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जिनभाषित
आश्विन, वि.सं. 2060
सदलगा ग्राम (कर्नाटक)
वीर निर्वाण सं. 2529
अक्टूबर 2003
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रजि. नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC
डाक पंजीयन क्र.-म.प्र./भोपाल/588/2003
अक्टूबर 2003
जिनभाषित
मासिक
वर्ष 2,
अङ्क १
सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन
अन्तस्तत्त्व
कार्यालय ए/2, मानसरोवर, शाहपुरा भोपाल-462 039 (म.प्र.) फोन नं. 0755-2424666
: आ. श्री विद्यासागर जी
प्रवचन : प्रकृति से दूर . आपके पत्रः धन्यवाद
लेख
सहयोगी सम्पादक पं. मूलचन्द्र लुहाड़िया, मदनगंज किशनगढ़ पं. रतनलाल बैनाड़ा, आगरा डॉ. शीतलचन्द्र जैन, जयपुर डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत प्रो. वृषभ प्रसाद जैन, लखनऊ डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती', बुरहानपुर
श्री सीमंधर स्वामी का समय श्रावक का प्रथम कर्तव्य : डॉ. श्रेयांस कुमार जैन पारस मणि वाले नेमि प्रभु : सुमत चन्द्र दिवाकर आ. शांतिसागर के तपस्वी... : डॉ. श्रीमती रमा जैन आ. विद्यासागर काव्य .... : प्राचार्य निहाल चंद जैन स्वयंभू के राम
: श्रीमती स्नेहलता जैन शीतल पेय पीने वालो... : डॉ. ज्योति जैन आधुनिक विज्ञान, ध्यान .... डॉ. पारसमल अग्रवाल
पशुबलि का औचित्य : मेनका गांधी जिज्ञासा-समाधान
: पं. रतन लाल बैनाड़ा बोधकथा
शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कँवरीलाल पाटनी
(मे. आर.के.मार्बल्स लि.) - किशनगढ़ (राज.) श्री गणेश कुमार राणा, जयपुर
। सबसे बड़े मूर्ख की खोज
प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी,
आगरा-282002 (उ.प्र.) फोन : 0562-2151428, 2152278
• माया का बंधन
. कविता
. रे मन तू व्यवसायी है
13
: प्रो. भागचन्द्र भास्कर : राहुल मोदी
• अखिल समर्पण
28-32
सदस्यता शुल्क शिरोमणि संरक्षक 5,00,000 रु. परम संरक्षक 51,000 रु. संरक्षक
5,000 रु. आजीवन
500 रु. वार्षिक
100 रु. एक प्रति
10 रु. सदस्यता शुल्क प्रकाशक को भेजें।
. समाचार . शब्दार्थ की अपेक्षा.....
आवरण पृष्ठ 3
Jain Education Interational
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आपके पत्र, धन्यवाद : सुझाव शिरोधार्य
'जिनभाषित' का जुलाई 03 का अंक मिला। पहले भी | पत्रिका निरन्तर प्रकाशित हो रही है और इस बीच में दो एक अंक इसके अंक निरंतर मिलते रहे हैं। अध्यात्म, दर्शन, चिन्तन को | देखने को मिले हैं। इस पत्रिका से समाज में कार्यरत विद्वानों लेकर चलने वाली यह पत्रिका अपने आपमें अनूठी है। डॉ. | समाजसेवियों और परम पूज्य संतों के बारे में जानकारी मिलने के संकटाप्रसाद मिश्र ने 'संतप्रवर आचार्य विद्यासागर का कृतित्व | साथ तत्वचर्चा, जिज्ञासा का समाधान, बालवार्ता आदि सभी के एवं व्यक्तित्व लिखा है। मेरी अपनी सोच के अनुसार विद्यासागर | लिए उपयोगी सामग्री प्राप्त होती है । इसके प्रकाशन व सम्पादन के जी को छूना याने 'हिमालय की ऊँचाइयों को छूने' जैसा है। डॉ. | लिए आपको धन्यवाद । साथ ही आपकी सम्पादकीय विशेष रूप श्रेयांसकुमार जैन ने 'सामायिक की प्रासंगिता' में बहुत अच्छी से पठनीय और समाज के लिए मार्ग दर्शनीय होती है। जानकारी दी है। इसको तो सभी लोगों को पढ़ना चाहिए, ताकि वे
आपका
कपूर चंद जैन पोतदार सामायिक की उपयोगिता को समझ सकें। पत्रिका की बोधकथा
टीकमगढ़ (म.प्र.) अच्छी लगी।
अगस्त माह की पत्रिका अन्य प्रतियों की अपेक्षा जल्दी शुभकामनाओं सहित।
मिल गई थी। अस्वस्थ रहने के कारण धीरे-धीरे ही पढ़ पाई। भवदीय
सम्पादकीय लेख सहित सभी लेख अच्छे लगे। व्र. संदीप राजेन्द्र पटोरिया
| जी 'सरल' का चतुर्विध आराधना का पर्व चातुर्मास में आराधनाओं सिविल लाईन्स, नागपुर
का विश्लेपण तथा डॉ. शीतलचन्द्र जी द्वारा लिखित जैन गृहस्थाचार आपकी पत्रिका 'जिनभाषित' (मासिक) मुझे बहुत अच्छी
परम्पराओं का क्रमिक विकास में गृहस्थों के लिए ज्ञानवर्धक लगती है, मैं इसका नियमित पाठक हूँ। सम्पादकीय में आपको
आचारांग सार संक्षिप्त उपयोगी लगा। विशेषतया ब्र. शांति कुमार तर्कपूर्ण टिप्पणीयाँ, सुन्दर और विवेचन पूर्ण लेख, शिक्षाप्रद कथाएँ
जैन के विचार 'सिद्धांत समन्वय सार' शीर्षक मन को छू गया। मैं सभी काफी सराहनीय हैं। आपके प्रयास से यह एक स्तरीय
उनके विचारों से सहमत हूँ। मेरे मन में भी श्रीकृष्ण के प्रति पत्रिका है जो कि हर बार कुछ रोचक लेकर आती है।
(उनके विचारों से) अनेक शंकायें उठती थीं, कि क्या यादव आपका नियमित पाठक | मांसाहारी थे? हिंसक थे? राजुल के पिता के भी क्या हिंसक राहुल मोदी
विचार हो सकते थे? आदि, सो सारी शंकायें निर्मूल हो गईं। द्वारा- श्री एस.सी. मोदी (एडवोकेट)
पुराना बाजार, मुंगावली ब्र. शांति कुमारजी को साधुवाद एवं वंदना। पत्रिका में जिला-गुना (म.प्र.)
कविताओं का अभाव खलता है। पत्रिका में गुरुवर विद्यासागर जी वीर-प्रभु की कृपा से आप सपरिवार आनंद स्वस्थ्य होंगे। के शिष्य संघ के चातुर्मास स्थल की जानकारी प्राप्त कर जिज्ञासा मेरे पास'जिनभाषित' मासिक पत्रिका फरवरी 2002 का अंक है. | शांत हुई । संपादक जी को धन्यवाद। जिससे ज्ञात होता है कि यह पत्रिका का पहला वर्ष था, क्योंकि
ज्ञानमाला जैन इसमें वर्ष एक व अंक एक लिखा है। यद्यपि इसके बाद यह |
ए-332, ऐशबाग, भोपाल
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प्रवचनसार
प्रकृति से दूर
आ. श्री विद्यासागर जी
थे।
तत्त्व चिन्तक दार्शनिक आचार्य विद्यासागर जी ने । हुआ ऐसा, ठंड में गरमी आ गयी, लाल हो गये, क्योंकि अन्दर के अमरकंटक में कहा कि काया की अनुकूलता के लिए कृत्रिम परिणामों ने बाहर के परिणामों को प्रभावित कर दिया, अंदर की साधनों के प्रबन्धों से प्रकृति से दूर हो रहे हैं । बाह्य प्रतिकूलता में | गरमी से बाहर की ठंडक में भी गरमी आ गयी। ऐसा ही साधना आन्तरिक शक्ति उद्घाटित होती है, यह ज्ञान कराते हुए साहित्य | रत साधु आत्मा की अनुकूलता से बाहर की प्रतिकूलता की अनुभूति साधक आचार्य श्री ने कहा कि शून्य से चालीस डिग्री कम तापमान | करते हैं। में भी भारत की रक्षा के लिए सैनिक सीमा पर अपने कर्त्तव्य को काया की अनुकूलता के लिये कृत्रिम साधनों की निर्भरता निभाता है, क्योंकि उसके अन्दर में भारत की रक्षा की संकल्प से प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं यह बताते हुए आचार्य श्री ने कहा शक्ति का बल है। इस अवसर पर असम, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, | कि अमरकंटक में शीत काल में बहुत ठण्ड पड़ती है। प्रबंधकों ने हरियाणा आदि सुदूर प्रान्तों सहित बड़ी संख्या में श्रोता उपस्थित | बताया महाराज शीत ऋतु के पश्चात् अमरकंटक का मौसम सुहावना
हो जाता है, शीत ऋतु में ही हम सर्वप्रथम अमरकंटक आए थे तब बादलों से आच्छादित अमरकंटक की सभा में आचार्य श्री भी यहां बादल मंडरा रहे थे। प्रबंधकों को ठंड में पसीना आ रहा ने कहा कि श्रोताओं को बादलों के स्पर्श से शीत की अनुभूति हो | था। आचार्य श्री ने कहा कि कर्मों के बंधन कहने के लिए शीत रही है। प्रतिकूल मौसम में काया की अनुकूलता के लिए कृत्रिम ऋतु में ऐसे ही स्थल उपयुक्त होते हैं । साधना के क्षेत्र में संसारी प्रबंध किए जाते हैं, किन्तु आपके सम्मुख दिगम्बर साधु विराजमान साधनों की कोई आवश्यकता नहीं है । यहाँ बादल आ रहे हैं, स्पर्श हैं, उन्हें किसी कृत्रिम साधनों की आवश्यकता नहीं क्योंकि साधनों कर चले जाते हैं। श्रमण प्रकृति के सानिध्य में साधना करते हैं, को त्याग कर साधना की जाती है। अंदर अनुकूलता है तो बाहर स्वाध्याय से कर्मों की निर्जरा हो जाती है । सूरज चांद छिपे निकले की प्रतिकूलता का कोई प्रभाव नहीं हो रहा। यही अन्तर है, साधु | ऋतु फिर-फिर कर आवे, प्यारी आयु ऐसी बीते पता नहीं पावे।
और श्रावक में। साधु आत्मिक अनुकूलता के लिए साधना कर गरमी में बदली की प्रतीक्षा, शीत ऋतु में गरमी की प्रतीक्षा, करते रहे हैं, श्रावक काया की अनुकूलता के लिए साधनों का प्रबंध। हुए आयु निकल जाती है। अंदर यदि कटुता हो तो बाहर कटुता दोनों बादलों के समूह के सानिध्य में हैं, किन्तु साधु और श्रावक | व्याप्त हो जाती है । अंदर मधुरता होने पर चहुँ ओर माधुर्य छा जाता की अनुभूति पृथक-पृथक है। आचार्य श्री ने बताया कि काया की | है। कृत्रिम प्रबंधों, साधनों की आवश्यकता ही क्या है। इन प्रबंधों अनुकूलता के लिए शीत में ऊष्ण स्थानों पर एवं ग्रीष्म काल में | में न्यूनता होने से भारत का ऋण भार भी कम हो सकता है। बच्चों शीतल स्थानों पर जाने का प्रबन्ध किया जाता है। किन्तु आत्मा की रक्षा के लिए भी मृगेन्द्र के सामने खड़ा हो जाता है। आत्मा की अनुकूलता में रत साधक ग्रीष्म में ऊष्ण और शीत काल में | की रक्षा के लिए संकल्प हो तो अनुकूलता की ही अनुभूति होती शीतल स्थानों पर साधना के लिए जाते हैं, क्योंकि बाह्य प्रतिकूलता | है। भूत से वही भय भीत होता है जिसके अन्दर भय के भाव होंगे, में ही आंतरिक शक्ति उद्घाटित होती है। अंदर की अनुभूति से | निर्भय के भावों से भूत स्वयं भयभीत रहता है। रत्नत्रय की शुद्ध बाहर का मौसम भी अनुकूल हो जाता है। कायिक रोग से मुक्ति | आराधना से अनन्तकालीन रोगों से मुक्ति मिल सकती है। ज्ञानवान के लिए चिकित्सक शीत ऋतु में भी शीतल स्थानों पर जाने का | विद्यार्थी की ऊपरी कक्षा में उन्नति को देखकर सहपाठियों को भी परामर्श देता है तो तत्काल प्रबंध किया जाता है क्योंकि रोग मुक्त | प्रेरणा मिल जाती है। इसके पूर्व सभा का संचालन करते हुए होना है। साधक भी अनन्त कालीन रोग से मुक्त होना चाहता है | पत्रकार वेद चन्द्र जैन ने बताया कि सर्वोदय तीर्थ समिति द्वारा इसीलिए साधनों का आश्रय तजकर साधना का सहारा लेता है, | आचार्य श्री की प्रेरणा से अमरकंटक में लगभग एक हजार विकलांगों यह साधना ग्रीष्म स्थानों में शीतलता का और शीतल स्थानों में | के कृत्रिम अंग निःशुल्क लगाए गये हैं। कृत्रिम अंगों के प्रत्यारोपण ऊष्णता की अनुभूति कराती है, अंदर के परिणामों से बाहर के भी | के लिये सुदूर प्रदेशों से आए श्रोताओं ने सहयोग राशि की घोषणा परिणाम परिवर्तित हो जाते हैं। इसकी गूढ़ता को सहजता से | की। कार्यवाहक अध्यक्ष प्रमोद सिंघई ने आगंतुकों का अभिनन्दन सिखाते हुए आचार्य श्री ने बताया कि ठंड में भी यदि शेष का | किया। आवेश हो तो शरीर गर्म हो जाता है गुस्से में लाल हो जाते हैं। क्यों |
वेदचन्द जैन
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श्री सीमंधर स्वामी का समय
जिस क्षेत्र के बीच में मेरु पर्वत होता है उसको विदेह क्षेत्र । से देखा है। उनके उस उत्सव में इन्द्रादि देव भी विमानों पर बोलते हैं। इस क्षेत्र में देवकुरु-उत्तरकुरु को छोड़ कर शेष में सदा | चढ़कर आये थे। मैंने वहाँ यह भी सुना कि इनके जन्म समय में चतुर्थ काल रहता है। जहाँ कभी मोक्षमार्ग बंद नहीं होता है। और | भी इन्द्रादिकों ने आकर इनका जन्मभिषेक मेरु पर्वत पर किया सदा ही जहाँ के मनुष्यों की काया प्रायः पाँच सौ धनुष की ऊँची | था। जैसा कल्याणकों का उत्सव यहाँ भरत क्षेत्र में मुनिसुव्रतभगवान व आयु अधिक से अधिक एक करोड़ पूर्व वर्ष की होती है। मेरु का हुआ है, वैसा ही विदेह में सोमंधर स्वामी का हुआ है।' से पूर्व दिशा की तरफ का भाग पूर्व विदेह और पश्चिम का भाग इस वृत्तांत से जाना जाता है कि सीमंधर स्वामी का अस्तित्व पश्चिम विदेह कहलाता है। अढ़ाई द्वीप में पांच मेरु पर्वत होने के | मुनिसुब्रत और नमि तीर्थंकर के अंतराल समय में था। कारण पाँच विदेह क्षेत्र होते हैं। सभी विदेहों में उक्त प्रकार से जिनसेन कृत हरिवंश पुराण पर्व 43 श्लो. 90 में लिखा है पूर्व-पश्चिम भाग होते हैं। पूर्व-पश्चिम भागों में सोलह-सोलह कि प्रद्युम्न के हरे जाने के बाद उसका पता लगाने को नारदजी पूर्व महादेश होते हैं। पाँच विदेहों के दश भागों में कुल महादेशों की विदेह में पुष्कलावती देश की पुंडरीकिणी नगरी में गये। वहाँ संख्या 160 होती है। कभी-कभी एक ही समय में इन 160 देशों समवशरण में पहुंचकर भगवान सीमंधर से प्रझुम्न का हाल मालूम में 160 तीर्थंकरों का सद्भाव रहता है। कहते हैं श्री अजीत नाथ | किया। स्वामी के समय में पांचों विदेहों में 160 तीर्थंकर विद्यमान थे। पद्मपुराण के कथनानुसार तो सीमंधर ने मुनिसुब्रत और निश्चयत: प्रत्येक विदेह के पूर्व पश्चिम भाग में कम से कम दो-दो | नमि के अंतराल समय में दीक्षा ली थी और हरिवंशपुराण के तीर्थंकर तो हमेशा विद्यमान रहते ही हैं। तदनुसार पाँचों विदेहों में अनुसार नेमिनाथ के समय में वे केवल ज्ञानी हो गये थे। यह तो कम से कम 20 तीर्थंकर नित्य पाये जाते हैं। इस वक्त भी पांचों स्पष्ट ही है कि- पद्मपुराणकार ने पउमचरिय नामक प्राकृत भाषा विदेहों में सीमंधरादि 20 तीर्थंकर मौजूद हैं। जिस जंबूद्वीप में हम के पुराण का बहुत करके अनुसरण किया है। इसलिए सीमंधर रहते हैं उसके विदेह क्षेत्र में भी पूर्व भाग में दो और पश्चिम भाग स्वामी का उक्त वृत्तांत जैसा पउमचरिय में लिखा था वैसा ही में दो कुल 4 तीर्थंकर इस वक्त मौजूद हैं । सीमंधर, युग्मंधर, बाहु पद्मपुराण में लिखा गया है। ऐसा ही कथन हेमचन्द्र कृत जैनरामायण
