SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अर्थ- चौथा महाधिकार द्रव्यानुयोग है, इसमें प्रमाण, नय, । के अंग सौंदर्य आदि को नहीं, अथवा अनेक जगह यथालाभ निक्षेप तथा सत्संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व, | उपलब्ध होने वाले चारे के पूरे को ही खाती है। उसकी सजावट निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति, विधान आदि के द्वारा | आदि को नहीं देखती, उसी तरह भिक्षु भी परोसने वाले के मृदु द्रव्यों का निर्णय किया जाता है। (टीका पं. पन्नालाल जी) ललित रूप वेष और उस स्थान की सजावट आदि को देखने की पं. आशाधर जी ने अनगार धर्मामृत में इसप्रकार लिखा है- | उत्सुकता नहीं रखता और न 'आहार सूखा है या गीला, या कैसे जीवाजीवौ बन्धमोक्षौ पुण्यपापेचवेदितुम। चाँदी आदि के बरतनों में रखा है या कैसी उसकी योजना की गयी द्रव्यानुयोगसमयसमयन्तुमहाधियः ॥१२॥ है, आदि की ओर भी उसकी दृष्टि नहीं रहती है। वह तो जैसा भी अर्थ-जीव-अजीव, बन्ध-मोक्ष और पुण्य-पाप को जानने | आहार प्राप्त होता है वैसा खाता है। अत: भिक्षा को गौ की तरह के लिए तीक्ष्ण बुद्धि शाली पुरुषों को द्रव्यानयोग विषयक शास्त्रों | चार-गोचर या गवेषण कहते हैं। इस प्रकार से आहार ग्रहण करना को सम्यक् रीति से जानना चाहिए ॥१२॥ इसकी स्वोपज्ञ टीका में | गोचरी वृत्ति कहलाती है।' पं. आशाधर जी के उदाहरण स्वरूप सिद्धांतसूत्र एवं तत्वार्थसूत्रादिक प्रश्नकर्ता - श्री सुशीलकुमार जैन, दिल्ली लिखा है। जिज्ञासा- किस सम्यक्त्व से कौन सा सम्यक्त्व हो सकता वृहद्रव्य संग्रह ४२ की टीका में इस प्रकार कहा है- | है और कौन सा नहीं? प्राभृततत्वार्थ सिद्धान्तादौ यत्र शुद्धाशुद्ध जीवादिषद्रव्यादीनां समाधान - १. प्रथमोपशम सम्यक्त्व से क्षायोपशमिक मुख्यवृत्या व्याख्यानं क्रियते स द्रव्यानयोगो भण्यते। सम्यक्त्व हो सकता है, क्षायिक या द्वितीयोपशम नहीं। अर्थ-समयसार आदि प्राभृत और तत्वार्थसूत्र तथा सिद्धान्त २. द्वितीयोपशम सम्यक्त्व से क्षायोपशमिक सम्यक्त्व हो आदि शास्त्रों में मुख्यता से शुद्ध-अशुद्ध जीव आदि छ: द्रव्य आदि | सकता है, प्रथमोपशम या क्षायिक नहीं। का जो वर्णन किया गया है वह द्रव्यानुयोग कहलाता है। ३. क्षायोपशमिक सम्यक्त्व से क्षायिक सम्यक्त्व एवं उपरोक्त परिभाषाओं के अनुसार श्री षटखण्डागम तथा उसकी | द्वितीयोपशम सम्यक्त्व हो सकते हैं प्रथमोपशम नहीं। श्री धवलादि टीकाएँ द्रव्यानुयोग के ग्रन्थ हैं। आचार्य जिनसेन ने तो। ४. क्षायिक सम्यक्त्व के बाद अन्य किसी की आवश्यकता श्री षटखण्डागम के विषय को स्पष्ट रूप से द्रव्यानुयोग स्वीकार किया | नहीं रहती, अतः अन्य कोई सम्यक्त्व नहीं होता। है। तथा पं. आशाधर जी एवं वृहद्रव्यसंग्रहकार ने भी उदाहरण प्रश्नकर्ता - श्री नवीन कुमार जैन , सागर। स्वरूप सिद्धांत सूत्रों को द्रव्यानुयोग में माना है, जिससे ये