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________________ को परकोटे से घेरा हुआ है। जिस तरह व्रत, त्याग, तपस्या रूपी । वे एक दिन शयनागार में दर्पण में अपना मुख देख रहे थे परकोटा आत्मा की दुखों से, कर्मों से रक्षा करता है उसी प्रकार इन कि उन्हें दर्पण में अपने दो प्रतिबिम्ब दिखाई दिए। इतना ही निमित्त सुन्दर मंदिरों की वह परकोटा रक्षा करता है। परकोटे के बाहर उनके वैराग्य का कारण बन गया तथा वे संसार, शरीर भोगों से सुन्दर पहाडियाँ एवं वन है। वन की शुद्ध वायु एवं जड़ी बूटी | विरक्त हो गए। तीनों पदों के वैभव को त्यागकर दीक्षा ग्रहण की एवं आदि औषधियों से जिस तरह रोगशांति होती है उसी तरह भगवान । | घोर तपस्या करके अपने कर्मों का नाश कर भगवान बने। शांतिनाथ के दर्शन करने से आत्मा के राग रूपी रोग शान्त होते हैं। | भगवान शान्तिनाथ द्वारा त्यक्त वैभव क्षेत्र से निकट ही एक किलो मीटर दूरी पर रामटेक नगर स्थित है। । चौदह रत्न, नव निधियाँ, बत्तीस हजार देश, बत्तीस हजार क्षेत्र व्यवस्था : मुकुटबद्ध राजा, छब्बीस हजार पुर, चौरासी लाख हाथी, चौरासी यहाँ यात्रियों के लिए सुन्दर व्यवस्था है। यहाँ यात्रियों के | लाख रथ, अठारह करोड़ घोड़े, चौरासी करोड़ पदधारी, छियानवें ठहरने के लिये कमरों वाली धर्मशाला है। यहाँ के कार्यकर्ता एवं | हजार रानियाँ, छह खण्ड का राज्य, चौरासी खण्ड का महल, मुनीम आदि धर्मानुकूल अच्छी व्यवस्था कर देते हैं। चक्र, अनेक चेतन, अचेतन मिश्र सम्पत्तियों का जीर्ण तृण वत् रामटेक क्षेत्र जाने पर करने योग्य कार्य त्याग किया। जिस तरह धन कमाने हेतु विदेश जाया जाता है उसी अरे भव्यो। विचार करो। शान्तिनाथ जी के पास इतनी भाँति सच्चे अविनाशी सुख हेतु, सम्यग्दर्शन हेतु, शांति हेतु, पुण्य | सम्पदा थी, वह उन्होंने छोड़ दी। आपके पास उस तुलना में कुछ हेतु इस लोक एवं परलोक सुख हेतु वहाँ जाकर भगवान की पूजा, | भी नहीं। फिर भी आप इसमें चिपके पड़े हैं। आपके पास आशा भक्ति करना चाहिए। यदि अपनी शक्ति हो तो खूब दान देना | रुपी सम्पत्ति भरपूर है। इसलिए आप त्याग नहीं पाते। अरे भैय्या। चाहिए ताकि क्षेत्र की विकास योजनाएँ पूर्ण हो सकें। धर्म स्थान कहा भी हैजितने सुन्दर होंगे, भक्तों का मन उतना ही आकर्षित होगा, प्रसन्न धन भोगन कीखान है,तन रोगन कीखान। होगा, विशेष पुण्य बंध होगा सम्यग्दर्शन होगा। आगे चलकर ज्ञान सुख की खान है, दुख खानी अज्ञान॥ आत्मा भगवान बनेगा एवं अविनाशी सुख को प्राप्त करेगा। अत: आप धन के लिए कितना अनर्थ करते हैं। परिवार, भाई वहाँ खूब दान दीजिए तथा वहाँ की योजनाओं को पूर्ण कीजिए। बहिन, माता-पिता, गुरु सम्बंधी किसी को नहीं देखते और मरने शान्तिनाथ भगवान कैसे बने मारने के लिए तैयार हो जाते हैं। जबकि धन का एक कण भी ऐरावत् क्षेत्र में तिलक नामक नगर था। वहाँ का राजा | तुम्हारे साथ जानेवाला नहीं है। आजकल धन के पीछे मानव मेघरथ था जो कि न्यायवान एवं धर्मात्मा था कहा जाता है- भिखारी हो गया है। लज्जा, शर्म सब छोड़कर मनमानी दहेज की बीज राख फल भोगवे, ज्यों किसान जगमाहि। भीख मांगता है। भैय्या, भीख मांगनेवाला कौन होता है, भिखारी। त्योंचक्री नृपराज करे, धर्म विसारेनाहि॥ सोचें आप कौन हैं? इस देहज प्रथा से तो हमारी अनेकों बहन, . इसी कथन के अनुरुप वह राजा संसार भीरु था, पाप से | बेटियों ने धर्म, समाज, प्राणों को छोड़ दिया इस पाप के भागी डरता था एवं दान पूजादि धर्मकार्य किया करता था। एक दिन वह | वही हैं जो दहेज के भूखे हैं। इस पाप से नरकों में बुरी तरह हवा तीर्थंकर की वाणी सुनकर संसार, शरीर, भोगों से विरक्त हो गया | खानी पडेगी। अत: हे भव्यो ! सावधान हो जाओ। तथा अपने पुत्र को राज्य देकर दीक्षा ग्रहण कर ली। समस्त | उद्बोधन इच्छाओं का त्याग किया। इच्छानिरोधस्तपः इस सूत्र के अनुरुप | हे भव्य जीवो! यह भारत भूमि सदियों से पवित्र, उत्तम घोर तपस्या करने लगा। ध्यान, तपादि के द्वारा परम शत्रु मिथ्यात्व, | तीर्थ है। इसमें २४ तीर्थंकर, राम आदि बलदेव, भरत आदि दर्शन मोह का नाश किया, चारित्र मोह की शक्ति मन्द की तथा | चक्रवर्ती, हनुमान आदि कामदेव, सीता आदि सतियाँ, कृण्ण आदि सोलह कारण भावनाओं का चिन्तवन करने लगा फलतः तीन | नारायण ऐसे अनेकों महापुरुष पैदा हुए। महान ऋपि, तपस्वी लोक का उत्कृष्ट पुण्य तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध किया। मनुष्य भव | आत्माएँ पैदा हुईं। इस भारत में अनेकों सिद्ध क्षेत्र, अतिशय क्षेत्र का सार रुप समाधिमरण करके शिवपुर (मोक्ष) के मार्ग में | इसीलिए यह देश महान है। आज भी इस देश में अनेक महर्षि रेस्टहाउस स्वरूप स्वर्ग को प्राप्त हुए। वहाँ के इन्द्रिय सुख | मुनि विराजमान हैं। इनसे भारत शोभनीय है। जब तक ये विभूतियाँ उदासीनता से भोगकर आयु पूर्ण होने पर वहाँ से च्युत होकर | भारत में रहेंगी तब तक मोक्षमार्ग चालू रहेगा। हे भव्यो ! इस हस्तिनापुर में राजा अजितसेन की प्रियदर्शना रानी के गर्भ में आए | पंचम काल में तो धर्म एवं धर्मानुयायी हैं, उनके निमित्त से अपना तथा एक साथ ही तीर्थंकर, कामदेव एवं चक्रवर्ती पदवी के धारक कल्याण कर लो। भव से भवान्तर जाने के लिए मार्ग का पथ्य पुत्र हुए। उनकी सेवा, पूजा, भक्ति इन्द्र, देव देवियाँ सभी करते रुप, मोक्ष की साधनभूत मनुष्य पर्याय पाने हेतु पुण्य उपार्जन कर थे। आनंद से जीवन व्यतीत करते हुए धीरे-धीरे वृद्धि को प्राप्त | लो। अगर यहाँ चूक गए तो छटवाँ काल भयंकर आने वाला है। हुए। एवं राजगद्दी के स्वामी बने । वे न्याय नीति से राज्य करते थे।। जिसमें पाप ही पाप रहेगा। दुख ही दुख रहेगा। न खाने को अन्न 6 मार्च 2004 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524283
Book TitleJinabhashita 2004 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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