और सुबाहु ये उनके नाम हैं। उनमें से सीमंधर स्वामी की नगरी | श्वेताम्बर ग्रन्थ के भी हैं। पूर्व विदेहस्थ पुष्कलावती देश की पुंडरीकिणी है। युग्मंधर की हरिवंशपुराणकार जिनसेन के समक्ष रविषेण का पद्मपुराण नगरी पश्चिम विदेहस्थ व प्रदेश की' विजया' है। बाहु भगवान् मौजूद था ही अत: जिनसेन भी रविषेण के कथन की संगति की नगरी पूर्वविदेहस्थ वत्स की 'सुसीमा' है और सुबाहु की बैठाते हुये नेमिनाथ के समय में सीमंधर स्वामी को केवल ज्ञानी नगरी पश्चमविदेहस्थ सरित् देश की 'वीतशोका' है। सीमंधर बीस प्रगट किया और नारद जी ने उनसे प्रद्युम्न का हाल जाना ऐसा तीर्थंकरों का चरित्र ग्रन्थ तो हमारे देखने में नहीं आया है। अलबत्ता लिखा। बीस बिहरमान पूजापाठों में उनके माता-पिता चिन्ह आदिकों के | इन दोनों ग्रन्थों की इन कथाओं के आधार पर बहुत से नाम जरूर पढ़े हैं।
| जैनी भाई यह समझे बैठे हैं कि - मुनिसुब्रत स्वामी के तीर्थकाल अब हमें यह देखना है कि ये बीस तीर्थंकर जो इस समय | से ही सीमंधर भगवान् का अस्तित्व चला आ रहा है। महासेनकृत विदेहों में विद्यमान हैं। इनका प्रादुर्भाव कब हुआ है ? भरतक्षेत्र के | प्रद्युम्नचरित (११वीं शती) पृष्ठ ५२-५३ में भी प्रद्युम्न का हाल किस 2 तीर्थंकर के तीर्थकाल में ये हुए हैं। शास्त्रों में इस विषय | सीमंधर स्वामी से ही जानना लिखा है। में सिर्फ एक सीमंधर स्वामी के बारे में कुछ जानकारी मिलती है। किन्तु आचार्य श्री गुणभद्र प्रणीत उत्तर पुराण में इससे अन्य तीर्थंकरों के बावत् कथन हमारे देखने में नहीं आया है। भिन्न कुछ और ही कथन मिलता है। विदेहक्षेत्र में जाकर नारद
रविषेण कृत पद्मपुराण पर्व 23 श्लो. 7 आदि में लिखा | जी ने जिन तीर्थंकर केवली से प्रद्युम्न का पता लगाया था। वह है कि - एकबार नारदजी राजा दशरथ से मिलने गये। दशरथ ने कथन उत्तर पुराण में इस प्रकार हैउनसे देशांतरों का हाल पूछा । उस प्रसंग में उत्तर देते हुए नारदजी
नारदस्तत्वमाकर्ण्य श्रणु पूर्व विदेहजे। ने कहा कि
नगरे पुंडरीकिण्यां मया तीर्थकृतो गिरा॥६८॥ 'मैं पूर्व विदेह में गया था, वहाँ पुंडरीकिणी नगरी में
स्वयं प्रभस्य ज्ञातानि वार्ता बालस्य पृच्छता। सीमंधरस्वामी का दीक्षाकल्याणक का महोत्सव मैंने अपनी आँखों
भवांतराणि तद्वृद्धिस्थानं लाभो महानपि॥१९॥
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अर्थ - श्रीकृष्ण की बात सुनकर नारद कहने लगा सुनो ! पूर्व विदेह की पुंडरीकिणी नगरी में मैंने स्वयंप्रभ तीर्थंकर को बालक प्रद्युम्न की वात पूछी थी। उनकी वाणी से मैंने प्रद्युम्न के 'भवांतर जान लिये हैं। और वह इस वक्त किस स्थान में बढ़ रहा है तथा उसको क्या- क्या महान् लाभ होने वाला है यह भी मैंने उन्हीं भगवान् की वाणी से जान लिया है।
उत्तर पुराण के इस उल्लेख से प्रगट होता है कि नारद ने पद्युम्न का हाल विदेह क्षेत्र में स्वयंप्रभ तीर्थंकर से जाना था। न कि सीमंधर स्वामी से। वहाँ उस वक्त सीमंधर थे ही नहीं बल्कि वे तो उस समय पैदा भी नहीं हुए थे। क्योंकि एक नगरी में ही नहीं विदेह के किसी एक महादेश में भी एक काल में दो तीर्थंकरों का सद्भाव नहीं हो सकता है।
यहाँ यह भी ध्यान में रखने की बात है कि ये स्वयंप्रभ तीर्थंकर वे नहीं हैं जिनका नाम बीस सीमंधरादि में ६ वें नम्बर पर आता है। वे तो धातकी खण्ड के विदेहक्षेत्र में हुए हैं। इसलिये उत्तर पुराण में लिखे उक्त तीर्थंकर पुंडरीकिणी नगरी में उस वक्त कोई जुदे ही स्वयंप्रभ नाम के तीर्थंकर थे, जिनके पास में जाकर नारदजी ने प्रद्युम्न का हाल पूछा था। अगर उस वक्त वहाँ सीमंधर होते तो आचार्य गणुभद्र स्वयंप्रभ का नाम नहीं लिखते ।
पुष्पदंत कवि का बनाया हुआ अपभ्रंश भाषा में एक महापुराण है जिसमें गुणभद्र कृत उत्तरपुराण की कथाओं का अनुसरण किया गया है। उसके तीसरे खण्ड के पृ. 160 पर भी यह कथन उत्तरपुराण के अनुसार ही लिखा है। अर्थात वहाँ भी प्रद्युम्न का हाल स्वयंप्रभ तीर्थंकर ने बताया लिखा है।
इस प्रकार उत्तरपुराण जो कि मूलसंघ की परम्परा का ग्रन्थ माना जाता है उसके अनुसार तो नारद जी विदेह में प्रद्युम्न का हाल पूछने गये तब तक तो सीमंधर स्वामी वहाँ विद्यमान ही नहीं थे इसलिये यही मानना पड़ता है कि वे बाद में ही कभी हुए हैं
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जबकि उत्तर पुराण से डेढ़ सौ वर्ष करीब पहिले पद्म पुराण बन चुका था और हरिवंश पुराण भी उत्तर पुराण से पहिले का है फिर भी गुणभद्र ने उनके कथन को अपनाया नहीं. इससे यही फलितार्थ निकलता है कि रविषेण और जिनसेन (हरिवंश पुराणकार) की आम्नाय अलग थी एवं गुणभद्र की अलग थी। भिन्न आम्नाय होने से ही यही नहीं अन्य भी कितना ही कथन आपस में मिलता नहीं है। यह समस्या श्रुतसागर सूरि के सामने भी आई दिखती है इसी से उन्होंने इनका समाधान करते हुए पट् प्राभृत की संस्कृत टीका के अन्त (पृष्ठ ३७९) में इस प्रकार लिखा है:
'पूर्व विदेह पुण्डरीकिणी नगर वंदित सीमंधरा पर नाम स्वयं प्रभ जिनेन
अर्थ - पूर्व विदेह की पुण्डरीकिणी नगरी के जो सीमंधर
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हैं उन्हीं का दूसरा नाम स्वयंप्रभ है।
यह समाधान कहाँ तक समुचित है इस पर विशेषज्ञ विद्वान् विचार करें। वृहज्जैन शब्दार्णव प्रथम भाग में, मोक्षमार्ग प्रकाशक के प्रारम्भ में, पुण्याह वाचन में, द्यानतराय जी, जौहरीलाल जी, थानसिंह जी कृत बीस विहरमान पूजाओं में, संस्कृत विद्यमान विंशति जिन पूजा आदि में बीस तीर्थंकरों के नाम इस प्रकार हैं
१. सीमंधर २. युग्मंधर ३ बाहु ४. सुबाहु ५. संजातक ६. स्वयंप्रभ ७. ऋषभानन ८. अनंतवीर्य ९. सूर्यप्रभ १० विशाल कीर्ति ११. वज्रधर १२. चन्द्रानन १३. चन्द्रवाहु (भद्रबाहु ) १४. भुजंगम १५. ईश्वर १६. नेमप्रभ १७. वीरसेन १८. महासेन १९. देवयशं ( यशोधर) २०. अजितवीर्य ।
उपरोक्त कुछ ग्रन्थों में क्रमश: चार तीर्थकरों को जंबुद्वीप विदेह में, आठ को धात की खंड में और आठ को पुष्करार्ध द्वीप में बताया है। तदनुसार यह बात इस लेख के शुरू में भी व्यक्त की गई है किन्तु प्राचीन महापुराण (भारतीय ज्ञान पीठ, दिल्ली से प्रकाशित) पुण्याश्रव कथा कोश (जीवराज ग्रन्थमाला शोलापुर से प्रकाशित ) में इससे विपरीत कथन पाया जाता है, जिनका विवरण मयपृष्ठ के इस प्रकार है:
सीमंधर- धातकी खण्ड द्वीप पूर्व विदेह आदिपुराण (जिनसेन कृत) प्रथम भाग पृष्ठ १४५ तथा पुण्याश्रव कथा कोश पृष्ठ २४८ ।
युगमंधर- पुष्करार्थ दीप पूर्व विदेह आदिपुराण प्रथम भाग पृष्ठ १४६ तथा उत्तरपुरण (गुणभद्र कृत) पृष्ठ ८७ एवं पुण्याश्रव कथा कोश पृष्ठ २४५ व २४८ ।
स्वयंप्रभ जम्बूद्वीप पूर्व विदेह आदिपुराण प्रथम भाग पृष्ठ १९९ उत्तर पुराण पृष्ठ १४, १६६, १७३, ३४१, ४११ । स्वयंप्रभधातकी खण्ड द्वीप उत्तर पुराण पृष्ठ ५०-५१ । इस विषय में एक विशेष बात और ज्ञातव्य है समाधि भक्ति के अन्तर्गत एक गाथा पाई जाती है:
पंच अरिजयणामे पंच व मदिसायरे जिणे बंदे पंच जोवरणामे पंच व सीमंदरे बंदे ॥९ ॥
इसमें बताया है कि प्रत्येक विदेह क्षेत्र में अरिंजय, मतिसागर, जसोधर और सीमंधर ये चार-चार तीर्थंकर विशेष जुदा ही होते हैं।
इस सब से यह फलित होता है कि कहीं एक रूपता एक नियम नहीं है एक सीमंधर स्वामी भी पाँचों मेरु सम्बन्धी पाँचों विदेहों में एक ही समय में पाये जाते हैं यह नाम सर्वत्र शाश्वत रूप है। इस विषय में और भी कोई मतितार्थ हो या कोई संशोधन की स्थिति हो तो विद्वानों से निवेदन है कि वे उसे अवश्य प्रकट करें। शास्त्र समुद्र अथाह है।
जैन निबंध रत्नावली
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श्रावक का प्रथम कर्तव्य देवपूजा
डॉ. श्रेयांसकुमार जैन तीर्थकर की दिव्यध्वनि के आधार पर ही गणधर स्वामी ने | एकदम छोड़ देना चाहिए। श्रमण और श्रावक धर्म का प्ररूपण किया है। ध्यान और अध्ययन | द्रव्यपूजा, भावपूर्वक ही फलदायी होती है। अत: गृहस्थ श्रमणधर्म है। दान और पूजा श्रावकधर्म है। जयधवला टीका में | की अपेक्षा द्रव्य और भाव दोनों सापेक्ष हैं। कविवर बनारसीदास आचार्य वीरसेन ने श्रावकधर्म पर विचार करते हुए लिखा है- 'तं जहा | लिखते हैंदाणं पूया सीलमुववासो चेदि चउव्विहो सावयधम्मो' 1/82 अर्थात्
लोपै दुरित हरै दुःख संकट, आवै रोग नित देह, दान, पूजा, शील और उपवास चार प्रकार का श्रावक धर्म है।
पुण्य भण्डार भरै जस प्रकटे, मुक्ति पंथ सौ करे सनेह। श्रावक के धर्म और कर्तव्यों में देवपूजा को अनिवार्य माना
रचे सुहाग देय शोभा जग, परभव पहुँचावत सुरगेह, गया है। श्रावक के षटावश्यक-देवपूजा, गरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम,
कुगति बन्ध दहमलहि बनारसि, वीतराग पूजा फल येह। तप, दान हैं। श्रावक के इन कर्तव्यों या आवश्यकों में देवपूजा को
देवलोक ताको घर आंगन, राजरिद्धि सेवै तसु पाय, प्रथम और अनिवार्य स्वीकार किया है। आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी
ताकोमन सौभाग्य आदिगुन, केलिविलासकरनित आय। जिनेन्द्रपूजन की महत्ता स्वीकार करते हुए लिखते हैं
सो नर त्वरित तर भवसागर, निर्मल होय मोक्ष पद पाय। देवाधिदेवचरणे परिचरणं, सर्वदुःखनिर्हरणम्।
दुख-भावविधिसहित बनारसि, जोजिनवरपूजैमन लाय। कामदुहि कामदाहिनि, परिचिनुयादादृतो नित्यम्॥9॥ अर्थात् द्रव्य भाव विधि सहित वीतराग जिनेन्द्र की पूजा
रत्नकरण्डश्रावकाचार
करने वाला मानव संसार-सागर से पार हो जाता है। कर्म-मल के इच्छित फल देने वाले और काम बाण का भस्म करने वाले
दूर हो जाने से आत्मलाभ प्राप्त करता है । भगवान् की पूजा उपासना जिनेन्द्र भगवान् के चरणों में पूजन करना समस्त दुःखों का नाश करने साधनामय है। वाला है। इस प्रकार प्रतिदिन जिनार्चन करना परमावश्यक है।
देव पूजा से महान् फल की प्राप्ति होती है, ऐसा आचार्य वीतराग भगवन्तों की मन, वचन, काय की एकतापूर्वक
कुन्दकुन्द स्वामी रयणसार में लिखते हैंजल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फल इन अष्ट द्रव्यों
पूयाफलेण तिलोय सुरपुज्जो हवेइ सुद्धमणो। से भक्ति सहित पूजा करने का महान् फल प्राप्त होता है । श्रावकाचारों
दाणफलेण तिलोए सास्सुहं भुंजदे णियदं॥१४॥ में आचार्यों ने पुरजोर के साथ कहा है कि गृहस्थ को द्रव्यपूजा की
जो शुद्ध-भाव से श्रद्धापूवर्क पूजा करता है, वह पूजा के परमावश्यकता है, क्योंकि गृहस्थ निरन्तर द्रव्यसंग्रह में संलिप्त फल से तीनों लोकों में देवताओं के इन्द्रों से वन्द्य तथा पूज्य हो जाता रहता है। जब तक गृहस्थ मूर्छा कम नहीं करता है, तब तक श्रद्धा,
है और जो सुपात्रों को चार प्रकार का दान देता है, वह दान के फल संवेग, वैराग्य-विरति, उपशम एवं अनासक्ति इत्यादि गुणों से
| से त्रिलोक सारभूत उत्तम सुखों को भोगता है। गर्भित शुभ-भाव अपने में पैदा नहीं कर सकता तथा देवाधिदेव आचार्य विद्यानन्द स्वामी भी कारण परम्परा से महान् फल वीतराग जिनेन्द्र की पूजा रुचि सम्पन्नता से नहीं कर पाता। अतएव | के मूलस्रोत की पूजा करने की प्रेरणा देते हुए कहते हैंप्रशस्त शुभ भाव में प्रतिबन्धक द्रव्य मूर्छा को हटाना आवश्यक
अभिमतफलसिद्धिरभ्युपाय: सुबोधः, है। द्रव्य मूर्छा को पृथक् करने का समर्थ कारण द्रव्यपूजा है।
स च भवति सुशास्त्रात्तस्य चोत्पत्तिराप्तात्। द्रव्यपूजा मात्र से परम लक्ष्य की सिद्धि असम्भव है। अत: द्रव्यपूजा
इति भवित स पूज्यस्तत्प्रसादात्प्रबुद्धैः, के साथ शुभ-भावों का लक्ष्य रखना आवश्यक है क्योंकि भाव
न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति । विशुद्धि के बिना की हुई क्रिया फलवती नहीं होती है।
इष्ट फल की सिद्धि का उपाय सुबोध है, सुबोध शास्त्र से गृहस्थ अपने सांसारिक जीवन में विविध द्रव्यों के सहकार
होता है, सुशास्त्र की उत्पत्ति आत्मा से होती है, इसलिए उनके से अशुभ भावों से युक्त होता है, उन अशुभ भावों के निर्मूलन के
प्रसाद के कारण आप्तपुरुष बुधजनों द्वारा पूजने योग्य हैं । बुद्धिमान् लिए द्रव्यपूजा युक्त भावपूजा उपादेय है। हाँ गृहस्थ को उपवास के
उन आप्त की पूजन अवश्य करें, क्योंकि कृत उपकार को सज्जन दिन राग के अंगों का परित्याग पूर्वक भावपूजा करना श्रेयस्कर है।।
विस्मरण नहीं करते हैं। पण्डित श्री आशाधरजी लिखते हैं
आचार्य योगीन्दुदेव ने परमात्मप्रकाश में कहा हैपूजयोपवसन् पूज्यान्, भावमय्यैव पूजयेत्।
दाणं ण दिण्णउ मुणिवरहं, ण वि पुज्जइ जिणणाहु। प्रासुकद्रव्यमय्या वा, रागानं दूरमुत्सृजेत्॥4॥
पंचणवंदियपरमगुरु, किमुहोसह सिवलाहु॥१/१९१॥ अ. 4 सागारधर्मामृत
जिसने मुनियों को दान नहीं दिया, जिनेन्द्र की पूजा नहीं की उपवास के दिन गृहस्थ को भावमयी पूजा ही करनी चाहिए
तथा पञ्चपरमेष्ठी की वंदना नहीं की, उसे मुक्ति का लाभ कैसे हो अथवा प्रासुक द्रव्य से पूजन करना चाहिए और राग के अंगों को
सकता है?
