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भी आती है और दुःख भी होता है। क्या सैकड़ों वर्षों से चली आ । है कि शिथिलाचारी साधुओं की परंपरा भट्टारकों की परंपरा से रही मिथ्या परंपरा को केवल प्राचीन होने के कारण न बदलना | अनेकों वर्ष पुरानी है। एक ओर आप भट्टारकों की परंपरा का समाज के लिए हितकर होता है? मिथ्यात्व की परंपरा और केवल सैकड़ों वर्ष पुरानी होने के आधार पर समर्थन कर रहे हैं सम्यक्त्व की परंपरा दोनों नाना जीवों की अपेक्षा अनादि कालीन | और दूसरी ओर शिथिलाचारी साधुओं की परंपरा का विरोध कर है। एक जीव की अपेक्षा मिथ्यात्व की परंपरा अनादि कालीन रहे हैं। यह विरोधाभास क्यों? समाज की एकता की रक्षा के प्राचीन होती है और सम्यक्त्व की परंपरा सदैव आदि कालीन | आधार पर भी भट्टारकों, मंत्र-तंत्रवादी साधुओं के पक्ष में भी अर्वाचीन ही होती है।
बहुत लोग हैं। यदि अपने मौलिक सिद्धांतों की हत्या के मूल्य पर भगवान आदिनाथ की दीक्षा के समय दीक्षित हुए सभी | आप सामाजिक एकता चाहते हैं तो आपको श्वेताम्बरों का भी साधु कुछ समय बाद भ्रष्ट हो गए थे और वे सब हजारों वर्षों तक समर्थन करना चाहिए। उनका नहीं तो कम से कम दिगम्बर भ्रष्ट साधु के रूप में रहे। पुनः भगवान को केवल ज्ञान प्राप्त होने | कहलाने वाले सोनगढ़ पंथियों एवं शिथिलाचारी साधुओं का तो के पश्चात समीचीन साधु चर्या का उपदेश प्राप्त कर अपने मिथ्या समर्थन कर समाज में एकता स्थापित करने की ओर अग्रसर होना भेष और मिथ्या आचरण का त्याग कर मारीच को छोड़कर सभी चाहिए जो आपको भी ईष्ट नहीं है। वस्तुतः सिद्धान्तों का संरक्षण भेषी साधु पुनः दीक्षित होकर सच्चे साधु बनकर रत्नत्रय की । सर्वोपरि है। आराधना करने लगे। (आदि पुराण श्लोक १८२)
| आपके वैचारिक विरोधाभास एवं पक्ष व्यामोह का यह इसीप्रकार भगवान महावीर के निर्वाण प्राप्ति के पश्चात् | मुंह बोलता उदाहरण यह है कि एक ओर आप कानजी पंथियों का भद्रबाहु श्रुत केवली के काल में जैन साधु वस्त्र धारण करने लगे | विरोध करते हुए कानजी को सद्गुरु के रूप में पूज्य मानने को और उन्होंने श्वेताम्बर सम्प्रदाय की नींव डाली। अपनी मान्यताओं | मिथ्यात्व घोषित करते हैं और दूसरी ओर उनसे अधिक आरंभ के पक्ष में आगम साहित्य सृजन कर उन्होंने श्वेताम्बर सम्प्रदाय परिग्रह भोगादि में लिप्त पीछीधारी भट्टारकों के सर्वथा आगम को एक सबल सम्प्रदाय के रूप में विकसित किया। क्या सैकड़ों | विरुद्ध स्वरूप को महासभा के मंच से मान्यता प्रदान करते और वर्ष प्राचीन और जैन नाम वाले का आगम साहित्य से समर्थित | उसको पुनः पुनः पुष्ट करते तनिक भी संकोच नहीं करते हैं। अपने होने के कारण हम उसको समीचीन स्वीकार करेंगे और समाज | को आचार्य शांतिसागर जी महाराज के उपासक धर्म संरक्षक मुनि की एकता भंग होने के तथाकथित भय के आधार पर उन मान्यताओं | भक्त बताने वाले आपने और आपके साथियों ने आज के युग में