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________________ सम्पादकीय नाटक का अनाट्यशास्त्रीय प्रयोग 8 फरवरी 2004 को आचार्य श्री पुष्पदन्त सागर जी के शिष्य मुनिश्री पुलकसागर जी का भोपाल में पहली बार पदार्पण हुआ। उनकी भव्य अगवानी की गई। यह स्वाभाविक भी था, क्योंकि बहुत पहले से ही उनके आगमन की सूचना देने के लिए भोपाल के मन्दिरों और सार्वजनिक स्थलों पर मुनिश्री के चित्रसहित रंगीन पोस्टर चिपका दिये गये थे, जिसमें उनकी भव्य अगवानी के कार्यक्रम की घोषणा की गयी थी। पोस्टर में मुनिश्री के नाम के साथ 'अलौकिक सन्त' और 'प्रखर वक्ता' की उपाधियाँ जुड़ी हुयी थीं। 'अलौकिक सन्त' का अर्थ बुद्धिगम्य नहीं हुआ, क्योंकि अलोक में कोई साधु नहीं रहता। सभी साधु लोक में ही रहते हैं। इसीलिए णमोकारमन्त्र में ' णमो लोए सव्वसाहूणं' कहा गया है। पोस्टर छपवानेवाले ने यह ध्यान नहीं रखा कि जब 'णमो लोए सव्वसाहूणं' कहा जायेगा तब अलौकिक (लोकसे बाहर का) साधु इस नमस्कार की सीमा में नहीं आ पायेगा । हाँ, लक्षणा से 'अलौकिक' शब्द का अर्थ 'मानवेतर शक्तियों अर्थात् दैवी या चमत्कारी शक्तियों से युक्त' होता है। शायद लोगों ने यही अर्थ समझा, जिससे उनके मन में मुनिश्री के दर्शन की इच्छा बलवती हो उठी। इसके अतिरिक्त पोस्टर में मुनिश्री का भोपालवासियों के नाम यह सन्देश भी छपा था कि 'मुझे भोपाल में आपसे कुछ कहना है।' लोगों ने सोचा : मुनिश्री इतनी दूर से अपने-आप हमसे कुछ कहने के लिए आ रहे हैं। इसके पूर्व किसी मुनि ने हमसे कुछ कहने की इच्छा प्रकट नहीं की । अवश्य ही इनके मन में हमारे प्रति तीव्र वात्सल्य भाव है। इस वात्सल्यभाव की अनुभूति ने श्रावकों के हृदय में मुनिश्री के प्रति आकर्षण द्विगुणित कर दिया। तथा उनके मन में यह भी आया कि मुनिजी भोपालवासियों से ऐसा 'कुछ' कहने आ रहे हैं, जो इसके पहले आये किसी मुनि ने नहीं कहा। इस भावना ने भी मुनिश्री के दर्शन की आकांक्षा को उत्कर्ष पर पहुँचा दिया । निस्सन्देह मुनिश्री की अगवानी के लिए भारी भीड़ जुटी। और उसके बाद तो उनके प्रवचनों में जनसैलाब उमड़ पड़ा। मुनिश्री की प्रवचनशैली ओजस्विनी है, जो श्रोताओं की हृदयतन्त्री को झंकृत किये बिना नहीं रहती । मुनिश्री ने भोपालवासियों से जो कुछ | कहा वह सचमुच अनोखा था। उन्होंने कहा, 'गतवर्ष आपके शहर में आचार्य श्री विद्यासागर जी आये थे, वे शांति के दूत हैं। इस वर्ष मैं आया हूँ, किन्तु मैं क्रान्तिदूत हूँ । आचार्य विद्यासागर जी ने युवकों को मुनि बनाया है, लेकिन मेरे गुरु ने बालकों को मुनि बनाया है।' मुनिश्री ने एक बड़ी साहसपूर्ण स्वीकारोक्ति की। उन्होंने कहा, "हममें केवल दस प्रतिशत शिथिलाचार है, शेष आचरण भगवान महावीर के समान है। " मैं आज तक यह नहीं समझ पाया कि अट्ठाईस मूल गुणों का कितना-कितना पालन न करने पर | दस प्रतिशत शिथिलाचार होता है ? क्या ऐसा है कि बिलकुल न नहाने पर 'अस्नान' मूलगुण का शत-प्रतिशत पालन होता है और थोड़ा सा नहा लेने पर दस प्रतिशत शिथिलाचार होता है ? कभी भी दन्तधावन न करने पर 'अदन्तधावन' मूलगुण का सौ फीसदी पालन होगा और कभी-कभी दन्तधावन कर लेने पर दस प्रतिशत शिथिलाचार होगा ? तो क्या कभी-कभी नहा लेने या दन्तधावन कर लेनेवाला मुनि 'मुनि' कहला सकता है ? क्या कोई स्त्री नब्बे प्रतिशत व्यभिचार न करे और दस प्रतिशत करे, तो वह सती कहला सकती है ? नहीं, इसलिए मैं तो उक्त मुनिश्री में एक प्रतिशत भी शिथिलाचार नहीं मानता। मुनिश्री ने भोपाल से एक नए धार्मिक उत्सव की शुरुआत की है। वह है हिन्दुओं में रामकथा, भागवतकथा आदि के वाचन के समान दिगम्बर जैन परम्परा में ऋषभकथा का वाचन । किन्तु हिन्दुओं में कथावाचन का कार्य साधुसन्त नहीं, पण्डित महाराज करते हैं। साधुसन्त तो ब्रह्म, जीव, माया, प्रकृति और पुरुष जैसे गूढ़ दार्शनिक सिद्धान्तों का विवेचन करते हैं। जैनपरम्परा में साधुसन्त तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि रत्नकरण्ड श्रावकाचार, समयसार, इष्टोपदेश जैसे तात्त्विक एवं आध्यात्मिक ग्रन्थों का अर्थ समझाते हैं। पद्मपुराण, महापुराण जैसे कथाग्रन्थों का वाचन तो रात्रि में पण्डितों द्वारा मन्दिरों में प्रतिदिन किया जाता है और मुनिजन भी अपने प्रवचनों में यथाप्रसंग इन कथाओं का वर्णन अपनी शैली में करते ही हैं। फिर यह मुनियों के द्वारा पृथक् से कथावाचन जैसा जैनेतर प्रयोग मुनिधर्म के कहाँ तक अनुकूल है, यह विचारणीय है। भोपाल में जो ऋषभकथा का वाचन हुआ है, वह केवल कथावाचन नहीं था, अपितु कथावाचन और नाटक का मिश्रित रूप था। नाटक भी पूरी तरह रंगमंचीय नहीं था, आधा सड़कीय था, आधा रंगमंचीय महाराज नाभिराय के राजमहल जाकर भेंट अर्पित करना तथा उन्हें जुलूस में अयोध्यापुरी लाना तथा एकदिन के बाद श्री आदिकुमार की बारात निकालना और नगरभ्रमण करते हुए उनकी ससुराल जाना, इन दो घटनाओं का नाटक भोपाल नगर की सड़कों पर किया गया तथा आदिकुमार का जन्म, बालक्रीडाएँ, वैराग्य एवं भरत- बाहुबली के युद्ध का अभिनय रवीन्द्र भवन के खुले मंच पर दिखलाया गया। सड़क-नाटक में जैन-जैनेतरों में एक गलत सन्देश पहुँचानेवाला अनाट्यशास्त्रीय प्रयोग हो गया। श्री आदिकुमार की बारात रात्रि में 8:30 बजे जैन धर्मशाला चौक से निकाली गई और बारात का विशाल जुलूस विद्युत ट्यूबों की जगमगाती रोशनी में फिल्मी धुनों पर फिल्मी नृत्य करता हुआ अनेक मुहल्लों में से होता हुआ तीन घंटे में रात 11:30 बजे प्रोफेसर कॉलोनी पहुँचा और वहाँ उतनी मार्च 2004 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only 3 www.jainelibrary.org
SR No.524283
Book TitleJinabhashita 2004 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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