को/पांखुरियों की ओट देती है। (पृष्ठ दो) महाकाव्य के अनेक स्थलों पर प्रकृति के काल्पनिक दृश्य निर्मित 'यहाँ लज्जा का चूंघट' पंक्ति पाठक को गुदगुदी पैदा किये हैं. कई स्थानों पर दृश्य केवल वे ही देख रहे हैं- ऐसा ज्ञात | करती है, फिर 'डूबती सी कुमुदनी' पाठक के समीप ही वह होता है। वे ही उसके रचियता और वे ही उसके दृष्टा । मगर दृश्यों | (नायिका) है, का आभाष कराती है। प्रभाकर के कर छुवन से' का चित्रण करते समय वे दृष्टा के रूप में पहले, पाठकों की नजर | सूर्य की किरणों के द्वारा स्पर्श किया जाना दूर की बात लगती है, में आ जाते हैं।
पाठक ही हाथ से स्पर्श कर रहा लगता है। अंतिम पंक्ति 'पंखुरियों . चूँकि सम्पूर्ण महाकाव्य के पार्श्व में जैन सिद्धान्त है और की ओट देती है जैसे किसी सुंदर सलोनी युवती ने दोनों हथेलियों उन्हें कहीं, तनिक भी शिथिल/क्षीण नहीं होने दिया गया है, अतः | से अपना मुख चंद्र छुपाने का सुकोमल प्रयास किया हो। स्वभाविक है कि प्रकृति चित्रण करते हुए भी रचनाकार ने यह । यों सम्पूर्ण काव्य (जो ४८८ पृष्ठों में है) में आचार्य श्री ने ध्यान रखा हो कि भले ही चित्रण लघु रहे, पर उसकी उपस्थिति स्थल व्यवस्था और परिवेश - प्रस्थान को ध्यान में रख कर, मात्र से सिद्धान्तों के साथ खिलवाड़ न हो।
अठारह जगहों पर प्रकृति चित्रण आवश्यक समझा है, जिसमें उनका महाकाव्य प्रकृति - चित्रण से प्रारंभ किया गया है | उनका कवि अँगारिक दृष्टि धारण कर कुछ देखता चलता है। जहाँ, प्रथम खण्ड की पहली पंक्ति ही पाठक को प्रकृति की ओर | इसे और स्पष्ट करूं कि कई दृश्य महाकवि खुद तो देखते ले जाती है- 'सीमातीत शून्य में/नीलिमा बिछाई/और | हैं, किन्तु पाठकों को नहीं देखने देते, बल्कि उन (दृश्यों) के इधर...नीचे/निरी नीरवता छाई।'
आनन्द का खुलासा पाठकों से शब्दों के माध्यम से कर, आगे बढ़ 'नीचे' से अर्थ है धरती पर। वहां, ऊपर, गगन में चारों जाते हैं। जैसा कि उनने ऊपर कहा है- 'पांखुरियों की ओट'। और नीलिमा है और इधर धरती पर शांति। विचित्र चित्रण है- रंग महाकाव्य के प्रारंभिक - अंश में ही ये पंक्तियाँ 'न का प्रति - उत्तर रंग से होना चाहिए था, यथा ऊपर नीलिमा है तो | निशाकर है, न निशा/न दिवाकर है, न दिवा' दिन और रात के नीचे कोई दूसरा रंग कालिमा, हरीतिमा आदि, पर वे कथन ऐसा | मध्य आने वाले एक ऐसे संधिकाल की भनक देती हैं जिसे नहीं संवारते, वे नीलिमा के समक्ष 'शांति' की बात कहते हैं जो | केवल रचनाकार ने देखा-जाना है, और उसी के कथानानुसार 'प्रकृति चित्रण में वैचित्र्य' का दुर्लभ उदाहरण है(पृष्ठ एक) | पाठक एक चित्र आंखों में बनाने का संदर प्रयास कर लेने में
वे बाद की पंक्तियों में, पूरे दृश्य को माता का मार्दव | उत्संग (गोद) में बदल देते हैं, जब लिखते हैं- भानु की निद्रा कवि कल्पनाशीलता का प्रथम संस्थापक पुरुष होता है, टूट तो गई है। परन्तु अभी वह/लेटा है/माँ की मार्दव गोद में/मुख | वह ही हैं हमारे आचार्यश्री। वे धरती माता के चेहरे का वर्णन कर पर अंचल लेकर/करवटें ले रहा है। (पृष्ठ एक) यह विशाल दृश्य नये कीर्तिमान स्थापित कर देते हैं, जब कहते हैं - 'जिसके/सलदेखने वाला कवि अपने लेखन में अनेक विशालताओं को लेकर | छलों से शून्य/विशालभाल पर/गुरु गम्भीरता का/उत्कर्षण हो रहा काव्य यात्रा पर पाया गया है।
है। जिसके। दोनों गालों पर/गुलाब की आभा ले/हर्ष के संवर्धन रचनाकार ने पूर्व-दिशा में सुबह-सुबह जो लालिमा देखी | से/दृग-बिन्दुओं का अविरल/वर्षण हो रहा है।' (पृष्ठ ६) है, उसका वर्णन भर नहीं करते, बल्कि कुछ समय के लिये वे यह प्यारा दृश्य भी पाठक सीधा-सीधा नहीं देखता, उसे पूर्व-दिशा को ही एक सुंदरी की तरह पाठकों के परिचय में लाते कलमकार अपने शब्दों के माध्यम से दिखलाता है। कहें, बात हैं- 'प्राची के अधरों पर /मन्द मधुरिम-मुस्कान है/सर पर पल्ला नायिका-रूप की हो या माता रूप की, कवि के कुछ स्थलों पर नहीं है और/सिंदूरी धूल उड़ती सी/रंगीन राग की आभा/भायी | अपने संतुलित शब्दों को माध्यम बना कर-दृश्य का आभास (ई) है, भाई।' मगर वे पाठक को उस सुन्दरी के दर्शन नहीं होने | कराया है. दृश्य की सर्जना किये बगैर, मात्र अपने वर्णन-वैभव देते और स्वतः एक वर्णी की तरह दृश्य के आनन्द को भाषा के | के सहारे।
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वे, आगे, प्रभात का परिचय कराने में भी भाषा और । कवि को? उपमा का चमत्कार यहाँ देखने मिलता है, वह हैव्याकरण से परे, मात्र कल्पना के बल पर भारी सफलता पाते हैं, | 'तनूदरा'। अश्लीलता या वासना के स्वर से दूर एक सुंदर उपमा। जब लिखते हैं- 'प्रभात आज का/काली रात्रि की पीठ पर/हलकी | (पृष्ठ ३०) लाल स्याही से/कुछ लिखता सा है कि/यह अंतिम रात है। (पृ. जिस तरह लेखक अपनी रचना से वार्ता कर लेता है उसी १९)'
तरह उनका पात्र शिल्पी माटी से बात-चीत करता है, मगर कवि ___ 'यहाँ प्रभात के द्वारा रात्रि की पीठ पर कुछ लिखना' ने बातचीत को इतनी जीवंतता प्रदान कर दी है कि माटी एक पाठक के आनंद को कई गुणा बढ़ा देता है। हर योग्य और | महानायिका की तरह पाठकों के मस्तिष्क में प्रवेश करती है, जब चरित्रवान नागरिक इन पंक्तियों को पढ़ते हुए क्षण भर को अपने | शिल्पी मिट्टी से पूछता है- सात्विक गालों पर तेरे/घाव से लगते परिवार में उड़ कर आ जाता है, जहाँ उसकी प्रिय पत्नी है। वहाँ | हैं। छेद से लगते हैं।सन्देह सा हो रहा है। भेद जानना चाहता वह नागरिक दो स्थितियों पर सोचता है- वह भी अपनी पत्नी की | हूँ/यदि कोई बाधा न हो तो/बताओगी चारूशीले? (पृष्ठ ३१) पीठ पर इसी तरह कुछ लिखता रहा है विगत् वर्षों में या अभी |
| यहाँ कविता में नहीं, चित्रण का चमत्कार शिल्पी के तक उसने पीठ पर क्यों नहीं लिखा? चित्रण की यह जीवंत | प्रेमभर सम्बोधन में है, जब वह पूछता है- बताओगी - 'चारूशीले।' प्रभावना ही है जो पाठक को सोचने के लिए विवश करती है। | यह 'चारूशीले' शब्द पाठक के मस्तिष्क के तार झनझना देने तक
प्रकृति का ऐसा दुर्लभ चित्रण जो सौ प्रतिशत मौलिकताओं | भीतर कौंधता रहता है और शब्द की गरिमा और सौन्दर्य के बोध से सजा होता है, किसी काव्य (प्रबंध काव्य और महाकाव्य) में | को किसी सुन्दर रूप में तलाशने लग जाता है। अपने ही परिचय अन्यत्र देखने नहीं मिला।
में आये किसी रूप में। कसी बड़ी मील से निर्मित साड़ियाँ तो कहीं न कहीं सूर्य का उदय - एक प्राकृतिक घटना है, नित्य-नित्य है। देखने मिल जाती हैं, परन्तु इधर 'प्रभात' ने 'रात्रि'को, भेंट में जो | सूर्य के कारण धूप का प्रसारण भी प्राकृतिक है। सूर्य और धूप के साड़ी दी है, वह मात्र आचार्यश्री की मिलों में ही बनती है। वे मध्य कोई प्राकृतिक रिश्ता भी है क्या? हम तो नहीं जानते थे, पर दिगम्बर साधु, सवस्त्र कवियों की कल्पना से सैकड़ों मील आगे | कलमकार ने उसे स्पष्ट करने का सद-प्रयास किया है- दिनकर ने चलते मिलते हैं, जब वे कहते हैं- 'उपहार के रूप में/ कोमल | अपनी अंगना को/दिन भर के लिये/भेजा है उपाश्रम की सेवा कोपलों की/हलकी आभा घुली/हरिताभ की साडी/देता है रात | में और वह आश्रम के अंग-अंग को/आँगन को चमती को।' सूती और रेशमी साड़ी से लेकर बनारसी साड़ी तक, | सी.../सेवानिरत..धूप... । कवि ने धूप को सूर्य की अंगना सम्बोधित साड़ियों की शताधिक प्रजातियाँ और प्रकार देखे हैं, पर मूकमाटी | कर एक नये किन्तु अत्यंत मौलिक रिश्ते का उद्घोष किया है जो के महाकवि ने हरिताभ की साड़ी प्रकाश में लाकर अब तक के | अन्यत्र पढ़ने नहीं मिला। (पृष्ठ ७९) इस स्थल पर अंगना के बाद कल्पनाश्रित कवियों के समक्ष नव-आदर्श तो रखा ही है, नूतन | आँगन शब्द का प्रयोग कर भाषायी चमत्कार को बल दिया गया सर्जना को नया फ्रेम (चौखट) भी प्रदान किया है। (पृष्ठ -१९)
सत्य तो यह है कि ऐसे प्रसंगों के चित्र कोई तूलिकाकार | पाठक को एक मिठास और मिली है उक्त पंक्तियों से, अपनी तृलिका से केनवास पर उतार ही नहीं सकता, ये तो वह यह कि किरणों का सहज ही आश्रम में आना एक मायने काव्यलोक में घुमड़ने वाले ऐसे दृश्य हैं जिन्हें पाठक कवि की | रखता है, पर उनका आश्रम में आकर आश्रम का अंग-अंग कृपा से अपनी अनुभूति में ला सकता है, पर ड्राईंग-रूम में सर्व | चूमना- विशेष मायने की संरचना करता है। यही है चित्रण का साधारण के अवलोकनार्थ टांग नहीं सकता।
चमत्कार। इतना ही नहीं मूकमाटी का कवि ओस के कणों में | इसी तरह एक अन्य उदाहरण है, मछली का पानी में उल्लास-उमंग/हास दमंग और होश के दर्शन भी करता है। (पृष्ठ | जन्म लेना प्राकृतिक है, पर आचार्यश्री अपने चिंतन से- उस २१)
प्राकृतिक घटना के भीतर छुपी हुई स्थिति को प्रकट करने में __ भला ऐसी कल्पनाओं के चित्र मृत तूलिका कैसे बना | साफल्य पाते हैं, जब वे लिखते हैं- 'जल में जनम लेकर भी/जलती सकेगी, उसके लिये तो जीवंत विचार ही सहायक हो सकते हैं | रही मछली।' यह मछली जैसे जीवधारियों का सत्य है जिसे कवि के।
आचार्यश्री ही समझ सुन सके हैं। (पृष्ठ ८५) ___ बोरी में भरी हुई माटी कैसी या किस आकार में दिख जल में जले मछली - यह शब्दोपयोग सामान्य नहीं है, सकती है, कौन बताये? परन्त हमारे कवि ने वहाँ भी अपनी | यह प्रतीति और वह अनभति दार्शनिक मधुर-कल्पना को नवाकार देकर सफलता पाई है, वे कहते हैं- महाकवि मात्र कल्पनाशीलता के विमान पर नहीं चलते वे दार्शनिकता 'सावरणा, साभरणा/सज्जा का अनुभव करती/नवविवाहता तनूदरा।' के राजपथ पर भी चले हैं काव्य लिखते समय। बोरी के खूट, छोर तक माटी भर जाने के बाद वे कैसे दिखते हैं। प्रकृति के महत्वपूर्ण चित्रण से लबरेज महाकाव्य का
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प्रथम खण्ड समृद्ध बनाया गया है, जबकि द्वितीय खण्ड में वह तनिक भी आवश्यक नहीं माना गया हैं, फलतः प्रकृति की कोई लघु दृश्यावली दृष्टि में नहीं आती, किन्तु खण्ड तीन में रचनाकर का चिंतन पुनः प्रकृति का पावन स्पर्श करता है, जब वे बादलों से बरसे हुए पानी को धरती पर गिरता हुआ देखते हैं और फिर वही पानी विशाल राशि के साथ धरती का सब कुछ बहाता हुआ अपने साथ समुद्र में ले जाता वे उस दृश्य को शब्द देते हैं'बसुधा की सारी सुधा / सागर में जा एकत्र होती' इन पंक्तियों में वे धरती पर पानी के साथ बहे हुए अनेक पदार्थों को 'सुधा' का सम्बोधन देकर अपने कवि का स्तर बहुत ऊँचा करने में भी साफल्य पा सके हैं। (पृ. १९)
धरती की सम्पदा को आदर देने के निमित्त ही उन्होंने 'सुधा' शब्द का श्रेष्ठ उपयोग किया है। यहाँ वर्तमान के विख्यात कविगण काफी पीछे रह जाते हैं जिनने लिखा है कि धरती सोना और हीरा-मोती उगलती है।
अब मैं जो उदाहरण देने जा रहा हूँ वह कवि की सुकुमार भावनाओं का सुंदर परिचय तो देता ही है, उसे प्रकृति की घटनाओं का ज्ञाता भी सिद्ध करता है। आकाश में तीन बदलियों को उड़ते देख वे किस कदर प्रकृति में समाहित हो जाते हैं, यह समझने विचारने की बात है- गजगामिनी भ्रम भामिनी / दुबली पतली कटि वाली/गगन की गली में अबला सी/तीन बदली निकल पड़ी हैं। दधि धवला साड़ी पहने / पहली वाली बदली वह / ऊपर से/साधनारत साधवी सी लगती है / रति पति प्रतिकूला मतिवाली/पति मति अनुकूला गति वाली। इतनी दिव्य है वह उनकी प्रथम बदली। प्रथम के पीछे-पीछे चल (उड़ रही दूसरी बदली, जो मध्य में हैं, का वर्णन पृथक है
'बिजली बदली ने/पलाश की हँसी (जै) सी साड़ी पहनी / गुलाब की आभा फीकी पड़ती जिससे/लाल पगतली वाली, लाली रची/ पद्धमिनी की शोभा सकुचाती है जिससे ।'
बदलियाँ बदलियाँ न हुई, तीन अल्हड़ सहेलियाँ हो गई हैं यहाँ, जिनके श्रंगार और छवि पृथक होते हुए भी एक साथ चल रही हैं। तीसरी बदली का प्रकृति चित्रण भी कम नहीं है, जब कवि लिखते हैं- नकली नहीं, असली/सुवर्ण की साड़ी पहन रखी है। पिछली बदली ने बदलियों का वर्णन कर तरूणियों के रूप लावण्य को उपस्थित करता हुआ कवि अपनी उस दृष्टि का परिचय व प्रभाव यहाँ पूर्ण बारीकी से करा देता है, जो प्रकृति के दृश्य देखने में अतिरिक्त क्षमतायें धारण किये हुए हैं (पृ. १९९२०० )
इस पृष्ठ पर कवि ने सूर्य और धूप का नूतन रिश्ता तय कर दिया है, वे प्रभा (धूप) को प्रभाकर की प्रेयसि पहले ही मान चुके हैं, अब वे उसे पत्नी मानकर कलम चलाते हैं- - 'प्रभाकर की प्रभा को प्रभावित करने का/ बाद में कवि प्रभाकर और प्रभा के रिश्ते को नाम देता हुआ लिखता भी है- 'अपनी पत्नी को 10 मार्च 2004 जिनभाषित
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प्रभावित देख कर प्रभाकर का प्रवचन प्रारंभ हुआ। प्रकृति चित्रण की ये कल्पनायें सहज नहीं हैं, इन्हें कागज पर उतारने में रचनाकार को कल्पना के हिमालय जितनी ऊँचाई स्पर्श करनी पड़ी होगी। (पृष्ठ २०० ) '
पूरे ग्रन्थ में एक विचित्र संदर्भ भी देखने मिला है, जब कलमकार का एक पात्र 'बादल' विशाल समुद्र का पक्ष लेते हुए सूरज को डांट पिलाता है। चूंकि कलमकार का आशय ही बादल और सूरज की बातचीत सुनने-सुनाने का है, इसलिये इस दृश्य को मैं 'प्रकृति चित्रण' में ही समाहित पा रहा हूँ, क्यों कि सूर्य एक प्राकृतिक तत्त्व है, उसका उदय और अस्त प्राकृतिक है, उसका तपना प्राकृतिक है। इसी तरह बादल-दल भी प्राकृतिक है, कवि ने सीधा-सीधा सूर्य को नहीं डांटा, कथा के एक पात्र ने उस पर कोप उतारा है, जब बादल नक्षत्रों के मध्य अपने पांडित्य का डंका बजाते हुए उनके वरिष्ठ पंडित दिवाकर को आड़े हाथ लेता है- 'अरे खर प्रभाकर, सुन/ भले ही गगन मणि कहलाता है तू/सौर मंडल देवता-गृह / ग्रह-गणों में अग्र / तुझमें व्यग्रता की सीमा दिखती है/अरे उग्र शिरोमणि/तेरा विग्रह ... यानी / देह धारण करना वृथा है/ कारण/कहाँ है तेरे पास विश्राम गृह ? / तभी तो दिन भर दीन हीन सा/ दर-दर भटकता रहता है। फिर भी क्या समझकर साहस करता है/ सागर के साथ विग्रह-संघर्ष हेतु ?'
बादल का क्रोधोत्पन्न वार्तालाप जारी रहता है, बीच में वह समुद्र को समझाने के स्वर धारण करता है और कहता है'अरे अब तो / सागर का पक्ष ग्रहण कर ले/कर ले अनुग्रह अपने पर/ और सुख शांति यश का संग्रह कर/ अवसर है / अवसर से काम ले, अब तो छोड़ दे उल्टी धुन / अन्यथा 'ग्रहण' की व्यवस्था अविलंब होगी । '
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कलमकार चतुर चितेरे हैं, वे जानते हैं कि सूरज को क्या दण्ड उपयुक्त हो सकता है। कोई उसे न जला सकता है, न बुझा सकता है। अत: उन्होंने उसके आभामंडल (यश) को कलंकित करने की सजा ठीक मानी। यश कलंकित कैसे हो ? जब उसमें 'ग्रहण' लग जाये । वह लगा भी ।
प्रकृति का यह चित्रण, हाँ ऐसा चित्रण हरेक कलमकार के लिए सम्भव प्रतीत नहीं होता, यह तो महाकवि आचार्य. विद्यासागर के वश की ही बात है । (पृ. २३१)
रचनाकार ने किसी भी स्थल पर प्रकृति सापेक्ष - सत्य को अनदेखा नहीं किया, परन्तु देखना वहाँ ही चाहा है, जहाँ जरूरी लगा है।
इसी तरह खण्ड चार में मात्र दो जगहों पर उन्हें प्रकृति का चित्रण आवश्यक लगा है, प्रथम वहाँ, जहाँ, संध्यावंदन करने के उपरांत कुम्भकार कक्ष से बाहर आता है और उसे दृश्य देखने मिलता है- 'प्रभात कालीन सुनहरी धूप दिखी/धरती के गालों पर / ठहर न पा रही थी जो ।' वर्णन करते हुए वे एक वैचित्रय यहाँ भी प्रस्तुत करते हैं अपनी लेखनी से कि शाम के समय भी
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कुम्भकार को सुबह वाली धूप दीखती है धरती पर। इसे अतिश्योक्ति __ एक मायने में महाकाव्य के हरेक स्थल पर, जहाँ भी कहें या कुछ और, परन्तु कवि ने ऐसा लिखा तो है। लिखते समय | चित्रण है प्रकृति का, मुनिवर ने वहाँ प्रकृति सौंदर्य के बोध को वे कुछ विस्मृत कर बैठे हैं- ऐसा भी नहीं लगता।
स्थापित करते हुए भी अध्यात्म का रंग फीका नहीं होने दिया है। प्रकृति चित्रण का, महाकाव्य में यह अंतिम स्थल है, उन्होंने आंख मूंद कर या आंख खोलकर चित्रण नहीं जहाँ गुरुवर विद्यासागर जी बाढ़ से उफनती नदी के विषय में किये हैं, हर चित्रण के पार्श्व में कलमकार अपनी अनुभूति उपस्थिति कलम चलाते हैं- वर्षा के कारण नदी में/नया नीर आया है/नदी | करने का सुन्दर प्रयास करता है, जबकि सत्य यह भी है कि वेग-आवेगवती हई है/संवेग निर्वेग से दूर/उन्माद वाली प्रमदा | दिगम्बर सन्त को ऐसी अनुभूतियों से सरोकार नहीं रहा है, न सी। (पृ. ४४०)
रहेगा। ____नदी को नारी के रूप में देखने के बाद, उसमें संवेग और | मैं उन्हें प्रकृति चित्रण में सिद्ध हस्थ मानता हूँ और उनके निर्वेग को तलाशना और न पाना, मुनि विद्यासागर जैसे महाकवि | चित्रण की सराहना करता हूँ। ही स्पष्ट कर सकते हैं।
२९३, गढ़ा फाटक जबलपुर (म.प्र.)
जन्म कृतार्थ हो
प्रो. डॉ. विमला जैन 'विमल'
जन्म सुमंगलमय वही, जो नहि आगे होय, अन्तिम जन्म अरिहन्त का, या श्री सिद्ध का होय॥
मानव जन्म कृतार्थ हो, कर सम्यक पुरुषार्थ, स्व परहित जीवन जगा, मन, वच, तन परमार्थ । 'वृष पथ बढ़' यह श्रेष्ठतम, रत्नत्रय के साथ, स्वात्म बने परमात्माः सर्वजीवहित साथ।
जन्म मरण का दुक्ख अति, परवस सहता जीव, जन्मे फिर निर्वाण लें, वे परमात्म सुजीव।
तीर्थंकर के जन्म पर, उत्सव 'जन्म कल्याण' अन्तिम तन तजते कहा, हुआ 'मोक्ष कल्याण'।
मानव जन्म सुश्रेष्ठ है, बने मुक्ति भरतार, जो जैसी करनी करे, फलद चतुर्गति भार।
मुनिचर्या दुष्कर लगे, करें राष्ट्र कल्याण, जन्मभूमि रक्षक बने, दे दुष्ठन का त्राण। राष्ट्र भक्त की मृत्यु भी, 'वीरगति' बहुमान, अमर शहीद की जय बुले, स्वर्णाक्षर जग जान। जो समाज हित में लगे, जन-जन सेवा नित्य दुर्बल का सम्बल बने, सेवहि बन आदित्य।
नर्क और तिर्यंच गति, जन्म न लेना भव्य,
'पंच पाप' तज वृष धरह. सधर जाय भवितव्य।
जन्म कहा सार्थक वही. परहित हो बलिदान
'सप्त व्यसन' की लत बुरी, दूर से देना लात,
आगम अरु इतिहास लख, सुजन बिगाड़ी बात। 'दश वृष' की संजीवनी, व्याधि मिटाती जन्म, स्व-स्वभाव मय आत्मा, शुद्ध-बुद्ध आजन्म।
राष्ट्र समाज अरु धर्म का, करता जो उत्थान, क्रमशः बढ़ परमार्थ में 'विमल'ध्येय के संग, जन्म सुकारथ शुचिंकरम, मरण समाधि के संग।
फिरोजाबाद (उ.प्र.)
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क्या एकल विहार का आगम में सर्वथा निषेध है
पं. सुनील जैन 'शास्त्री'
वर्तमान में साधु के एकल विहार पर बहुत चर्चाएँ पत्र-। करने में स्वच्छंद होकर प्रवृत्ति करता है ऐसा मुनि कभी एकाकी पत्रिकाओं में की जा रही हैं। क्या मुनि एकल विहार सर्वथा नहीं विहार न करे। कर सकता?
आचार्य खेद के साथ कहते हैं कि इन गुणों से रहित इसका समाधान यह है कि एकल विहार करने से श्रुतज्ञान | साधु, मेरा शत्रु भी हो, तो भी एकाकी विहार न करे। के संतान की विच्छित्ति, अनवस्था, संयम का नाश, तीर्थ और गुरु उपरोक्त कथन से यह स्पष्ट है कि श्लोकों में कथित गुणों की आज्ञा का भंग, अपयश, अग्नि-जल-विष रोग सर्पादिक्रूर | का धारी साधु एकल विहार भी कर सकता है। परन्तु इन गुणों से प्राणियों के द्वारा आर्तध्यान से अपनी मृत्यु आदि दोष उत्पन्न होने | रहित साधु यदि एकल विहार करता है तो उपरोक्त संभावनाएँ होने की संभावना रहती है, परन्तु जो साधु उत्कृष्ट चारित्र के धारी व से धर्मनाश या निंदा का कारण हो सकता है। . ज्ञान एवं बल से सहित हों, उनके लिये एकल-विहार की | कुछ विद्वानों का ऐसा कहना है कि तीन उत्तम संहनन स्वीकृति आचार्यों ने दी है। श्री आचार सार अध्याय २, श्लोक | वाले मुनिराज ही एकल विहार कर सकते हैं। वर्तमान में तीन नं. २७-२८ में इस प्रकार कहा है
उत्तम संहनन का अभाव होने से कोई भी साधु एकल विहार नहीं ज्ञानसंहनननस्वांतभावना बलवन्मुनेः।
कर सकता। उन विद्वानों का ऐसा मानना उचित नहीं लगता है। चिरप्रव्रजितस्यैक विहारस्तुमतः श्रुते॥२७॥ क्योंकि यदि यही विचार उचित था तो फिर आचार्यों को स्पष्ट एतद्गुणगणापेतः स्वेच्छाचाररत: पुमान्।
उल्लेख करना चाहिए था कि पंचमकाल में हीन संहनन होने से यस्तस्यैकाकिता मा भून्मम जातुरिपोरपि॥२८॥ एकल विहार सर्वथा निषिद्ध है। परन्तु किसी भी आचार्य का ऐसा अर्थ - (टीका पू. आर्यिका सुपार्श्वमति जी द्वारा) मत नहीं मिलता। श्री मूलाचारकार ने भी एकल विहारी साधु की
बहुत काल के दीक्षित, ज्ञान, संहनन, स्वांतभावना से | परिभाषाएँ दी हैं, तथा बीसवीं शताब्दी के महान् आचार्यों ने बलशाली मुनि के एकाकी विहार करना शास्त्रों में माना है। चिरकाल तक एकल विहार किया है, अतः उपरोक्त मान्यता परन्तु जो इन गुणों के समूह से रहित स्वेच्छाचारी में रत पुरुष हैं | उचित नहीं। उस मेरे शत्रु के भी एकाकी विहार कभी भी नहीं हो।
इस प्रश्नोत्तर के द्वारा एकल विहार का समर्थन नहीं किया भावार्थ : जो ज्ञानबल, संहननबल, मनोबल और शुभ जा रहा है, पर पूर्णतया निषेध भी आगम में नहीं है, इस बात का भावना से युक्त है वह एकाकी विहार कर सकता है। ज्ञानबल, | प्रतिपादन किया है। यदि हम बीसवीं शताब्दी के उत्कृष्ट चारित्र विशिष्ट, आध्यात्मिक ज्ञान का धारी हो । संहननबल, उत्कृष्ट संहनन | के धनी मुनिराजों के जीवन-चरित्र पर दृष्टि डालें तो बहुत से का धारी हो, अर्थात् भूख, प्यास सहन करने की शाक्ति वाला हो, | मुनिराजों ने वर्षों तक अकेले ही विहार किया था। फिर भी उनके आत्मानुभूति से अपने मन को वश में करने वाला हो, चिरकाल का | चारित्र में कभी शिथिलाचार दृष्टिगोचर नहीं हुआ। अत: शिथिलाचार दीक्षित हो, ऐसा विशिष्ट मुनि एकाकी विहार करने वाला हो | पूर्णतया विरोध योग्य मानना चाहिए, एकल विहार नहीं। सकता है। परन्तु जिसमें यह गुण नहीं है, जो स्वेच्छाचार में रत
९६२, सेक्टर-७,
आवास विकास कॉलोनी रहता है अर्थात् सोने, बैठने, मलमूत्र के त्याग में वस्तु के ग्रहण |
आगरा (उ.प्र.) फोन ०५६२-२२७७०९२
जिनभाषित के लिए प्राप्त दान राशि श्रीमान् प्रेमचन्द्र जैन 'तेलवाले', मेरठ (उ.प्र.) के प्रपौत्र चि. उत्कर्ष जैन (सुपुत्र श्री राकेश जैन) एवं सौ. शलिका जैन के विवाहोपलक्ष में 500 रुपये प्राप्त। श्री ताराचन्द पाटनी 95, मेन सेक्टर, भीलवाड़ा (राजस्थान) द्वारा 100 रुपये प्राप्त।
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महावीर के सिद्धान्त
अहिंसा
प्राणियों को नहीं मारना, उन्हें नहीं सताना । जैसे हम सुख चाहते हैं, कष्ट हमें प्रीतिकर नहीं लगता, हम मरना नहीं चाहते, वैसे ही सभी प्राणी सुख चाहते हैं कष्ट से बचते हैं और जीना चाहते हैं। हम उन्हें मारने/सताने का भाव मन में न लायें, वैसे वचन न कहें और वैसा व्यवहार/ कार्य भी न करें। मनसा, वाचा, कर्मणा प्रतिपालन करने का महावीर का यही अहिंसा का सिद्धांत है । अहिंसा, अभय और अमन चैन का वातावरण बनाती है। इस सिद्धान्त का सार - सन्देश यही है कि 'प्राणी के प्राणों से हमारी संवेदना जुड़े और जीवन उन सबके प्रति सहायी/सहयोगी बने ।' तोप, तलवार से झुका हुआ इंसान एक दिन ताकत अर्जित कर पुनः खड़ा हो जाता है।
अनेकान्त
भगवान महावीर का दूसरा सिद्धान्त अनेकान्त का है । अनेकान्त का अर्थ है- सह-अस्तित्व, सहिष्णुता, अनाग्रह की स्थिति। इसे ऐसा समझ सकते हैं कि वस्तु और व्यक्ति विविध धर्मी हैं । अपरिग्रह -
भगवान महावीर का तीसरा सिद्धान्त अपरिग्रह का है । परिग्रह अर्थात् संग्रह-यह संग्रह मोह का परिणाम है। जो हमारे जीवन को सब तरफ से घेर लेता है, जकड़ लेता है, परवश / पराधीन बना देता है वह है परिग्रह। धन पैसा को आदि लेकर प्राणी के काम में आने वाली तमाम वस्तु/ सामग्री परिग्रह की कोटि में आती है ।
आत्म स्वातन्त्र्य
भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित एक सिद्धांत आत्म स्वातन्त्र्य का है, इसे ही अकर्त्तावाद या कर्मवाद कहते हैं। अकर्त्तावाद का अर्थ है- 'किसी ईश्वरीय शक्ति/सत्ता से सृष्टि का संचालन नहीं मानना ।'
यह सिद्धान्त इसलिए भी प्रासंगिक है कि हमें अपने किए गए कर्म पर विश्वास हो और उसका फल धैर्य, समता के साथ सहन करें। वस्तु का परिणमन स्वतंत्र / स्वाधीन है। मन में कर्तृत्व का अहंकार न आये और ना ही किसी पर कर्तृत्व का आरोप हो । इस वस्तु- व्यवस्था को समझकर शुभाशुभ कर्मों की परिणति से पार हो, आत्मा की शुद्ध दशा प्राप्त करें। बस यही धर्म चतुष्टय
संकलन : सुशीला पाटनी
भगवान महावीर स्वामी के सिद्धान्तों का सार है। व्यक्ति जन्म से नहीं कर्म से महान् बनता है । यह उद्घोष भी महावीर की चिन्तनधारा को व्यापक बनाता । इसका आशय यह है कि प्रत्येक व्यक्ति मानव से महामानव, कंकर से शंकर और भील से भगवान बन सकता है। नर से नारायण और निरंजन बनने की कहानी ही महावीर का जीवन दर्शन है। मनीषियों के विचार
अहिंसा का सिद्धान्त सबसे पहले गहन रूप से भलीभाँति तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित एवं प्रचारित किया गया। इसमें २४ वें तीर्थंकर भगवान महावीर वर्द्धमान का उल्लेखनीय योगदान है। भगवान बुद्ध और फिर महात्मा गाँधी ने भी मन, वचन, काय से अहिंसा के सिद्धान्त को आचरण में उतारा।
प्रो. तानयुन शान (चीन) महावीर के वचन मानवी आचरण की उज्जवलतम प्रस्तुति है। अहिंसा का महान सिद्धांत, जिसे पश्चिम जगत में 'ला आफ नान - वायलेंस' के नाम से जाना जाता है, सर्वाधिक मूलभूत सिद्धांत है, जिसके द्वारा मानवता के कल्याण के लिए आदर्श संसार का निर्माण किया जाता है।
डॉ. एल्फ्रेड डब्ल्यू पार्कर ( इंग्लैण्ड ) भगवान महावीर जिन्होंने भारत के विचारों को उदारता दी, आचार को पवित्रता दी, जिसने इन्सान के गौरव को बढ़ाया, उसके आदर्श को परमात्मा-पद की बुलंदी तक पहुँचाया, जिसने इन्सान और इन्सान के भेदों को मिटाया, सभी को धर्म और स्वतंत्रता का अधिकारी बनाया, जिसने भारत के अध्यात्म-संदेश को अन्य देशों तक पहुँचाने की शक्ति दी। सांस्कृतिक स्त्रोतों को सुधारा, उन पर जितना भी गर्व करें, थोड़ा ही है ।
डॉ. हेल्फुथफान गलाजेनाप्प (जर्मनी) महावीर का जीवन अनन्तवीर्य से ओत-प्रोत है। अहिंसा का प्रयोग उन्होंने स्वयं अपने ऊपर किया और फिर सत्य और अहिंसा के शाश्वत धर्म को सफल बनाया। जो काल को भी चुनौती देते हैं, ऐसे उन भगवान को 'जिन और वीर' कहना है। आज के लोगों को उनके आदर्श की आवश्यकता है।
डॉ. फर्नेडो बेल्लिन फिलिप (इटली) भगवान महावीर सत्य और अहिंसा के अवतार थे। उनकी पवित्रता ने संसार को जीत लिया था। भगवान महावीर का नाम यदि इस समय संसार में पुकारा जाता है तो उनके द्वारा प्रतिपादित
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'अहिंसा' के सिद्धांत के कारण अहिंसा धर्म को अगर किसी ने। की विशेष सम्पति है। संसार के किसी और धर्म ने अहिंसा के अधिक से अधिक विकसित किया है तो वे भगवान महावीर ही | सिद्धान्त का इतना प्रचार नहीं किया जितना जैन धर्म ने किया।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद महात्मा गाँधी अगर भगवान महावीर के बतलाए हुए सिद्धांतों पर संसार भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत मुझे बहुत प्रिय | चले तो लोगों में कोई दुःख व झगडा न हो। विश्व में शांति बनी है। मेरी प्रबल अभिलाषा है कि मैं मृत्यु के बाद जैन-धर्म के | रहे। मेरे देश को गर्व है कि भगवान महावीर ने समस्त संसार को परिवार में जन्म धारण करूँ।
शांति और अहिंसा का संदेश दिया। जार्ज वर्नाड शा
जवाहरलाल नेहरु यदि संसार को तबाही से बचाना है और कल्याण के मार्ग जो इन्द्रियों को जीत सकता है, वही सच्चा जैन है। पर चलाना है तो भगवान महावीर के संदेश और उनके बताए हुए | अहिंसा बहादुरों और वीर पुरुषों का धर्म है, कायरों का नहीं। रास्ते को ग्रहण किए बिना और कोई रास्ता नहीं।
जैनियों को इस बात पर गर्व होना चाहिए कि कांग्रेस भगवान
सर्वपल्ली राधकृष्णन | महावीर के सिद्धांतों का सारे भारतवर्ष में पालन करा रही है। भगवान महावीर पुनः जैनधर्म के सिद्धांत को प्रकाश में
सरदार पटेल लाए। भारत में यह धर्म बौद्धधर्म से पहले मौजूद था। प्राचीन भगवान महावीर की सुन्दर और प्रभावशाली शिक्षाओं का काल में असंख्य पशुओं की बलि दे दी जाती थी। इस बलि- | अगर हम पालन करें तो रिश्वत, बेईमानी, भ्रष्टाचार अवश्य ही प्रथा को समाप्त कराने का श्रेय जैनधर्म को है।
समाप्त हो जाए। __ बाल गंगाधर तिलक
लालबहादुर शास्त्री अहिंसा के महान प्रचारक केवल भगवान महावीर ही थे। भगवान महावीर ने अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकान्त और उन्होंने साढ़े १२ वर्ष के तप, साधना और त्याग के बाद सारे विश्व | सहिष्णुता का मार्ग हमें बताया। भगवान महावीर के बताये हुए को यदि अहिंसा का जन संदेश न दिया होता तो संसार में अहिंसा मार्ग पर चलकर ही हम अपनी कठिनाईयों का समाधान प्राप्त कर का नामो-निशान न होता।
सकते हैं। धर्मानन्द कौशाम्बी
फखरुद्दीन अली अहमद भगवान महावीर ने डंके की चोट पर मुक्ति का संदेश जैन धर्म मानव को ईश्वरत्व की ओर ले जाता है और घोषित किया कि धर्म मात्र सामाजिक रूढ़ि नहीं, बल्कि वास्तविक | सम्यक्दर्शन, सम्यज्ञान व सम्यक् आचरण के जरिए पुरुषार्थ से सत्य है। धर्म में मनुष्य और मनुष्य का भेद स्थायी नहीं रह उसे परमात्म पद प्राप्त करा देता है। सकता। कहते हुए आश्चर्य होता है कि महावीर की इस महान
. डॉ. मुहम्मद हाफिज (भारत) शिक्षा ने समाज के हृदय में बैठी हुई भेद-भावना को बहुत शीघ्र
भगवान महावीर ने प्राणी मात्र के कल्याण के लिए महान नष्ट कर दिया और सारे देश को अपने वश में कर लिया।
संदेश दिया है। ताकि सभी प्राणी शांति से रह सकें। हम उनके
रविन्द्रनाथ टैगोर बताए रास्ते पर चलकर उनके योग्य उत्तराधिकारी बनें। भगवान महावीर ने स्त्री जाति का महान् सुधार किया।
जस्टिस टी.के. टुकोल (भारत) जिसका भय महात्मा बुद्ध को था, उसको महावीर ने कर दिया।
महावीर ने एक ऐसी साधु संस्था का निर्माण किया, नारी जाति के वे उद्धारक और अग्रदूत थे। भगवान महावीर के
जिसकी भित्ति पूर्ण अहिंसा पर निर्धारित थी। उनका अहिंसा उपदेश शांति और सुख के सच्चे रास्ते हैं। यदि मानवता उनके
परमोधर्म: का सिद्धान्त सारे संसार में २५०० वर्षों तक अग्नि की सद्उपदेशों पर चले तो वह अपने जीवन को आदर्श बना सकती
तरह व्याप्त हो गया। अन्त में इसने नव भारत के पिता महात्मा
गाँधी को अपनी ओर से आकर्षित किया। यह कहना अतिश्योक्ति
विनोबा | पूर्ण नहीं है कि अहिंसा के सिद्धान्त पर ही महात्मा गाँधी ने नवीन भगवान महावीर सारे प्राणियों का कल्याण करने वाले भारत का निर्माण किया। आध्यात्मिक महापुरुष हुए हैं।
टी.एस. रामचन्द्रन (अध्यक्ष-पुरातत्व विभाग) चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य मैं स्वयं को धन्य मानता हूँ कि मुझे भगवान के प्रांत में
आर.के. मार्बल प्रा. लि., जन्म लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। अहिंसा धर्म जैन अनुयायियों
मदनगंज-किशनगढ़
है।
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गतांक से आगे
आत्मा और शरीर की भिन्नता : चिकित्सीय
विज्ञान की साक्ष्य
डॉ. प्रेमचन्द्र जैन हृदय रोग विशेषज्ञ माइकेल साबोम ( Michael Sabom) का । एक-दूसरे के अनुभवों को परस्पर बाँटने के लिये एकत्रित थे। विश्लेषणः
'उनमें से बहुतों के लिये यह एक जीवन परिवर्तित करने वाली माइकेल साबोम हृदय रोग विशेषज्ञ के साथ-साथ 'मृत्यु- | आध्यात्मिक यात्रा थी' (For many of them, was a life altering निकट अनभव' के शोधकर्ता भी हैं। ये लिखते हैं कि उन्होंने | spiritula iourney)। ऐसे एक रोगी राबर्ट मिलहम (Robert डॉक्टर स्पेट्रजलर द्वारा रीनोल्ड की शल्य क्रिया के सभी अंकित Milham) ने बताया कि हृदयाघात के समय उसके हृदय की अभिलेखों की प्रतिलिपियों का, शल्यक्रिया के दौरान रीनोल्ड | धड़कन बंद हो गई और दर्द काफूर हो गया और मैं अपने शरीर के द्वारा अनुभूत सभी घटनाओं और सुरंग की यात्रा के वृतांत से | ऊपर लटकने की स्थिति में आ गया। मैंने अपने को एक स्ट्रेचर पर मिलान किया और पाया कि उस समय रीनोल्डस का मस्तिष्क लेटा एवं लोगों को उसपर पैडल मारते हुये देखा' उसने आगे उस कम्प्यूटर के समान था जिसमें से विद्युत प्रदाय का प्लग | कहा कि 'मौत के इस स्पर्श ने उसे निरे स्वार्थी, स्वकेन्द्रित जीवन निकाल दिया गया हो अर्थात् पूर्ण निष्क्रिय और इसप्रकार के मृत- से दूसरों को अधिक देने वाला व्यक्ति बना दिया।' मस्तिष्क को न कोई मतिभ्रम हो सकता है और न ही वह कोई | एक अन्य मिष्ट भाषी तकनीक उद्यमी केन एमिक गलत गोला दाग सकता है अर्थात् अन्यथा सोच सकता है और न | (KenAmick) ने डॉक्टर रोमर को एक एलर्जीजन्य प्रतिक्रिया ही निश्चेतक ड्रॅग्स या अन्य ड्रॅग्स की दशा में कोई क्रिया या (allergic reaction) के फलस्वरूप हुये मृत्यु निकट अनुभव प्रतिक्रिया कर सकता है। माइकेल साबोम आगे लिखते हैं कि | बताया कि उस समय उसकी श्वास रुक गई थी और उसका पूरा रीनोल्ड के शरीर में मृत्यु के सभी लक्षण थे। मृत्यु की सभी | शरीर नीला पड़ गया था। उसने आगे बताया 'मैं रंग देख सकता चिकित्सा नैदानिक कसौटियाँ थीं, जीवन के कोई चिन्ह नहीं थे। | था, मैं सुन सकता था। मैं भय और राहत जैसे संवेगों को महसूस तो क्या वह मृत्यु थी? और यादि मृत्यु थी तब इस दशा में रहते कर सकता था' यह कहते हुये वह रुकता है मानो वह उस स्थिति हुये उसके अनुभवों को क्या कहा जा सकता है?
का पुनः अनुभव कर रहा हो 'तब वह टेबल पर पड़ी नीले रंग आंतरिक औषधि के विशेषज्ञ बारबरा रोमर (Barbara | की वस्तु क्या थी? वह मैं था। मैं जानता हूँ कि व Romer) की शोध :
मुझे भयभीत भी किया किन्तु वास्तव में वह मैं नहीं था, यह तो ___ सबसे पहले १९७० में डॉक्टर बारबरा रोमर का सामना | सही रूप में मेरा शरीर था।' एक ऐसे रोगी से हुआ जो मृत्यु निकट अनुभव से गुजर चुका था। यद्यपि उद्धृत रोगियों के संबंध में यह प्रमाण नहीं है कि तब से १९९४ तक उसने ऐसे ६०० से अधिक रोगियों का | वे उस समय नैदानिक रूप से मृत अवस्था में थे (clinical साक्षात्कार लिया जिन्हें मृत्यु-निकट अनुभव था। साक्षात्कारोपरांत | dead) किन्तु प्रश्न तो मृत्यु-निकट अनुभव का है। आखिर वह 'वह पूर्ण रूपेण आश्वस्त हो गयी कि हमारी मृत्यु उपरांत कुछ न | क्या था जो उन्हें सम्मोहित कर रहा था? उन्हें इस बात से संतोष 'कुछ जीवित अवश्य रहता है'
| रहा कि वे ऐसा अनुभव करने वाले अकेले नहीं है और न ही ऐसे लोगों ने साक्षात्कार के समय डॉ. रोमर से कहा कि | सनकी या पागल। पूरे संसार में ऐसा अनुभव करने वाले अनेक वे लोग समान अनुभव वाले लोगों से एक-दूसरे के अनुभवों का | व्यक्ति हैं। आदान-प्रदान करना चाहते हैं। तद्नुसार डॉ. रोमर ने ऐसे लोगों | डच हृदयरोग विशेषज्ञ पिमवानलोमेल (PinVan Lommel) का एक मासिक आश्रय- समूह (Monthly support group) | के अनुभव नवीन साक्ष्य, नवीन सिद्धांत - बनाना प्रारंभ कर दिया जो संसार के इस प्रकार के समूहों में सबसे । पिम वान लोमेल का एक ब्रिटिश मेडीकल जर्नल दि बड़ा था। बारबरा रोमर लिखती हैं कि वे ऐसे लोगों के अनुभवों | लानसेट (The Lancet) में प्रकाशित एक शोध लेख में एक ४४ की कहानियाँ सुनना चाहती थीं, अतः उन्होंने ऐसे एक समूह की | वर्षीय हृदयरोगी का विवरण दिया है। जिसकी हृदय कि धड़कन बैठक में भाग लिया इसमें दर्जनों मध्य आयु के पुरुष महिलाएँ | बंद हो गई थी तथा जिसे मृत्यु निकट अनुभव हुआ था। उसे
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एम्बुलेंस द्वारा तुरंत अस्पताल लाया गया। डॉक्टरों ने डेफीब्रीलेटर्स | मस्तिष्क ही नहीं अपितु मांसपेशियों, खोपड़ी, आँते, आहारनली, नामक यंत्रों की सहायता से उसके हृदय को पुनः चालू कर दिया। | त्वचा, रक्त में रहने वाली, अरबों-खरबों असंख्य कोशिकाएँ एक एक नर्स ने उसके नकली दांत निकाले ताकि उसके गले में श्वास | नेटवर्क के अधीन एक दूसरे से बातें करती हैं जो हमारे अनुभवों लेने वाली नलिका डाली जा सके। हृदय चालू होने पर उसे आइ. | की चेतना को तब भी बनाए रखते हैं जब कि अरबों की संख्या में सी.यू. (Intensive Care Unit) में भेज दिया गया। एक सप्ताह | कोशिकाएँ मृत हो जाती हैं और अरबों नई उत्पन्न होती रहती हैं। बाद उस रोगी ने दांत निकालने वाली नर्स को देखा और उसे | यदि तथ्य ऐसा ही है तो उस दशा में भी वे कोशिकाएँ जीवित पहचान कर कहा 'तुमने मेरे मुँह से नकली दांत निकाले थे' | रहती हैं जब किसी व्यक्ति को मस्तिष्क की दृष्टि से मृत घोषित यद्यपि दांत निकालते समय वह रोगी सम्मूर्छित से नैदानिक मृत्यु | कर दिया गया हो और तभी वह उस नैदानिक मृत्यु की दशा में की अवस्था में था। उस रोगी ने अस्पताल में अपनी चिकित्सा के | भी घटित उन घटनाओं को देख सकता है जो अन्यथा अबोधगम्य सभी अन्य विवरण पूर्णतः सही-सही रूप में वर्णन किये जो | और अव्याख्येय ही हैं। उसकी आत्मा ने देह मुक्त अवस्था में देखे थे।
यदि ऐसा है तो इसका क्या अर्थ है कि मस्तिष्क के मृत मृत्यु -निकट अनुभव की आवृत्ति की दर क्या है, इसे | हो जाने पर 'मन' बना रहता है? उदाहरण स्वरूप क्या हमें मत मापने के लिये लोमेल और उसके सहशोधकर्ताओं ने ३४३ अन्य | मस्तिष्क के अंगों का प्रत्यारोपण के लिये निकाले जाने पर पुनर्विचार ऐसे रोगियों का साक्षात्कार लिया जिन्हें हृदयाघात हुआ था और | करना चाहिए? जो बाद में जीवित बच गये थे। पता चला कि १८ प्रतिशत रोगियों | अतः मृत्यु निकट अनुभव हमें उन प्रश्नों के पुनर्निरीक्षण को हृदय बंद होने की स्थितियों के बावजूद उनमें स्पष्ट चेतना थी। के लिए बाध्य करते हैं जो हम समझते हैं कि उनका उत्तर हमारे इन रोगियों ने उस दशा में हुई शांति की अनुभूति से लेकर मृत्यु | पास है, मृत्यु क्या है? चेतना कहाँ रहती है? क्या विज्ञान आत्मा निकट अनुभवों का विस्तार से वर्णन किया।
को भी पा सकता है? खोज कर सकता है? इसीप्रकार कुछ ब्रिटिश शोधकर्ताओं द्वारा किये गये एक | उपसंहार - चिकित्सा वैज्ञानिकों के उक्त अनुभूत सत्य अध्ययन, जो रीसससियेशन (Resusciation) जर्नल में प्रकाशित | घटनाएँ विश्लेषण और शोध से आत्मा के संबंध में जैन दर्शन की हुआ, मैं यह पाया गया कि ११ प्रतिशत ऐसे रोगियों को उनकी | सभी मान्यताओं की पुष्टि होती है। अचेतन अवस्था में हुये कार्यों की स्मृति है और ६ प्रतिशत ऐसे (अ) आत्मा और शरीर दो भिन्न पदार्थ हैं। डॉ. स्पेट्रजलर रोगी जो हृदयाघात के बाद मिली चिकित्सा से ठीक हो गये, को | द्वारा मस्तिष्क रोगी पाम रीनोल्ड्रस की शल्यक्रिया के दौरान मृत्यु निकट अनुभव हुआ था।
अनुभूत विवरण यह सिद्ध करते हैं चेतनाशून्य शरीर हो जाने या वान लोमेल एवं ये ब्रिटिश शोधकर्ताओं का विश्वास है | सभी नैदानिक मापदण्डों के अनुसार शरीर मृत या निष्क्रिय होने कि उक्त निष्कर्ष यह संकेत करते हैं कि क्रियाशील मस्तिष्क की | पर भी शरीर से पृथक कोई तत्त्व या पदार्थ, जिसे आत्मा ही कहा
अनुपस्थिति में भी चेतना रह सकती है। वान लोमेल लिखते हैं | जा सकता है, का अस्तित्त्व है जो ज्ञान, दर्शन और चेतना से युक्त 'मस्तिष्क की तुलना एक टी.वी. सेट से की जा सकती है और | है तभी तो पाम रीनोल्ड्स तथा ऊपर वर्णित अन्य रोगियों (राबर्ट टी.वी. कार्यक्रम आपके टी.वी. सेट में नहीं हैं।', (यह तो अन्य | मिलहम आदि) ने शल्यक्रिया के उपरान्त शल्यक्रिया के सूक्ष्म से स्थान से प्रसारित होता है।)
सूक्ष्म विवरण मृतप्राय रहने पर भी ज्यों के त्यों वर्णन कर दिये। ___ तो फिर चेतना कहाँ है ? क्या यह शरीर के प्रत्येक कोशिका | वैज्ञानिकों की भी इस घटना पर यही प्रतिक्रिया थी कि विज्ञान (Cell) में हैं ? और वान लोमेल कहते हैं 'मेरा चिन्तन इसी ओर को आत्मा की संभावना पर भी विचार करना चाहिए जो शरीर है' हम जानते हैं कि प्रतिदिन मानव शरीर की ५० अरब कोशिकाएँ | से पृथक होकर भी देख और अनुभव कर सकती है। रोगी (Cells) मृत हो जाती हैं और उतनी ही नई उत्पन्न होती हैं। | राबर्ट मिलहम का तो स्पष्ट कथन था कि निश्चेतन (मृत) इससे निष्कर्ष निकलता है कि लगभग वे सभी कोशिकाएँ जो मुझे | अवस्था में जो उसने देखा 'वह वास्तव में मैं नहीं था यह तो या आपको बनाती हैं वे सब नई हैं और तब भी हमें यह अनुभव | सही रुप में मेरा शरीर था।अर्थात मैं (आत्मा) और शरीर दो नहीं होता कि हम पहले से कुछ बदल गये हैं। इस तथ्य से यह भिन्न पदार्थ हैं।' निष्कर्ष निकलता है कि हमारे शरीर की सभी कोशिकाओं के | (ब) आत्मा स्वभाव से ही ज्ञान, दर्शन और चेतनामय मध्य परस्पर कोई संचार सूचना पद्धति होनी चाहिए अर्थात् केवल | है- निश्चेतन और सभी चिकित्सकीय मापदण्डों से मृत रोगियों
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द्वारा सूक्ष्मातिसूक्ष्म क्रियायें जो अतिसंवेदनशील यंत्रों पर अंकित । (य) जीव/आत्मा असंख्य प्रदेशी है और जिस समय हो रही थीं, का अवलोकन और बाद में उनका ज्यों का त्यों वर्णन | जिस शरीर में रहती है उसके सभी प्रदेशों में व्याप्त रहती है। न केवल वर्णन बल्कि उस दशा में सुख-दुख का अनुभव होने से | हृदयरोग विशेषज्ञ पिम वान लोमेल विश्वास पूर्वक कहते यह स्वतः ही सिद्ध है कि आत्मा मूलतः ज्ञान, दर्शन, चेतनामय | हैं कि मानव शरीर में अरबों-खरबों (असंख्यात)कोशिकाएँ (प्रदेश)
हैं। इन सभी कोशिकाओं में चेतना रहती है (चेतना तत्व आत्मा (स) शरीर एक पुद्गल द्रव्य है जिसमें आत्मा के संयोग का ही गुण है) प्रतिदिन लगभग ५० अरब कोशिकाएँ मृत होती से ही सुख-दुख आदि संवेगों का आभास होता है। आत्मतत्त्व | हैं तथा उतनी ही नई उत्पन्न होती हैं किन्तु हमारी रचना, स्मृति विहीन शरीर को इस प्रकार के अनुभव नहीं होते। हाँ, जब आत्मा | आदि पूर्ववत बनी रहती है। इसका कारण जैन दर्शन का उत्पादअंतिम रूप से शरीर से स्वतंत्र हो जाती है अर्थात् आठों कर्मों के | व्यय-ध्रौव्य सिद्धान्त ही है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि नाश हो जाने पर मुक्त अवस्था प्राप्त कर लेती है तब वह अनन्त | शरीर मृत होने पर या किसी जीव की मृत्यु हो जाने पर जब चिरस्थायी सुख में लीन रहती है। इसकी एक झलक रोगी पाम | उसकी आत्मा नया शरीर धारण करती है तो वह उस नये शरीर के रीनाल्ड्स को तब हुई थी जब उसकी आत्मा शल्यक्रिया के दौरान | अनुरूप अपने प्रदेशों का विस्तार या संकोच कर लेती है। प्रदेश शरीर से पृथक होकर अपनी शल्यक्रिया को देख रही थी, उसने | अभी भी असंख्य रहते हैं किन्तु शरीर छोटा-बड़ा दिखाई दे अपनी मृत दादी, रिश्तेदार आदि को देखकर प्रसन्नता का अनुभव | सकता है। किया, उस समय वह अपनी वास्तविक पीड़ा का अनुभव नहीं | चिकित्सा विज्ञान अब इस खोज में लगा है कि मृत्युकर रही थी बल्कि वह तो बर्फ के समान ठंडे जल में गोता लगा | निकट अनुभव आखिर होते क्यों हैं और जब आत्मा शरीर से रही थी, जो आल्हादकारी था। सही तो है, आत्मा को कोई कष्ट | निकलकर अपने ही मृतवत शरीर की शल्यक्रिया देख सकती है नहीं होता, कष्ट तो उसे संयोगी पर्याय में होता है, भले ही किसी तो शल्यक्रिया के बाद वह पुनः उसी शरीर को क्यों ग्रहण कर भी शरीर में रहे। इसीप्रकार राबर्ट मिलहम नामक एक अन्य हृदय लेती है, अन्य शरीर क्यों नहीं? जैन दर्शन और जैनाचार्यों ने इन रोगी ने बताया था कि हृदयाघात के कारण उसकी हृदय धड़कन | प्रश्रों का उत्तर हजारों वर्ष पूर्व दे चुके हैं कि दूसरे भव का आयु बन्द होने पर उसने पाया कि वह (उसकी आत्मा) अपने शरीर से | बंध हो जाने के बाद शेष बचे भुज्यमान आयु के निषेक अपना पूरा अलग होकर शरीर के ही ऊपर लटक कर सारी गतिविधियों का काल भोग कर ही समाप्त होंगे अर्थात् व्यक्ति का मरण होगा, निरीक्षण कर रहा था। उस समय उसका दर्द काफूर हो गया था | इसके पूर्व नहीं। तभी तो ऐसे जीव गंभीर दुर्घटनाओं में जहाँ जबकि हृदयाघात में शरीर को असहनीय पीड़ा होती है। इससे भी | अनेकों का प्राणघात होता है, बच जाते हैं, विष भक्षण, सर्पदंश सिद्ध है कि आत्मा को नहीं शरीर को ही कष्ट आदि होते हैं। । आदि से भी बच जाते हैं। स्पष्ट है कि हृदयाघात, विषभक्षण या
(द) आत्मा का अस्तित्त्व है और वह अजर-अमर और | गंभीर दुर्घटना (एक्सीडेन्ट) होने पर उस जीव को मृत्यु-निकट शाश्वत है। अशरीरी है।
अनुभव संभव है जिसकी भुज्यमान आयु शेष है। संभवत: यही उपरोक्त वर्णित सभी घटनाओं से स्वत: सिद्ध है कि शरीर | कारण है कि मृत्यु निकट अनुभव उस प्रकार की परिस्थिति मृत होता है, आत्मा कभी भी मृत नहीं होती। पाम रीनोल्ड, राबर्ट | उपस्थित होने पर सभी को नहीं होते, मात्र कुछ को (वैज्ञानिकों मिलहम आदि के अनुभव संकेत ही नहीं स्पष्टतया सिद्ध करते हैं | के सर्वेक्षण के अनुसर ११ प्रतिशत से लेकर १८ प्रतिशत व्यक्तियों कि शरीर से पृथक होकर भी आत्मा देख सकती है, संवेगों का | को) ही होते हैं। अनुभव कर सकती है। इन घटनाओं ने वैज्ञानिकों को इस दिशा में | विज्ञान सतत खोज, प्रयोग और पर्यवेक्षण का विषय है सोचने को बाध्य किया कि उन्हें अब आत्मा की संभावना पर भी | और वैज्ञानिकों की अनेक कई खोजों के कारण स्वयं विज्ञान ने विचार करना चाहिए जो शरीर के विभिन्न अंगों से पृथक तत्व है। अपने पुराने सिद्धान्तों में परिवर्तन किया है जिससे जैन धर्म की पाम रीनोल्ड आदि की आत्मा शरीर से पृथक होकर डॉक्टर के | पुष्टि होती है। हो रही है। कंधों के ऊपर स्थित होकर अपने शरीर के ऑपरेशन को देख रही
निदेशक,
जवाहर लाल नेहरु स्मृति महाविद्यालय, थी, इससे सिद्ध है कि आत्मा निराकार और अशरीरी रहती है। ।
गंज बासौदा (म.प्र.)
मार्च 2004 जिनभाषित 17
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प्राकृतिक चिकित्सा
'आरोग्यं शरणं गच्छामि'
डॉ. वन्दना जैन स्वास्थ्य हमारा सबसे बड़ा धन है। यह हमारा स्वरुप | ऑक्साइड की मात्रा कई गुना बढ़ जाती है। जो मनुष्य जीवन तथा सिद्ध अधिकार भी माना गया है। इसकी साज संभाल हम कैसे | उनकी दीर्घायु के लिए घातक है। इसलिए हमें मॉर्निंग वॉक यानि करें, कि वह सदा खिला-खिला रहे, हमारे धर्म साधन में काम | प्रात:भ्रमण अवश्य करना चाहिए। आये और हम अपने बड़े-बूढों का चिरंजीव भव का आशीर्वाद वाकिंग का मतलब है तेज-चाल/एक मिनिट में १२० पूरा कर सकें। इसके लिये हमें कुछ सावधानियाँ बरतनी होंगी। कदम चलना। मुँह बंद करके चलना चाहिए। थक जाने पर कमर जीवन में सघन हो रहे तनाव अस्वास्थ्यकर ताकतों को हम कैसे | पर हाथ देते हुए, छाती चौरस करके श्वांस को सामान्य रखना शिकस्त दें। क्या खायें-पीयें, अलग-अलग रोगों में क्या सतर्कता | चाहिए। चहल कदमी और वाकिंग में यही अंतर है। बरतें। दिनोंदिन बिगड़ते पर्यावरण में अपने परिवार व खुद को | फास्ट एक्सरसाइज : (तेज व्यायाम) मॉर्निंग वॉक के कैसे स्वस्थ बनाये रखें। बारहों मास अलग-अलग ऋतुओं में कैसे | बाद शरीर को गर्म करने के लिये, कैलोरी को बर्न करने के लिये अपनी संभाल करें, जानने की कोशिश करते हैं।
तथा रक्त संचार तीव्र करने के लिये फास्ट एक्सरसाइज करते हैं, यह जीवन बदलते मौसम की तरह है, कभी तूफानी सर्द | इसके बाद ध्यान करें। हवायें, कभी चिलचिलाती तेज गर्मी। कभी रुखा-सूखा उदास | ध्यान : जीवन में सघन हो रहे तनाव से बचने के लिये, पतझड़, तो कभी हरा-भरा बसंत । कभी बारिस की फुहारें, कभी | स्मरण शक्ति बढ़ाने तथा संकल्प शक्ति को दृढ़ करने, मन को सालों-साल सूखा ही सूखा। पर सच्चा राही वही है, जो हर | एकाग्र करने के लिये ध्यान का अभ्यास करें, ध्यान का सहारा लें। मौसम का रस ग्रहण करते हुए समान रुप से जीवन को खुशियों से | 'विश्व में ऐसा कोई हॉस्पिटल नहीं है जो अस्वस्थ्य भरा पूरा बनाये रखे। जिसे जीवन सत्र की क्षण भंगुरता और उसके | भावों का इलाज करता हो, पर ध्यान एक ऐसा औषधालय है जहाँ अस्थिर स्वरूप का बोध हो लेकिन इससे उसकी जीवन शक्ति | विभिन्न प्रयोगों के माध्यम से अस्वस्थ्य भावों का रेचन व स्वस्थ और खिल उठे, उस फूल की तरह जो कड़ी धूप और हवा के तेज झोंके सहकर भी टहनी पर खिला रहता है। उस पानी के बुल- आसन : स्थिर सुखमासनम् । जिसमें शरीर स्थिर रहे और बुलों की तरह जो जल की तरंगों पर तैरते हैं, मगर टूटते नहीं।। मन को सुख की प्राप्ति हो, शरीर की उस स्थिति को आसन कहा उस चांद की तरह जो सारा-सारा दिन अपना अस्तित्व मिटता | जाता है। आसन करने से नाड़ियों की शुद्धि, स्वास्थ्य की वृद्धि देखकर भी विचलित नहीं होता और रात घिरते ही जीवंत हो । एवं तन-मन की स्फूर्ति प्राप्त होती है। आसनों को हम ४ भागों में उठता है।
बाँट सकते हैं। सुख में दुख में कठिन और विपरीत घड़ियों में आप विरत १. खड़े होकर किये जाने वाले आसन : रक्त को शुद्ध हुए बगैर अपने स्वास्थ्य की अर्चना में जुटे रहें जीवन का उत्साह | करते हैं इनसे स्नायु दुर्बलता दूर होती है रक्तचाप एनीमिया दूर सदैव अक्षुण्य बना रहे ऐसी जीवन पद्धति को हम अपनायें। । होता है।
.. मार्निंग वॉक - प्रात:काल की सैर व्यायाम में सर्वोत्तम २. बैठकर किये जाने वाले आसन : मंदाग्नि दूर करते मानी गई है। प्रातः मुहूर्त का समय निद्रा त्याग का सर्वोत्तम समय | हैं, पाचक क्रिया बढ़ाते हैं। वायु विकार को दूर करते हैं। शरीर व है। इस समय की वायु के एक-एक कण में संजीवनी शक्ति का | चेतना को स्फूर्ति प्रदान करते हैं। अपूर्व सम्मिश्रण होता है। ज्ञान तंतु रात्रि में विश्राम के बाद नव ३. लेटकर किये जाने वाले आसन : आँखों की दुर्बलता शक्ति युक्त होते हैं, अतः प्रात:कालीन एकांत व सर्वथा शुद्ध | दूर होती है। फेफडों की क्रिया व्यवस्थित हो जाती है तथा वातावरण में मस्तिष्क एकदम उर्वरक हो जाता है, इस समय | सवाईकल स्पोन्डलाइटिस की शिकायत कभी नहीं रहती। वातावरण में
४.विपरीत आसन : सर्वांगासन, शीर्षासन, वृक्षासन आदि आक्सीजन (प्राणवायु)
२१%
इस श्रेणी में आते हैं, यह आसन रक्त की रुकावट को दूर करते हैं। नाइट्रोजन
७९ %
मस्तिष्क, हृदय , गले तथा मलाशय व गुर्दे पर प्रभाव डालते हैं। कार्बनडाईऑक्साइड (दूषित वायु) ०.००३% होती है
कैसा हो आहार : जैसा हमारा आहार होगा वैसा ही जो कि वाहन आदि के चलने से, कारखानों आदि के | हमारा व्यवहार होगा और जैसा हम अन्न खायेंगे वैसा ही मन हो प्रदूषण से पृथ्वी की गर्म वाष्प ऊपर उठती है, तब कार्बनडाई | जायेगा और जैसा हमारा मन सोचेगा वैसा ही हमारा तन करेगा। 18 मार्च 2004 जिनभाषित
तिहा
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यानि पूरी की पूरी प्राकृतिक चिकित्सा ही पाचन तंत्र (डायजेस्ट | सिस्टम) से संबंधित है और योग तंत्रिका तंत्र ( नर्वस सिस्टम) से संबंधित है अतः भोजन का पाचन सही हो इसके लिये हम भोजन के बारे में बात करें कि भोजन कैसे व कब करना चाहिए।
भोजन शांतचित्त होकर, मौन पूर्वक, शोरगुल से रहित स्थान में करना चाहिए। तथा तेज भूख लगने पर ही करना चाहिए, प्राकृतिक चिकित्सा में आहार को ही औषधि माना गया है, परन्तु यह औषधि का कार्य कब करता जब हम भोजन चबा-चबाकर करें । अन्न शब्द अद् धातु से बना है जिसका अर्थ होता है खाना। सम्यक आहार लेना तथा उसे अच्छी तरह से पचाकर शरीर का हिस्सा बन लेना ही सही खाना है। यही अन्न की सार्थकता है, ज्यादा खाने तथा स्वाद के लिये खाने से अन्न हमें खा जाता है। ठूंस-ठूंस कर गरिष्ठ भोजन करने से शरीर की सारी शक्ति निचुड जाती है। जो शक्ति शरीर के समस्त अवयवों को पोषण एवं स्वास्थ्य प्रदान करती है, वहीं गरिष्ठ भोजन को पचाने में नष्ट होने लगती है। प्रत्येक अंग प्रत्यंग रुग्ण एवं कमजोर होने लगते हैं । जीवनी शक्ति नष्ट हो जाती है। शरीर बीमार हो जाता है।
सुबह उठते ही चाय (बेड टी यानि डेड टी) बिस्कुट (जिसमें विष कूट-कूट कर भरा हुआ है) कॉफी, पाव रोटी, ब्रेड, केक, पूडी, टाफी, कचौरी, रंग बिरंगी मिठाईयाँ, डिब्बा बंद आहार में प्रीवेंटिव कलरेट एण्टी, ऑक्सीडेन्ट के रूप में अनेक जहरीले रसायन मिलाये जाते हैं जिनसे कैंसर, गठिया, आंत, यकृत, हृदय एवं फेफड़े के रोग तथा जेनेटिक्स विकृतियाँ पैदा होती हैं इसीलिए आज का लंच बीमारियों का मंच बना हुआ है। आज हम लोग थाली में बैठ कर हार जाते हैं उसी का नाम तो आहार हो गया है। पर होना तो चाहिए था इसके विपरीत सब्जी जैसा कि नाम से ही लगता है जिसको खाने से सब लोग जी जाते है यानि जीवित हो जाते हैं। आज तोरई कोई खाना पसंद नहीं करता वह कहती है तू रोई अपनी किस्मत पर, उसी से दिल तथा गुर्दे की अनेक बीमारियों का ईलाज होता है, एक टेवलेट ही बनाई गई है, तोरई ।
उपवास : सप्ताह में एक दिन या पन्द्रह दिन में एक दिन उपवास अवश्य करें (अष्टमी, चतुर्दशी, एकादशी या पंचमी) गुस्सा या क्रोध करने वाले सोमवार का उपवास करें, क्योंकि
चन्द्रमा शीतलता एवं सुधारस बरसा कर चित्त को शांत करता है । मंगलवार का उपवास मंगलकारी मेधा स्मृति ज्ञान एवं प्रज्ञावान बनने के लिये। बुधवार का उपवास ओज तेज एवं शक्ति के लिये । गुरुवार का उपवास समुद्र की तरह गुरु गंभीर बनने के लिए, शुक्रवार का उपवास शक्ति एवं वृद्धि के लिए शनिवार का उपवास समस्त विघ्नों को दूर करने के लिए तथा रविवार का उपवास तमसो माँ ज्योतिर्गमय के लिये है। उपवास के दिन मौन रखें।
एक दिन उपवास के बाद दूसरे दिन गरिष्ठ भोजन, पकवान, मिठाई खाने से हानि अधिक लाभ कम होता है, इसलिए रस, सूप या दूध से उपवास तोड़ें, सामान्य आहार लें, उपवास के पहले तथा तोड़ने पर ठूंस-ठूंस कर भोजन करने का अर्थ रोग तथा मौत को निमंत्रित करना है।
उपवास में शरीर का विकार निकल जाता है पेट को अवकाश तथा विश्राम मिलता है पाचन संस्थान तथा शरीर को नया जीवन मिलता है रक्त की सफाई होती है। बुढ़ापा लाने वाले फ्रोरेडिकल्स बनना कम हो जाता है। आयु तथा आरोग्य में वृद्धि होती है। रोग होने की संभावना कम हो जाती है । उपवास संजीवनी का कार्य करता है, जो लोग साप्ताहिक उपवास नहीं कर सकते उन्हें फलाहार पर रहना चाहिये ।
नोट :- स्वास्थ्य की दृष्टि से उपवास में गर्म पानी, नीबू पानी अथवा मौसमी का रस विकारों को निकालने की दृष्टि से अधिक लाभदायक माना गया है।
आज हमारे स्वास्थ्य का अक्षय स्त्रोत दूषित कचरे एवं गंदगी में दब गया है विषाक्त बिजातीय पदार्थ एवं विषैले मनोविकारों से कुचलकर सड़ रहा है, मर रहा है। स्वास्थ्य सुमन के खिलने एवं सुरक्षित होने की संभावना नष्ट हो रही है। जागें, उठें एवं एक कुशल माली की तरह प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा दूषित विकारों को हटाकर स्वास्थ्य सौरभ से स्वयं को, समाज को एवं सृष्टि को भर दें। साहस के साथ निसर्गोपचार द्वारा गंदगी की चट्टान को तोड़फोड़ कर हटा दें। स्वास्थ्य का अक्षय शुद्ध सलिल स्त्रोत फूट कर जीवन को तृप्त कर देगा, आनंद विभोर हो आप गा उठेंगे। निसर्ग शरणं गच्छामि, योगं शरणं गच्छामि, आनंदं शरणं गच्छामि, आरोग्यं शरणं गच्छामि
....... I
सूचना
इस वर्ष श्रमण संस्कृति संस्थान, सांगानेर से २० छात्र शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण करेंगे। जिन्हें पाठशाला तथा मंदिर में प्रवचनार्थ विद्वानों की आवश्यकता हो वे पं. श्री रतनलाल जैन बैनाड़ा से संपर्क करें ।
कार्ड पेलेस, सागर फोन : २२६८७७
पं. रतनलाल जैन बैनाड़ा, अधिष्ठाता श्री दि. जैन श्रमण संस्कृति संस्थान, सांगानेर वीरोदय नगर, सांगानेर, जयपुर पिन- ३०३९०२ फोन : ०१४१-२७३०५५२, ५१७७३००
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'साहित्य समीक्षा'
'मनीषी' प्राचार्य नरेन्द्र प्रकाश जैन अभिनन्दन ग्रन्थ' | समीक्षात्मक अभिमतों को आलेखित किया है। चतुर्थ खण्ड में पं. श्री नीरज जैन के निर्देशन में प्रधान सम्पादक डॉ. भागचन्द्र जैन साहित्यक अवदान, यात्राएँ, काव्योद्यान, समीक्षाएँ प्राचार्य जी की 'भागेन्दु' एवं डॉ. जय कुमार जैन, डॉ. शीतल चन्द्र जैन, डॉ. | प्रेरणास्पद तथा समीचीन है। ४ आलेख अन्य विद्वानों में उनके कपूर चन्द्र जैन तथा डॉ. अनुपम जैन, श्री कपूर चन्द्र पाटनी, पं. | लिये लिखे हैं। पंचम खण्ड में बीसवीं सदी के प्रमुख दि. जैन लाल चन्द्र जैन 'राकेश' व पं. विनोद कुमार जैन के सम्पादकत्व | विद्वानों का अति संक्षिप्त परिचय है, उनमें काफी कुछ छूट गये हैं। में सम्पादित हुआ है। ग्रन्थ के प्रबन्ध सम्पादक डॉ. चिरंजी लाल | लगभग ७०० पृष्ठों के ग्रन्थ (आकार ११"x९") में काफी कुछ विद्या-विनय-विवेक के प्रतीक प्राचार्य जी के जीवन्त व्यक्तित्व | समन्वित करने का सफल प्रयास किया गया है। प्रत्येक पृष्ठ पर की यशोगाथा आलेखित करने में समर्थ रही है ऐसा तो नहीं कहा | सुभाषित सूत्र आलेखित हैं जो उपयोगी व प्रेरणास्पद हैं। जा सकता क्योंकि 'वाक अनयन, नयन बिनु वाणी' अतः देखा | मुख पृष्ठ तथा सभी खण्डों के अग्रपृष्ठों पर ऐतिहासिक हुआ भी नहीं कहा जा सकता तो 'मनीषा' में एक मनीषी विद्वान | स्मृति-चित्रग्रन्थ की सार्थकता स्पष्ट कर रहे हैं। ग्रन्थ के नायक की यशोगाथा जीवन्त हो सके यह भी सम्भव नहीं है फिर भी | मनीषी विद्वान प्राचार्य जी के जीवन वृत्त पर आधारित शताधिक ७० लोगों के आशीर्वचन, १७० लोगों की आदरांजलि यशोगाथा | छायाचित्र आकर्षण बढ़ा यशोगाथा में चार चाँद लगा रहे हैं। ग्रन्थ के रूप में काफी कुछ अभिव्यक्त कर रही है। प्रथम खण्ड में | की आदर्श साज-सज्जा सादगी पूर्ण कलात्मक प्रस्तुति एवं त्रुटि आचार्यों तथा मुनियों, त्यागियों, विद्वानों तथा विशिष्ट लोगों के | रहित स्पष्ट मुद्रण सभी कुछ सुन्दरतम है। ग्रन्थ पठनीय, प्रेरणास्पद. मंगलाशीष, सन्देश तथा शुभ कामनायें हैं, जो एक गुणी आदर्श | संग्रहणीय एवं मानवता के लिये अनुकरणीय है। प्रकाशन श्री उदान्त चरित्रवान विद्वान का सम्मोहन तो है ही। द्वितीय खण्ड में | भारतवर्षीय दि.जैन धर्म संरक्षिणी महासभा (पश्चिम बंगाल) शताधिक प्रशंसकों की आदरांजलियाँ हमारे प्रणम्य संस्मरण हैं जो | कोलकाता ने किया है। अभिनन्दनीय विद्वान के प्रति उसके गौरव पूर्ण विशिष्ट गुणों की प्रस्तुत ग्रन्थ जैन-जैनेतर विद्या मंदिरों के पुस्तकालयों में यशोगाथा हैं। तृतीय खण्ड में 'जीवन ऐसे जियो', आत्मकथ्य, | उपयोगी होगा ताकि नवीन पीढ़ी तथा शिक्षित वर्ग ऐसे सदाचारी भैंट वार्ताएँ, व्यक्तित्त्व एवं कृतित्त्व दिया गया है जो ग्रन्थ का | निस्प्रही विद्वान से प्रेरणा ले सके तथा यह भी जाने कि इस अर्थ प्रेरक तत्व अथवा मुख्य आकर्षक पहलू है। न धर्मोः धार्मिकैर्बिना' | युग में भी सुसंस्कार वान विद्वान समाज में प्रणम्य हैं। महासभा के अनुसार गुणों का साकार रूप गुणी में ही दृष्टव्य होता है, अतः | का लक्ष्य जैन धर्म के आदर्शों का प्रचार-प्रसार करना है और इस पाठक इस खण्ड को पढ़कर ही इस 'ग्रन्थ सागर' के रत्न (सूत्र) | ग्रन्थ में एक आदर्श व्यक्तित्व को उसके उदात्त कृतित्त्व के लिये हस्तगत करता है। यह कथ्य संक्षिप्त होते हुये भी सारगर्भित है। अभिनन्दन रूप विनयांजलि दी गयी है जो श्लाघनीय है। ३७ पृष्ठों पर आत्मकथ्य है तथा ९० पृष्ठों पर अन्यान्य विद्वानों के |
प्रो.डॉ. विमला जैन
स. सम्पादिका - 'जैन महिलादर्श' संस्मरण
सच्चा-रास्ता
मुनि श्री क्षमासागर जी
चातुर्मास में जयपुर से कुछ लोग आचार्य महाराज के दर्शन करने नैनागिरि आ रहे थे। वे रास्ता भूल गये और नैनागिरि के
गये। थोडी दर जाकर उन्हें अहसास हआ कि वे भटक गये हैं। इस बीच चार बंदकधारी लोगों ने उन्हें घेर लिया। गाड़ी में बैठे सभी यात्री घबरा गये। एक यात्री ने थोड़ा साहस करके कहा कि 'भैया, हम जयपुर से आऐ हैं। आचार्य विद्यासागर महाराज के दर्शन करने जा रहे हैं, रास्ता भटक गए हैं, आप हमारी मदद करें।' उन चारों ने एक दूसरे की ओर देखा और उनमें से एक रास्ता बताने के लिए गाड़ी में बैठ गया।
नैनागिरि के जल मंदिर के समीप पहुँचते ही वह व्यक्ति गाड़ी से उतरा और इससे पहले कि कोई कुछ पूछे, वह वहाँ से जा चुका था। जब उन यात्रियों ने सारी घटना सुनाई तो लोग दंग रह गए। सभी को वह घटना याद आ गई, जब चार डाकुओं ने आचार्य महाराज से उपदेश पाया था। उस दिन स्वयं सही राह पाकर आज इन भटके हुए यात्रियों के लिए सही रास्ता दिखाकर मानों उन डाकुओं ने उस अमृत वाणी का प्रभाव रेखांकित कर दिया।
'आत्मान्वेषी' से साभार
20 मार्च 2004 जिनभाषित
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महासभाध्यक्ष जी के नाम खुला पत्र
मूलचंद लुहाड़िया
कुछ समय पूर्व एक लेख यह कैसा धर्म संरक्षण' आपको । इसकाल में निर्वस्त्र मुनि अवस्था व्यवहार्य नहीं है अतः आप भेजा था। लेख एवं विशेषत: लेख की अंतिम पंक्तियों के माध्यम | वस्त्र धारण कर लेवें, वे वस्त्र धारण कर परिग्रह से लिप्त हो जाते से समाज संगठन एवं धर्म संरक्षण हेतु निवेदन एवं सुझावों पर | हैं, तथापि अपनी पूजा सत्कार मुनियों के समान ही कराते हैं। यह आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया की समाज को अपेक्षा थी किंतु भेष दिगम्बर मुनि अवस्था का विकृत रूप है। वस्त्र एवं अन्य केवल यही नहीं कि परिणाम निराशा जनक हैं अपितु ऐसा प्रतीत परिग्रह को रखते हुए भी पीछी धारण कर वे पीछी का घोर होता है कि आप एक पक्षीय मान्यताओं के हठाग्रह के कारण | अवर्णवाद कर रहे हैं। आचार्य शांति सागर जी महाराज तो भट्टारकों किसी की कुछ भी सुनने के लिए तैयार नहीं हैं।
को व्रती श्रावक के रूप में भी मान्य नहीं करते थे। जैन आचार आपका एक पत्र दिनांक ९.५.२००३ को मुझे पहले। | शास्त्र के अनुसार भट्टारक प्रतिमाधारी व्रती नहीं होने से श्रावक मिला था। मेरा उसका उत्तर देने की इच्छा नहीं थी। किंतु अभी | भी नहीं कहे जा सकते। भट्टारकों के बारे में हमारा तो केवल १९ फरवरी के जैन गजट में प्रकाशित महासभा की प्रबंधकारिणी | यह कहना है कि आगम के अनुसार इनका स्वरूप निर्धारण समिति की कलकत्ता वैठक के प्रस्ताव सं. ५ को पढ़कर मुझे किया जाना चाहिए। हमारी इस बात का विरोध करते हुए आपने बहुत पीड़ा हुई और मैं उस पत्र और प्रस्ताव पर लिखने के भावों | पू. आचार्यों एवं दि. जैन आगम के विरुद्ध भट्टारकों के पक्ष में को रोक नहीं पाया। मेरी और आपकी बात सब की जानकारी में | अपने हठाग्रह के प्रचार का अभियान चला रखा है। आ सके अस्तु यह खुला पत्र ....... ।
आश्चर्य तो तब होता है जब आप धर्म संरक्षणी महासभा आपने अपने उक्त पत्र में दो बातें लिखी हैं। एक तो यह | के मंच का उपयोग अपनी आगम विरुद्ध धर्म विरुद्ध मान्यता के कि आपकी भट्टारकों के बारे में हमारी राय शुरु से पसंद नहीं | पक्ष में प्रस्ताव पारित कराकर महासभा को विवादास्पद बनाने की थी और आज भी नहीं है। हमारी राय आपको पसंद नहीं है | ओर बढ़ा रहे हैं। यह सच है कि महासभा के इतिहास में आप इसमें मुझे कोई आपत्ति नहीं है। किंतु मुझे दुःख तो इस बात का | ऐसे पहले अध्यक्ष हैं जिन्होंने पूर्ण समर्पण भाव से सर्वाधिक है कि आपको इस बारे में न जिनागम की बात पसंद है और न | समय देकर महासभा को आगे बढ़ाया है। परंतु साथ ही यह भी दि. जैन आचार्यों की। भट्टारकों की उत्पत्ति का इतिहास | उतना ही सच है कि महासभा के इतिहास में आप ही ऐसे पहले सर्वविदित है। बारहवीं शताब्दी में दिगम्बर मुनि परिस्थितिवश अध्यक्ष हैं जो महासभा के साधनों का अपनी एक पक्षीय मान्यताओं बाहर आते जाते समय अधो वस्त्र का प्रयोग करने लगे और | के प्रचार में सर्वाधिक उपयोग करते हुए महासभा को एक पक्षीय धीरे-धीरे पूरे वस्त्र पूरे समय के लिए धारण करने लगे। आगे | बनाते जा रहे हैं। जाकर परिग्रहसंग्रह में लिप्त होकर मठाधीश बन गए और विलासी | अभी महासभा की कलकत्ता में हुई प्रबंधकारिणी समिति जीवन जीने लगे। वे श्रावकोचित संयम भी विधिवत धारण नहीं । की बैठक में प्रस्ताव सं. ५ के द्वारा प.पू. आचार्य विद्यासागर जी करते थे किंतु फिर भी पीछी रखते हुए स्वयं का मुनिवत पूजा | महाराज के आगमानुकूल उपदेश/आदेश की उपेक्षा करते हुए सत्कार कराते थे। ऐसे ही मनिपद से भ्रष्ट परिग्रह धारी मठाधीशों | समिति ने जो पूर्व में प्रबंध समिति की लखनऊ में हई बैठक में के लिए भट्टारक शब्द रूढ हो गया। दिगम्बर जैन धर्म के प्रस्ताव सं. २ भट्टारकों की प्रशंसा/समर्थन में पारित किया था, मुनियों या श्रावकों के आचार ग्रंथों में भट्टारकों का कोई स्थान उसका पुन: अनुमोदन किया है। पूर्व प्रस्ताव में सम्मान्य प्रामाणिक नहीं है। इनकी चर्या जैन आचार संहिता से विपरीत है। दिगम्बर | विद्वान स्व. नाथूराम जी प्रेमी द्वारा लिखित एवं दक्षिण भारत की धर्म के उन्नायक आचार्य कुंदकुंद ने स्पष्ट घोषणा की कि दिगम्बर | लोकप्रिय प्रतिनिधि संस्था, दक्षिण भारत जैन महासभा द्वारा प्रकाशित मुनि उत्कृष्ट श्रावक एवं आर्यिका के अतिरिक्त जैन दर्शन में कोई | पुस्तक 'भट्टारक' की निंदा करने का भी अशोभनीय कार्य किया चौथा लिंग नहीं है। दिगम्बर जैन समाज के मध्यकालीन इतिहास में भट्टारकों के आतंक और अत्याचारों का वर्णन भरा पड़ा है। | प्रबंध समिति के वर्तमान प्रस्ताव में पू. आचार्य श्री के उत्तर भारत में जिनागम के स्वाध्यायी श्रावकों एवं विद्वानों के निर्देश को न मानने के पक्ष में मुख्य तर्क देते हुए कहा गया है प्रभाव से भट्टारक प्रथा लगभग समाप्त हो गई। दक्षिण में अभी | 'भट्टारक परंपरा सैंकड़ों वर्षों से चली आ रही है और उसमें भट्टारकों द्वारा उनका आतंक पूर्वक शोषण तो रूका है। दीक्षा के | मूलभूत परिवर्तन करना समाज की एकता के लिए व प्राचीन समय थोड़ी देर के लिए मुनि बनकर श्रावकों की प्रार्थना पर कि | संस्कृति के लिए हितकर नहीं होगा।' उक्त तर्क को पढ़कर हंसी
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भी आती है और दुःख भी होता है। क्या सैकड़ों वर्षों से चली आ । है कि शिथिलाचारी साधुओं की परंपरा भट्टारकों की परंपरा से रही मिथ्या परंपरा को केवल प्राचीन होने के कारण न बदलना | अनेकों वर्ष पुरानी है। एक ओर आप भट्टारकों की परंपरा का समाज के लिए हितकर होता है? मिथ्यात्व की परंपरा और केवल सैकड़ों वर्ष पुरानी होने के आधार पर समर्थन कर रहे हैं सम्यक्त्व की परंपरा दोनों नाना जीवों की अपेक्षा अनादि कालीन | और दूसरी ओर शिथिलाचारी साधुओं की परंपरा का विरोध कर है। एक जीव की अपेक्षा मिथ्यात्व की परंपरा अनादि कालीन रहे हैं। यह विरोधाभास क्यों? समाज की एकता की रक्षा के प्राचीन होती है और सम्यक्त्व की परंपरा सदैव आदि कालीन | आधार पर भी भट्टारकों, मंत्र-तंत्रवादी साधुओं के पक्ष में भी अर्वाचीन ही होती है।
बहुत लोग हैं। यदि अपने मौलिक सिद्धांतों की हत्या के मूल्य पर भगवान आदिनाथ की दीक्षा के समय दीक्षित हुए सभी | आप सामाजिक एकता चाहते हैं तो आपको श्वेताम्बरों का भी साधु कुछ समय बाद भ्रष्ट हो गए थे और वे सब हजारों वर्षों तक समर्थन करना चाहिए। उनका नहीं तो कम से कम दिगम्बर भ्रष्ट साधु के रूप में रहे। पुनः भगवान को केवल ज्ञान प्राप्त होने | कहलाने वाले सोनगढ़ पंथियों एवं शिथिलाचारी साधुओं का तो के पश्चात समीचीन साधु चर्या का उपदेश प्राप्त कर अपने मिथ्या समर्थन कर समाज में एकता स्थापित करने की ओर अग्रसर होना भेष और मिथ्या आचरण का त्याग कर मारीच को छोड़कर सभी चाहिए जो आपको भी ईष्ट नहीं है। वस्तुतः सिद्धान्तों का संरक्षण भेषी साधु पुनः दीक्षित होकर सच्चे साधु बनकर रत्नत्रय की । सर्वोपरि है। आराधना करने लगे। (आदि पुराण श्लोक १८२)
| आपके वैचारिक विरोधाभास एवं पक्ष व्यामोह का यह इसीप्रकार भगवान महावीर के निर्वाण प्राप्ति के पश्चात् | मुंह बोलता उदाहरण यह है कि एक ओर आप कानजी पंथियों का भद्रबाहु श्रुत केवली के काल में जैन साधु वस्त्र धारण करने लगे | विरोध करते हुए कानजी को सद्गुरु के रूप में पूज्य मानने को और उन्होंने श्वेताम्बर सम्प्रदाय की नींव डाली। अपनी मान्यताओं | मिथ्यात्व घोषित करते हैं और दूसरी ओर उनसे अधिक आरंभ के पक्ष में आगम साहित्य सृजन कर उन्होंने श्वेताम्बर सम्प्रदाय परिग्रह भोगादि में लिप्त पीछीधारी भट्टारकों के सर्वथा आगम को एक सबल सम्प्रदाय के रूप में विकसित किया। क्या सैकड़ों | विरुद्ध स्वरूप को महासभा के मंच से मान्यता प्रदान करते और वर्ष प्राचीन और जैन नाम वाले का आगम साहित्य से समर्थित | उसको पुनः पुनः पुष्ट करते तनिक भी संकोच नहीं करते हैं। अपने होने के कारण हम उसको समीचीन स्वीकार करेंगे और समाज | को आचार्य शांतिसागर जी महाराज के उपासक धर्म संरक्षक मुनि की एकता भंग होने के तथाकथित भय के आधार पर उन मान्यताओं | भक्त बताने वाले आपने और आपके साथियों ने आज के युग में का आगम और तर्क से खंडन नहीं करेंगे? आगे चलकर दिगम्बर | आचार्य शांतिसागर महाराज के मिशन के प्रायोगिक उन्नायक साधुओं में भी शिथिलाचार का प्रवेश सैकड़ों वर्ष पहले हो गया | निर्दोष मुनिचर्या को जीकर स्थापित करने वाले दिगम्बर जैन धर्म था। आचार्य कुंदकुंद ने अपने साहित्य में ऐसे शिथिलाचारी भ्रष्ट | के सातिशय प्रभावक आचार्य विद्यासागर जी महाराज के द्वारा साधुओं को खूब आड़े हाथों लिया है। उनकी वंदना आदि करनेका | दिगम्बर जैन आचार पक्ष में आई विकृति को दूर करने की दिशा में विरोध किया है। आचार्य देवसेन ने दिगम्बर जैनाभासों का कथन | प्रदान किए गए आगमानुकूल निर्देश को केवल ठुकराया ही नहीं किया है। अनेक दिगम्बर जैनाचार्यों ने पार्श्वस्थ आदि शिथिलाचारी अपितु उसके विरुद्ध उस मिथ्यात्व को पुनर्पष्ट करने का अक्षम्य साधुओं की निंदा की है। अभी महासभा के मुख-पत्र जैन गजट अपराध किया है। श्रीमान जी! भट्टारकीय परंपरा प्राचीन दि. जैन में साधुओं के शिथिलाचार के विरुद्ध पर्याप्त पुष्ट आगम प्रमाणों से | संस्कृति नहीं है यह तो दि. जैन संस्कृति में शिथिलाचारी परिग्रह समर्थित सम्पादकीय लेख प्रकाशित हुए हैं इसी प्रबंध समिति की लिप्सु भोगासक्त साधुओं द्वारा लाई गई चिंतनीय विकृति है। ऐसी बैठक के साथ-साथ ही कलकत्ते में ही महासभा का जो साधारण | विकृत परपंरा का बार-बार महासभा के मंच से समर्थन कर आपने अधिवेशन हुआ उसके पारित प्रस्ताव सं. २ में आपने साधुओं से महासभा के धर्म संरक्षण के पवित्र उद्देश्य को निष्ठुरता पूर्वक भंग जिनाज्ञा पालन एक लौकिक विषय एवं मंत्रतंत्रादि में अनुरक्त न | किया है। होने की अपेक्षा की है। यदि केवल प्राचीन परंपरा होने के कारण दिगम्बर साधुचर्या और दिगम्बर मुद्रा तो दिगम्बर जैन ही मिथ्या परंपराएँ समीचीन बन जाती हो और उनका विरोध | धर्म के प्राण हैं। विदेशों की यात्रा पर जाने वाले भट्टारकों को समाज के लिए हितकर न होता हो तो क्यों आप सैकड़ों वर्षों की | देखकर अनेक विदेशी लोग यह समझ बैठे हैं कि श्वेताम्बर जैन साधुओं के शिथिलाचार एवं आचरण भ्रष्टता की पुरानी परंपरा को साधु सफेद वस्त्र पहनने वाले होते हैं और दिगम्बर जैन साधु धर्म और समाज के लिए अहितकर मानते हुए उसका विरोध कर | गेरुआं वस्त्र पहनने वाले होते हैं। रहे हैं? यदि निष्पक्ष होकर सोचें तो शिथिलाचारी साधुओं से भी इन दिगम्बर साधु के दोषयुक्त विकृत रूप भट्टारक संस्था भट्टारक परंपरा समाज के लिए अधिक अहितकर है। भट्टारक | का समय-समय पर सभी आगमज्ञ विद्वानों ने विरोध किया है, तो वस्त्र परिग्रह एवं विषयों में आकंठ डूबे होते हुए भी पीछी | जिसके फलस्वरूप उत्तर भारत में तो इस संस्था का नाम मात्र शेष रखते हुए अपने को मुनि के समान पुजवाते हैं। सही स्थिति यह | रह गया। दक्षिण भारत में भी दक्षिण भारत दि. जैन सभा जैसी 22 मार्च 2004 जिनभाषित
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दिगम्बर जैनों की प्रतिनिधि संस्था ने भट्टारक संस्था का विरोध । कीजिए। पूर्व में तेरह पंथ और बीस पंथ में सामान्यतः पूजा पद्धति किया है। फिर भी श्रावकों में स्वाध्याय के अभाव के कारण दि. | मात्र का अंतर था। किंतु आज तो हम लोगों ने बीस पंथ को जैन साधु के समीचीन स्वरूप की जानकारी नहीं होने से भट्टारकों | दिगम्बर जैन धर्म के मूल सिद्धांतों की उपेक्षा करते हुए इसे की मान्यता पाई जाती है। उन अवशिष्ट भट्टारकों के आगमानुसार ब्राह्मण पंथ बना दिया है। मध्यकाल में कतिपय जैन अथवा स्वरूप निर्धारण की आज महती आवश्यकता है।
ब्राह्मण भट्टारकों ने जैन धर्म में जिस विशेष विकृति का प्रवेश भट्टारक संस्था के बारे में प.पू. आचार्य वर्द्धमान सागर | करा दिया था, आज उसके समर्थन में और उसके प्रचार में पूरी जी से मेरी अनेक बार चर्चा हुई है। उनका यह कहना है कि | शक्ति लगाई जा रही है। वर्तमान भट्टारकों से मिलकर उनके चरणानुयोग आगम के अनुकूल | भट्टारक बने रहें परंतु वस्त्रधारण करते हुए व्रती श्रावक स्वरूप निर्धारण का प्रयास करना चाहिए। वस्त्रादि परिग्रह सहित | के रूप में अपना आगम के अनुसार पद निर्धारित करने, धर्म रहने पर उनको पीछी नहीं रखने के लिए कहा जाना चाहिए। | साधना करते हुए जैन धर्म की प्रभावना करें। ऐसा करके हम उन्हीं के निर्देशन पर मैं भट्टारक चारूकीर्तिजी से चर्चा करने | दिगम्बर जैन धर्म की मुनि और श्रावक की आचरण संस्कृति की श्रवणबेलगोल गया था। मैंने पाया कि वे आगमभीरू हैं और सुरक्षा करते हुए सामाजिक एकता भी स्थापित कर पायेंगे। सद्भावना पूर्वक स्वरूप निर्धारण के सम्बन्ध में आयोजित चर्चा में मुझे विश्वास है कि हमारे आराध्य देव-शास्त्र-गुरु का भाग लेने से परहेज नहीं करेंगे।
अवमूल्यन दिगम्बर जैन समाज में हुआ जा रहा है। उसको आप आपने प.पू. आचार्य शांतिसागर जी और आचार्य विद्यासागर | भी अवश्य दिगम्बर जैन धर्म के लिए एक संकट का चिन्ह मान जी की बात तो नहीं मानी। क्या आप आचार्य वर्द्धमान सागर जी रहे हैं। अब वीतराग देव की आराधना के स्थान पर सरागी देवी की बात मानने के लिए तैयार हैं ? यदि हाँ तो एक बार आचार्य श्री | देवता हमारी पूजा आराधना के केन्द्र बनते जा रहे हैं। अपनी के सान्निध्य में खुली चर्चा आयोजित कर इस विवाद का सकारात्मक | लौकिक ऐषणाओं की पूर्ति का आश्वासन देने वाले मंत्र-तंत्र वादी एवं सर्वमान्य हल प्राप्त करने में पहल कीजिए।
एवं शिथिलाचारी साधुओं की ओर हम अधिक आकृष्ट होते जा दिगम्बर जैन धर्म के संरक्षण का पवित्र उत्तरदायित्व आपके | रहे हैं। इसी प्रकार वैराग्य पोषक आध्यात्मिक ग्रंथों के स्वाध्याय कंधों पर है। दिगम्बर जैन धर्म का अस्तित्त्व सच्चे देव-शास्त्र-गुरु | के स्थान पर सरागी देवी देवताओं की पूजा, गुणगान तथा मंत्र-तंत्र के अस्तित्त्व पर आधारित है। आपसे पुन:पुनः निवेदन है कि आप | की पुस्तकें हमें रुचिकर लगने लगी हैं। दि. जैन धर्म पर कृपा कीजिए और इसके संरक्षण के लिए जिनवाणी वीतराग जैन धर्म के लोक कल्याणकारी आध्यात्मिक रुप की एवं प.पू. आचार्यों की बात मानिए, मनमानी मत करिए। को संरक्षित और जीवित रखने के लिए हमें इन आत्मघाती प्रवृतियों
दूसरी बात आपने पत्र में लिखी है कि हम तेरहपंथ के | को अनुत्साहित करना होगा। समर्थक हैं और हमको बीस पंथ वालों का दिल ज्यादा नहीं आशा है आप इस महान उद्देश्य वाली महान संस्था महा दुखाना चाहिए। मुझे अत्यधिक आश्चर्य मिश्रित दुख है कि आपके | सभा के द्वारा इस अनेकांतात्मक युक्तियुक्त जैन धर्म और उसके स्वयं के द्वारा किए जा रहे इस पंथ भेद के विषैले प्रचार का दोष | वैज्ञानिक प्रायोगिक पक्ष के संरक्षण हेतु समाज में एकता एवं आप हमारे ऊपर डालना चाह रहे हैं। हमने कहीं कभी तेरह पंथ, | विचार साम्य का वातावरण निर्माण करने का प्रभावकारी प्रयास बीस पंथ और उसके पक्ष-विपक्ष की चर्चा नहीं की।
कर महासभा के धर्म संरक्षणी नाम को सार्थक सिद्ध करेंगे। कृपा करके पंथ भेद के आधार पर समाज में विघटन की
मदनगंज, किशनगढ़ खाई को और चौड़ा करने के बजाय उसको पाटने का सद्प्रयास |
भजन
बाजे कुण्डलपुरमें बधाई किनगरी में वीरजनमे महावीरजी जागे भाग्य हैं, त्रिशला माँ के कित्रिभुवन के नाथ जन्मे महावीरजी शुभ घड़ी जनम की आयी, कि स्वर्ग से देव आये महावीरजी...... बाजे कुण्डलपुरमें तेरा न्हवन करेंमेरुपर, कि इन्द्र जलभर लाये महावीरजी... बाजे कुण्डलपुरमें तेरेपालने में हीरेमोती, किडोरीयोमें लाललटके
महावीरजी....बाजे कुण्डलपुरमें तुम्हें देवीयाँ झुलावें झूला, किमन में मगन होके महावीरजी ..... बाजे कुण्डलपुरमें अब ज्योति है तेरी जागी, कि सूरज चाँद छिप जायेंगे महावीर जी ..... बाजे कुण्डलपुरमें तेरेपिता लुटायें मोहरे, कि खजाने सारेखुल जायेंगे महावीरजी..... बाजे कण्डलपरमें हम दरश को तेरे आये, कि पाप सारेधूल जायेंगे महावीरजी..... बाजे कुण्डलपुरमें .
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पा-समाधान
पं. रतन लाल बैनाड़ा
प्रश्नकर्ता - श्री सरिता जैन, नन्दुरवार
अर्थ- लोक अलोक के विभाग को, युगों के परिवर्तन को जिज्ञासा - लब्धपर्याप्तक मनुष्य सैनी है या असैनी? तथा चारों गतियों को दर्पण के समान प्रगट करने वाले करणानुयोग
समाधान - नारकी, देव एवं मनुष्य असैनी होते ही नहीं हैं, को सम्यग्ज्ञान जानता है। देव व नारकी, निवृत्य पर्याप्त अवस्था में तथा मनुष्य लब्धि अपर्याप्त | श्री जयधवला के टीकाकार आ. जिनसेन ने आदिपुराण तथा निवृत्य पर्याप्त अवस्था में सैनी ही होते हैं । जो असैनी होते हैं । २/९९ में इसप्रकार कहा है, उनके पाँच तक पर्याप्ति होती हैं तथा सैनी के ६ पर्याप्ति होती हैं।
'द्वितीयःकरणादिः स्यादनयोगःसयत्र वै। जो लब्धि अपर्याप्त मनुष्य हैं उनके ६ अपर्याप्ति होती हैं अर्थात्
त्रैलोक्यक्षेत्रसंख्यानं कुलपत्रेऽधिरोपितम ।।९९॥' अपर्याप्त दशा में छहों पर्याप्तियाँ प्रारंभ तो होती हैं परन्तु पूर्ण एक अर्थ - दूसरे महाधिकार का नाम करणानुयोग है। इसमें भी नहीं होती। उनको नो इन्द्रियावरण कर्म का क्षयोपशम अवश्य | तीनों लोकों का वर्णन उस प्रकार लिखा होता है जिसप्रकार किसी होता है परन्तु पर्याप्ति पूर्ण न होने से द्रव्य मन एवं भाव मन नहीं | ताम्रपत्र पर किसी की वंशावली लिखी होती है ॥ ९९ ॥ पाया जाता। तथापि वे नो इन्द्रियावरण कर्म का क्षयोपशम होने से अनगार धर्मामृत में करणानुयोग का स्वरूप इस प्रकार कहा है सैनी ही कहे जाते हैं।
चतुर्गतियुगावर्तलोकालोकविभागवित्। जिज्ञासा - विग्रहगति के प्रथम समय से ही जन्म माना
हृदिप्रणेयः करणानुयोग: करणातिगै॥१०॥ जाये या योनि स्थान प्राप्त होने पर?
अर्थ - नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देवरूप चार गतियों, युग समाधान - उपरोक्त प्रश्न के संदर्भ में श्री राजवार्तिक | अर्थात् सुषमा-सुषमा आदि काल के विभागों का परिवर्तन तथा अध्याय २, सूत्र ३४ की टीका में इस प्रकार कहा है, 'मनुष्यस्तैर्यग्योनो लोक और अलोक का विभाग जिसमें वर्णित है उसे करणानुयोग वा छिन्नायुः कार्मणकाययोगस्थो देवादिगत्युदयाद् देवा | कहते हैं। जितेन्द्रिय पुरुषों को इस करणानुयोग को हृदय में धारण दिव्यपदेशभागिति कृत्वा तदेवास्य जन्मेति मतमितिः, तन्नः किं करना चाहिए॥१०॥ कारणम्। शरीर निर्वर्तकपुद्गलाभावत्। देवादिशरीर निवृत्तौ हि इसकी स्वोपज्ञ टीका में पं. आशाधर जी ने उदाहरण रूप देवादिजन्मेष्टम्।'
लोकायिनी, लोक विभाग, पंचसंग्रह आदि ग्रंथों का नाम दिया है। प्रश्न - मनुष्य व तिर्यंचायु के छिन्न हो जाने पर श्री वृहद्रव्य संग्रह में गाथा ४२ की टीका में इसप्रकार कार्मणकाययोग में स्थित अर्थात् विग्रहगति में स्थित जीव को कहा है, 'त्रिलोकसारे जिनान्तरलोक विभागादि ग्रन्थव्याख्यानं देवगति का उदय हो जाता है, और इस कारण उसको देवसंज्ञा भी | करणानुयोगो विज्ञेयः।' प्राप्त हो जाती है। इसलिए उस अवस्था में ही उसका जन्म मान लेना त्रिलोकसार में तीर्थंकरों का अन्तराल और लोकविभाग चाहिए?
आदि व्याख्यान है। ऐसे ग्रन्थ रूप करणानुयोग जानना चाहिए। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि शरीर योग्य पुदगलों का ग्रहण । उपरोक्त सभी प्रमाणों के अनुसार तिल्लोयपण्णत्ति, न होने से उस समय जन्म नहीं माना जाता । देवादिकों को शरीर की | त्रिलोकसार, लोक विभाग, जम्बूदीपपण्णत्ति आदि ग्रंथ निश्चित रूप निष्पत्ति को ही जन्म संज्ञा प्राप्त है।
से करणानुयोग के ग्रन्थ हैं। उपरोक्त प्रमाण के अनुसार विग्रहगति के प्रथम समय से ही अब विभिन्न आचार्यों द्वारा कही गई द्रव्यानुयोग की जीव को नवीन गति का जीव तो माना जाता है परन्तु जब वह योनि | परिभाषाओं पर विचार करते हैं। स्थान पर पहुँचकर, शरीर के योग्य वर्गणाओं को ग्रहण करने लगता श्री रत्नकरण्डश्रावकाचार में द्रव्यानुयोग का स्वरूप इस है तब ही उसका जन्म मानना आगम सम्मत है।
प्रकार कहा हैप्रश्नकर्ता - ब्र. सोमदेव जी।
जीवाजीवसुतत्त्वे पुण्यापुण्ये च बन्धमोक्षो च। जिज्ञासा - श्री षटखण्डागम तथा उनकी श्री धवलादि
द्रव्यानुयोगदीपः श्रुतविद्यालोकमातनुते॥४६॥ टीकाओं को करणानुयोग का ग्रन्थ मानना चाहिए या द्रव्यानुयोग अर्थ- द्रव्यानुयोग रूपी दीपक जीव-अजीव रूप सुतत्त्वों का?
को, पुण्य-पाप और बन्ध-मोक्ष को तथा भाव श्रुतरूपी प्रकाश को समाधान- आगम का चार अनुयोगों में विभाजन सर्वप्रथम | विस्तारता है। आ. समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में किया है। उनके । आदिपुराण में जयधवला के रचियता आ. जिनसेन महाराज अनुसार करणानुयोग का स्वरूप इस प्रकार कहा गया है, ने इस प्रकार कहा है'लोकालोकविभक्तेर्युगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनांच।
तुर्योद्रव्यानुयोगस्तु द्रव्याणां यत्र निर्णयः आदर्शमिव तथामतिरवैति करणानुयोगं च॥४४॥'
प्रमाणनयनिक्षेपैः सदाद्येश्च किमादिभिः॥१०॥ 24 मार्च 2004 जिनभाषित
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अर्थ- चौथा महाधिकार द्रव्यानुयोग है, इसमें प्रमाण, नय, । के अंग सौंदर्य आदि को नहीं, अथवा अनेक जगह यथालाभ निक्षेप तथा सत्संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व, | उपलब्ध होने वाले चारे के पूरे को ही खाती है। उसकी सजावट निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति, विधान आदि के द्वारा | आदि को नहीं देखती, उसी तरह भिक्षु भी परोसने वाले के मृदु द्रव्यों का निर्णय किया जाता है। (टीका पं. पन्नालाल जी) ललित रूप वेष और उस स्थान की सजावट आदि को देखने की
पं. आशाधर जी ने अनगार धर्मामृत में इसप्रकार लिखा है- | उत्सुकता नहीं रखता और न 'आहार सूखा है या गीला, या कैसे जीवाजीवौ बन्धमोक्षौ पुण्यपापेचवेदितुम।
चाँदी आदि के बरतनों में रखा है या कैसी उसकी योजना की गयी द्रव्यानुयोगसमयसमयन्तुमहाधियः ॥१२॥ है, आदि की ओर भी उसकी दृष्टि नहीं रहती है। वह तो जैसा भी
अर्थ-जीव-अजीव, बन्ध-मोक्ष और पुण्य-पाप को जानने | आहार प्राप्त होता है वैसा खाता है। अत: भिक्षा को गौ की तरह के लिए तीक्ष्ण बुद्धि शाली पुरुषों को द्रव्यानयोग विषयक शास्त्रों | चार-गोचर या गवेषण कहते हैं। इस प्रकार से आहार ग्रहण करना को सम्यक् रीति से जानना चाहिए ॥१२॥ इसकी स्वोपज्ञ टीका में | गोचरी वृत्ति कहलाती है।' पं. आशाधर जी के उदाहरण स्वरूप सिद्धांतसूत्र एवं तत्वार्थसूत्रादिक प्रश्नकर्ता - श्री सुशीलकुमार जैन, दिल्ली लिखा है।
जिज्ञासा- किस सम्यक्त्व से कौन सा सम्यक्त्व हो सकता वृहद्रव्य संग्रह ४२ की टीका में इस प्रकार कहा है- | है और कौन सा नहीं? प्राभृततत्वार्थ सिद्धान्तादौ यत्र शुद्धाशुद्ध जीवादिषद्रव्यादीनां समाधान - १. प्रथमोपशम सम्यक्त्व से क्षायोपशमिक मुख्यवृत्या व्याख्यानं क्रियते स द्रव्यानयोगो भण्यते।
सम्यक्त्व हो सकता है, क्षायिक या द्वितीयोपशम नहीं। अर्थ-समयसार आदि प्राभृत और तत्वार्थसूत्र तथा सिद्धान्त २. द्वितीयोपशम सम्यक्त्व से क्षायोपशमिक सम्यक्त्व हो आदि शास्त्रों में मुख्यता से शुद्ध-अशुद्ध जीव आदि छ: द्रव्य आदि | सकता है, प्रथमोपशम या क्षायिक नहीं। का जो वर्णन किया गया है वह द्रव्यानुयोग कहलाता है।
३. क्षायोपशमिक सम्यक्त्व से क्षायिक सम्यक्त्व एवं उपरोक्त परिभाषाओं के अनुसार श्री षटखण्डागम तथा उसकी | द्वितीयोपशम सम्यक्त्व हो सकते हैं प्रथमोपशम नहीं। श्री धवलादि टीकाएँ द्रव्यानुयोग के ग्रन्थ हैं। आचार्य जिनसेन ने तो। ४. क्षायिक सम्यक्त्व के बाद अन्य किसी की आवश्यकता श्री षटखण्डागम के विषय को स्पष्ट रूप से द्रव्यानुयोग स्वीकार किया | नहीं रहती, अतः अन्य कोई सम्यक्त्व नहीं होता। है। तथा पं. आशाधर जी एवं वृहद्रव्यसंग्रहकार ने भी उदाहरण प्रश्नकर्ता - श्री नवीन कुमार जैन , सागर। स्वरूप सिद्धांत सूत्रों को द्रव्यानुयोग में माना है, जिससे ये सिद्धान्तग्रंथ जिज्ञासा - क्या मद्यांग जाति के कल्पवृक्ष शराब देते हैं ? द्रव्यानुयोग के अन्तर्गत आते हैं। पूज्य आ. विद्यासागर जी महाराज भी समाधान - मद्यांग जाति के कल्पवृक्ष शराब नहीं देते। इन सिद्धान्त ग्रंथों को द्रव्यानुयोग ही स्वीकार करते हैं।
शराब तो अभक्ष्य है। कल्पवृक्षों से अभक्ष्य वस्तुएँ प्राप्त नहीं होती। यद्यपि उपरोक्त परिभाषाओं के अनुसार श्री षट्खण्डागम श्री आदिपुराण के नवम पर्व में इस प्रकार कहा है, का वर्णित विषय करणानुयोग की परिभाषा के अन्तर्गत आता हुआ
'मद्याङ्गमधुमैरेयसीध्वरिष्ठसवादिकान्। प्रतीत नहीं होता, फिर भी शायद उनमें वर्णित गणित के विषय को
रसभेदास्ततामोदावितरन्त्यमृतोपमान्॥३७॥' देखकर पं. टोडरमल जी, क्षुल्लक जिनेन्द्रवर्णी तथा पं. पन्नालाल
कामोद्दीपनसाधर्म्यातमद्यमित्युपचर्यते। जी साहित्याचार्य, सागर ने श्री षटखण्डागम, जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड ताखोरसभेदोऽयं यः सेव्यो भोगभूमिजैः॥३८॥ आदि को करणानुयोग के अन्तर्गत स्वीकार किया है। आशा है
भदस्य करणंमद्यं पानशौण्डैर्यदादूतम्। विद्वतगण इस संबंध में और विचार करेंगे।
तवर्जनीयमार्याणामन्तःकरण मोहदम्॥ ३९॥ प्रश्नकर्ता - श्री अक्षय डांगरा, बांसवाड़ा
___ अर्थ - इनमें मद्यांगजाति के वृक्ष फैलती हुई सुगन्धि से युक्त जिज्ञासा - गोचरीवृत्ति से आहार करना किसे कहते हैं? | तथा अमृत के समान् मीठे मधु-मैरैय, सीधु, अरिष्ट और आसव
समाधान - श्री अकलंक स्वामी ने राजवार्तिक अध्याय | आदि अनेक प्रकार के रस देते हैं ॥३७॥ ९/६ की टीका में इस प्रकार कहा है, 'यथा सलीलसालंकारवर कामोद्दीपन की समानता होने से शीघ्र ही इन मधु आदि युवतिभिरूपनीय मानघासो गौ तदङ्गगतसौन्दर्यनिरीक्षणपर: | को उपचार से मद्य कहते हैं। वास्तव में ये वृक्षों के एक प्रकार के तृणमेवात्ति, यथा तृणोलूपं नानादेशस्थं यथा लाभमभ्यवहरति न | रस है जिन्हें भोगभूमि में उत्पन्न होने वाले आर्यपुरुष सेवन करते योजना संपदमवेक्षते तथा भिक्षुरपि भिक्षापरिवेषजनमदुललितरूप | हैं ॥ ३८॥ वेषविलासावलोकन निरुत्सुकः शुष्कद्रवाहारयोजनाविशेष मद्यपायी लोग जिस मद्य का पान करते हैं वह नशा करने चानवेक्षमाणः यथागतमनाति इति गौरिव चारो गोचार इति व्यपदिश्यते, | वाला है और अन्त: करण को मोहित करने वाला है, इसलिए आर्य तथा गवेषणेति च ।'
पुरुषों के लिए सर्वथा त्याज्य है ॥ ३९॥ अर्थ -- जैसे गाय, गहनों से सजी हुई सुन्दर युवती के द्वारा - इस प्रकरण से स्पष्ट होता है कि मद्यांग जाति के कल्पवृक्ष, लायी गयी घास को खाते समय, घास को ही देखती है, लानेवाली | शराब नहीं देते, उत्तेजक पदार्थ प्रदान करते हैं।
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पशुपक्षी-बलि-प्रतिषेध अधिनियम हेतु अनुरोध
देश के अनेक प्रान्तों में 'पशु-पक्षी-बलि प्रतिषेध' विषयक अधिनियम नहीं होने से अनेकशः स्थानों पर पशुपक्षियों की बलि चढ़ाए जाने के समाचार पढ़ने-सुनने में आते रहते हैं। म.प्र. की विधानसभा से पूर्व में एतद् विषयक अधिनियम पारित भी होचका है। किन्तु किन्हीं कारणों से वह अभी तक राजपत्र में प्रकाशित नहीं हो पाया है। पाठकों से अपेक्षा है कि वे अपने नगर के अहिंसक, शाकाहार, जीवदया, प्राणीमैत्री में आस्था रखने वाले जैन एवं जैनेतर व्यक्तियों तथा संस्थाओं से सम्पर्क स्थापित करें एवं निम्नलिखित मैटर को अपनी-अपनी संस्थाओं के नाम से मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री सुश्री उमाभारती, भोपाल केनाम से प्रेषित करें। इसी के साथ ज्ञापन में उल्लिखित प्रान्तों को छोड़कर उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, उड़ीसा, बिहार, झारखण्ड, हरियाणा आदि प्रान्तों के मुख्यमंत्रियों को भी इस मैटर में से बीच का एक पैराग्राफ हटाकर प्रेषित करके जीवदया के कार्य में अपना योगदान दे सकते हैं।
सम्पादक
विषय : प्रदेश में पशु एवं पक्षियों की बलि-प्रथा रोकने हेतु अधिनियम बनाए जाने के सम्बन्ध में।
१. हम आपका ध्यान इस ओर आकृष्ट करना चाहते हैं कि प्रदेश में अनेक जगहों पर धार्मिक उपासना स्थलों की पवित्रता को पशु या पक्षियों की बलि चढ़ाकर धर्म के नाम पर व्यक्तिगत स्वार्थ, भोग-लिप्सा के बहाने नष्ट किया जा रहा है।
२. सभी धर्म एवं सम्प्रदाय को मानने वाले यह भली-भाँति जान चुके हैं कि इन मूक एवं निरीह प्राणियों की बलि चढ़ाए जाने से देवता प्रसन्न नहीं हो सकते। इन प्राणियों की जीवन रक्षा करना हम सब का परम कर्तव्य है, धर्म है। आज जब असहाय और मूक पशु-पक्षियों की विभिन्न प्रजातियों के संरक्षण करने हेतु केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों द्वारा अनेक कल्याणकारी कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं, तो ऐसी परिस्थितियों में उनकी बलि चढ़ाए जाने पर रोक नहीं लगाया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है।
३. अहिंसा, दया, करुणा की प्रतिमूर्ति भगवान् महावीर स्वामी के २६०२ वें जन्म जयन्ती वर्ष के पुनीत प्रसंग पर हम आप जैसे संवेदनशील एवं अनुशासन प्रिय महोदय से अनुरोध करते हैं कि मंदिरों एवं धार्मिक उपासना स्थलों की पवित्रता को बनाए रखने हेतु प्रदेश में पशु-पक्षी बलि प्रतिषेध विषयक अधिनियम बनवाकर, उसका अतिशीघ्र पालन करना सुनिश्चित करावें और प्रदेश में व्याप्त इस सामाजिक बुराई को दूर करके मूक पशु-पक्षियों का अभयदान दिलवाएँ।
४. यहाँ विशेष रूप से यह भी ध्यातव्य है कि इस विषय में देश में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही विभिन्न प्रदेशों में प्रयास किए जाकर अधिनियम बनाए जा चुके हैं, जो संलग्न हैं : १. मैसूर पशु बलि निवारण अधिनियम, १९४८
(देखें, पृष्ठ ४५०) The Mysore Prevention of Animal Sacrifices Act, 1948 (Mysore Act Ll of 1948).
(See, Page 462) आन्धप्रदेश पशु-पक्षियों की बलि (प्रतिषेध) अधिनियम, १९५०
(देखें, पृष्ठ ४७९-४८०) (संशोधन अधिनियम, दिसम्बर १९७० द्वारा संशोधित १९७० का १५ वाँ) The Andhra Pradesh Animals and Birds Sacrifices (Prohibition) Act, 1950 (32 of 1950) (As amended upto December 1970, wide the Andhra Pradesh Animals and Birds Sacrifices Prohibition (Amandment) Act, No 15 of 1970)
(See, Page 481-483) तमिलनाडू पशु-पक्षी बलि प्रतिषेध अधिनियम १९५०
(देखें, पृष्ठ ४९५-४९६) Tamil Nadu Animals and Birds Sacrifices (Prohibition) Act, 1950
(See.Page 505) Madras Animals And Birds Sacrifices Prohibition Act, 1950 (Madras Act No. xxxil of 1950)
(See, Page 462) ४. कर्नाटक पशु बलि प्रतिषेध अधिनियम, १९५९
(देखें, पृष्ठ ४४७-४५०) The Karanataka Prevention of Animals Sacrifices Act, 1959 (3 of 1960]
(See, Page 460-463) ५. कर्नाटक पशु बलि प्रतिषेध नियम, १९६३
(देखें, पृष्ठ ४५०) The Karanataka Prevention of Animals Sacrifices Rules, 1963
(See, Page 460-463) The Karanataka Prevention of Animals Sacrifices (Amendment) Act, 1975
INo.21 of 1975] ६. पाण्डिचेरी पशु-पक्षी बलि प्रतिषेध अधिनियम, १९६५
(देखें, पृष्ठ ५७२-५७३ एवं ४२५) The Pondicherry Animals And Birds Sacrifices Prohibition Act, 1965 (8 of 1965) (See, Page 425-426) ७. केरल पशु-पक्षी बलि प्रतिषेध अधिनियम १९६८
(देखें, पृष्ठ ५०६-५०७) The Kerala Animals and Birds Sacrifices Prohibition Act, 1968 (20 of 1968] 26 मार्च 2004 जिनभाषित
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(See, Page 507-508 and Page 381-382) ८. Andhra Pradesh Animals and Birds Sacrifices Prohibition (Amendment) Act, 1970 [No. 15 of 1970]
(See, Page 483) ९. गुजरात पशु और पक्षी बलि (प्रतिपेध) अधिनियम, १९७२
(देखें, पृष्ठ ३८४-३८५) The Gujrat Animals and Birds Sacrifices (Prevention) Act, 1972
(See, Page 318) १०. राजस्थान पशु-पक्षी बलि (प्रतिषेध) अधिनियम, १९७५
(देखें, पृष्ठ ३८४-३८५), The Rajasthan Animals and Birds Sacrifices (Prohibition) Act, 1975
(See, Page 447-448) (सन्दर्भ १. 'भारतीय जीव-जन्तु एवं गोरक्षा विधि संग्रह' लेखक : उदयलाल जारोली, पूर्व प्राचार्य एवं विधि संकायाध्यक्ष, नीमच (म.प्र.), प्रकाशक : सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली, प्राप्ति स्थान : भारतीय जीवजन्तु कल्याण बोर्ड, पो.बा.नं. ८६७२, थर्ड सी वार्ड रोड, वाल्मीकि नगर, तिरुवानमियूर, चेन्नई - ६०० ०४१, तमिलनाड़)
2. Animal Lawa of India, By Maneka Gandhi, Ozair Husain, Raj Panjwani, Pub-Universal Law Pub. Co. Pvt. Ltd. (C-FF-1A, Ansal's Dilkhush Industrial Estate, G.T. Karnal Road, Delhi - 110 003, Second Edition - 2001)
५. प्रदेश की जनता की भावना को साकार करने हेतु पहले फरवरी-अप्रैल १९७९ के विधानसभा सत्र में 'मध्यप्रदेश पशु पक्षी बलि प्रतिषेध अध्यादेश, १९७५ (क्र. १२ सन् १९७५)' ११ सितम्बर १९७५ को एक निश्चित समयावधि हेतु लागू किया गया था। अधिनियम का रूप नहीं ले पाने से वह स्वयमेव प्रभावहीन हो गया। बाद में मध्यप्रदेश पशु-पक्षी बलि प्रतिषेध विधेयक १९७९ (क्र. १२ सन १९७९)' भाजपा के शासनकाल में भारसाधक मंत्री शिवप्रसाद चिनपुरिया द्वारा ६.२.१९७९ को विधानसभा में प्रस्तुत किया गया जो, विधान सभा से पारित हो चुका है। यह मध्यप्रदेश राजपत्र (असाधारण) २६.२.१९७९ में पृष्ठ क्र. ६३१-६३३ पर प्रकाशित भी हो चुका है । इस विधेयक की प्रति संलग्न है। ज्ञात जानकारी के अनुसार यह विषय संविधान की सप्तम अनुसूची की राज्यसूची (२) के साथ पठित समवर्ती सूची के परिशिष्ट १७ (ब) के अन्तर्गत आता है, अतः इसे केन्द्र शासन एवं महामहिम राष्ट्रपति महोदय की अनुमति के लिए भेजा गया था। उनके द्वारा कुछ संशोधन के साथ १ फरवरी १९८३ को अनुमति प्रदान कर दी गई थी। बाद में आवश्यक संशोधन हेतु 'म.प्र. पशु-पक्षी बलि प्रतिबंध (संशोधन) अध्यादेश, १९८३' भी तैयार किया गया था।
६. अत्यन्त खेद का विषय है कि विगत २५ वर्षों के बाद भी यह विधेयक आज तक अधिनियम का रूप धारण नहीं कर पा रहा है। जहाँ देश के अनेक प्रान्तों में पशु-पक्षी की बलि प्रतिषिध्य है, वहीं अधिनियम अभाव में छत्तीसगढ़/मध्यप्रदेश में खुलेआम बलि करने का कार्य जारी है। स्मरणीय है कि पशुओं के प्रति जारी क्रूरता, बर्बरता एवं बीभत्सता के कारण आन्ध्रप्रदेश एवं मध्यप्रदेश के उच्च न्यायालयों में दाखिल किए गये वादों पर माननीय न्यायमूर्तियों ने स्थगन आदेश भी जारी किए हैं, यथा
१. माननीय न्यायमूर्तिद्वय श्री वाई. भास्कर राव एवं श्री आर. वयापूरेड्डी, डिवीजन बेंच, उच्च न्यायालय, आन्ध्रप्रदेश, हैदराबाद द्वारा २.४.१९९७ को रिट पिटीशन क्र. ३७८६- 'ए.पी. जीव रक्षा संघ गुंटूर/मुख्य सचिव, सामान्य प्रशासन विभाग आन्ध्रप्रदेश, हैदराबाद' वाद पर जारी आदेश।
२. माननीय न्यायमूर्तिद्वय श्री दीपक वर्मा एवं श्री ए.के. गोहिल, डिवीजन बेंच, उच्च न्यायालय, मध्यप्रदेश, इन्दौर खण्डपीठ, इन्दौर द्वारा १३.२.२००२ को रिट याचिका क्र. २८१/०२ डिवीजन 'निमाड़ जीव-जन्तु कल्याण संगठन एवं अन्य/म.प्र. राज्य एवं अन्य' वाद पर जारी आदेश।
३. माननीय न्यायमूर्तिद्वय मुख्य न्यायमूर्ति श्री भवानीसिंह एवं श्री के.के. लाहोटी, डिवीजन बेंच, उच्च न्यायालय, मध्यप्रदेश, जबलपुर मुख्यपीठ, जबलपुर द्वारा ८.३.२००२ को रिट याचिका क्र. डब्ल्यू.पी. ११५६/२००२, 'सचिव प्राणी रक्षा संघ, बुरहानपुर/म.प्र. राज्य एवं अन्य' वाद पर जारी आदेश।
८. अतएव विभिन्न प्रान्तों में प्रभावशील पश-पक्षी बलि प्रतिषेध अधिनियमों. आन्ध्रप्रदेश एवं मध्यप्रदेश के दो-दो खण्डपीठों के स्थगन आदेशों को दृष्टिगत रखते हुए प्रदेश में पशु-पक्षी बलि प्रतिषेध सम्बन्धी स्वतंत्र विधेयक प्राथमिकता से पारित कराया जाए अथवा पूर्ववर्ती में आवश्यक एवं उचित संशोधन करके उसे ही अधिनियम के रूप में मान्यता प्रदान की जाए, ऐसा हम सभी का अनुरोध है।
भवदीय संलग्न- १.विभिन्न प्रान्तों के उपर्युक्त पशु-पक्षी बलि प्रतिषेध अधिनियम की प्रतिलिपियाँ।
२. आन्ध्रप्रदेश उच्च न्यायालय की हैदराबाद पीठ द्वारा जारी आदेश की प्रतिलिपि । ३. म.प्र. उच्च न्यायालय की इन्दौर एवं जबलपुर खण्डपीठ द्वारा जारी आदेश की प्रतिलिपि। ४. म.प्र. विधानसभा द्वारा १९७९ में पारित विधेयक की हिन्दी एवं अंग्रेजी प्रति की प्रतिलिपि। ५. इस विषयक अन्य सामग्री।
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समाचार
गुजरात व राजस्थान की अनेकों जैन संस्थाओं की ओर से सम्मान
दिया गया। उनके साथ पदयात्रा पर आये सांगानेर, जयुपर, रचा गया सुनहरा इतिहास
किशनगढ़, अजमेर, आंवा, कोटा (राज.) के १०० से भी अधिक सिद्धक्षेत्र गिरनारजी की पहली टोंक पर त्रिकाल
लोगों का सम्मान किया गया।
इस अवसर पर धर्मसभा को सम्बोधित करते हये मनिश्री चौबीसी का शिलान्यास ।
ने कहा कि 'जब एक ही स्थान से अनेकों भक्तों की आस्था जडी सिद्धक्षेत्र गिरनार (गुजरात) दिगम्बर जैन संत मुनिपुंगव
हो तो हमारी परम्परा और संस्कृति यह कहती है कि हमें सबकी श्रीसुधासागर जी महाराज की १० फरवरी को गिरनार सिद्ध क्षेत्र
भावना का सम्मान करना चाहिए। हमारी संस्कृति शेर और गाय की निरन्तर ५ वीं वन्दना पूरी हो गई। मुनिश्री एवं संघ के साथ
के एक ही घाट पर पानी पीने की रही है। ये जैन धर्म के अहिंसा हजारों श्राावकों ने पाचों टोंकों पर अभिषेक, पूजा-अर्चना की
के सिद्धान्त में ही इतनी शक्ति है। मुनिश्री ने कहा कि हमें सोहार्दपूर्ण वातावरण में गिरनार सिद्धक्षेत्र की पांचों टोंकों पर वंदना
वात्सल्य एवं सोहार्दपूर्ण वातावरण बनाना है।' मुनि श्री के प्रवचन जैन जगत की ऐतिहासिक घटना है। मुनिश्री ने ६ फरवरी से
सन्देश के रूप में पूरे गिरनार क्षेत्र के जैन एवं अजैनों में प्रसारित गिरनार सिद्ध क्षेत्र की वन्दना शुरु की थी। इसके बाद लगातार
होते हैं। वहाँ का वातावरण सोहार्दपूर्ण बना हुआ है और मुनिश्री प्रतिदिन तलहटी से पूरी पाँच वन्दना की। मुनिश्री के साथ ऐलक
के गिरनार तलहटी की दि. जैन धर्मशाला में प्रवास के दौरान क्षेत्र सिद्धान्तसागर जी, क्षुल्लकद्वय श्री गम्भीरसागरजी, धैर्यसागर जी,
के अनेकों राजनेताओं एवं महंतों का दर्शनार्थ आना-जाना लगा ब्र. संजय भैया एवं हजारों श्रावक साथ थे। पाँचवी टोंक पर
रहता है। क्षेत्रीय सांसद एवं केन्द्रिय राज्यमंत्री श्रीमति भावनाबेन नेमीनाथ भगवान के चरण चिन्हों का सोहार्द पूर्ण वातावरण में
चिखलिया सपरिवार, विधायक भाई सुरेजा, जूनागढ़ की पूर्व अभिषेक-पूजन होना ही अपने आप में बहुत बड़ा अतिशय है।
नगरपालिका प्रमुख श्रीमति आरती बेन जोशी, कमण्डल कुण्ड के दिगम्बर जैन मुनि के प्रभाव से शेर और गाय एक ही घाट पर
ट्रस्टी एवं महंत श्री महेशगिरिजी के निजि सचिव श्री नीरव पानी पीते थे। आज यह दृश्य साक्षात् मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी
पुरोहित इत्यादि लोगों ने मुनिश्री के दर्शन किये और सान्निध्य महाराज के सान्निध्य में पाँचवी टोंक पर देखने को मिला जहाँ पर
प्राप्त किया। महंत मेघानन्दजी एवं महंत मुक्तानन्दजी से गिरनार समस्त लोग साम्प्रदायिक विद्वषोंको भूलकर एक दूसरे की श्रद्धा
क्षेत्र के विषय में सोहार्दपूर्ण चर्चा हुई। श्री नीरव पुरोहित ने भावना का सम्मान कर रहे थे। मुनिश्री के साथ पांचवी टोंक पर
मुनिश्री से लगभग आधा घण्टे तक पांचवी टोंक के बारे में अभिषेक के समय सैकड़ों श्रद्धालु मौजूद थे। पूज्य मुनिश्री संघ
सोहार्दपूर्ण वार्ता की उन्होंने बताया कि पांचवीं टोंक पर स्थापित सहित कोटा (राज.) से २० दिसम्बर २००३ को विहार कर जैन
भगवान नेमीनाथ के चरण चिन्ह जिन्हें अन्य सम्प्रदाय गुरु दत्तात्रेय तीर्थ पावागढ़, घोघा, सोनगढ़ और पालीताना की वन्दना करते हुये
के चरण मानता है, जिनके दर्शनार्थ प्रतिदिन इस टोंक पर सभी ११०० कि.मी. पदयात्रा कर हजारों श्रावकों के साथ ५ फरवरी को
मतावलम्बी आते हैं। श्री नीरव पुरोहित ने मुनिश्री से कहा कि प्रात: गिरनार तलहटी में साज-बाज के साथ ऐतिहासिक मंगल
हमारी तरफ.से इस टोंक पर नेमीनाथ भगवान की जय बोलने पर प्रवेश हुआ। मंगल प्रवेश के समय केसरिया ध्वज लिये सैकड़ों
कोई आपत्ति नहीं है। साथ ही कहा कि पांचवी टोंक पर सभी लोग साथ चल रहे थे। महिलाएँ मंगल कलश लिये थीं। देश के
मतावलम्बी आपस में सोहार्दपूर्ण वातावरण में पूजा अर्चना कर विभिन्न प्रांतों से आये हजारों श्रद्धालु जयकारे लगाते साथ चल
सकें ऐसा उनका प्रयास रहेगा। बाद में उन्होंने मुनिश्री से अनुरोध रहे थे। उत्साह और उमंग के साथ सैकड़ों लोग नृत्य करते हुए
किया कि आप कुछ दिन के लिये ऊपर ही विराजें। आगे-आगे चल रहे थे। केसरिया गुलाल उड़ाते चल रहे युवकों ने |
पांच वन्दना पूर्ण करने के बाद मुनिश्री ने प्रबन्ध कमेटी के पूरा वातावरण केसरिया मय बना दिया। बाद में शोभायात्रा सनातन
विशेष आग्रह पर गिरनार पर्वत की पहली टोंक पर स्थित दिगम्बर धर्मशाला के प्रांगण में विशाल धर्मसभा में बदल गई। सभा की
जैन मंदिर के प्रांगण में त्रिकाल चौबीसी के निर्माण हेतु अपना शुरुआत में पदयात्रा के संयोजक श्री हुकुमजैन 'काका' कोटा को |
28 मार्च 2004 जिनभाषित
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आशीर्वाद प्रदान किया। त्रिकाल चौबीसी के निर्माण हेतु उत्सा दानदाताओं ने अपनी स्वीकृतियाँ प्रदान करना भी आरम्भ कर
समाधिमरण दिया। श्री गिरनार सभापति राजा रमलेश जैन बण्डी ने बताया कि
जंगल बाले बाबा के नाम से प्रसिद्ध संत मुनिवर श्री संत शिरोमणि आ. विद्यासागरजी महाराज के परमशिष्य मुनिपुंगव
चिन्मयसागर जी महाराज एवं आर्यिका श्री प्रशांतमति माताजी श्री सुधासागरजी महाराज, ऐलक श्री सिद्धान्तसागरजी महाराज,
ससंघ के सानिध्य में क्षुल्लिका श्री १०५ सुदृढ़मति माताजी का क्षुल्लकद्वय श्री गम्भीरसागरजी, धैर्यसागरजी महाराज के पावन
पुण्याभूति योग में सल्लेखना पूर्वक समाधि मरण हो गया। सान्निध्य में त्रिकाल चौबीसी का शिलान्यास समारोह सम्पन्न
जबलपुर में वृहत शांति विधान कार्यक्रम सम्पन्न विधान में हआ। पर्वतराज दिगम्बर जैन मंदिर में त्रिकाल चौबीसी का शिलान्यास श्रेष्ठी श्रीमान नरेशभाई सूरत वालों ने प्रतिष्ठाचार्य ब्र. जिनेश भैया
मुनिसंघ के अल्प प्रवास से महती धर्म प्रभावना अधिष्ठाता गुरुकुल जबलपुर के निर्देशन में विधि विधान पूर्वक |
___ मुनिश्री समतासागर, मुनि श्री प्रमाणसागर, ऐलक श्री किया गया। त्रिकाल चौबीसी मंदिर नरेश भाई सूरतवालों की ओर
निश्चयसागर जी के दो दिवसीय जबलपुर प्रवास के अवसर पर
अभूतपूर्व धर्म प्रभावना हुई। बिलहरी से रामटेक की ओर बिहार से एवं अन्य १२ मंदिरों का निर्माण समाज के दानदाताओं की ओर
करते हुए मुनि संघ का नगरागमन हुआ। अधारताल शिवनगर के से कराया जायेगा। इस पुण्य अवसर पर विभिन्न स्थानों के दातारों
जिन मंदिरों की वंदना कर संघ श्री चन्द्राप्रभु दि. जैन मंदिर संगम ने दानराशि देने की घोषणा मुनिश्री के सान्निध्य में की। बण्डीलाल
कॉलोनी पहुँचा। संगम कॉलोनी में मुनि संघ का संक्षिप्त प्रवचन जैन ने बताया कि मंदिर निर्माण का कार्य तीन वर्ष की अवधि में
हुआ। हजारों की संख्या में जनसैलाब उमड़ पड़ा। सभी की पूर्ण कराया जायेगा। तलहटी पर स्थित जैन मंदिर व धर्मशाला का
आकांक्षा थी कि संघ कुछ दिन और यहाँ रूके। रात्रि विश्राम के भी जीर्णोद्धार कराया जायेगा। मंदिर परिसर में विशाल जैन स्तम्भ |
परिसर में विशाल जैन स्तम्भ | पश्चात् प्रातः श्री आदिनाथ दिगम्बर जैन मंदिर गोलवाजार में चल का भी निर्माण कराया जायेगा। इस अवसर पर पर्वत स्थित | रहे १६ दिवसीय शांति विधान में संघ का सान्निध्य प्राप्त हआ। त्रिकाल चौबीसी के निर्माण के लिये राजस्थान सहित विभिन्न | जहाँ अपने प्रवचनों में मुनि संघ ने कहा कि आश्रय विहीन लता प्रान्तों के प्रतिनिधियों वाली निर्माण समिति का गठन किया गया। | पल्लवित नहीं हो सकती धर्म रूपी लता का सहारा लेकर ऊर्ध्व
हर्षोल्लास के साथ सम्पन्न उक्त समारोह के पश्चात मुनिश्री | गति की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है। गोलबाजार में विराजे ने जीर्णोद्धार व नवनिर्माण का आशीर्वाद क्षेत्रिय कमेटी को देकर | मुनिश्री पावन सागर जी भी मंच पर उपस्थित थे। संघ यहाँ से ससंघ सिद्धक्षेत्र तारंगा जी के लिये मंगल विहार किया। राजा | अग्रवाल कॉलोनी के जिन मंदिर पहुंचा जहाँ संक्षिप्त प्रवचनों के रमलेश बण्डी ने त्रिकाल चौबीसी, मंदिर व धर्मशाला में नवीन
बाद श्री दिगम्बर जैन अतिशय तीर्थ क्षेत्र पिसनहारी की मढ़िया डीलक्स कमरों आदि के निर्माण में दातारों से दान देने की अपील
की ओर विहार हुआ। मुनि श्री प्रबुद्धसागर जी एवं आर्यिका श्री की। इस अवसर पर हुकुम जैन काका कोटा, ऋषभ मोहिवाल
गुणमति माताजी (ससंघ) ने संघ की आगवानी की। श्री तीर्थ
क्षेत्र पिसनहारी की मढ़िया में आहार चर्या सम्पन्न हुई। कोटा, निहालचन्द पहाड़िया किशनगढ़, डॉ. सुधीरजैन सागर,
मध्यान्ह में विद्यानुभूति भवन में प्रवचन आयोजित हुये। विमलचन्द्र, अनिलकुमार, उत्तमचन्द पाटनी जयपुर, सुरेन्द्रकुमार |
पिसनहारी की मढ़िया में चल रहे १६ दिवसीय शांति विधान के जैन, नरेश पहाड़िया व रोशन लाल ने दान देने की घोषणा की।
कार्यक्रम में भी संघ के आशीर्वचन हुये। मुनिसंघ के आगमन से क्षेत्र कमेटी के उप सभापति श्री निर्मलकुमार जी बंडी, मंत्री श्री |
ऐसा लगा मानो सारा शहर ही दर्शनार्थ आ पहुँचा। रात्रि विश्राम सुरेन्द्रकुमार जी पाडलिया, क्षेत्र कार्यकर्ता श्री प्रदीप बी. जैन ने |
मढ़िया जी में करने के बाद प्रातः संघ भारतवर्षीय प्रशासकीय सभी श्रावकों के इस अवसर पर पधारने का आभार प्रदर्शन किया |
प्रशिक्षण संस्थान पहुंचा। प्रशिक्षणार्थियों को आशीष वचन देकर और पुनः दर्शनार्थ पधारने हेतु विशेष आग्रह किया है। तलहटी दयोदय तीर्थ तिलवाराघाट की ओर विहार हुआ। दयोदय तीर्थ पर धर्मशाला से जुड़े महानुभावों का कहना था कि उन्होंने जीवन में एक धर्मसभा आयोजित हुई। शहर से १५ कि.मी. दूर स्थित पहली बार इतने कम समय में हजारों जैन यात्रियों का यहाँ | दयोदय तीर्थ मुनि संघ के सान्निध्य में वास्तविक तीर्थधाम नजर आवागमन देखा है।
आ रही थी। मध्यान्ह में संघ का बरगी की ओर विहार हुआ। मात्र निर्मल कासलीवाल | दो दिन के अल्प प्रवास में चातुर्मास जैसी अद्वितीय प्रभावना नजर
मानद मंत्री जैन मंदिर रोड, सांगानेर (जयपुर)। आ रही थी।
अमित पड़रिया मार्च 2004 जिनभाषित 29
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सूचना
गत वर्ष २००३ फरवरी में अहमदाबाद के उपनगर शिवानंदनगर में आयोजित जिनबिंब पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के शुभ अवसर पर देश के मूर्धन्य साहित्यकार क्षुल्लक श्री मनोहरलाल जी वर्णीजी के साहित्य के अध्येता, शोधकर्ताओं को प्रोत्साहित करने के लिए प्रतिवर्ष ' श्री सहजानंद वर्णी साहित्य पुरस्कार' प्रदान करने की योजना बनाई गई थी। उसी श्रृंखला में इस वर्ष भी वर्णी साहित्य के अध्येता को यह पुरस्कार प्रदान किया जायेगा । पुरस्कार में ११ हजार रुपये की राशि, प्रतीक चिन्ह भव्य कार्यक्रम में प्रदान की जायेगी।
वर्णी साहित्य के अध्येता - शोधार्थी स्वयं या अन्य विद्वानों द्वारा नाम दिनांक १० मार्च तक प्रेषित करें। तीन विद्वानों की समिति द्वारा चयनित विद्वानों को यह पुरस्कार प्रदान किया जायेगा ।
कृपया विद्वान अध्येता के नाम इस पते पर प्रेषित करेंडॉ. शेखरचन्द्र जैन, २५, शिरोमणि बंगलोज, सी.टी.एम. चार रास्ता के पास अमराईबाड़ी, अहमदाबाद - ३८००२६
महाराज श्री ने प्रातः कालीन प्रवचन में इस बात के संकेत दिये कि इस क्षेत्र पर जो अज्ञात सुरंग है उसमें अनेक रहस्य छुपे भगवान आदिनाथ का मोक्ष कल्याणक समारोह हुए हैं, परन्तु उन रहस्यों को में अभी उजागर नहीं कर सकता हूँ।
समय के साथ वे सभी रहस्य उजागर होंगे।
पूर्वक मनाया
मदनगंज किशनगढ़ (जिला-अजमेर, राज.) के आदिनाथ दि. जैन मंदिर जी में प्रातः काल ऋषभनाथ के मोक्ष कल्याणक के उपलक्ष्य में २० जनवरी २००४ को निर्वाण लड्डू समस्त दिगम्बर जैन समाज द्वारा चढ़ाया गया।
भवदीय डॉ. शेखर चन्द्र जैन, संयोजक
दोपहर में चलना जैन जागृति महिला मंडल द्वारा महिलाओं के लिये खुला प्रश्न मंच का कार्यक्रम रखा गया। कार्यक्रम का संचालन मंडल की सांस्कृतिक मंत्री श्रीमती शशि प्रभा बज द्वारा किया गया। इसके अलावा भगवान के जीवन चरित्र पर श्रीमती सुशीला जी पाटनी (R. K. Marbles) मंडल की मंत्री आशा अजमेरा, नवरत्नदेवी दगड़ा, शशि प्रभा बज, गुणमाला छाबड़ा व जतन सोनी ने अपनी वार्ता दी। अन्त में मंडल की अध्यक्षा श्रीमती शान्ता पाटनी (R. K. Marbles) ने प्रतियोगियों व सभी वक्ताओं को पुरस्कार दिये तथा अपने धन्यवाद भाषण में धर्म प्रभावना बढ़ाने हेतु ऐसे कार्यक्रम करने हेतु प्रोत्साहित किया।
सायंकाल महिला मंडल द्वारा संचालित दिगम्बर जैन पाठशाला के बच्चों के लिये प्रश्न मंच कार्यक्रम रखा। साथ ही बच्चों को धर्म की परीक्षा में उत्तीर्ण होने व प्रश्न मंच के लिये पुरस्कार दिये। सभी कार्यक्रम आदिनाथ मंदिर के अध्यक्ष श्री मूलचंद जी लुहाड़िया को देखरेख में सानन्द संपन्न हुए ।
श्रीमती शशि प्रभा बज सांस्कृतिक मंत्री, चेलना जागृति महिला मंडल मदनगंज- किशनगढ़, अजमेर-राज.
