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________________ महासभाध्यक्ष जी के नाम खुला पत्र मूलचंद लुहाड़िया कुछ समय पूर्व एक लेख यह कैसा धर्म संरक्षण' आपको । इसकाल में निर्वस्त्र मुनि अवस्था व्यवहार्य नहीं है अतः आप भेजा था। लेख एवं विशेषत: लेख की अंतिम पंक्तियों के माध्यम | वस्त्र धारण कर लेवें, वे वस्त्र धारण कर परिग्रह से लिप्त हो जाते से समाज संगठन एवं धर्म संरक्षण हेतु निवेदन एवं सुझावों पर | हैं, तथापि अपनी पूजा सत्कार मुनियों के समान ही कराते हैं। यह आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया की समाज को अपेक्षा थी किंतु भेष दिगम्बर मुनि अवस्था का विकृत रूप है। वस्त्र एवं अन्य केवल यही नहीं कि परिणाम निराशा जनक हैं अपितु ऐसा प्रतीत परिग्रह को रखते हुए भी पीछी धारण कर वे पीछी का घोर होता है कि आप एक पक्षीय मान्यताओं के हठाग्रह के कारण | अवर्णवाद कर रहे हैं। आचार्य शांति सागर जी महाराज तो भट्टारकों किसी की कुछ भी सुनने के लिए तैयार नहीं हैं। को व्रती श्रावक के रूप में भी मान्य नहीं करते थे। जैन आचार आपका एक पत्र दिनांक ९.५.२००३ को मुझे पहले। | शास्त्र के अनुसार भट्टारक प्रतिमाधारी व्रती नहीं होने से श्रावक मिला था। मेरा उसका उत्तर देने की इच्छा नहीं थी। किंतु अभी | भी नहीं कहे जा सकते। भट्टारकों के बारे में हमारा तो केवल १९ फरवरी के जैन गजट में प्रकाशित महासभा की प्रबंधकारिणी | यह कहना है कि आगम के अनुसार इनका स्वरूप निर्धारण समिति की कलकत्ता वैठक के प्रस्ताव सं. ५ को पढ़कर मुझे किया जाना चाहिए। हमारी इस बात का विरोध करते हुए आपने बहुत पीड़ा हुई और मैं उस पत्र और प्रस्ताव पर लिखने के भावों | पू. आचार्यों एवं दि. जैन आगम के विरुद्ध भट्टारकों के पक्ष में को रोक नहीं पाया। मेरी और आपकी बात सब की जानकारी में | अपने हठाग्रह के प्रचार का अभियान चला रखा है। आ सके अस्तु यह खुला पत्र ....... । आश्चर्य तो तब होता है जब आप धर्म संरक्षणी महासभा आपने अपने उक्त पत्र में दो बातें लिखी हैं। एक तो यह | के मंच का उपयोग अपनी आगम विरुद्ध धर्म विरुद्ध मान्यता के कि आपकी भट्टारकों के बारे में हमारी राय शुरु से पसंद नहीं | पक्ष में प्रस्ताव पारित कराकर महासभा को विवादास्पद बनाने की थी और आज भी नहीं है। हमारी राय आपको पसंद नहीं है | ओर बढ़ा रहे हैं। यह सच है कि महासभा के इतिहास में आप इसमें मुझे कोई आपत्ति नहीं है। किंतु मुझे दुःख तो इस बात का | ऐसे पहले अध्यक्ष हैं जिन्होंने पूर्ण समर्पण भाव से सर्वाधिक है कि आपको इस बारे में न जिनागम की बात पसंद है और न | समय देकर महासभा को आगे बढ़ाया है। परंतु साथ ही यह भी दि. जैन आचार्यों की। भट्टारकों की उत्पत्ति का इतिहास | उतना ही सच है कि महासभा के इतिहास में आप ही ऐसे पहले सर्वविदित है। बारहवीं शताब्दी में दिगम्बर मुनि परिस्थितिवश अध्यक्ष हैं जो महासभा के साधनों का अपनी एक पक्षीय मान्यताओं बाहर आते जाते समय अधो वस्त्र का प्रयोग करने लगे और | के प्रचार में सर्वाधिक उपयोग करते हुए महासभा को एक पक्षीय धीरे-धीरे पूरे वस्त्र पूरे समय के लिए धारण करने लगे। आगे | बनाते जा रहे हैं। जाकर परिग्रहसंग्रह में लिप्त होकर मठाधीश बन गए और विलासी | अभी महासभा की कलकत्ता में हुई प्रबंधकारिणी समिति जीवन जीने लगे। वे श्रावकोचित संयम भी विधिवत धारण नहीं । की बैठक में प्रस्ताव सं. ५ के द्वारा प.पू. आचार्य विद्यासागर जी करते थे किंतु फिर भी पीछी रखते हुए स्वयं का मुनिवत पूजा | महाराज के आगमानुकूल उपदेश/आदेश की उपेक्षा करते हुए सत्कार कराते थे। ऐसे ही मनिपद से भ्रष्ट परिग्रह धारी मठाधीशों | समिति ने जो पूर्व में प्रबंध समिति की लखनऊ में हई बैठक में के लिए भट्टारक शब्द रूढ हो गया। दिगम्बर जैन धर्म के प्रस्ताव सं. २ भट्टारकों की प्रशंसा/समर्थन में पारित किया था, मुनियों या श्रावकों के आचार ग्रंथों में भट्टारकों का कोई स्थान उसका पुन: अनुमोदन किया है। पूर्व प्रस्ताव में सम्मान्य प्रामाणिक नहीं है। इनकी चर्या जैन आचार संहिता से विपरीत है। दिगम्बर | विद्वान स्व. नाथूराम जी प्रेमी द्वारा लिखित एवं दक्षिण भारत की धर्म के उन्नायक आचार्य कुंदकुंद ने स्पष्ट घोषणा की कि दिगम्बर | लोकप्रिय प्रतिनिधि संस्था, दक्षिण भारत जैन महासभा द्वारा प्रकाशित मुनि उत्कृष्ट श्रावक एवं आर्यिका के अतिरिक्त जैन दर्शन में कोई | पुस्तक 'भट्टारक' की निंदा करने का भी अशोभनीय कार्य किया चौथा लिंग नहीं है। दिगम्बर जैन समाज के मध्यकालीन इतिहास में भट्टारकों के आतंक और अत्याचारों का वर्णन भरा पड़ा है। | प्रबंध समिति के वर्तमान प्रस्ताव में पू. आचार्य श्री के उत्तर भारत में जिनागम के स्वाध्यायी श्रावकों एवं विद्वानों के निर्देश को न मानने के पक्ष में मुख्य तर्क देते हुए कहा गया है प्रभाव से भट्टारक प्रथा लगभग समाप्त हो गई। दक्षिण में अभी | 'भट्टारक परंपरा सैंकड़ों वर्षों से चली आ रही है और उसमें भट्टारकों द्वारा उनका आतंक पूर्वक शोषण तो रूका है। दीक्षा के | मूलभूत परिवर्तन करना समाज की एकता के लिए व प्राचीन समय थोड़ी देर के लिए मुनि बनकर श्रावकों की प्रार्थना पर कि | संस्कृति के लिए हितकर नहीं होगा।' उक्त तर्क को पढ़कर हंसी - मार्च 2004 जिनभाषित 21 Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.524283
Book TitleJinabhashita 2004 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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