का आगम और तर्क से खंडन नहीं करेंगे? आगे चलकर दिगम्बर | आचार्य शांतिसागर महाराज के मिशन के प्रायोगिक उन्नायक साधुओं में भी शिथिलाचार का प्रवेश सैकड़ों वर्ष पहले हो गया | निर्दोष मुनिचर्या को जीकर स्थापित करने वाले दिगम्बर जैन धर्म था। आचार्य कुंदकुंद ने अपने साहित्य में ऐसे शिथिलाचारी भ्रष्ट | के सातिशय प्रभावक आचार्य विद्यासागर जी महाराज के द्वारा साधुओं को खूब आड़े हाथों लिया है। उनकी वंदना आदि करनेका | दिगम्बर जैन आचार पक्ष में आई विकृति को दूर करने की दिशा में विरोध किया है। आचार्य देवसेन ने दिगम्बर जैनाभासों का कथन | प्रदान किए गए आगमानुकूल निर्देश को केवल ठुकराया ही नहीं किया है। अनेक दिगम्बर जैनाचार्यों ने पार्श्वस्थ आदि शिथिलाचारी अपितु उसके विरुद्ध उस मिथ्यात्व को पुनर्पष्ट करने का अक्षम्य साधुओं की निंदा की है। अभी महासभा के मुख-पत्र जैन गजट अपराध किया है। श्रीमान जी! भट्टारकीय परंपरा प्राचीन दि. जैन में साधुओं के शिथिलाचार के विरुद्ध पर्याप्त पुष्ट आगम प्रमाणों से | संस्कृति नहीं है यह तो दि. जैन संस्कृति में शिथिलाचारी परिग्रह समर्थित सम्पादकीय लेख प्रकाशित हुए हैं इसी प्रबंध समिति की लिप्सु भोगासक्त साधुओं द्वारा लाई गई चिंतनीय विकृति है। ऐसी बैठक के साथ-साथ ही कलकत्ते में ही महासभा का जो साधारण | विकृत परपंरा का बार-बार महासभा के मंच से समर्थन कर आपने अधिवेशन हुआ उसके पारित प्रस्ताव सं. २ में आपने साधुओं से महासभा के धर्म संरक्षण के पवित्र उद्देश्य को निष्ठुरता पूर्वक भंग जिनाज्ञा पालन एक लौकिक विषय एवं मंत्रतंत्रादि में अनुरक्त न | किया है। होने की अपेक्षा की है। यदि केवल प्राचीन परंपरा होने के कारण दिगम्बर साधुचर्या और दिगम्बर मुद्रा तो दिगम्बर जैन ही मिथ्या परंपराएँ समीचीन बन जाती हो और उनका विरोध | धर्म के प्राण हैं। विदेशों की यात्रा पर जाने वाले भट्टारकों को समाज के लिए हितकर न होता हो तो क्यों आप सैकड़ों वर्षों की | देखकर अनेक विदेशी लोग यह समझ बैठे हैं कि श्वेताम्बर जैन साधुओं के शिथिलाचार एवं आचरण भ्रष्टता की पुरानी परंपरा को साधु सफेद वस्त्र पहनने वाले होते हैं और दिगम्बर जैन साधु धर्म और समाज के लिए अहितकर मानते हुए उसका विरोध कर | गेरुआं वस्त्र पहनने वाले होते हैं। रहे हैं? यदि निष्पक्ष होकर सोचें तो शिथिलाचारी साधुओं से भी इन दिगम्बर साधु के दोषयुक्त विकृत रूप भट्टारक संस्था भट्टारक परंपरा समाज के लिए अधिक अहितकर है। भट्टारक | का समय-समय पर सभी आगमज्ञ विद्वानों ने विरोध किया है, तो वस्त्र परिग्रह एवं विषयों में आकंठ डूबे होते हुए भी पीछी | जिसके फलस्वरूप उत्तर भारत में तो इस संस्था का नाम मात्र शेष रखते हुए अपने को मुनि के समान पुजवाते हैं। सही स्थिति यह | रह गया। दक्षिण भारत में भी दक्षिण भारत दि. जैन सभा जैसी 22 मार्च 2004 जिनभाषित
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