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__ आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने भावपाहुड़ में भी देवपूजनको । के समान है। उपासकाध्ययन में बताया गया है किजन्म मृत्यु का विनाशक वर्णित किया है।
एकाऽपि समर्थेयं जिनभक्तिदुर्गतिं निवारयितुम्। जिणवर चरणांवुरुह णमंति जे परमभत्तिरायण।
पुण्यानि च पूरयितुं दातुं मुक्तिश्रियं कृतिजनम्॥१५५॥ ते जम्मवेलिमूलं खणंति वरभावसत्तेण ॥१५०॥
अकेली एक जिनभक्ति ही ज्ञानी के दुर्गति का निवारण जो भव्य जीव उत्कृष्ट भक्ति तथा अनुराग से भी जिनेन्द्रदेव | करने में, पुण्य का संचयन करने में और मुक्ति रूप लक्ष्मी को देने के चरण कमलों को नमस्कार करते हैं, वे उत्कृष्ट भाव रूपी शस्त्र | में समर्थ है। के द्वारा जन्म रूपी बेल की जड़ को खोद लेते हैं।
विगत् 50-60 वर्षों से कुछ आगम विरुद्ध वृत्ति वालों ने जिनेन्द्रदेव की पूजा को गृहस्थ के लिये आवश्यक बताते | जिनबिम्बों को जड़ कहना शुरु कर दिया है और वे कहते हैं कि हुए आचार्य पद्मनन्दि कहते हैं
जड़ की पूजन से चेतन को क्या लाभ? ये जिनेन्द्रं न पश्यन्ति, पूज्यन्ति स्तुवन्ति न।
उन आगम अनभिज्ञ लोगों को चारित्रसार की ये पंक्तियाँ निष्फलं जीवितं तेषां, तेषां धिक् च गृहाश्रमम्॥ अवश्य पढ़ना चाहिए, फिर चिन्तन मनन के बाद अपनी भ्रान्त
पंचविंशति का ६/१५ | धारणा का उन्मूलन करना चाहिएजो जीव भक्ति से जिनेन्द्र भगवान् का दर्शन न करते हैं, न | 'जिनबिम्बानि भव्यजनभक्त्यनुसारेण गीर्वाणनिर्वाणपदपूजन करते हैं और न स्तुति ही करते हैं, उनका जीवन निष्फल है, | प्रदायिनि गरुडमुद्रया यथा गरलापहरणं तथा चैत्यावलोकनमात्रेणैव उनके गृहस्थाश्रम को धिक्कार है।
दुरितापहरणं भवत्यतश्चैत्यस्यापि वन्दना कार्या।' पृ. 150 अर्थात् देवपूजा-भक्ति सभी कर्मों को शिथिल करने के लिए एक जिनबिम्ब भव्य लोगों की भक्ति के अनुसार स्वर्ग और मोक्ष पद देते समर्थ निमित्त है। जैसा कि कल्याण मंदिर स्तोत्र में श्रीमद् | हैं, जैसे गरुडमुद्रा से विष दूर हो जाता है, उसी प्रकार जिनबिम्ब कुमुदचन्द्राचार्य ने लिखा है
के दर्शनमात्र से पापों का नाश हो जाता है। इसलिए जिनबिम्ब की जिस प्रकार चन्दन के पेड़ों से लिपटे हुए सर्प मयूर की | वन्दना करनी चाहिए और जिनबिम्ब के आश्रय होने से चैत्यालय ध्वनि सुनकर भाग जाते हैं, उसी प्रकार भगवान जिस भक्त के हृदय | की भी वंदना करनी चाहिए। में आप समा जाते हैं, उसके कर्मबन्ध शीघ्र ही शिथिल हो जाते हैं। भक्ति पूजन को मात्र पुण्य का हेतु कहने वालों से अनुरोध
जो गृहस्थ देवपूजा के बिना कल्याण चाहता है, वह अज्ञान- | है कि धवल आदि ग्रन्थ का अध्ययन करें, उनसे ज्ञात होगा कि भाव में स्थित है। देवपूजा स्तवन रूप भक्ति में अद्भुत शक्ति है, | पूजन केवल बन्धका कारण नहीं है। पूजन आदि शुभ-भाव संवर वह सम्पूर्ण सन्तापों से विमुक्त कराकर सुख प्राप्त कराती है। पापों | निर्जरा के भी कारण हैं-जिनपूया वंदण णमंसणेहिं य बहूकम्मपदेस का क्षय करने वाली होती है। आचार्य श्री मानतुङ्ग देवाधिदेव णिज्जरुवलंभादो। (धवला 10 पृ. 289) जिनपूजा, वन्दना और आदिनाथ जिनेन्द्र की स्तुति करते हुए कहते हैं
नमस्कार आदि शुभ भावों से भी बहुत कर्मप्रदेशों की निर्जरा पाई त्वत्संस्तवेन भव-सन्तति सन्निबद्धं,
जाती है। पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम्।
अशुभोपयोग तो संसार का ही कारण है किन्तु शुभोपयोग आक्रान्तलोकमलिनीलमशेषमाशु,
को अशुभोपयोग के समान नहीं कहा जा सकता है क्योंकि शुभोपयोग सूर्यांशुभिन्नमिवशार्वरमन्धकारम्॥ भक्तामर स्तोत्र ७ | आम्नव, बन्ध के साथ संवर, निर्जरा का भी कारण है। जिनभक्ति
हे जिनेन्द्र ! जिस प्रकार सूर्य की किरणों से सम्पूर्ण लोक रूप शुभ-भाव से संसार का छेद करके अक्षय अनन्त सुख में व्याप्त भ्रमर सदृश कृष्ण रात्रि का अन्धकार अति शीघ्र मिट जाता | (मोक्षसुख) को प्राप्त किया जा सकता है। आचार्य श्री कुन्दकुन्द है, उसी प्रकार आपके स्तवन से जीवों के संसार परम्परा से बन्धे | स्वामी, अमृतचन्द्राचार्य आदि के ग्रन्थों में शुभोपयोग से तथा भक्ति हुए पाप क्षण भर में समाप्त हो जाते हैं।
रूप शुभोपयोग से व विनयरूप शुभोपयोग से मोक्ष की प्राप्ति होती - जिनस्तवन की महिमा अगम-अपार है जिसे स्तुतिकारों ने है, ऐसा कहा है, जो परम पद मुक्ति की प्राप्ति का कारण हो वह विशेष रूप से प्रस्तुत की है। आचार्य समन्तभद्र लिखते हैं- सर्वथा हेय हो सकता है ? विचारणीय है।
जन्मारण्यशिखी स्तवः स्मृतिरपि क्लेशाम्बुधे नौ पदे।। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने भावपाहुड़ में उपयोगों का भक्तानां परमी निधिः प्रतिकृतिः, सर्वार्थसिद्धिः परा॥ | वर्णन करते हुए लिखा है
स्तुतिविद्या ११५
भावं तिविहपयारं सुहासुहं सुद्धमेव णायव्वं। जिनेन्द्र भगवान् का स्तवन रूप शुभ-भाव संसार रूपी
असुहं च अट्टरुदं सुहं धम्मं जिणवरिदेहि ।। ७६ ॥ अटवी को नष्ट करने के लिए अग्नि के समान है। अर्थात् जिस भाव तीन प्रकार के शुभ, अशुभ और शुद्ध जानना चाहिए। प्रकार जिनेन्द्र का स्तवन रूप शुभ भाव भी संसार के भ्रमण को नष्ट | इनमें आर्त, रौद्र को अशुभभाव और धर्म्यध्यान को शुभभाव जिनेन्द्र कर देता है और मोक्ष को प्राप्त करा देता है।
| भगवान् ने बताया है। जिनेन्द्र स्मरण दुःख रूप समुद्र से पार होने के लिए नौका | धर्म्यध्यान शुभभाव है, इसी शुभभाव (शुभोपयोग) से श्री
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वीरसेन स्वामी ने मोहनीयकर्म का क्षय बतलाया है-मोहणीयविणासो । स्नपनार्चा स्तुति जापान् साम्यार्थं प्रतिमार्पिते। पुण्ण धम्मज्झाणफ लं, सुहु मसां परायचरितसमए तस्स
युज्यांथाऽऽनायमाद्यादृते संकलिपतेऽर्हति ॥ विणासुवलंभादो ॥ (धवला पु.13, पृ. 81) मोहनीयकर्म का विनाश साम्य-भाव की प्राप्ति के लिए अर्हन्त प्रतिमा का स्थापन, करना धर्म्यध्यान (शुभभाव-पुण्यभाव) का फल है क्योंकि | अर्चन, स्तवन और जपन करें। सूक्ष्मसाम्पराय दसवें गुणस्थान के अन्तिम समय में मोहनीयकर्म भरत ने खोटे स्वप्नों के निवारण के लिए क्या किया था, का विनाश देखा जाता है। अत: यह स्पष्ट है कि शुभोपयोग उनका वर्णन करते हुए जिनसेनाचार्य लिखते हैंमोक्षमार्ग में सहकारी है।
शान्तिक्रियामतश्चक्रे दुःस्वप्नानिष्टशांतये। शुभोपयोग सम्यग्दृष्टि के ही रहता है। आचार्य देवसेन ने
जिनाभिषेकसत्पात्रदानाद्यैः पुण्यचेष्टितैः कहा है कि 'सम्माइट्ठी पुण्णं ण होइ संसारकारणं णियमा' अर्थात्
॥आदिपुराण ४१/८१ सम्यग्दृष्टि का पुण्य संसार का कारण नहीं होता। सम्यग्दृष्टि गृहस्थ दुःस्वप्नरूपी अनिष्ट की शांति के लिए जिनेन्द्र भगवान् का को शुद्धोपयोग की प्राप्ति दुर्लभ है । जैसा कि प्रवचनसार की टीका | अभिषेक सत्पात्र दान आदि पुण्य क्रियाओं से शांति क्रिया की थी। में लिखा है- गृहिणां तु सर्वनिरतेतरभावेन शुद्धात्मप्रकाशनस्याभावात्। अभिषेक पूजन के पूर्व जिस प्रकार आवश्यक है उसी (3/54) गृहस्थों के सर्वविरति का अभाव है, अतएव शुद्धात्माचरण प्रकार आह्वानन, स्थापन और सन्निधिकरण भी आवश्यक हैं। की स्थिरता के प्रकाश का अभाव है।
श्रावक पीले चावलों या लौंग से ठोना पर वीतराग जिनबिम्ब के जब शुद्धोपयोग गृहस्थ प्राप्त नहीं कर सकता है, तब उसे सामने जिनेन्द्र भगवान् का आह्वानन करता है और मन, वचन, काय शुभोपयोग ही एकमात्र आश्रयभूत है, इसलिये उसे प्रतिदिन ब्रह्ममुहूर्त | की एकाग्रता के लिए उसी ठोने पर स्थापना करता है । उस ठोने पर में शय्या का परित्याग करके णमोकार महामंत्र के स्मरणानन्तर | स्थापित चावलों में जिनबिम्ब का स्थापन होने से वे अतिशय पवित्र नित्यक्रिया से निवृत्त होकर स्नान कर धुले हुए शुद्ध धोती दुपट्टा होते हैं, उन्हीं के निमित्त से अपनी भावना पवित्र होती है। पूजक आदि वस्त्र पहनकर घर से न्यायोपार्जित सम्पत्ति से क्रय की हुई | द्वारा अपने भावों को जिनेन्द्र सदृश बनाना सन्निधिकरण है। प्रासुक सामग्री को थाली में लेकर जिनमंदिर में जाना चाहिए। वहाँ पूजक अभिषेक, आह्वानन, स्थापन आदि करके पूजन में सविनय जिनबिंबों को नमन करके तदनन्तर कुएं से जल लाकर | प्रवृत्त होता है । आदिपुराण में जिनसेनाचार्य ने भरत द्वारा बताये गये अग्नि पर प्रासुक करके द्रव्य धोकर वेदी शुद्धि करनी चाहिए। द्रव्य | पूजन के प्रकारों पर प्रकाश डाला है- अरिहन्तदेव की पूजा चार की शुद्धि भावविशुद्धि के लिये अत्यावश्यक होती है, इसीलिये प्रकार की होती है। नित्यमह, चतुर्मुखमह, कल्पद्रुममह और पूजन के प्रारंभ में पूजक प्रतिज्ञा करता है
आष्टाह्निकपूजा। प्रतिदिन अपने घर से जिनालय में ले जाये गये द्रव्यस्य शुद्धिमधिगम्य यथानुरुपं भावस्य,
गन्ध, अक्षत, पुष्प आदि द्रव्यों से जिन भगवान् की पूजा करना शुद्धिमधिकामधिगन्तुकामः।
नित्यमह कहलाती है। महामुकुटबद्ध राजाओं के द्वारा की जाने आलम्बनानि विविधान्यवलम्ब्यबल्गन,
वाली पूजा महामह या सर्वतोभद्र है। चक्रवर्तियों द्वारा किमिच्छक भूतार्थयज्ञपुरुषस्य करोमि यज्ञम्॥
दान देकर जिनार्चन करना कल्पद्रुममह है। आष्टह्निक पर्व में सर्व द्रव्यों की शुद्धता को पाकर जिनस्तवन, जिनविम्बदर्शन साधारण जनों के द्वारा नंदीश्वरद्वीप गत प्रतिमाओं की अर्चना आदि अनेक अवलम्बनों का आश्रय लेकर भूतार्थ रूप पूज्य अरिहंत | आष्टाह्रिकपूजा है। इन चार प्रकार की पूजाओं के सिवाय इन्द्रों द्वारा आदि का पूजन करता हूँ।
की जाने वाली महान् पूजा को इन्द्रध्वजमह कहते हैं। जिनपूजा के पाँच अंग हैं- अभिषेक, आह्वानन, स्थापन, श्रावक (पूजक) को नित्यमह पूजन तो करना आवश्यक सन्निधिकरण और विसर्जन। इन पांचों में से एक के बिना भी पूजा ] ही है, किन्तु नैमित्तिक पूजाओं को करके भी महान् पुण्य प्राप्त करना दोषप्रद है। वर्तमान में आगम से अनभिज्ञ कुछ लेखकों ने अभिषेक | चाहिए क्योंकि भव्य मार्गोपदेशक उपासकाध्ययन में आचार्य यही
और स्थापना का निषेध किया है। उन्हें भी आगम प्रमाणों से अपनी प्रेरणा दे रहे हैं- 'प्रतिष्ठा कराने से, अभिषेक से, पूजा करने से और भ्रान्त धारणा को छोड़ देना ही उचित है।
दान के फल से मनुष्य इस लोक और परलोक में देवों के द्वारा पूज्य आगम में अभिषेक पूर्वक ही जिनपूजा का विधान है- | होता है।' जिनाभिषेक, जिनपूजन, जिनप्रतिष्ठा और जिनगुणकीर्तन 'सिद्धभक्त्यादिशान्त्यन्ताः पूजाभिषेकमंगलं' (सागारधर्मामृत) | करने का जो महान् पुण्य होता है, उसे मैं अल्पबुद्धि कैसे वर्णित अर्थात् पूजा अभिषेक और मंगलक्रिया सिद्धभक्तिपूर्वक होती है। | कर सकता हूँ। अत: इतना ही अनुरोध है कि प्रतिदिन आचार्यों के श्रावक के कृतिकर्म की विधि के प्राचीन ग्रन्थों में जो प्रमाण | बताये हुए मार्ग के अनुसार प्रत्येक श्रावक, श्राविका को जिनेन्द्र उपलब्ध हैं, उनमें अभिषेक के सम्बन्ध में लिखा है- अहिसेय भगवान् का पूजन अवश्य ही करना चाहिए। यही जीवन के वंदणासिद्धि चेदिय पंचगुरु संति भत्तीहि । (भावसंग्रह) विकास के लिए आवश्यक है। इसी से आत्मा की उन्नति भी