सिद्धान्तग्रंथ जिज्ञासा - क्या मद्यांग जाति के कल्पवृक्ष शराब देते हैं ? द्रव्यानुयोग के अन्तर्गत आते हैं। पूज्य आ. विद्यासागर जी महाराज भी समाधान - मद्यांग जाति के कल्पवृक्ष शराब नहीं देते। इन सिद्धान्त ग्रंथों को द्रव्यानुयोग ही स्वीकार करते हैं। शराब तो अभक्ष्य है। कल्पवृक्षों से अभक्ष्य वस्तुएँ प्राप्त नहीं होती। यद्यपि उपरोक्त परिभाषाओं के अनुसार श्री षट्खण्डागम श्री आदिपुराण के नवम पर्व में इस प्रकार कहा है, का वर्णित विषय करणानुयोग की परिभाषा के अन्तर्गत आता हुआ 'मद्याङ्गमधुमैरेयसीध्वरिष्ठसवादिकान्। प्रतीत नहीं होता, फिर भी शायद उनमें वर्णित गणित के विषय को रसभेदास्ततामोदावितरन्त्यमृतोपमान्॥३७॥' देखकर पं. टोडरमल जी, क्षुल्लक जिनेन्द्रवर्णी तथा पं. पन्नालाल कामोद्दीपनसाधर्म्यातमद्यमित्युपचर्यते। जी साहित्याचार्य, सागर ने श्री षटखण्डागम, जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड ताखोरसभेदोऽयं यः सेव्यो भोगभूमिजैः॥३८॥ आदि को करणानुयोग के अन्तर्गत स्वीकार किया है। आशा है भदस्य करणंमद्यं पानशौण्डैर्यदादूतम्। विद्वतगण इस संबंध में और विचार करेंगे। तवर्जनीयमार्याणामन्तःकरण मोहदम्॥ ३९॥ प्रश्नकर्ता - श्री अक्षय डांगरा, बांसवाड़ा ___ अर्थ - इनमें मद्यांगजाति के वृक्ष फैलती हुई सुगन्धि से युक्त जिज्ञासा - गोचरीवृत्ति से आहार करना किसे कहते हैं? | तथा अमृत के समान् मीठे मधु-मैरैय, सीधु, अरिष्ट और आसव समाधान - श्री अकलंक स्वामी ने राजवार्तिक अध्याय | आदि अनेक प्रकार के रस देते हैं ॥३७॥ ९/६ की टीका में इस प्रकार कहा है, 'यथा सलीलसालंकारवर कामोद्दीपन की समानता होने से शीघ्र ही इन मधु आदि युवतिभिरूपनीय मानघासो गौ तदङ्गगतसौन्दर्यनिरीक्षणपर: | को उपचार से मद्य कहते हैं। वास्तव में ये वृक्षों के एक प्रकार के तृणमेवात्ति, यथा तृणोलूपं नानादेशस्थं यथा लाभमभ्यवहरति न | रस है जिन्हें भोगभूमि में उत्पन्न होने वाले आर्यपुरुष सेवन करते योजना संपदमवेक्षते तथा भिक्षुरपि भिक्षापरिवेषजनमदुललितरूप | हैं ॥ ३८॥ वेषविलासावलोकन निरुत्सुकः शुष्कद्रवाहारयोजनाविशेष मद्यपायी लोग जिस मद्य का पान करते हैं वह नशा करने चानवेक्षमाणः यथागतमनाति इति गौरिव चारो गोचार इति व्यपदिश्यते, | वाला है और अन्त: करण को मोहित करने वाला है, इसलिए आर्य तथा गवेषणेति च ।' पुरुषों के लिए सर्वथा त्याज्य है ॥ ३९॥ अर्थ -- जैसे गाय, गहनों से सजी हुई सुन्दर युवती के द्वारा - इस प्रकरण से स्पष्ट होता है कि मद्यांग जाति के कल्पवृक्ष, लायी गयी घास को खाते समय, घास को ही देखती है, लानेवाली | शराब नहीं देते, उत्तेजक पदार्थ प्रदान करते हैं। - मार्च 2004 जिनभाषित 25 Jain Education International For Private & Personal use only. www.jainelibrary.org
SR No.524283
Book TitleJinabhashita 2004 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy