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________________ । होगा न पीने को जल । न पहनने को कपड़ा होगा न रहने को मकान। धर्म कर्म कुछ भी नहीं होगा। देव शास्त्र गुरु का भी साधन नहीं मिलेगा। नरक से प्राणी आएगा, नरक जाएगा। इसलिए हे भव्यो ! पांचवे काल से बचने के लिए दान, पूजा, भक्ति, त्याग, तप आदि यथाशक्ति करते रहो। यही हमारा आशीर्वाद है। आचार्य श्री के ऐतिहासिक दो चातुर्मास अनेक अतिशय समेटे भगवान शांतिनाथ की मनोहारी मूर्ति और पर्वतीय प्रदेशों से युक्त रामटेक अतिशय क्षेत्र और अधिक महान अतिशय क्षेत्र के रूप में तब धन्य हो उठा जब १९९३ और दूसरी बार पुनः १९९४ में प. पू. संत शिरोमणि दिगम्बराचार्य श्री १०८ विद्यासागरजी महाराज के पावन वर्षायोग (चातुर्मास) हुए। रामटेक ही क्यों पूरा महाराष्ट्र धन्य हो गया। कण-कण में आज भी मंगल प्रवचनों की दिव्य ध्वनि गुंजायमान हो रही है। आचार्यश्री एवं मुनिसंघ के आशीर्वाद तथा सान्निध्य में भगवान शांतिनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार, लेपन कार्य की पूर्णता, महामस्तकाभिषेक एवं रामटेक क्षेत्र का चतुर्मुखी विकास हुआ। हजारों यात्रियों के ठहरने की सुविधा अब इस क्षेत्र में उपलब्ध है। एक वृहत् प्रवचन हाल परिसर में स्थायी रुप लिए है जिसमें हजारों भक्त प्रवचन श्रवण कर सकते हैं। आचार्य श्री का मंगल आशीर्वाद एवं भूमिपूजन चातुर्मास काल में एक परम ऐतिहासिक मांगलिक धर्म ध्वजाविस्तारक प्रस्ताव आचार्यश्री के समक्ष अनेकानेक दिगम्बर जैन धर्मप्रेमी बन्धुओं ने निवेदन किया कि इस रामटेक अतिशय क्षेत्र को चिरस्थायी गरिमा एवं धर्म प्रभावक मांगलिक तीर्थ संज्ञा प्रदान करने हेतु वर्तमान चौबीसी एवं पंचबालयति जिनालय का निर्माण आपके आशीर्वाद से हो जो विलक्षण एवं अनोखा हो । प्रकाशन स्थान प्रकाशन अवधि मुद्रक-प्रकाशक राष्ट्रीयता पता सम्पादक पता स्वामित्व Jain Education International 'जिनभाषित' के सम्बन्ध में तथ्यविषयक घोषणा 1/205, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) मासिक : : : : . : अनेक आर्किटेक्ट, इंजीनियर, वास्तुकला पारखी कलाकारों से परामर्श के पश्चात् आचार्यश्री ने अद्वितीय धातुनिर्मित खडगासन चौबीसी एवं पंचबालयति के भव्य पाषाण जिन मंदिर के नवनिर्माण हेतु शुभाशीर्वाद प्रदान किया और शीघ्र ही जिनालय का भूमिपूजन विधान कार्य श्रीमान सेठ मौजीलाल हरप्रसादजी जैन नागपुरवालों शुभहस्ते सम्पन्न हुआ । यह भी निर्धारित हुआ कि इस धार्मिक कलात्मक वास्तुकृति में ईंट-लोहा और सीमेन्ट का उपयोग नहीं होगा । पाषाण और चूना ही इसमें प्रयुक्त होगा। जैन सिद्धान्त, जैन दर्शन, जैन पुरातत्व, जैन कलाकृति, जैन संस्कृति तथा जैन वास्तुभूमि का आकलन ऐसे अनुपम धर्म प्रभावक जिनबिम्बों से ही होता है। युग-युग तक इतिहास इन कलाकृतियों के माध्यम से जैनाचार्यों, जैन धर्म, जैन सन्तों तथा जैन प्राचीनतम इतिहास को विज्ञापित करता है। निःसन्देह ऐसी अद्वितीय वास्तुकृति कालान्तर में कृत्रिम जिनमंदिर (चैत्यभूमि ) की उपमा से विभूषित होती है। यह अद्वितीय पाषाण कृति जिनालय रामटेक जैसे अतिशय क्षेत्र महान, महानतर, महानतम अतिशय से युक्त सम्यकदर्शन का कारण बने । १००८ भगवान शांतिनाथ के सान्निध्य में निर्मित विश्व की अद्वितीय, अद्भुत, अनुपम यह चौबीसी एवं पंचबालयति जिन मंदिर चैत्य वास्तुकला की दृष्टि से श्रेष्ठ कलाकृति सिद्ध ऐसा अथक प्रयास किया जा रहा है। इस मनोहारी विश्व की अद्वितीय पुण्यवर्धक पाषाण कलाकृति को भारत चिरकाल तक, शताब्दियों तक स्मरण रखेइसमें आप सबका मुक्तहस्त से सहयोग अति आवश्यक है। जैन शास्त्रों में भी वर्णन कि प्रत्येक श्रावक को अपनी आय का दसवाँ भाग दान में अवश्य ही देना चाहिए ताकि कर्मों की निर्जरा होती रहे। : रतनलाल बैनाड़ा भारतीय 1/205, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) प्रो. रतनचन्द्र जैन ए/2, मानसरोवर, शाहपुरा, भोपाल- 462039 (म.प्र.) सर्वोदय जैन विद्यापीठ, 1/205, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा- 282002 ( उ. प्र. ) मैं, रतनलाल बैनाड़ा एतद् द्वारा घोषित करता हूँ कि मेरी अधिकतम जानकारी एवं विश्वास के अनुसार उपर्युक्त विवरण सत्य है। रतनलाल बैनाड़ा, प्रकाशक मार्च 2004 जिनभाषित For Private & Personal Use Only 7 www.jainelibrary.org
SR No.524283
Book TitleJinabhashita 2004 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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