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________________ महाकवि आचार्य विद्यासागर कृत महाकाव्य मूक माटी में प्रकृति -चित्रण श्री सुरेश सरल प्रकृति का अवलोकन करने के उपरान्त उसका चित्रण | माध्यम से सामने लाते हैं- लज्जा के बूंघट में/डूबती सी करना एक बात है और कल्पना क्षेत्र में रचे गये प्राकृतिक-दृश्य | कुमुदनी/प्रभाकर के कर-छुवन से/बचना चाहती है वह अपनी का वर्णन करना पृथक बात है। आचार्य विद्यासागर जी ने मूकमाटी | पराग को/सराग मुद्रा को/पांखुरियों की ओट देती है। (पृष्ठ दो) महाकाव्य के अनेक स्थलों पर प्रकृति के काल्पनिक दृश्य निर्मित 'यहाँ लज्जा का चूंघट' पंक्ति पाठक को गुदगुदी पैदा किये हैं. कई स्थानों पर दृश्य केवल वे ही देख रहे हैं- ऐसा ज्ञात | करती है, फिर 'डूबती सी कुमुदनी' पाठक के समीप ही वह होता है। वे ही उसके रचियता और वे ही उसके दृष्टा । मगर दृश्यों | (नायिका) है, का आभाष कराती है। प्रभाकर के कर छुवन से' का चित्रण करते समय वे दृष्टा के रूप में पहले, पाठकों की नजर | सूर्य की किरणों के द्वारा स्पर्श किया जाना दूर की बात लगती है, में आ जाते हैं। पाठक ही हाथ से स्पर्श कर रहा लगता है। अंतिम पंक्ति 'पंखुरियों . चूँकि सम्पूर्ण महाकाव्य के पार्श्व में जैन सिद्धान्त है और की ओट देती है जैसे किसी सुंदर सलोनी युवती ने दोनों हथेलियों उन्हें कहीं, तनिक भी शिथिल/क्षीण नहीं होने दिया गया है, अतः | से अपना मुख चंद्र छुपाने का सुकोमल प्रयास किया हो। स्वभाविक है कि प्रकृति चित्रण करते हुए भी रचनाकार ने यह । यों सम्पूर्ण काव्य (जो ४८८ पृष्ठों में है) में आचार्य श्री ने ध्यान रखा हो कि भले ही चित्रण लघु रहे, पर उसकी उपस्थिति स्थल व्यवस्था और परिवेश - प्रस्थान को ध्यान में रख कर, मात्र से सिद्धान्तों के साथ खिलवाड़ न हो। अठारह जगहों पर प्रकृति चित्रण आवश्यक समझा है, जिसमें उनका महाकाव्य प्रकृति - चित्रण से प्रारंभ किया गया है | उनका कवि अँगारिक दृष्टि धारण कर कुछ देखता चलता है। जहाँ, प्रथम खण्ड की पहली पंक्ति ही पाठक को प्रकृति की ओर | इसे और स्पष्ट करूं कि कई दृश्य महाकवि खुद तो देखते ले जाती है- 'सीमातीत शून्य में/नीलिमा बिछाई/और | हैं, किन्तु पाठकों को नहीं देखने देते, बल्कि उन (दृश्यों) के इधर...नीचे/निरी नीरवता छाई।' आनन्द का खुलासा पाठकों से शब्दों के माध्यम से कर, आगे बढ़ 'नीचे' से अर्थ है धरती पर। वहां, ऊपर, गगन में चारों जाते हैं। जैसा कि उनने ऊपर कहा है- 'पांखुरियों की ओट'। और नीलिमा है और इधर धरती पर शांति। विचित्र चित्रण है- रंग महाकाव्य के प्रारंभिक - अंश में ही ये पंक्तियाँ 'न का प्रति - उत्तर रंग से होना चाहिए था, यथा ऊपर नीलिमा है तो | निशाकर है, न निशा/न दिवाकर है, न दिवा' दिन और रात के नीचे कोई दूसरा रंग कालिमा, हरीतिमा आदि, पर वे कथन ऐसा | मध्य आने वाले एक ऐसे संधिकाल की भनक देती हैं जिसे नहीं संवारते, वे नीलिमा के समक्ष 'शांति' की बात कहते हैं जो | केवल रचनाकार ने देखा-जाना है, और उसी के कथानानुसार 'प्रकृति चित्रण में वैचित्र्य' का दुर्लभ उदाहरण है(पृष्ठ एक) | पाठक एक चित्र आंखों में बनाने का संदर प्रयास कर लेने में वे बाद की पंक्तियों में, पूरे दृश्य को माता का मार्दव | उत्संग (गोद) में बदल देते हैं, जब लिखते हैं- भानु की निद्रा कवि कल्पनाशीलता का प्रथम संस्थापक पुरुष होता है, टूट तो गई है। परन्तु अभी वह/लेटा है/माँ की मार्दव गोद में/मुख | वह ही हैं हमारे आचार्यश्री। वे धरती माता के चेहरे का वर्णन कर पर अंचल लेकर/करवटें ले रहा है। (पृष्ठ एक) यह विशाल दृश्य नये कीर्तिमान स्थापित कर देते हैं, जब कहते हैं - 'जिसके/सलदेखने वाला कवि अपने लेखन में अनेक विशालताओं को लेकर | छलों से शून्य/विशालभाल पर/गुरु गम्भीरता का/उत्कर्षण हो रहा काव्य यात्रा पर पाया गया है। है। जिसके। दोनों गालों पर/गुलाब की आभा ले/हर्ष के संवर्धन रचनाकार ने पूर्व-दिशा में सुबह-सुबह जो लालिमा देखी | से/दृग-बिन्दुओं का अविरल/वर्षण हो रहा है।' (पृष्ठ ६) है, उसका वर्णन भर नहीं करते, बल्कि कुछ समय के लिये वे यह प्यारा दृश्य भी पाठक सीधा-सीधा नहीं देखता, उसे पूर्व-दिशा को ही एक सुंदरी की तरह पाठकों के परिचय में लाते कलमकार अपने शब्दों के माध्यम से दिखलाता है। कहें, बात हैं- 'प्राची के अधरों पर /मन्द मधुरिम-मुस्कान है/सर पर पल्ला नायिका-रूप की हो या माता रूप की, कवि के कुछ स्थलों पर नहीं है और/सिंदूरी धूल उड़ती सी/रंगीन राग की आभा/भायी | अपने संतुलित शब्दों को माध्यम बना कर-दृश्य का आभास (ई) है, भाई।' मगर वे पाठक को उस सुन्दरी के दर्शन नहीं होने | कराया है. दृश्य की सर्जना किये बगैर, मात्र अपने वर्णन-वैभव देते और स्वतः एक वर्णी की तरह दृश्य के आनन्द को भाषा के | के सहारे। 8 मार्च 2004 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524283
Book TitleJinabhashita 2004 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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