30 मार्च 2004 जिनभाषित
श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र कैथोली
श्री १००८ पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र कैथोली मध्यप्रदेश के मदंसोर जिले के गरोठ उपखण्ड में भानपुरा से २० कि.मी. तथा रामगंज मण्डी जिला, कोटा (राज.) से १५ कि.मी.
दूर है।
कैथोली अतिशय क्षेत्र पर लगभग ११०० वर्ष प्राचीन भव्य एवं कलात्मक जिनालय है। जहाँ चतुर्थ काल की चौबीसी और कई मनोहारी और चमत्कारिक प्रतिमाएँ विद्यमान हैं।
इस जिनालय में गर्भगृह भी स्थित है। मुनिपुगंव श्री सुधासागर जी महाराज, क्षु. गम्भीरसागर जी, क्षु. धैर्यसागर जी ससंघ यहाँ पधारे हुए हैं। अतिशयकारी मूर्ति भगवान श्री पार्श्वनाथ की प्रतिमा के दर्शन करते ही मुनिश्री ने कहा 'प्रतिमा अत्यन्त मनोहारी है और मैं इस प्रतिमा के दर्शन मात्र से अत्यन्त गदगद
इस क्षेत्र पर उपलब्ध शिलालेखों से इस बात की पुष्टि होती है कि इस क्षेत्र का निर्माण मालवा देश के महाराज श्री राव दुर्गा के राज्य रामपुर के ग्राम कैथोली में बघेरवाल जाति के
धानोतिया गोत्र के शाह कवलसी के परिवार द्वारा कराया गया था। प्रेमचन्द दगेरिया बाजार नं. १, रामगंजमण्डी
पद्मश्री प्रोफेसर डॉ. सुनीता जैन
साहित्य संस्था अहिंसा इन्टरनेशनल द्वारा सम्मानित प्रसिद्ध सामाजिक साहित्यिक संस्था अहिंसा इन्टरनेशनल द्वारा आई.आई.टी., नई दिल्ली में अंग्रेजी के प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष पर से सेवानिवृत हिन्दी एवं अंग्रेजी की सिद्धहस्त तथा सुप्रसिद्ध कवियित्री, उपन्यासकार एवं लघुकथा लेखक डॉ. सुनीता जैन का भारत सरकार द्वारा २६ जनवरी को 'पद्मश्री' मिलने पर संस्था के स्थापना दिवस पर नई दिल्ली में भावभीना सम्मान किया गया।
लेखन में अतंर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त डॉ. सुनीता जैन अमेरिका से 'व्रीलैन्ड सम्मान' तथा 'मेरी सेन्डोज प्रेरी स्कूनर' सम्मान प्राप्त कर चुकी हैं। इसके अतिरिक्त इनको 'निराला नामित साहित्यकार सम्मान' 'महादेवी वर्मा सम्मान' आदि से भी सम्मानित किया जा चुका है। वर्तमान में वह २००२ - २००४ के लिए 'इन्दिरा गाँधी
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फेलो' चुनी गई हैं। आपने अमेरिका, लन्दन, बैंकाक, नेपाल,
इस बहुमूल्य पर्याय का अविशिष्ट समय किस प्रकार मारीशस में प्रायोजित अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में आलेख प्रस्तति | बिताया जायेताकि आत्मा का विकास हो सके।
निवेदक किए हैं।
ट्रस्टी व कार्यकारिणी समिति के सदस्यगण ___पंजाब में सेशन जज श्री सुल्तानसिंह जैन के यहाँ १३
श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन शांतिनिकेतन उदासीन आश्रम जुलाई १९४१ को जन्म लेकर सुनीता जैन ने अंग्रेजी में एम.ए.
पो. ईसरी बाजार, जिला-गिरिडीह (झारखंड)
शिविरार्थियों के लिये आवास/भोजन की नि:शुल्क व्यवस्था न्यूयार्क की स्टेट युनीवर्सिटी से किया और डाक्ट्रेट की उपाधि अमेरिका के ही लेब्रास्का विश्वविद्यालय से प्राप्त की। आपकी |
है। विशेष जानकारी के लिये पत्र-व्यवहार करें
सम्पत लाल छाबड़ा अब तक साठ कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं और लेखन कार्य
१८८/१/ जी, मानिकतला, मैन रोड निरन्तर जारी है। सम्मान समारोह में भारतीय ज्ञानपीठ के प्रबंध
कोलकाता ७०० ०५४ न्यासी डॉ. साहू रमेशचन्द्र जैन एवं संस्था के महासचिव श्री
पी.एच.डी.उपाधि से विभूषित सतीश कुमार जैन ने उनके गौरवमयी कतित्त्व पर विचार व्यक्त
वाराणसी, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी किये।
में जैन दर्शन विभागाध्यक्ष डॉ. फूलचन्द जैन 'प्रेमी' के कुशल सतीश कुमार जैन ||
निर्देशन में निम्न शोध पत्रों को वर्ष २००२ की विद्या वारिधि महासचिव
(पी.एच.डी.) उपाधि से विश्वविद्यालय द्वारा विभूषित किया 'ज्ञान के हिमालय' का लोकार्पण
गया है। आगरा, ११ फरवरी २००४ राष्ट्रसंत सराकोद्धारक पूज्य
१. गुण भद्राचार्य कृत आत्मानुशासन का समीक्षात्मक उपाध्याय श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज की जीवन गाथा पर
अध्ययन- डॉ. बसन्त कुमार जैन आधारित, विख्यात लेखक श्री सुरेश जैन 'सरल' की लेखनी से
२.जैनाचार्य महाकवि ज्ञानसागर विरचित जयोदय महाकाव्य निःसृत एवं आचार्य शान्तिसागर 'छाणी' स्मृति ग्रन्थमाला से
का दार्शनिक अध्ययन - डॉ. पंकज कुमार जैन प्रकाशित महाकथा 'ज्ञान के हिमालय' का लोकार्पण आगरा के
३. महाकवि अर्हद्दास विरचित मुनिसुव्रत काव्य का श्री एम.डी. जैन कालिज में आयोजित श्रीमज्जजिनेन्द्र पंचकल्याणक
गवेषणात्मक अध्ययन - डॉ. देवेन्द्र सिंह प्रतिष्ठा महोत्सव समारोह में ज्ञान कल्याणक के अवसर पर पूज्य
सभी शोध प्रबन्ध संस्कृत भाषा में लिखे गये हैं। जैन उपाध्यायश्री के सान्निध्य में आयोजित भव्य समारोह में हुआ।
विद्या में हुए इस अनुसंधान के लिए उक्त शोध छात्रों को हार्दिक हंस कुमार जैन
बधाई। सूचना
भगवान सुपार्श्वनाथ का ज्ञान एवं निर्वाण षष्ट आत्म-साधना शिक्षण शिविर
कल्याणक हर्षोल्लास पूर्वक मनाया गया श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन शांतिनिकेतन
वाराणसी, सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ भगवान् की निर्वाण उदासीन आश्रम
कल्याणक तिथि फाल्गुन कृष्ण सप्तमी को भदैनी वाराणसी में पो. ईसरी बाजार, जिला-गिरिडीह (झारखंड)
पवित्र गंगा नदी के किनारे स्थित सुपार्श्वनाथ तीर्थंकर की गर्भ, दिनाक २५.४.२००४ से २.५.२००४
जन्म, तप, ज्ञान कल्याणक भूमि पर निर्वाण लाडू हर्षोल्लास अत्यन्त हर्ष का विषय है कि परमपूज्य आचार्य श्री | पर्वक चढाया गया। इससे पूर्व फालान कृष्ण षष्टी को भगवान विद्यासागर जी महाराज के आशीर्वाद से सिद्धक्षेत्र श्री सम्मेद |
सुपार्श्वनाथ का ज्ञानकल्याणक भी उत्साह पूर्वक श्री स्याद्वाद शिखर जी के पादमूल में स्थित प्राकृतिक छटा से विभूषित परम
महाविद्यालय के तत्वाधान में मनाया गया। उल्लेखनीय है कि पूज्य क्षुल्लक १०५ श्री गणेश प्रसाद जी वर्णी की साधना स्थली
यहाँ पर सुप्रसिद्ध स्याद्वाद महाविद्यालय भी संचालित है। उदासीन आश्रम, इसरी बाजार में पं. श्री मूलचन्द्र जी लुहाड़िया
जैन संस्कार शिक्षण शिविरों की मचेगी धूम मदनगंज (किशनगढ़) बाल ब्र. पवन भैया, कमल भैया आदि के
वाराणसी- परम पूज्य सराकोद्धारक उपाध्याय श्री १०८ सान्निध्य में षष्ट आत्म-साधना शिक्षण शिविर का आयोजन होने
ज्ञानसागर जी महाराज की प्रबल प्रेरणा व आशीर्वाद से श्रुत जा रहा है, इस शिविर का मूल लक्ष्य होगा
संवर्द्धन संस्थान मेरठ के तत्त्वाधान में विगत वर्षों की भाँति इस
मार्च 2004 जिनभाषित
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वर्ष भी श्रुत संवर्द्धन ज्ञान संस्कार शिक्षण शिविरों का आयोजन मई-जून में एक ही तिथि में विशाल स्तर पर आयोजित होंगे। बुंदेलखण्ड एवं मुजफ्फरनगर संभाग में ४० स्थानों पर शिविर लगाने की योजना बनायी गयी है ।
पं. सुनील जैन ‘संचय' जैनदर्शनाचार्य (नरवाँ ) श्री स्याद्वाद महाविद्यालय बी. ३/८०, भदैनी, वाराणसी २२१००१
शिविर सूचना
श्री दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान, सांगानेर, जयपुर द्वारा प्रतिवर्ष ग्रीष्मकालीन धार्मिक शिक्षण शिविरों का आयोजन किया जाता है। इस वर्ष भी संस्थान के विद्वानों द्वारा अनेकों स्थानों पर धार्मिक शिक्षण शिविर आयोजित हो रहे हैं। अतः समाज से अनुरोध है कि जो अपने ग्राम/ शहर कॉलोनी तथा क्षेत्रों आदि पर शिविर आयोजित करवाना चाहते हैं, वे महानुभाव यथाशीघ्र निम्नलिखित पते पर सम्पर्क करें ।
रतन लाल बैनाड़ा अधिष्ठाता श्री दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान १/२०५, प्रोफेसर्स कॉलोनी, हरीपर्वत, आगरा (उ.प्र.) फोन : ०५६२-२१५१४२८, २१५२२७८ वसंत कुंज नई दिल्ली में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव 13 अप्रेल से 20 अप्रेल 2004 तक
श्री दिगम्बर जैन मंदिर वसंतकुंज नई दिल्ली में भगवान १००८ श्री आदिनाथ जिन बिम्ब पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव एवम् विश्वशांति महायज्ञ १३ अप्रेल २००४ मंगलवार से २० अप्रेल २००४ मंगलवार तक सिद्धांत चक्रवर्ती परम पूज्य आचार्य श्री विद्यानन्द जी मुनिराज की सत्प्रेरणा, आशीर्वाद एवम् सान्निध्य में होगा। पूज्य उपाध्याय श्री श्रुतसागर जी महाराज एवम् पूज्य आर्यिका बाहुबली माताजी का भी सान्निध्य प्राप्त होगा । पंचकल्याणक के प्रतिष्ठाचार्य संहितासूरी पं. श्री नाथूलाल जी शास्त्री के शिष्य पं. विजय कुमार जी शास्त्री इन्दौर एवम् सहयोगी प्रतिष्ठाचार्य पं. श्री बाहुबली पार्श्वनाथ उपाध्ये वेलगाँव होंगे।
धरमचंद बाझल्य
32 मार्च 2004 जिनभाषित
प्रवेश सूचना
श्रमण परम्परा के उन्नायक आचार्य श्री विद्यासागर जी
महाराज के शुभाशीर्वाद एवं मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी महाराज की मंगल प्रेरणा से संचालित श्री दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान सांगानेर का आठवाँ शैक्षणिक सत्र ७ जुलाई, २००४ से प्रारम्भ होगा। छात्रों को लौकिक शिक्षा के साथ-साथ धार्मिक संस्कार भी प्रदान किये जाते हैं। यहाँ छात्रों को आवास, भोजन व पुस्तकादि की निःशुल्क व्यवस्था के साथ खेलकूद के लिये विशाल प्रांगण, कम्प्यूटर शिक्षा एवं अंग्रेजी भाषा की प्रवीणता लिये प्रशिक्षित शिक्षकों की व्यवस्था, प्रतियोगी परीक्षाओं के लिये विशेष दिशा निर्देश की भी सुविधा उपलब्ध है। इच्छुक छात्रों को समय-समय पर विधि विधान, वास्तुशिल्प विज्ञान एवं ज्योतिष का भी प्रशिक्षण दिया जाता है।
इसमें सम्पूर्ण भारत से प्रवेश के लिये अधिक छात्र इच्छुक होने से विभिन्न प्रदेशों के लिये स्थान निर्धारित हैं । अतः स्थान सीमित है। धार्मिक अध्ययन सहित कुल पाँच वर्ष के पाठ्यक्रम में दो वर्षीय उपाध्याय परीक्षा (सीनियर हायर सैकेण्डरी के समकक्ष) माध्यमिक शिक्षा बोर्ड अजमेर से एवं त्रिवर्षीय शास्त्री स्नातक परीक्षा (बी.ए. के समकक्ष) राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय से सम्बद्ध है। जो सरकार द्वारा आई.ए.एस. और आर. ए. एस. जैसी किसी भी सर्वमान्य प्रतियोगिता परीक्षा में सम्मलित होने के लिए मान्य है।
जिन छात्रों ने १०वीं की परीक्षा (अंग्रेजी सहित) दी है अथवा उत्तीर्ण कर ली है तथा जो प्रवेश के इच्छुक हैं वे संस्था से निःशुल्क प्रवेश आवेदन पत्र मंगाकर १५ जून, २००४ तक निम्न पते पर अवश्य भेज देंवें ।
संसार में अपने को महान सिद्ध करने की इच्छा या अपना नाम या अस्तित्त्व स्थापित कर देने की इच्छा यदि नष्ट हो जाये, तब से व्रत प्रारम्भ करने का अधिकारी हो सकता है। अपने भावों को खोजो, यदि वह इच्छा है, तब व्रत का ढोंग है। यदि कल्याण चाहते हो तो पहले योग्य तर्कणाओं से उस इच्छा की भी होली कर दो।
क्षु. सहजानंद मनोहर वर्णी जी
डॉ. शीतल चन्द जैन
निदेशक
श्री दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान वीरोदय नगर, सांगानेर, जयपुर (राज.)
शोक समाचार
कवि, लेखक, कहानीकार, 'अहिंसा वाणी', 'वॉयस ऑफ अहिंसा' के संपादक श्री वीरेन्द्र प्रसाद जैन 'दादा जी' का दिनांक ५ मार्च २००४ को आकस्मिक निधन हो गया है। 'जिनभाषित ' परिवार विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता है।
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'मरण सुधारना अपने हाथ में है'
___मुनि श्री सुधासागर जी अलवर, २४ जुलाई। जन्म देना प्रभु के हाथ में। मिट्टी अपनी नियत को परिवर्तन कर घड़ा ही नहीं है परन्तु मरण सुधारना हमारे अपने हाथ में है। हमें कैसे | बल्कि मंगल कलश तक का सौभाग्य पाती है। इसीतरह मरना है, यह हम तय कर सकते हैं रोते हुए मरना है या | जिन्हें संत समागम का निमित्त मिलता है, वे अपनी हँसते हुए जाना है, यह हमारे हाथ में है। जो शक्ति | आत्मा का स्वभाव पहचान लेते हैं। संत हो या गुरु वह भगवान के पास है वही शक्तियाँ हमारे भी पास हैं, | जगाने आता है, किसी की तकदीर नहीं बदल सकता। प्रकृति ने कोई भेद नहीं किया है। यहाँ तक कि पशु- | वह अंगुली दिखाता है कि वह मार्ग मोक्ष का है। गुरु पक्षी, तिर्यंच, पेड़-पौधे तक के पास वही शक्तियाँ | कभी अंगुली पकड़कर चलना नहीं सिखाता बल्कि वह विद्यमा ते ने सबको समान शक्ति प्रदान की। तो सही दिशा बताता है परन्त दष्टि खद को बदलना है। प्रकृति के सिद्धांत पक्षपात से रहित हैं। सबको जन्म- | पड़ेगी तभी मंजिल तक पहुँच पाओगे। मरण प्रकृति ने अपने कर्मों के अनुरूप दिया है किन्तु मुनिराज ने कहा कि सिद्ध परमेष्ठी भगवान भी मानव देह पाकर भी यदि अपने मरण को नहीं सुधारा | किसी को कुछ दे नहीं सकते । धर्म किसी को दिया नहीं तो यह दोष प्रभु का नहीं बल्कि अपने खुद का है। जो जाता बल्कि वह तो जगाने का काम करता है। जो धर्म जाग गया वह मरण को भी महोत्सव बना सकता है।' को धारण करता है वही सदाचार जीवन के पुष्प महका
उन्होंने कहा कि रावण और विभीषण एक माँ से | सकता है। हर स्त्री-पुरुष की आत्मा में अनन्त शक्ति ही जन्मे थे परन्तु दोनों के मार्ग अलग थे। रावण दुराचार | भरी पड़ी है। जैसे पृथ्वी की कोई सीमा नहीं, उसीतरह फैलाने का पक्षधर था वहीं विभीषण सदाचार का हमराही | आत्मा का आनंद भी अनन्त है जिन्हें देव-गुरु-शास्त्र था। उसकी परिणति भी सामने है, कि राम ने रावण का | का निमित्त मिल पाता है, फिर वे संसार के दास नहीं गला उतार दिया और विभीषण को गले लगा लिया। बल्कि अपनी आत्मा के पुजारी बन जाते हैं। मुनिराज ने एक का मरण सुधर गया वहीं दूसरे का बिगड गया। दःख जताते हए कहा कि आज का आदमी कोल्ह के अपना मरण कोई दूसरा नहीं विगाड़ता बल्कि हम खुद | बैल की तरह दिन-रात मकान से दुकान और दुकान से उसके कारण हैं। याद रहे कर्म में कभी कोई साझीदारी | मकान के चक्कर लगाने में ही अपना जीवन गंवा रहा न हुई और न होगी। जो जैसा करेगा, वैसा पाएगा यही है। रोटी पकाना, खाना और पाखाना यह कोई बड़ी बात शाश्वत सत्य है।
नहीं बल्कि धर्म कमाना बड़ी बात होगी। राम ने जीवन मुनिश्री ने कहा कि फूल की तरह हमारी यह | भर जंगल में काटे परन्तु उनके पास धर्म का खजाना था जिन्दगी है। एक डाली पर खिलता हुआ फूल भगवान | तभी वे मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए। श्री के चरणों में अर्पित होता है, एक फूल किसी के गले | रावण के पास सोने की लंका थी परन्तु जिसके का हार बनता है, एक फूल डाली पर ही सूख व सड़कर | पास धर्म था वह 'राम' आज भी घट-घट में मौजूद हैं, नष्ट हो जाता है। नष्ट सभी होते हैं परन्तु फूलों के भी | परन्तु सोने की लंका का मालिक आज भी दानव कहलाता अपने-अपने कर्म हैं। उसी तरह मिट्टी के अंदर घड़े | है। हमें क्या बनना है, क्या पाना है, कहाँ जाना है, मरण बनने की योग्यता पहले भी थी, आज भी है किन्तु जब | को सुधारना है या बिगाड़ना है, यह हमें ही तय करना तक किसी मिट्टी को कुम्हार का निमित्त नहीं मिलेगा, | पड़ेगा। उसी के अनुरूप हमें परिणाम मिलेंगे। तब तक मिट्टी ही है। जब निमित्त मिलता है, तब वही |
'अमृतवाणी' से साभार
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________________ रजि नं. UPIHIN/29933/24/1/2001-TC डाक पंजीयन क्र.-म.प्र./भोपाल/588/2003 विशेष आवरण Special Cover जिनेन्द्र पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं त्रय गजरथ महोत्सव बिलासपुर (छत्तीसगढ) 20 जनवरी से 25 जनवरी 2004 तक GREETINGS भगवान श्री 1008 मदेवजी आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज बिलासपुर-405001-BILASPUR 24-01-2004 केवलज्ञान कल्याणक-24 जनवरी 2004 आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज पर विशेष मोहर. विनय निमलस्टार जिनेन्द100 x 28-3 चाटनाया anor'007 सागर (म.प्र.) में भाजपा नेत्री, सांसद सुश्री उमाश्री भारती वर्तमान मुख्यमंत्री म.प्र. आचार्य श्री विद्यासागर जी के चरणों में श्रीफल समर्पित करते हुए। स्वामी, प्रकाश एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, जोन-1, महाराणा प्रताप नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205 प्रोफेसर कॉलोनी; आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित।