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________________ 'मरण सुधारना अपने हाथ में है' ___मुनि श्री सुधासागर जी अलवर, २४ जुलाई। जन्म देना प्रभु के हाथ में। मिट्टी अपनी नियत को परिवर्तन कर घड़ा ही नहीं है परन्तु मरण सुधारना हमारे अपने हाथ में है। हमें कैसे | बल्कि मंगल कलश तक का सौभाग्य पाती है। इसीतरह मरना है, यह हम तय कर सकते हैं रोते हुए मरना है या | जिन्हें संत समागम का निमित्त मिलता है, वे अपनी हँसते हुए जाना है, यह हमारे हाथ में है। जो शक्ति | आत्मा का स्वभाव पहचान लेते हैं। संत हो या गुरु वह भगवान के पास है वही शक्तियाँ हमारे भी पास हैं, | जगाने आता है, किसी की तकदीर नहीं बदल सकता। प्रकृति ने कोई भेद नहीं किया है। यहाँ तक कि पशु- | वह अंगुली दिखाता है कि वह मार्ग मोक्ष का है। गुरु पक्षी, तिर्यंच, पेड़-पौधे तक के पास वही शक्तियाँ | कभी अंगुली पकड़कर चलना नहीं सिखाता बल्कि वह विद्यमा ते ने सबको समान शक्ति प्रदान की। तो सही दिशा बताता है परन्त दष्टि खद को बदलना है। प्रकृति के सिद्धांत पक्षपात से रहित हैं। सबको जन्म- | पड़ेगी तभी मंजिल तक पहुँच पाओगे। मरण प्रकृति ने अपने कर्मों के अनुरूप दिया है किन्तु मुनिराज ने कहा कि सिद्ध परमेष्ठी भगवान भी मानव देह पाकर भी यदि अपने मरण को नहीं सुधारा | किसी को कुछ दे नहीं सकते । धर्म किसी को दिया नहीं तो यह दोष प्रभु का नहीं बल्कि अपने खुद का है। जो जाता बल्कि वह तो जगाने का काम करता है। जो धर्म जाग गया वह मरण को भी महोत्सव बना सकता है।' को धारण करता है वही सदाचार जीवन के पुष्प महका उन्होंने कहा कि रावण और विभीषण एक माँ से | सकता है। हर स्त्री-पुरुष की आत्मा में अनन्त शक्ति ही जन्मे थे परन्तु दोनों के मार्ग अलग थे। रावण दुराचार | भरी पड़ी है। जैसे पृथ्वी की कोई सीमा नहीं, उसीतरह फैलाने का पक्षधर था वहीं विभीषण सदाचार का हमराही | आत्मा का आनंद भी अनन्त है जिन्हें देव-गुरु-शास्त्र था। उसकी परिणति भी सामने है, कि राम ने रावण का | का निमित्त मिल पाता है, फिर वे संसार के दास नहीं गला उतार दिया और विभीषण को गले लगा लिया। बल्कि अपनी आत्मा के पुजारी बन जाते हैं। मुनिराज ने एक का मरण सुधर गया वहीं दूसरे का बिगड गया। दःख जताते हए कहा कि आज का आदमी कोल्ह के अपना मरण कोई दूसरा नहीं विगाड़ता बल्कि हम खुद | बैल की तरह दिन-रात मकान से दुकान और दुकान से उसके कारण हैं। याद रहे कर्म में कभी कोई साझीदारी | मकान के चक्कर लगाने में ही अपना जीवन गंवा रहा न हुई और न होगी। जो जैसा करेगा, वैसा पाएगा यही है। रोटी पकाना, खाना और पाखाना यह कोई बड़ी बात शाश्वत सत्य है। नहीं बल्कि धर्म कमाना बड़ी बात होगी। राम ने जीवन मुनिश्री ने कहा कि फूल की तरह हमारी यह | भर जंगल में काटे परन्तु उनके पास धर्म का खजाना था जिन्दगी है। एक डाली पर खिलता हुआ फूल भगवान | तभी वे मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए। श्री के चरणों में अर्पित होता है, एक फूल किसी के गले | रावण के पास सोने की लंका थी परन्तु जिसके का हार बनता है, एक फूल डाली पर ही सूख व सड़कर | पास धर्म था वह 'राम' आज भी घट-घट में मौजूद हैं, नष्ट हो जाता है। नष्ट सभी होते हैं परन्तु फूलों के भी | परन्तु सोने की लंका का मालिक आज भी दानव कहलाता अपने-अपने कर्म हैं। उसी तरह मिट्टी के अंदर घड़े | है। हमें क्या बनना है, क्या पाना है, कहाँ जाना है, मरण बनने की योग्यता पहले भी थी, आज भी है किन्तु जब | को सुधारना है या बिगाड़ना है, यह हमें ही तय करना तक किसी मिट्टी को कुम्हार का निमित्त नहीं मिलेगा, | पड़ेगा। उसी के अनुरूप हमें परिणाम मिलेंगे। तब तक मिट्टी ही है। जब निमित्त मिलता है, तब वही | 'अमृतवाणी' से साभार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524283
Book TitleJinabhashita 2004 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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