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________________ द्वारा सूक्ष्मातिसूक्ष्म क्रियायें जो अतिसंवेदनशील यंत्रों पर अंकित । (य) जीव/आत्मा असंख्य प्रदेशी है और जिस समय हो रही थीं, का अवलोकन और बाद में उनका ज्यों का त्यों वर्णन | जिस शरीर में रहती है उसके सभी प्रदेशों में व्याप्त रहती है। न केवल वर्णन बल्कि उस दशा में सुख-दुख का अनुभव होने से | हृदयरोग विशेषज्ञ पिम वान लोमेल विश्वास पूर्वक कहते यह स्वतः ही सिद्ध है कि आत्मा मूलतः ज्ञान, दर्शन, चेतनामय | हैं कि मानव शरीर में अरबों-खरबों (असंख्यात)कोशिकाएँ (प्रदेश) हैं। इन सभी कोशिकाओं में चेतना रहती है (चेतना तत्व आत्मा (स) शरीर एक पुद्गल द्रव्य है जिसमें आत्मा के संयोग का ही गुण है) प्रतिदिन लगभग ५० अरब कोशिकाएँ मृत होती से ही सुख-दुख आदि संवेगों का आभास होता है। आत्मतत्त्व | हैं तथा उतनी ही नई उत्पन्न होती हैं किन्तु हमारी रचना, स्मृति विहीन शरीर को इस प्रकार के अनुभव नहीं होते। हाँ, जब आत्मा | आदि पूर्ववत बनी रहती है। इसका कारण जैन दर्शन का उत्पादअंतिम रूप से शरीर से स्वतंत्र हो जाती है अर्थात् आठों कर्मों के | व्यय-ध्रौव्य सिद्धान्त ही है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि नाश हो जाने पर मुक्त अवस्था प्राप्त कर लेती है तब वह अनन्त | शरीर मृत होने पर या किसी जीव की मृत्यु हो जाने पर जब चिरस्थायी सुख में लीन रहती है। इसकी एक झलक रोगी पाम | उसकी आत्मा नया शरीर धारण करती है तो वह उस नये शरीर के रीनाल्ड्स को तब हुई थी जब उसकी आत्मा शल्यक्रिया के दौरान | अनुरूप अपने प्रदेशों का विस्तार या संकोच कर लेती है। प्रदेश शरीर से पृथक होकर अपनी शल्यक्रिया को देख रही थी, उसने | अभी भी असंख्य रहते हैं किन्तु शरीर छोटा-बड़ा दिखाई दे अपनी मृत दादी, रिश्तेदार आदि को देखकर प्रसन्नता का अनुभव | सकता है। किया, उस समय वह अपनी वास्तविक पीड़ा का अनुभव नहीं | चिकित्सा विज्ञान अब इस खोज में लगा है कि मृत्युकर रही थी बल्कि वह तो बर्फ के समान ठंडे जल में गोता लगा | निकट अनुभव आखिर होते क्यों हैं और जब आत्मा शरीर से रही थी, जो आल्हादकारी था। सही तो है, आत्मा को कोई कष्ट | निकलकर अपने ही मृतवत शरीर की शल्यक्रिया देख सकती है नहीं होता, कष्ट तो उसे संयोगी पर्याय में होता है, भले ही किसी तो शल्यक्रिया के बाद वह पुनः उसी शरीर को क्यों ग्रहण कर भी शरीर में रहे। इसीप्रकार राबर्ट मिलहम नामक एक अन्य हृदय लेती है, अन्य शरीर क्यों नहीं? जैन दर्शन और जैनाचार्यों ने इन रोगी ने बताया था कि हृदयाघात के कारण उसकी हृदय धड़कन | प्रश्रों का उत्तर हजारों वर्ष पूर्व दे चुके हैं कि दूसरे भव का आयु बन्द होने पर उसने पाया कि वह (उसकी आत्मा) अपने शरीर से | बंध हो जाने के बाद शेष बचे भुज्यमान आयु के निषेक अपना पूरा अलग होकर शरीर के ही ऊपर लटक कर सारी गतिविधियों का काल भोग कर ही समाप्त होंगे अर्थात् व्यक्ति का मरण होगा, निरीक्षण कर रहा था। उस समय उसका दर्द काफूर हो गया था | इसके पूर्व नहीं। तभी तो ऐसे जीव गंभीर दुर्घटनाओं में जहाँ जबकि हृदयाघात में शरीर को असहनीय पीड़ा होती है। इससे भी | अनेकों का प्राणघात होता है, बच जाते हैं, विष भक्षण, सर्पदंश सिद्ध है कि आत्मा को नहीं शरीर को ही कष्ट आदि होते हैं। । आदि से भी बच जाते हैं। स्पष्ट है कि हृदयाघात, विषभक्षण या (द) आत्मा का अस्तित्त्व है और वह अजर-अमर और | गंभीर दुर्घटना (एक्सीडेन्ट) होने पर उस जीव को मृत्यु-निकट शाश्वत है। अशरीरी है। अनुभव संभव है जिसकी भुज्यमान आयु शेष है। संभवत: यही उपरोक्त वर्णित सभी घटनाओं से स्वत: सिद्ध है कि शरीर | कारण है कि मृत्यु निकट अनुभव उस प्रकार की परिस्थिति मृत होता है, आत्मा कभी भी मृत नहीं होती। पाम रीनोल्ड, राबर्ट | उपस्थित होने पर सभी को नहीं होते, मात्र कुछ को (वैज्ञानिकों मिलहम आदि के अनुभव संकेत ही नहीं स्पष्टतया सिद्ध करते हैं | के सर्वेक्षण के अनुसर ११ प्रतिशत से लेकर १८ प्रतिशत व्यक्तियों कि शरीर से पृथक होकर भी आत्मा देख सकती है, संवेगों का | को) ही होते हैं। अनुभव कर सकती है। इन घटनाओं ने वैज्ञानिकों को इस दिशा में | विज्ञान सतत खोज, प्रयोग और पर्यवेक्षण का विषय है सोचने को बाध्य किया कि उन्हें अब आत्मा की संभावना पर भी | और वैज्ञानिकों की अनेक कई खोजों के कारण स्वयं विज्ञान ने विचार करना चाहिए जो शरीर के विभिन्न अंगों से पृथक तत्व है। अपने पुराने सिद्धान्तों में परिवर्तन किया है जिससे जैन धर्म की पाम रीनोल्ड आदि की आत्मा शरीर से पृथक होकर डॉक्टर के | पुष्टि होती है। हो रही है। कंधों के ऊपर स्थित होकर अपने शरीर के ऑपरेशन को देख रही निदेशक, जवाहर लाल नेहरु स्मृति महाविद्यालय, थी, इससे सिद्ध है कि आत्मा निराकार और अशरीरी रहती है। । गंज बासौदा (म.प्र.) मार्च 2004 जिनभाषित 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524283
Book TitleJinabhashita 2004 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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