जिनेन्द्रप्रभु का अभिषेक और पूजा सिद्ध, चैत्य पञ्चगुरु | सम्भव है। और शान्तिभक्ति पूर्वक करना चाहिए। वृहत्सामायिक पाठ में भी
उपाचार्य (रीडर) संस्कृत विभाग, लिखा है
दिगम्बर जैन कालिज, बड़ौत -अक्टूबर 2003 जिनभाषित 7
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पारसमणि वाले नेमिप्रभु अतिशय क्षेत्र नवागढ़ (महाराष्ट्र )
सुमत चन्द्र दिवाकर करते, नदी तक गिरते उठते किसी प्रकार पहुँच गये। वर्तमान क्षेत्र के मंत्री तथा अध्यक्ष के सौजन्य से एक जानकार व्यक्ति मार्ग बताने वाला साथ था। मित्रों में डॉ. हुकुमचन्द संगवे सोलापुर, श्री पं. मनोहर मारवाड़कर नागपुर, पं. बाहुबली ढोकर कोविद पूना, श्री पं. लालचन्द मानवत परभणी सह भ्रमणार्थी थे ।
वर्तमान में ध्वंस मंदिर के टीले पर किसी ने एक त्रिशूल गाड़ दिया है तथा एक पत्थर पर सिन्दूर पोतकर उसे मूर्ति के रूप में स्थापित कर दिया है। उस निर्जन स्थान में किसी के रहने के कोई चिन्ह नहीं हैं। आसपास भी कोई मानव वहां विचरता नहीं देखा गया। वर्तमानक्षेत्र से यह स्थान लगभग चार पांच किलोमीटर उत्तर दिशा में है। जंगल के रास्ते में कुछ खेत अवश्य हैं। हम सभी मात्रं जिज्ञासु थे। पुरातत्व विभ कोई नहीं था। प्राचीन मंदिर के अवशेष संरक्षण का महत्व संभवतः वर्तमान क्षेत्राधिकारियों को नहीं है क्योंकि वे वर्तमान क्षेत्र के वृहद विकास में व्यस्त हैं। इसीलिये वह टीला अरक्षित है। प्राचीन तीर्थ जीर्णोद्धार महासभा वाले अथवा पुरातत्व वाले ही उसका उद्धार अथवा संरक्षण कर सकते हैं।
पवित्र पूर्णा नदी के तट पर उखलद ग्राम (परभणी) के पास विशाल प्राचीन दिगम्बर जैन मंदिर था, जिसमें अति मनोज्ञ मनोहारी अनेक जिन विम्ब विराजित थे। मूलनायक पद्मासन काले पाषाण के नेमि प्रभु के दायें पैर के अंगूठे में पारसमणी जड़ी हुई थी, ऐसी किंवदंती है। पारसमणी का विलोप होना । प्राकृतिक प्रकोप से प्राचीन मंदिर का ध्वंस होना, मूर्तियों को बचा लिया जाना तथा नये अतिशय क्षेत्र का विकसित होना । पूज्य आचार्य तीर्थरक्षा शिरोमणी आर्यनन्दी महाराज का क्षेत्र को अवदान, गुरुकुल की स्थापना और उनकी समाधि क्षेत्र पर होना । पारसमणी का नेमीप्रभु के पद से निकल कर नदी में समाने की कथा आदि अनेक घटनाओं का प्रस्तुतीकरण इस आलेख का उद्देश्य है।
क्षेत्र का गौरवमय इतिहास : नदी तट पर स्थित होने के कारण प्राचीन मंदिर की शोभा, श्री सम्पन्नता, सुन्दरता, चाँदनी रातों में लोक का मन मोह लेती थी। मंदिर की परछाईयाँ पूर्णानदी के शान्त कदाचित समीर से हिलौर लेते जल में ऐसी प्रतीत होती र्थी मानो मंदिर नदी के जल पर तैर रहा है। मंदिर के घण्टे घंटियों की मधुर ध्वनियाँ नीरव वनप्रान्तर में गुंजित होती हुई, अंचल के ग्रामवासियों को निरन्तर अपने इष्टदेव देवाधिदेव नेमिप्रभु की मनोहारी छवि का स्मरण कराती रहती थीं। मूलनायक नेमी प्रभु के अतिशय से पूरा अंचल कृतार्थ था । यहाँ पूरा प्रदेश निजाम राज्य की सीमा के अन्तर्गत था। मंदिर का संरक्षण भी निजाम शासक का दायित्व था, परन्तु प्राकृतिक प्रकोप पर किसी का वश नहीं होता। जो पूर्णा नदी मंदिर की प्राकृतिक शोभा का कारण थी, वह अतिवृष्टि के कारण पागलपन की सीमा तक अपने उच्च कूलों का मानमर्दन करने उतावली हो उठी। किनारे पर स्थित पाषाण निर्मित मंदिर भी हिल गया । स्थिति को भांपते हुये भक्तों द्वारा मूर्तियाँ अन्यत्र सुरक्षित कर ली गईं, परन्तु मंदिर ढह गया। मंदिर का बहुत सा भाग पूर्णा नदी के पागलपन युक्त बहाव ने समेट लिया ।
आज भी मंदिर के ध्वंसावशेष पूर्णा नदी के उच्च तट पर एक टीले के रूप में विद्यमान हैं। टीले के आसपास विखरीं अनेक विशाल शिलायें प्राचीन मंदिर की कहानी कह रही हैं। हमारी जिज्ञासा विगत् वर्ष के अन्तिम माह में अपने कुछ मित्रों के साथ पूर्णा नदी के तट ले गई। मार्ग अत्यंत ऊबड़ खाबड़ और झाड़ झंकाड़ों से भरा हुआ है। पगडंडियों के सहारे घास का मैदान पार
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मूल नायक नेमिनाथ की मूर्ति तथा पारसमणी: कवि ब्रह्मज्ञानसागर ने नेमिप्रभु की प्रतिमा का गुणगान करते हुये सर्वतीर्थ वंदना में इस प्रकार कहा है
'पूर्णा नाम पवित्र नदी तस तीर विसालह । नामे ग्राम उखलद जिंहा जिननेमि दयालह ॥ सार पार्श्व पाषाण कर अंगूठे जाणो । अगणित महिमा जास त्रिभुवन मध्य वखाणो। प्रगट तीर्थ जाणी करी भविकलोक आवे सदा । ब्रह्मज्ञानसागर वदति लक्ष लाभ पावे सदा ॥ ' साभार ( भा.दि. जैन तीर्थ महा स. प्रकाशन) निजाम शासन काल के समय से चली आ रही किंवदन्ती के आधार पर मूलनायक नेमिनाथ भगवान के दायें पैर के अंगूठे में पारसमणी जड़ी हुई थी। इस रहस्य को एक मात्र मंदिर के वृद्ध पुजारी ही जानते थे। पुजारी महाराज अपने पूरे जीवन भर सुई के वजन का सोना मणी के स्पर्श से बनाकर अपना और अपने परिवार का भरण पोषण करते रहे। कभी भी उन्होंने लोभवश सीमा का अतिक्रमण नहीं किया। अपने निमित्त ज्ञान से अपनी मृत्यु निकट जान कर उन्हें परिवार के आगे गुजारे की चिन्ता ने
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अपने इकलौते पुत्र पर यह रहस्य उजागर करने बाध्य कर दिया। पुत्र को उन्होंने अनेक प्रकार लोभ पर संयम रखने की सीख दी। अतिक्रमण करने पर अनिष्ट की आशंकाओं का भय भी जागृत किया, परन्तु सभी मनुष्य, समान दृढ़ इच्छा शक्ति के धनी नहीं होते। पिता की मृत्यु पश्चात् पुजारी पुत्र ने अपने लोभ पर कुछ दिन संयम रखा पश्चात् अपनी बलवती शरीर भोग सामग्रियों की कामनाओं के आगे नतमस्तक हो गया। पिता की दी हुई समस्त शिक्षाओं को मन ही मन कुतर्क की कुल्हाड़ी से आहत करता हुआ अधिक स्वर्ण बनाकर अपनी असीमित कामनाओं की पूर्ति करने लगा। कपास में दबी अग्नि की तरह व्यसनों का तथा सम्पत्ति का राज छुपा न रहा। जिले के निजाम शासक तक असीमित धन खर्च का राज पहुंच गया। छानबीन पश्चात् धीरे-धीरे मणी का राज निजाम नवाब तक पहुंच गया। ऐसी अद्भुत वस्तु को पाने की लालसा से उसने अपने अधिकारियों को आदेश दिया कि मूर्ति से मणी निकाल कर शासकीय कोष में अविलम्ब जमा की जाये ।
अधिकारियों एवं फौजदारों (पुलिस) का बड़ा अमला अचानक एक दिन पूर्णा नदी के तट पर स्थित श्री नेमिनाथ दिगम्बर जैन मंदिर पहुंचा। पुजारी को धमकाया गया तो उसने समस्त रहस्य उद्घाटित कर दिया।
अधिकारी ने मूर्ति के अंगूठे से मणी निकालने का आदेश दिया। निजाम फौजदारों द्वारा मणी निकालने का दुश्प्रयास करने पर एक विस्मयकारी धमाके के साथ मणी स्वयं निकलकर पूर्णानदी के अथाह जल में समा गई। धमाके पश्चात् तथा बेहोश होने के पूर्व अनेक अधिकारियों ने मणी को उछलते हुये विस्फारित नेत्रों से स्वयं देखा मणी चमत्कारिक रूप से नदी में विलीन हो चुकी थी।
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शासन का आदेश नदी से मणी प्राप्त करने का हुआ। लोहे की मोटी सांकले हाथियों के पैरों में बांधकर नदी में मंदिर के आसपास के किनारों पर अनेक दिन तक घुमाया गया। एक दिन एक हाथी की सांकल स्वर्णमय होकर वापिस आई। परन्तु मणी फिर भी प्राप्त नहीं हो सकी। हार थक कर सारा अमला वापिस हो गया। मणी फिर कभी नहीं मिली उसकी चर्चा मात्र रह गयी। मूर्ति के दायें पद के अंगूठे में आज भी मणी के बराबर का छिद्र अवशेष रूप में दिखाई देता है। मूर्ति आज भी पारस से अधिक अतिशयवान है अतिशय की अनेक घटनाएं और किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं। आज भी मूर्ति नवागढ़ क्षेत्र के कांच मंदिर में विराजित दर्शनार्थियों को सर्वोपरि उपकारक है।
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(कथा- भारत के दि.जै. तीर्थ- ले. पं. बलभद्र जैन ) क्षेत्र का वर्तमान स्वरूप : नदी तट के मंदिर के ध्वस्त
हो जाने के पश्चात् मूर्तियों को अन्य उपयुक्त स्थान में विराजित करने के अनेक प्रस्ताव आये। पिंपरी देशमुख वाले मूर्तियाँ अपने यहाँ ले जाना चाहते थे। यह भी दन्त कथा है कि जब मूलनायक को अन्यंत्र ले जाया जा रहा था, उस समय वर्तमान स्थान से आगे मूर्ति को ले जाना संभव नहीं हो सका इसलिये इसी स्थान पर मंदिर बनाकर स्थापित किया गया ।
एक प्रत्यक्षदर्शी तथा मूर्ति लाने में सहयोगी श्री गंगाधर पूर्णेकर का कहना है कि निजाम सरकार ने क्षेत्र निर्माण करने, वर्तमान स्थान में 10 एकड़ जमीन, प्रयास करने पर आवंटित कर दी, जिसका विधिवत रजिस्ट्रेशन है तथा उखलद और आसपास के गाँव वालों का मूर्तियों को अन्यंत्र ले जाने के सबल विरोध के कारण यहीं मंदिर बनाकर मूर्तियाँ स्थापित करने का सभी आसपास की समाज का सामूहिक निर्णय हुआ ।
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वर्तमान क्षेत्र नवागढ़ (उखलद) के नाम से जाना जाता है जिसका पूरा नाम श्री नेमीनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र नवागढ़ उखलद है। सन् 1931 में वर्तमान क्षेत्र में मूर्तियों को विधिवत स्थापित किया जा सका। वर्तमान भव्य मंदिर के चारों ओर 570 x 510 फिट का परकोटा है। इसी परकोटे से जुड़ी दस एकड़ जमीन है, जिसे शासन से प्राप्त किया गया था। 10 एकड़ जमीन दानशीला रतनबाई सोनटक्के ने पूज्य आचार्य आनन्दी महाराज की प्रेरणा से दान दी है। उन्हीं के नाम से यहाँ हायर सेकेण्ड्री स्कूल चलता है तथा श्री नेमिनाथ दिगम्बर ब्रह्मचर्य आश्रम गुरुकुल क्षेत्र ट्रस्ट के निर्देशन में चलता है। इस गुरुकुल में 200 विद्यार्थियों को रहने, भोजन तथा निःशुल्क शिक्षा का प्रबन्ध पूज्य आचार्य आर्यनन्दी महाराज की प्रेरणा से किया गया है। क्षेत्र पर तीर्थयात्रियों को सभी सुविधायें विकसित क्षेत्रों जैसी हैं।
क्षेत्र के मूलनायक तथा अन्य वैभव : मूलनायक भगवान् नेमिनाथ की श्यामवर्ण अर्धपद्मासन प्रतिमा 5 फिट अवगाहना (आसन सहित) वाली है। एक शिलाफलक में उत्कीर्ण अतिमनोज्ञ अतिशयवान है। ऊपर 3 छत्र तथा पीछे भामण्डल शोभित है। ऊपर कोनों में देवों की प्रतिमायें उकेरी गई हैं. नीचे दोनों ओर चमरेन्द्र हैं। नेमिनाथ प्रभु के वक्ष पर श्रीवत्स तथा चरणों में शंख का चिन्ह अंकित है। इसी वेदी पर अन्य तीन पाषण और 10 धातु की तीर्थकर प्रतिमाएँ विराजमान हैं। पूरा गर्भ गृह रंगीन शीशों से जड़ित अत्यंत शोभनीय है।
मूलनायक के गर्भगृह के बाहर मंदिर में मुख्य द्वार से प्रवेश करने पर सभामण्डप में पांच कटनी वाली दोनों ओर दो वेदियाँ हैं । बायीं ओर की वेदी पर 19 पाषाण की तथा धातु की मूर्तियाँ विराजमान हैं। दांयी ओर की वेदी पर 23 पाषाण मूर्तियाँ
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हैं। मूलनायक के गर्भगृह द्वार पर बायीं ओर पद्मावती की पाषाण मूर्ति और दायीं ओर चबूतरे पर इन्हीं का पाषाण फलक है।
शिखर वेदी पर 4 फिट अवगाहन की पद्मासन पार्श्वनाथ भगवान् की प्राचीन प्रतिमा है। यह प्रतिमा यहाँ रानी का कौलाशा गांव से लाई गई है। ऊपर मंजिल पर भगवान् आदिनाथ, बाहुबली, भरत की विशाल प्रतिमायें नवीन स्थापित की गई हैं। क्षेत्र प्रांगण से मंदिर के पूर्व दिशा में विशाल मानस्तम्भ है।
मुलनायक भगवान नेमीनाथ का पंचामृत अभिषक प्रतिदिन होना इष्ट प्रतीत नहीं हुआ। इससे उस प्राचीन अतिमनोज्ञ प्रतिमा का क्षरण होना स्वभाविक है। मंदिर के पुजारी ने भी इसकी पुष्टि की अभिषेकामृत में प्रतिदिन बाल के कण इसका प्रमाण हैं। लेखक के द्वारा अपने साथी विद्वान मित्रों की सहमति से इस तथ्य की ओर वहां उपस्थित क्षेत्र के अध्यक्ष श्री मोतीलाल पाटनी तथा मंत्री श्री वसंतराव अंबुरे की दृष्टि आकृष्ट तथा प्रतिदिन पंचामृत अभिषेक पर रोक लगाने का अनुरोध किया। दोनों महानुभावों ने हमारी भावना से सहमति जताते हुये तत्काल कोई निर्णय लेने में अपनी असहमति जताई। प्रतिदिन अभिषेक की परम्परा भक्तों की भावना से जुड़ी है। उनका कहना था कि 'रोक लगाने अथवा उसमें हमारे सुझाव अनुसार सुधार करने का निर्णय कार्यकारणी कमेटी या महासभा ही कर सकती है। आप लोगों के सुझाव हम क्षेत्र कमेटी की आगामी बैठक में प्रस्तुत कर मूर्ति को होने वाली क्षति का चित्र प्रस्तुत कर देंगे, परन्तु अभी रोक लगाकर विरोधियों का सामना करने का साहस वे नहीं कर सकते।'
पंचामृत अभिषेक का प्रचलन पूरे दक्षिण भारत में है। इसका विरोध करना मेरा अभिप्राय नहीं था। जिसकी भावना जिस प्रकार पूजा अर्चा में हो करें, परन्तु प्राचीन मूर्तियों के रक्षण की ओर ध्यान देना भी भक्तों का ही कार्य है। इस ओर हमारे समाज के कर्णधारों को समाज का ध्यान आकृष्ट करना चाहिये। क्योंकि ऐसी विसंगतियाँ अन्य अनेक प्राचीन क्षेत्रों में भक्ति अतिरेक में देखने में आती हैं ।
पूज्य आर्यनन्दी महाराज का क्षेत्र को अवदान : पूज्य आचार्य तीर्थरक्षाशिरोमणी तिलक 108 आर्यनन्दी महाराज की प्रेरणा से इस अतिशय क्षेत्र का बहुत विकास हुआ है। महाराज की कृपा से इस क्षेत्र पर गुरुकुल स्थापना से समाज के विपन्न वर्ग के छात्रों तथा लातूर भूकम्प से पीड़ित निराश्रित बालकों का बहुत
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उपकार हुआ है। महाराज श्री द्वारा अनेक स्थानों की दिगम्बर समाज को प्रेरित कर एक अच्छी दान राशि गुरुकुल पोषण हेतु घोषित एवं एकत्रित करायी गई है। क्षेत्र पर छात्रावास एवं साधु मुनियों को रहने, साधना करने, कमरों का निर्माण कराया गया है। गुरुकुल के विद्यार्थियों को लौकिक शिक्षा के साथ जैनागम और सच्चरित्रता का पाठ पढ़ाया जाता है। यह कार्य जीवन्त तीर्थों का निर्माण है।
इस प्रकार के जीवन्त तीर्थों की स्थापना तथा पोषण पूज्य आर्यनन्दी महाराज ने एलौरा और कुंथलगिरि गुरुकुलों द्वारा की है। भारतवर्षीय तीर्थरक्षा कमेटी को सन् 1981-82 में लगभग सवा करोड़ राशि का ध्रुव फण्ड बनाकर तीर्थ रक्षण के कार्य में महान् कार्य किया तथा सम्मेद शिखर पर चौपड़ा कुंड मंदिर, मूर्तियाँ स्थापित कराके एतिहासिक कार्य कराये हैं । कुंथलगिरि सिद्ध क्षेत्र पर जलयोजना सफलीभूत कराके महाराज श्री के तीर्थरक्षा के क्षेत्र में अन्य स्वर्णाकिंत करने योग्य अनेक कार्य हैं। ऐसे 'तीर्थरक्षाशिरोमणी तिलक' सार्थक उपाधि के भारक आचार्य आर्यनन्दी महाराज अपनी सल्लेखना के लिये सम्मेद शिखर तीर्थराज से चलकर देवाधिदेव नेमिनाथ की शरण में अपनी चौरानवे वर्ष की वय में नवागढ़ अतिशय क्षेत्र पधारे। नेमिप्रभु भी परम वीतराग छवि उन्हें नवागढ़ अतिशय क्षेत्र ले आयी। ऐसे आचार्य श्री आर्यनन्दी तीर्थ क्षेत्र नवागढ़ तथा तीर्थंकर नेमिनाथ को शत् शत् वंदन.... | पहुँचमार्ग महाराष्ट्र में मनमाड़ से औरंगाबाद, परभणी : तक रेल मार्ग है । परभणी से 18 किलोमीटर श्री नेमिनाथ दि. जैन. अतिशय क्षेत्र नवागढ़ है। परभणी से बसें जाती रहती हैं। अन्य निकट तीर्थ क्षेत्रों में एलौरा, जिन्तूर, अतिशय क्षेत्र कचनेर, पैठण आदि हैं।
अतिशय क्षेत्र नवागढ़ से 108 पूज्य आचार्य आर्यनन्दी महाराज की विशाल एवं भव्य समाधि निर्माणाधीन है। कर्मठ कार्यकर्ताओं की देखरेख में द्रुत गति से कार्य चल रहा है क्षेत्राधिकारियों द्वारा समाधि निर्माण कार्य में अपने धन का सदुपयोग करने दि. जैन समाज से अपील पत्रक प्रकाशित किया गया है।
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इस महान अतिशय क्षेत्र नवागढ़ की वंदना सभी करें तथा मानव जीवन सार्थक बनायें इसी भावना के साथ विराम ।
पुष्पराज कॉलोनी, सतना (म.प्र.)
मूढ़ा शोक महा पट्टे मग्नाः शेषाभपि क्रियाम् । नाशयन्ति तदायत्त जीवितै र्वीक्षिता जनैः ॥
भावार्थ- मोही मनुष्य शोक रूपी महा पंक में निमग्न होकर अपने शेष कार्यों को भी नष्ट कर लेते हैं। मोही मनुष्यों का शोक तब और भी अधिक बढ़ता है जब कि अपने आश्रित मनुष्य उनकी ओर दीनता भरी दृष्टि से देखते हैं ।
अक्टूबर 2003 जिनभाषित
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आचार्य श्री शान्तिसागर के तपस्वी जीवन का चमत्कार
(श्री सोली सोराबजी का अपमान जनक टिप्पणी के सन्दर्भ में)
डॉ. श्रीमती रमा जैन पूर्व प्राध्यापक घटना सन् 1926 की है। एक बार आचार्य शांतिसागर | श्री शांतिसागर महाराज का ससंघ नगर से 1 मील दूर उत्तम महाराज दक्षिण भारत से सिद्ध क्षेत्र, कुन्थल गिरि की वन्दना के | व्यवस्था करके ठहराया जाये। जैसे ही सूचना मिली कि आचार्य लिए गये थे। उनके विशाल संघ में दिगम्बर मुनि, ऐलक, क्षुल्लक | श्री का संघ अपने नगर से आठ मील की दूरी पर आ चुका है।
और आर्यिका सहित लगभग 35 लोग थे। उसी समय सोलापुर के | समाज के लोगों ने नगर के बाहर परिश्रम पूर्वक उचित स्थान पर प्रमुख पदाधिकारी भी कुंथलगिरि की वंदना करने आये थे। आचार्य | पूरे संघ को ठहराने की सुन्दर व्यवस्था कर दी। दूसरे दिन दोपहर शांतिसागर को देखकर सभी लोग अत्यन्त प्रसन्न हुए और आचार्य | में आचार्य श्री का पूरा संघ नगर के बाहर सानन्द ठहर गया। श्री को श्रीफल भेंट कर सोलापुर आने के लिए आमंत्रित किया। | आचार्य श्री के शुभागमन की सूचना पूरे नगर में रुई में लगी आग
आचार्य श्री शांतिसागर ने कहा मैं तो स्वयं सोलापुर आने | की तरह सर्वत्र फैल गई। का निश्चय कर चुका हूँ किन्तु एक शर्त है कि आप लोग सोलापुर आचार्य श्री के दर्शन करने और प्रवचन सुनने हजारों जैन आने के लिए सरकार का परवाना आदि प्रसारित नहीं करना और | अजैन बन्धु आ गये। हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, इसाई, पारसी आदि न कोई अर्जी देना। सेठ राव जी बापू पंडारकर जो कि सोलापुर | सभी धर्मों के प्रतिष्ठित व्यक्ति आचार्य श्री के अमृतमयी, मधुर जैन समाज के मुखिया थे, उन्होंने सोलापुर जाकर पंचायत सभा | वचन सुनकर बहुत प्रभावित हुये। वे सब गद्गद होकर जयकारा को बुलवाया और कहा कि कुछ दिनों में आचार्य श्री शांतिसागर | लगाने लगे। धर्मसभा की चमत्कारिक घटना सुनकर श्रीमान कलेक्टर महाराज ससंघ सोलापुर आ रहे हैं, अत: मुनि संघ के ठहराने की | साहब एवं डी.एस.पी. भी आश्चर्य चकित हो गये। उन्होंने भी उत्तम व्यवस्था होना चाहिये। समाज के सभी लोग उनका स्वागत नगर के बाहर आकर आचार्य श्री को साष्टांग नमन किया और करने के लिए नगर से 4-5 मील दूर बाहर चलेंगे। सेठ सखाराम | उपस्थित समाज को आदेश दिया कि आपलोग नगर को बहुत दोषी, सेठ हीराचन्द्र राय चंदगाँधी आदि ने सेठ राव जी को | सुन्दर सजाईये, वन्दन वारे बांधिये फिर इन सब संतों को नगर के सलाह दी कि यहाँ के कलेक्टर को अर्जी देकर परवाना निकलवाना | मंदिर में ठहरने का प्रबंध कीजिये। बहुत जरूरी है अन्यथा कोई भी आपत्ति आ सकती है। सेठ दूसरे दिन जैन एवं जैनेतर सभी भाई बहिन गाजे-बाजे के रावजी बापू पंडारकर ने परवाना निकलवाने का विरोध किया साथ विशाल जुलूस लेकर आचार्य श्री को नगर के मंदिर में लिवा
और कहा कि आचार्य श्री ने परवाना निकलवाने के लिए इन्कार | ले गये। इस जुलूस में लगभग 20 हजार लोगों ने नृत्य, गीत, किया है, अतः उनकी इच्छा के विरूद्ध हमें कोई काम नहीं करना उल्लास और आनंद का अद्भुत दृश्य उपस्थित कर जनता में नई
चेतना जाग्रत कर दी। सुरक्षा की दृष्टि से चार-पांच लोग चुपचाप कचहरी | इस प्रकार आज से 77 वर्ष पूर्व भी नग्न दिगम्बर साधुओं जाकर कलेक्टर साहब को एक अर्जी दे आये और नगर में मुनि | की पूजा, अर्चा और प्रतिष्ठा थी। उस जमाने के अंग्रेज क्लेक्टर संघ के आगमन की स्वीकृति चाही। कलेक्टर साहब ने तुरन्त | और डी.एस.पी. भी दिगम्बर मुनियों को चरित्र निष्ठा और महान् डी.एस.पी. साहब को बुलवाया और इस विषय में उनसे सलाह तपस्या के आगे अपना माथा झुकाते थे, साष्टांग नमन् करते थे। ली। कलेक्टर और डी.एस.पी दोनों ही यूरोपियन थे। उन्होंने देश के मूर्धन्य विधिवेत्ता श्री सोली जे. सोराबजी का दिग. जैन अपने नगर में किसी बाहरी संघ को आने की अनुमति नहीं दी। मुनि के सम्बन्ध में उनका कथन अविवेक पूर्ण, अनर्गल और
और अर्जी खारिज कर दी। समाज के सभी लोग 'किं कर्तव्य समाज को अपमानित करने की भावना का द्योतक है। यह उनका विमूढ़ हो गये, उन्हें बहुत दुख हुआ उन्होंने आग्रह कर अर्जी अपराध है। वापिस ले ली।
उपअधिष्ठाता, उदासीन आश्रम
सिद्धक्षेत्र द्रोणगिरि, रात्रि में समाज की मीटिंग हुई और इस समस्या का
जिला-छतरपुर (म.प्र.) समाधान निकाला कि- परमपूज्य चारित्र चक्रवर्ती तपोनिष्ठ आचार्य
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आचार्य विद्यासागर काव्य साहित्य में भक्ति-वैशिष्ट्य
प्राचार्य निहालचन्द्र जैन मानस-हंस अपनी अपूर्व आस्था की शरणाभिभूत होकर | बझा दीपक - यह संसारी बहिरात्मा है- संयम के पदार्थों के क्रीत-जगत् के मानसरोवर से चेतनाभूत परमार्थ के | अक्षय/अकम्पदीपक से यह बहिरात्मा अन्तरात्मा का आलोक मोती चुनकर भक्ति की भाव-भूमिका में विचरण करता है। वे | और फिर परमात्मा की महासत्ता का दिव्यालोक केवल चरणों की मानहंस हैं- आचार्य विद्यासागर जी। जिनके काव्य हृदय की | भक्ति की शरणागत से हुआ जा सकता है। गंगोत्री से अजस्र स्रोतस्विनी गंगा की अनन्त धारायें उद्भूत हुईं, भक्ति-अपने उपास्य के प्रति सर्वस्व समर्पण में ही उपासना जो कभी 'नर्मदा का नरम कंकर' बनकर संवेदना के धरातल पर | का साकार रूप मानता है। भक्ति ऐसा मनमोहक संगीत है जो प्रभु शंकर बनकर पूजी गई तो कभी भक्ति के उन्मेष का यह संदेश नाम को श्वास-श्वास पर स्वरांकित कर नाभिमण्डल और हृदय बनकर मुखर हुआ कि भव-सागर में 'डूबो मत लगाओ डुबकी' कमल चक्र से पार कराता हुआ ब्रह्मरंध्र तक ऊर्ध्वमान कराता है।
और भक्ति की डुबकी वही लगा सकता है जो तैरने की कला ऐसे श्रुतिमधुर संगीत से आचार्यश्री की काव्यधारा प्रस्फुटित होती जानता है। भक्ति की भाव-भूमिका के बिना-तोता यानी आत्मा | है। रोता ही रहता है । अस्तु आचार्य श्री को एक और काव्यकृति की | आचार्यश्री की अपने गुरु चरणों में भक्ति की उत्कर्ष भावना प्रस्तुति करनी पड़ी- 'तोता क्यों रोता?'
को देखते हैं तो लगता है उनकी भक्ति अनुराग से ऊपर उठकर क्रमशः अपने पांच शतकों में आचार्यश्री की काव्य विद्या | विशुद्ध वीतराग भाव की ओर टिक गई है। दीक्षोपरान्त समयसार ने अन्तश्चेतना की अतल गहराइयों में जाकर 'निजानुभव शतक', | के ज्ञानार्जन हेतु जब बालयति विद्यासागरजी ने अपने को गुरुचरणों 'मुक्तक शतक', 'दोहास्तुति शतक', 'पूर्णोदय शतक' और 'सर्वोदय | में समर्पित कर दिया तो फिर समयसार की प्रत्येक गाथा उनके शतक' लिखकर भक्ति की अपूर्व छटा निहारी।
लिए अध्यात्म अमृत की निर्झरणी बन गई। भक्ति का यह फल उपर्युक्त काव्य कृतियों को 'समग्र' में बांधने का एक | उन्हें तत्क्षण आत्मानुभूति के रूप में मिलने लगा और उनकी अकिंचन प्रयास अवश्य किया गया, परन्तु काव्य, भाव-चेतना का | काव्यधारा-मौन मुखरित होकर इस प्रकार अभिव्यक्त हुई। स्फुरण हुआ करता है उसे बांधने के सारे प्रयास निरर्थक हो । दक्षिण में भट्टारकों का उद्भव-जैन संस्कृति के संरक्षण साबित होते हैं इस आलेख में मैंने कतिपय काव्य-कृतियों से | के कारण हुआ क्योंकि विशुद्ध दिगम्बर मुनि केवल दक्षिण भारत भक्ति के मोती चुनने का प्रयास किया है।
में अवशेष रहे हैं, वह भी विरल रूप में अपने अनन्य पितामह गुरु आचार्य विद्यासागर जी की दृष्टि में भगवद्-भक्त वह है, | आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज, जिन्होंने बीसवीं शताब्दी के जो विषयवासना की धरती के गुरुत्वाकर्षण से ऊपर होकर उससे | विच्छिन्न हुई दिगम्बर मुनि स्वरूप को पुर्नजीवित किया और अप्रभावित रहता है। उसका आकर्षण बनाम समर्पण केवल परम- | भगवती आराधना तथा मूलाचार्यों में वर्णित मुनि साधना को जीवंत गुरु भगवत् सत्ता के लिए होता है। नर्मदा के नरम-कंकर को | किया, ऐसे आचार्य शांतिसागर जी महाराज के चरणों में अपनी प्रतीक बिम्ब बनाकर वे इसमें अनंत गुणों की रचना धर्मिता से | विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हुये एक निष्ठ भक्ति प्रदर्शित की। सुन्दर सुडौल शैल शंकर के रूप में रूपायित कर भक्ति की अपूर्व
प्रायः कदाचरण युक्त अहोधरा थी, निष्ठा का प्रणयन करते हैं।
सनमार्ग रूढ़ मनि मूर्ति न पूर्व में थी। हृदय में अपूर्व निष्ठा लिये- यह किन्नर! अकिंचन किंकर!!
चारित्र का नव नवीन पुनीत पंथ, नर्मदा का नरम कंकर चरणों में उपस्थित हुआ है।
जो भी यहाँ दिख रहा तव देन संत॥ यद्यपि कंकर कठोर होता है परन्तु भक्ति की रसधारा उत्तरी भारत में निर्दोष मुनिवर के दर्शन न जाने कितने सौ उसमें नरम होने की व्याप्ति भर देती है। भक्ति-भक्त को पूर्णतः की | वर्षों के बाद मिले थे, ऐसे आचार्य श्री को मुनि विद्यासागर अपनी ओर ले जाने का एक सबल कारण है।
अनन्य भक्ति प्रदर्शित करते हुये लिखते हैंएक गीत में उन्होंने यह भावना मुखर की है कि .......
संतोष कोष गति रोष सुशांति सिन्धु। और में ......... सविनय ...........दोनों घुटनों टेक। पंजों के बल
मैं बार-बार तव पाद सरोज बन्धु॥ बैठ।
हूँ ज्ञान का प्रथम शिष्य अवश्य बाल। दो दो हाथों से / अकम्प / अक्षय दीपक की ओर?
विद्या सुशांति पद में धरता स्व-भाल॥ चिर बुझा दीपक बढ़ाया जलाने / जोत से जोत मिलाने
पूज्य आचार्य विद्यासागर जी को भक्ति की अावली
12 अक्टूबर 2003 जिनभाषित
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समर्पित करते हुये लिखते हैं
मैं पोता हूँ भव जलधि के आप तो पोत 'दादा' विद्या की जो शिवगुरु अहो दो मिटा कर्मबाधा ॥ अपने गुरु आचार्य ज्ञानसागर को सर्वस्व समर्पण करने को उद्यत आचार्य विद्यासागर जी ने, जो भक्ति और सेवा अपने गुरु की सल्लेखना और समाधिमरण के समय की, वह श्रमण धर्म के इतिहास में बेजोड़ रहेगी।
पूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने उस महासत्ता में अपनी सत्ता को मिला देने के लिए जो सल्लेखना ली, उसकी उल्लेखना आचार्य श्री के मुखारविंद से सुनकर रोमांचित हुये बिना नहीं रहा जा सकता। बिना आधि और व्याधि के समाधिमरण का निर्णय लेकर आचार्य ज्ञानसागर जी ने पुनः एक बार श्री शांतिसागर जी की सल्लेखना और समाधिमरण को दोहरा दिया। ऐसे अपने गुरु के प्रति कवि का हृदय प्रणिपात हुये बिना कैसे रह सकता है ?
मेरी भी हो इस विध समाधि, रोष तोष नशे, दोष उपाधि
मम आधार सहज समयसार मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।
इस प्रकार आचार्य विद्यासागर के काव्य साहित्य का आलोडन करने पर उनके साहित्य में भक्ति वैशिष्ट्य की अनुपम छटा देखते हैं। संत स्वयं में भक्ति का जीवंत प्रतिरूप हुआ करता है। उसे देखकर तो जनमानस का हृदय भक्ति से श्रद्धाभिभूत हो उठता है।
यदि आचार्य विद्यासागर के महाकाव्य मूक माटी में ऐसे भक्ति के प्रसंग तलाशें, तो वह एक स्वतंत्र कृति बन सकती है। परंतु इस संक्षिप्त आलेख में उस प्रसंग को न छूते हुये केवल उनकी कुछ स्फुट काव्य रचनाओं को ही विषयान्तर्गत किया है। जबाहर वार्ड बीना (म.प्र.)
रे मन ! तु व्ययसायी है
लाभ देखता, दाव लगाता, गणित बिठाया करता है। वस्तु जात की ओर दौड़ता, सत्य तोड़ता जाता है । कौड़ी कौड़ी का हिसाब कर, कचड़े को भर लेता है। व्यर्थ देखता सुनता पढ़ता, घट उलटा रख लेता है ॥ सम्मान नहीं देता जीवन को, तूं तो खूब कषायी है ॥ १ ॥
पाप-पुण्य भाषा नहिं देखी, निज स्वभाव नहिं परखा है। प्रश्नों में ही उलझा रहता, मुँह मिट्ठू बन जाता है ॥ अहंकार में डूबा रहता, और नहीं कुछ पाता है। जंजीरों को भूषण माना, यों ही भटका रहता है ॥ बुद्धू बन कचड़े को पाला, करता नहीं घिसायी है ॥२ ॥
सब कुछ बटोरकर भारी होता, पत्थर सा हो जाता है। चिन्ता से मन व्यग्र हुआ कि, फिर लोलित हो जाता है ॥ दर्पण छिन्न हुआ और फिर, भटकन शुरु हुई सारी । धन छोड़ा, तन मन जोड़ा फिर भी दौड़ रही जारी ॥ आपाधापी छोड़ो पागल, वैचारिक भीड़ लगायी है ॥३ ॥
प्रोफेसर भागचंद जैन भास्कर
,
ये विचार बबूले पानी के हरदम उठते रहते हैं। निर्विकार जब चित्त बनेगा, निस्तरंग हो जाते हैं । परमात्मा नहिं कावा में, नहिं कैलाशी, काशी में वह बैठा तेरे ही भीतर, पा सकते हो इक झटके में ॥ निर्विकार निर्भाव हुए बिन, नहिं मिल पाय हिसाबी है ॥ ४ ॥
तुकाराम चाल, सदर, नागपुर- 440001
-अक्टूबर 2003 जिनभाषित 13
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स्वयंभू के राम
अपभ्रंश के प्रबन्ध ग्रन्थकारों में सर्वप्रथम कवि स्वयंभू तथा अपभ्रंश के प्रबन्ध ग्रन्थकारों में भी कवि स्वयंभू द्वारा रचित पउमचरिउ का नाम ही सर्व प्रथम आता है।
चूंकि समाज और संस्कृति का परप्पर अटूट सम्बन्ध है । समाज में रहते हुए साहित्यकार पर भी अपनी संस्कृति का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है जिसकी अभिव्यक्ति अनायास उसके साहित्य में हो जाती है। वही साहित्यकार अपने साहित्य के माध्यम से चिर स्थायी कीर्ति प्राप्त कर सकता है जो अपने साहित्य को बहुजन हिताय बनाने की चिन्ता से युक्त हुआ सम्पूर्ण सांस्कृतिक परम्परा पर विचार करके सम्पूर्ण समाज को उसके वास्तविक रूप के दर्शन कराने तथा सही मार्ग दिखलाने का दायित्व भी ग्रहण करता है।
कवि स्वयंभू भी अपने साहित्यकार के दायित्व का निर्वाह करने में पूर्ण सफल रहे हैं। यही कारण है कि 'राहुलसांकृत्यायन ने अपभ्रंश भाषा के काव्यों का आदिकालीन हिन्दी काव्य के अन्तर्गत स्थान देते हुए कहा है-' हमारे इसी युग में नहीं. हिन्दी कविता के पांचों युगों के जितने कवियों को हमने यहाँ संग्रहीत किया है यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि उनमें स्वयंभू सबसे बड़े कवि थे। वस्तुतः वे भारत के एक दर्जन अमर कवियों में से एक थे । डॉ. देवेन्द्र जैन के अनुसार इनका समय अनुमानित ई. सन् 783 है। इनकी 6 रचनाओं में पउमचरिउ, रिट्ठणेमिचरिउ, स्वयंभूछन्द उपलब्ध है तथा पंचमीचरिट, स्वयंभूव्याकरण तथा सोडयचरि अनुपलब्ध है।
इस पउमचरिउ में पाँच काण्ड हैं
1. विद्याधर काण्ड 2. अयोध्या काण्ड 3. सुन्दर काण्ड 4. युद्ध काण्ड 5. उत्तर काण्ड । कवि स्वयंभू ने इस प्रथम विद्याधर काण्ड में मनुष्य समाज का विभिन्न वर्गों में वर्गीकरण और उनके पृथक पृथक विशेष आचारों का वर्णन एवं जीवन के उत्थान व पतन का क्रम दिखलाकर भारत देश के विभिन्न वंशों का उद्भव व विकास के रूप में भारतीय संस्कृति का एक जीती जागती प्रयोगशाला के रूप में जीवन्त चित्र खींचा है। विद्याधर काण्ड के बाद अयोध्या काण्ड से उत्तर काण्ड तक की पूरी कथा श्रीराम के वन गमन से लेकर निर्वाण प्राप्ति तक होने से इस कथा का आधार श्रीराम का जीवन वृत्त ही रहा है।
वैसे भी राम कथा न केवल भारत की अपितु विश्व की अत्यन्त लोकप्रिय कथा है। इस पृथ्वी तल में आबाल वृद्ध सभी अक्टूबर 2003 जिनभाषित
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श्रीमती स्नेहलता जैन
राम नाम के गीत गाते हैं। धरती पर न्याय व शांति का राज्य ही राम राज्य कहलाता है। इसीलिए अपने देश को सभ्य एवं सुसंस्कृत बनाने की महती भावना से अनेक रचनाकारों ने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी की बोलियों तथा भारतीय भाषाओं व विश्व की अन्यान्य भाषाओं में अपने देश को प्रेरणा प्रदान करने के लिए रामकथा की विविध काव्य विधाओं के माध्यम से प्रस्तुति की है।
स्वयंभू देव ने इस राम कथा में परम्परा पोषित दीर्घगामी रामकथा का अनुसरण तो किया है परन्तु अपनी बुद्धि से उसमें नवीनता एवं निजी मौलिकता का भी समावेश किया है। वे पउमचरिउ के प्रारम्भ में ही स्पष्ट लिखते हैं- 'पुणु रविसेणयरिय पसाएं बुद्धिएं अवगाहिय कइराएं' अर्थात तदनन्तर आचार्य रविषेण के प्रसाद से कविराज ने इसका अपनी बुद्धि से अवगाहन किया है तथा पुणु अप्पाणड पायडमि रामायण कावें। अर्थात मैं स्वयं को रामायण काव्य के द्वारा प्रकट करता हूँ। उनकी इस परम्परा एवं नवीनता मिश्रित मौलिकता को उनके द्वरा काव्य को पढ़कर आसानी से समझा जा सकता है। इस तरह कवि स्वयंभू द्वारा रचित यह पउमचरिउ भी राम के चरित्र के साथ नवीन मौलिक उद्भावनाओं एवं जीवन मूल्यों की अमर प्राणवत्ता को लेकर उभरा है।
कवि स्वयंभू ने इस पउमचरिउ के नायक श्रीराम के रूप में मानव मात्र के शाश्वत आदर्श का अनुसंधान किया है। उनके जीवन की घटनाओं से हमें व्यष्टि से समष्ट तथा समष्टि से परमेष्टि पद के रूप में मानव की सम्पूर्ण जीवन यात्रा का जीवन्त चित्रण मिलता है जिसका अनुकरण कर प्रत्येक मानव अपनी जीवन यात्रा को क्रमश: सार्थक बना सकता है।
व्यष्टि के रूप में राम एक सामाजिक इकाई है जिसमें वे आर्दश पुत्र, भाई, पति तथा पिता के रूप में प्रेम व कर्त्तव्य परायणता की भावनाओं से ओत-प्रोत होकर जिये हैं। जैसे ही वे यति से समष्टि की ओर अग्रसर होते हैं अर्थात् राजपद पर आसीन होते हैं वैसे ही उनका व्यक्तित्व भी सीमित सीमाओं से परे होकर समटि की दिशा में छलांग लगा देता है। तदोपरान्त समष्टि से परमेष्ठि की यात्रा पर आरूढ़ होने पर उनका व्यष्टि व समष्टि रूप में पूर्ण उत्कर्ष व अभ्युदय को प्राप्त व्यक्तित्व भी इस यात्रा के लिये अवरोधक बन जाता है। इतने उदात्त गुणों के होने के बावजूद भी उनकी राग द्वेष रूप मानवीय दुर्बलताएँ उनके वहाँ तक पहुँचने में बाधक बनती है। अन्त में राम इन राग द्वेष रूप दुर्बलताओं पर क्षमा भाव धारण कर विजय प्राप्त कर शिव पद प्राप्त कर लेते हैं। इसका बहुत
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ही सुन्दर, मार्मिक व अद्भुत चित्रण इस पउमचरिउ में मिलता है । को मारकर शुद्धि कहाँ मिलेगी? हे देव! इनके साथ तुम्हारा युद्ध जो इस प्रकार है
कैसा? यह सुनते ही राम ने हथियार डाल दिये और अपने दोनों व्यष्टि रूप में राम
पुत्रों का सिर चूम लिया। लव-कुश के मामा वज्रजंघ को भी बाहों पुत्र रूप- (अ) राजा जनक के म्लेच्छों से घिर जाने पर | में भरकर उनकी बार-बार प्रशंसा की कि आपके होने से ही में जैसे ही राजा दशरथ जनक की सहायता करने के लिए जाने हेतु अपने दोनों बेटों को पा सका हूँ। उद्यत होते हैं वैसे ही राम विरुद्ध हो उठते हैं और कहते हैं- मेरे | 4. मित्र रूप- सुग्रीव अपनी पत्नी तारा देवी का हरण हो जीते जी आप क्यों जा रहे हैं? मै शत्रु को मारुंगा। पुनः राजा | जाने पर रक्षा हेतु राम के पास गया। तब राम ने कहा- मित्र तुम दशरथ जव सुकुमार होने से उनको लड़ने में असमर्थ बताते हैं तब तो मेरे पास आ गये पर मैं किसके पास जाऊँ? जैसे तुम वैसे मैं भी राम यह कहकर- क्या बाल सूर्य अन्धकार को नष्ट नहीं करता, | स्त्री वियोग में काम ग्रह से गृहीत हूँ और जंगल-जंगल में भटक क्या बाल दावाग्नि वन को नहीं जलाती, क्या बाल सिंह हाथी को | रहा हूँ। इस पर सुग्रीव ने सीतादेवी का वृत्तान्त लाने की प्रतिज्ञा की चर-चर नहीं करता, क्या बाल सर्प नहीं काटता, युद्ध के लिये | तो राम ने भी मित्रता का हवाला देते हुए कहा- हे मित्र! मैंने भी कृच कर जाते हैं।
यदि सात दिन में तुम्हारी स्त्री तारा को लाकर नहीं दिया तो सातवें (ब) कैकया के वरदानानुसार राजा दशरथ द्वारा राम को | दिन सन्यास ल लूगा। अन्तत: राम न कपट सुग्राव का मार कर भरत के लिये छत्र, सिंहासन व धरती अर्पित करने के लिये कहने | तारा सहित सुग्रीव का पुन: अपने नगर में प्रतिष्ठित करवाकर मित्र पर राम ने कहा- पुत्र का पुत्रत्व उसी में है कि वह कुल को संकट | का कर्त्तव्य पूरा किया। समूह में नहीं डालता तथा अपने पिता की आज्ञा धारण करता है, 5. पति रूप - (अ) सीता के शोक में अत्यन्त दुखी राम गुणहीन और हृदय में पीड़ा पहुँचाने वाले 'पुत्र' शब्द की पूर्ति | के शोक को दूर करने के लिये (क्योंकि अति शोक से बुद्धि के करने वाले पुत्र से क्या ? यह कहकर राम ने भरत के सिर पर शिथिल हो जाने से मनुष्य कर्महीन हो जाता है।) मुनिश्री ने स्त्री पट्टा बांध दिया।
दुःख की खान और वियोग की निधि होती है आदि उपदेश राम (स) लंका नगरी में नारद से माता कौशल्या की वियोग | को दिये । उसे सुनकर भी राम धरती तल पर मूर्छा से विह्नल होते में क्षीण दशा का होना सुनते ही राम उन्मन होकर बोले- 'मैंने | हुए बोले- 'गाँव और श्रेष्ठ नगर प्राप्त किये जा सकते हैं, घोड़े और यदि आज या कल में माँ के दर्शन नहीं किये तो निश्चय ही माँ के | गज प्राप्त किये जा सकते हैं परन्तु ऐसा स्त्री रत्न नहीं प्राप्त किया प्राण पखेरू उड़ जावेंगे, अपनी माँ और जन्मभूमि स्वर्ग से भी | जा सकता ।' प्यारी होती है' हे विभीषण अब मैं अपने घर जाता हूँ।
(ब) जाम्बवन्त ने भी राम के शोक को कम करने हेतु 2. भाई रूप - (अ) राम वनवास में भी भरत भाई का | उन्हें 13 रूपवान कन्याएँ स्वीकार करने के लिये कहा। तब राम पूरा ध्यान रखते थे। राम को जब वनवास पर्यन्त ही भरत के ऊपर | ने प्रत्युत्तर में कहा- 'यदि रम्भा या तिलोत्तमा भी हो, तो भी सीता राजा अनन्तवीर्य के आक्रमण करने की सचना मिली तो अपनी | की तुलना में मेरे लिये कुछ भी नहीं है। स्त्री का पराभव सबसे तीक्ष्ण बुद्धि से योजनानुसार अभिनय करते हए अनन्तवीर्य को | भारी होता है। भाग्य के फलोदय से जो मेरा यश रूपी वस्त्र पकड़ लिया तथा भरत की सेवा स्वीकार करने के लिये कहा। | अकीर्ति और कलंक के पंक मल से मैला हो गया है उसे मैं रावण
(ब) रावण व खरदूषण के साथ हुए लक्ष्मण के युद्ध में | के सिर पर पछाड़ कर साफ करूंगा।' जब पूर्व सुनिश्चित योजनानुसार लक्ष्मण के सिंहनाद को राम ने | 6. लौकिक धर्म व सामाजिक क्रियाओं के प्रति सुना तो अपशकुन होने पर भी उन सबकी उपेक्षा कर लक्ष्मण के | आस्थावान- राजा वज्रकर्ण के प्रकरण में राम यह कहकर कि पास युद्ध क्षेत्र में पहुँच गये।
'सत्य मिथ्यात्व के तीरों से नष्ट नहीं होता' सम्यक्त्व के प्रतिष्ठाता (स) लक्ष्मण के शक्ति से आहत होने पर राम विलाप | बने हैं तो बालिखिल्य को रुद्रभूति से मुक्त करवाकर पीड़ितों के करते हैं- 'हे हतभाग्य विधाता! तुम ही बताओ इस प्रकार हम
रक्षक हुए हैं। राजा अनन्तवीर्य के तपश्चरण स्वीकार करने पर भाईयों का बिछोह करा कर तुम्हें क्या मिला? तुम्हारी कौन सी जब राम भी उनके सेवक बन जाते हैं तब उसमें उनकी तपश्चर्या कामना पूरी हो गयी। चाहे कलिकाल रूपी शनिचर की नजर मुझ के प्रति पूज्य भाव के दर्शन होते हैं । वेसे ही जिनेन्द्र के प्रति श्रद्धा पर पड़ जाय परन्तु भाई का वियोग न हो'।
मुनियों के प्रति भक्ति व उनके उपसर्ग दूर करना तथा ब्राह्मण, 3. पिता रूप - राम और लक्ष्मण के साथ लव व कुश के बालक, गाय, पशु, तपस्वी, स्त्री के प्रति रक्षा के भाव में भी राम द्वारा किये जा रहे युद्ध में नारद ने राम को कहा- अपने ही पुत्रों | का धार्मिक पक्ष प्रबल बन पड़ा है।
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दशानन के दाह संस्कार के बाद इन्द्रजीत के विद्रोह की आशंका को देखकर सभी सामन्तों के द्वारा राम को स्नान करने व पानी देने के लिये मना करने पर भी राम ने लोकाचार से दशानन को पानी दिया। इसमें राम के सामाजिक पक्ष की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है।
। बोली- 'तुमने यह सब बोलना क्या प्रारम्भ किया है ? मैं आज भी सतीत्व की पताका ऊँची किये हुए हूँ इसीलिये तुम्हारे देखते हुए भी मैं विक्षब्ध हूँ । नर और नारी में यही अन्तर है कि नारी उस लता और नदी के सदृश है जो मरते दम तक भी पेड़ का सहारा नहीं छोड़ती तथा समुद्र को भी अपना सब कुछ समर्पित कर देती इस प्रकार राम एक आदर्श व्यक्ति के रूप में अवतरित है। इसके विपरीत नर उस समुद्र के समान है जो पवित्र और कुलीन नर्मदा नदी को जो रेत, लकड़ी और पानी बहाती हुई समुद्र के पास जाती है खारा पानी देने से नहीं अघाता।'
समष्टि रूप में राजा राम
भरत के तपोवन के लिये चले जाने पर राजगद्दी पर बैठते ही राजा राम ने यह घोषणा की कि अविचल रूप से वही राजा राज्य करता है जो प्रजा से प्रेम रखता है तथा विनय व नय में आस्था रखता है। तभी प्रजा राजभवन के द्वार पर आकर कहने लगी कि खोटी स्त्रियाँ खुले आम दूसरे पुरुषों के साथ रमण कर रही हैं और पूछने पर उनका उत्तर होता है क्या सीतादेवी वर्षों तक रावण के घर पर नहीं रही और क्या उसने सीतादेवी का उपभोग नहीं किया। प्रजा के इन दुष्ट शब्दों की चोट से आहत राजा राम ने विचार किया कि जनता यदि किसी कारण निरंकुश हो उठे तो वह हाथियों के समूह की तरह आचरण करती है, जो उसे भोजन व जल देता है वह उसी को जान से मार डालती है किन्तु राजा लोग प्रजा को न्याय से अंगीकार करते हैं, वे बुरा भला कहें तो भी वे उसका पालन करते हैं । तब सीतादेवी के सतीत्व को जानते हुए भी नारी के असंस्कृत आचरण के प्रचार से फलित होने वाले दुष्परिणामों को जानकर राम ने सीता को वन में छोड़ आने के लिये कहा ।
अतः आदर्श शासक के रूप में प्रजा के रक्षण पालन के लिये अपने सभी सुख और स्नेह सम्बन्ध प्राणप्रिया पत्नी तक को त्यागने का आदर्श प्रस्तुत कर राम ने राजा राम के रूप में समष्टि पद का पूरी तरह निर्वाह किया है।
(अ) तदनन्तर लंका में सीता के साथ रही त्रिजटा व लंकासुन्दरी के द्वारा सीता के सतीत्व की साक्षी देने पर राम ने प्रमुख लोगों को सीता को अयोध्या में लाने हेतु भेजा। मन नहीं होने पर भी सीता सभी के अनुरोध पर चलने को तैयार हुई और वहाँ जाकर आसन पर बैठ गयी। तभी स्त्री की कांति को सहन न करते हुए स्वभावतः पौरुष वृत्ति के कारण राम ने हँसकर कहा, स्त्री चाहे कितनी ही कुलीन और अनिन्द्य हो वह बहुत निर्लज्ज होती है। अपने कुल में दाग लगाने से तथा इस बात से भी कि त्रिभुवन में उनके अपशय का डंका बज सकता है वे नहीं झिझकती । धिक्कारने वाले पति को अंग समेटकर आकर कैसे अपना मुख दिखाती हैं।
तभी एकाएक सीता का मौन आक्रोश में बदल गया। वह अक्टूबर 2003 जिनभाषित
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सीता के वचन सुनकर वहाँ उपस्थित जन समूह हर्षित हो उठा किन्तु अकेले कलुषित राम नहीं हँसे । 'पर हियवएँ कलुषु वहन्तउ रहुवइ एक्कु ण हरिसियउ' । जैसे ही सीता ने अग्नि परिक्षा दी सभी ने उन कलुषित राम को धिक्कारा और कहा- 'राम निष्ठर निराश, मायारत, अनर्थकारी और दुष्ट बुद्धि हैं, पता नहीं सीतादेवी को इस प्रकार होम कर कौन सी गति पायेंगे।'
(ब) राम ने जब लक्ष्मण की मृत्यु का समाचार सुना तो रागभाव के उदय से लक्ष्मण के पास आकर एक ही पल में मूर्च्छित हो गये होश आने पर राम लक्ष्मण का आलिंगन करते, चूमते और कभी पौछते फिर गोदी में लेकर रोने बैठे जाते। सामन्तों ने जब राम से लक्ष्मण का दाह संस्कार करने के लिये कहा तो राम बोले- अपने स्वजनों के साथ तुम जलो, तुम्हारे माँ बाप जलें, मेरा भाई तो चिरंजीवी है। लक्ष्मण को लेकर मैं वहाँ जाता हूँ जहाँ दुष्टों के वचन सुनने में न आवें । इस प्रकार 6 माह तक अपने कन्धों पर कुमार का शव ढोते रहे। लक्ष्मण प्राण छोड़ चुके थे परन्तु राम तब भी मोह छोड़ने को तैयार नहीं थे।
इस तरह राम की सीता के प्रति अपनी स्वभावतः कलुष पौरुष वृत्ति तथा लक्ष्मण के प्रति उनकी यह राग / मोह रूप प्रवृत्ति ही थी जो उनके समष्टि पद से आगे परमेष्ठी पद की ओर बढ़ने में अवरोधक बन खड़ी थी।
परमेष्ठी पद की ओर राम
(अ) परमेष्ठी पद पर आरूढ़ होने के लिये तत्पर परमवीर राम ने अग्नि परीक्षा के पश्चात् सीता से कहा कि 'अकारण दुष्ट चुगलखोरों के कहने में आकर मेरे द्वारा की गयी अवमानना से तुम्हें जो इतना दुख सहना पड़ा इसके लिये मुझे एक बार क्षमा कर दो तथा मेरा कहा अपने मन में रक्खो।' तब सीतादेवी ने जैसे ही तपश्चरण अंगीकार कर सिर के केश उखाड़कर राम के सम्मुख डाल दिये वैसे ही राम मूर्च्छित होकर धरती पर गिर पड़े। मूच्छां दूर होने पर सीता के पास गये। वहाँ जाकर और आत्म निन्दा कर कि 'धिक्कार है मुझे जो लोगों के कहने से बुरा बर्ताव कर अकारण प्रिय पत्नी को वन में निर्वासित किया' सीतादेवी का अभिनन्दन किया।
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(ब) तदनन्तर इन्द्र आदि देवताओं ने भी यह विचार | हो जावें। बहुत से रत्नों के स्वामी, मन चाहे मित्र इनके साथ मैं किया कि जीव समूह को रोकने वाले अशेष समस्त बन्धनों में प्रेम | घूमूंगी, वन्दना करूँगी तथा अपना सुख दुख बताऊंगी। यह सोचकर का बन्धन ही सबसे मजबूत होता है । इसीलिए राम भी मनुष्य के | वह इन्द्र कोटिशिला पर ध्यान में लीन राम के पास आया तथा मेरे भोगों में पड़कर अपने आपको भूल गये हैं। तभी देवों ने राम के | यौवन को मान दो आदि कहकर रिझाने लगा। किन्तु राघव मुनिवर मोह को दूर करने का उपाय सोचा। सोचे गये उपायानुसार सूखा | का मन नहीं डिगा। राम के कहा- हे इन्द्र ! तुम राग को छोड़ो। वृक्ष बनाकर उसे सींचना, चट्टान पर हल चलाकर बीज बिखेरना, | जिन भगवान ने जिस मोक्ष का प्रतिपादन किया है वह विरक्त को पत्थर पर कमल के फूल के समूह को उगाना तथा एक मृत योद्धा | ही होता है। सरागी व्यक्ति का कर्म बन्ध और भी पक्का होता है। के शरीर को कन्धे पर उठाकर लाना आदि विरोधी क्रियाएँ करना | उपदेश सुनने से पवित्र मन सीतेन्द्र ने मुनीन्द्र राम की वन्दना की। उन्होंने प्रारम्भ किया।
माघ माह के शुक्ल पक्ष में बारहवीं की रात के चौथे प्रहर तभी मृत योद्धा के शरीर को कन्धे पर उठाकर लाया जाने | में श्रीराम ने चार घातिया कर्मों का नाश कर परम उज्ज्वल ज्ञान पर राम ने पूछा- तुम किसलिये इस मनुष्य को ढो रहे हो? इस पर देव ने भी कहा- मुझसे क्या पूछते हो, अपने आपको क्यों नहीं इस तरह स्वयंभूदेव ने अपने काव्य पउमचरिउ की राम देखते, हम दोनों ही महामोह से उदभ्रान्त होकर दुनियाँ में घूम रहे | कथा में श्रीराम व सीतादेवी के कथानक के माध्यम से व्यक्ति की हैं। बस तभी राम बहुत लज्जित हुए, सहसा उनकी आँखें खुल | 'व्यष्टि से लेकर परमेष्ठी' तक की यात्रा के चित्रण को और रागगयी और मोह ढीला पड़ गया। लक्ष्मण का दाह संस्कार कर मोह | द्वेष रूपी आसक्ति व कषाय तथा क्षमा भाव को एक प्रयोगात्मक से दूर, गुणभरित और प्रबुद्ध राम ने सुब्रत मुनि के पास दीक्षा | रूप देकर बहुत ही सरस एवं सहज रूप में अभिव्यक्त किया है। ग्रहण कर ली।
अतः परम पद प्राप्त करने के इच्छुक सभी भव्यजनों के सीतादेवी ने भी 62 साल तक घोर तप कर अन्त में 33 | लिये रागद्वेष रूप आसक्ति व कषाय को क्षमा भाव से जीतने का दिन की समाधि लगाकर इन्द्र का पद पाया।
सत्य व सुगम मार्ग बताकर कवि ने सभी के लिये बहुत ही इस तरह परमवीर श्रीराम ने क्षमा भाव धारण कर अपनी | उपकार किया है। कलुष पौरुष वृत्ति पर तथा सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर राग रूप मोह वृत्ति पर विजय प्राप्त कर ली।
| 1. स्वयंभू : पउमचरिउ, (सम्पादनः डॉ. एस.सी. भायाणी,) (स) ध्यान में लीन निश्चल राम- महामुनि श्रीराम जो अब स्नेह विहीन थे 'सो राम-महारिसि विगय णेहु' ने कठोर तप
अनुवादकः डॉ. देवेन्द्र कुमार जैन
प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ, अंगीकार कर अनेक व्रतों को धारण कर घोर तपश्चरण किया
वाराणसी, 1970 फिर कोटि शिला पर चढ़कर ध्यान में लीन हो गये। तभी अच्युत स्वर्ग में सीतादेवी के जीव इन्द्र ने सोचा कि क्षपक श्रेणी में स्थित
अपभ्रंश साहित्य अकादमी
दिगम्बर जैन नसियाँ भट्ठारकजी, इनके ध्यान को किस प्रकार विचलित करूँ जिससे उनको उज्जवल
सवाई रामसिंह रोड, धवल केवलज्ञान उत्पन्न न हो और वे भी वैमानिक स्वर्ग के इन्द्र
जयपुर - 302 004
सन्दर्भ
अखिल - समर्पण
पर
बीज ने कहा अवनी से, अखिल समर्पण, अंक चाहिये। अवनी बोली, आ जाओ, हे नव अंकुर। विश्वास नहीं मिटने दूंगी, गलूंगी, तपूंगी, दमन भी सह लूंगी,
अंक नहीं हटने दूंगी। श्रद्धेय पर, आस्था और समर्पण का प्रतिफल, एक विशाल वृक्ष।
राहुल मोदी, मुंगावली
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'हमारा स्वास्थ हमारा खान-पान'
'शीतल पेय' पीने वालो अब तो चेतो
डॉ. ज्योति जैन
हम भारतीयों विशेषकर जैनियों की आहार संबंधी मर्यादायें । जैसे जान लेवा रोग पैदा कर सकता है। कुछ अलग हैं। हमारी आहार संबंधी चर्या में ये आधुनिक पेय | शीतल पेयों में शामिल फास्फोरिक एसिड दांतों को गला पदार्थ किसी भी मापदण्ड पर खरे नहीं उतरते हैं। यह सच है कि | कर खत्म कर देता है। अमेरिका के मशहूर दंत चिकित्सक डॉ. तेजी से बदलती जीवन शैली और आधुनिक खान-पान को आहार | राबर्ट चेज और दंत चिकित्सा विज्ञान के 'क्लिनिकल रिसर्च न्यूज में सम्मलित करने वालों की संख्या बढ़ रही है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों | लेटर' के संपादक डॉ. जार्डन किस्टेंसन ने माना कि कोल्ड ड्रिंक्स के चकाचौंध करने वाले पेय विज्ञापनों के मायाजाल ने बच्चों से | का पोषणमान तो नगण्य है ही वह दांतों का सबसे बड़ा दुश्मन है। लेकर युवाओं और यहाँ तक कि बड़े बूढ़ों की जिव्हा (स्वाद) पर
शीतल पेयों में अधिक चीनी मिलायी जाती है जिससे अधिकार सा कर लिया है। टी.वी. चैनलों पर हर पांच मिनिट के | अधिक कैलोरी होने से तत्काल ऊर्जा मिलती है इसके कारण बाद दर्शकों को आकर्षित करते इन विज्ञापनों से कौन बच पाया | कोल्ड ड्रिंक्स को स्फूर्तिदायक व थकान नाशक मान लिया जाता है। आज पूरे देश के बाजार में कुछ मिले या न मिले ये शीतलपेय | है परन्तु सच्चाई यह है कि पौष्टिकता से विहीन इन शीतल पेयों से वोतलें अवश्य मिल जायेगी। यहाँ तक घरेलु फ्रिज में भी इन | कैलोरी पूर्ति हो जाने से भूखमर जाती है मोटापा और कब्ज बढ़ता बोतलों ने अपनी जगह बना ली है और सभी वर्ग के लोग बड़े | है। आंतों में सड़न शुरू हो जाती है। शौक से पीते और पिलाते हैं। कोई भी अवसर हो इन शीतल पेय | शीतल पेयों में इथीलिन ग्लइकोन नामक नुकसान देय पदार्थों की उपस्थिति अनिवार्य सी हो गयी है। कुछ तथ्य हैं- | रसायन है जो उसे शून्य डिग्री तापमान में भी जमने नहीं देता है।
शीतल पेय पदार्थ हमारे स्वास्थ्य के लिये कितने हानिकारक शीतल पेयों में कार्बनडाइ आक्साइड गैस डाली जाती है हैं, समय समय पर स्वास्थ्य विशेषज्ञ और आहार विशेषज्ञ एवं | यदि यह गैस नाक और मुंह के जरिए बाहर न निकले तो अत्यन्त धर्म गुरु चेताते रहे हैं पर हाल ही में जारी रिपोर्ट ने शीतल पेय | नुकसान देय है। पदार्थों की दुनियाँ में हलचल मचा दी।
इन शीतल पेयों में पौष्टिक तत्त्व बिल्कुल नहीं होते हैं। 'डाऊन टू अर्थ' पत्रिका में जारी रिपोर्ट में सेंटर फार | शरीर के लिये आवश्यक प्रोटीन, विटामिन्स, वसा, खनिज आदि सांइस एण्ड एनवायरमेट (सी.एस.ई.) ने अनेक संगठनों एवं | कुछ भी तत्त्व नहीं है न ही इसमें फलों का रस है। अनेक लोगों के अनुरोध पर कुछ शीतल पेय पदार्थों की जांच की | शीतल-पेयों को भोजन के साथ या फौरन बाद पीने से और उनमें अनेक हानिकारक, स्वास्थ्य के लिये नुकसान देह तत्त्व | शरीर के पाचक एंजाइन नहीं बनते हैं, जिससे अपच एवं आंत पाये गये।
संबंधी रोग अपना घर बना लेते हैं। लोकप्रिय शीतल पेय या साफ्ट ड्रिंक्स, हानिकारक गैसों | शीतल पेयों के एक उत्पाद में यह भी दावा किया गया है और रसायनों के दम पर सनसनी पैदा करने, ठंडक पहुँचाने और | कि इसमें चीनी नहीं है किन्तु स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि प्यास बुझाने का दावा करते हैं, जबकि इसके विपरीत ये उपभोक्ता | इसमें नुकसान देय अनेक रसायन हैं इसमें कैफीन, फॉस्फोरिक की प्यास बुझाने से ज्यादा नित नयी बीमारियों को जन्म दे रहे हैं। एसिड के साथ साइट्रिकएसिड और कृत्रिम मिठास के लिये एस्परटेम
शीतल पेय पदार्थों में मिला कार्बोलिक अम्ल और | सेक्रीन और खराब होने से बचाने के लिये सोडियम बेजोएट होता फॉस्फोरिक अम्ल शरीर को सीधा नुकसान पहुंचाता है। कोल्ड | है। एक अध्ययन के अनुसार अमेरिका में एस्परटेम के कारण इसे ड्रिंक्स के लगातार सेवन का मतलब है गंभीर रोगों को न्योता | पीने वाले 40 प्रतिशत लोगों में सिरदर्द, सुस्ती, धुंधलापन आदि देना।
की शिकायतें पायी गयीं । अनेक देशों में तो इस पेय पर बच्चों के शीतल पेय उतने ही हानिकारक हैं जितना कि टायलेट | लिये नहीं' लिखा होता है। साफ करने में प्रयोग आने वाला हाइड्रोक्लोरिक एसिड।
कुछ शीतल पेयों में अल्कोहल भी मिलाया जाता है। शीतल पेयों में पाया गय बेंजोइन नामक रसायन कैंसर | अमेरिकी वैज्ञानिक और लेखक मार्क पेडरग्रास्ट ने 'फार गॉड 18 अक्टूबर 2003 जिनभाषित -
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कंट्री एण्ड कोका कोला' में खुलासा किया है कि कोका कोला में | मांग में कोई कमी नहीं आयी। हजारों करोड़ों का मुनाफा बटोर साइट्रेट कैफीन वेनिला फ्लेवरिंग, एकई कोको, साइट्रिक एसिड | रही ये कंपनियां भारतीयों की सेहत से खिलवाड़ कर रही हैं। नीबू का रस, चीनी और पानी मिला होता है । इसमें थोड़ा एल्कोहल शीतल पेयों की जांच करने वाली सेंटर फार साइस एण्ड भी डाला जाता है।
एनवायरमेंट (सी.एस.ई) ने अपनी जांच में 12 प्रचलित शीतल शीतल पेयों के जांच नतीजे में लिंडेन, डी.डी.टी. मैलाथियन | पेय ब्रांड विभिन्न शहरों, वजारों एवं दिल्ली के आस पास मथुरा, और क्लोरपाईरिफास कीटनाशकों के अवशेष मिले। इन कीटनाशकों | गजियाबाद, हापुड, जयपुर के कारखानों से एकत्र नमूने शामिल से स्वास्थ्य को भारी नुकसान है। लिडेन नामक कीटनाशक के [किये और तुलनात्मक गुणवत्ता के लिये अमेरिका से बोतले मंगायी अवशेष हर बांड में मिले हैं। इससे मनुष्य का न केवल नाडीतंत्र | गयी। ध्यान रहे सी एस ई. की प्रयोग शाला को भारत सरकार के क्षतिग्रस्त होता है अपितु शरीर की प्रतिरोधक क्षमता भी प्रभावित | विज्ञान एवं तकनीकी मंत्रालय ने जांच के बाद उपयुक्त पाया था। होती है। डी.डी.टी. (प्रतिबंधित) का छिड़काव मच्छर मारने के शीतल पेयों का सी.एस.ई. ने पर्दाफाश किया तो सारे देश लिये किया जाता है जो इन पेय पदार्थों में पाया गया है। में हलचल सी मच गयी। अफरा-तफरी से भरे एक निर्णय में
शीतल पेयों के कोलाब्रांड में डाला जाने वाला कैफीन | संसद की कैंटीन से ये शीतल पेय बाहर कर दिये गये। उपभोक्ताओं रसायन अधिक मात्रा में लेने पर अनिद्रा, सिरदर्द आदि पैदा करताहै |ने प्रदर्शन किये, स्कूली बच्चों ने उत्साहित हो शीतल पेयों के
आंकड़े बताते हैं कि ये कंपनियाँ अमेरिका, यूरोप में 88 पी.पी.एम. | विरूद्ध रैलियाँ निकाली अनेक स्वंय सेवी संगठनों ने जनचेतना के कैफीन डालती हैं जबकि भारत में 111 पी.पी. एम. तक कैफीन | आवश्यक कदम उठाये। इन शीतल पेयों पर वैद्यानिक कार्यवाही डाली जाती है।
करने की मांग की गयी इससे पहिले भी समय-समय पर इनके इन शीतल पेयों में पाये जाने वाले सीसे की मात्रा यदि 0.2 | खिलाफ मामले उठते रहे हैं पर जन समर्थन न मिलने से ये प्रायः पी.पी. एम. से ज्यादा हो तो वह स्नायुतंत्र, मस्तिष्क, गुर्दे, लीवर व | असफल हो जाने विश्व बाजार में उपभोक्ताओं को सर्वोत्तम उत्पाद मांस पशियों पर घातक असर डालती हैं। पेय पदार्थों की जांच में | का दावा करने वाली ये कंपनियां आज कटघरे में खड़ी हैं। यह मात्रा 0.4 पी. पी. एम तक पायी गयी, जबकि अमेरिका जैसे | कटु सत्य यह भी है कि ये कंपनियाँ हमारे प्राकृतिक देशों में यह मात्रा 0.2 पी.पी. एम से भी कम रखी जाती है। संसाधनों पानी का दोहन कर रही हैं और जहां-जहां कारखाने
शीतल पेयों में आसैनिक कैडमियम, एथलीन, लाइकोल्ड लगे हैं वहां प्रदूषण भी तेजी से बढ़ता जा रहा है। सेहत के साथ जिंक, पोटोशियम सोरबेट, मिथाइल बैंजीन, ब्रेमिनेटेड आयल साथ ये हमारी अर्थव्यवस्था को भी पीती जा रही हैं। आदि रसायन भी पाये गए।
वर्तमान में शीतल पेय कंपनियों ने भारतीय नियमों की शीतल पेयों में पानी की मात्रा अधिक होने से इनके | खामियों का पूरा फायदा उठाया, यही कारण है कि इन्हें जगहदण्परिणाम एकदम नजर नहीं आते हैं। लंबे समय तक एवं अधिक जगह क्लीन चिट मिलती जा रही है। विरोधी गुटों द्वारा हंगामा मात्रा में सेवन करना स्लो पायजन लेने के समान है। आमाशय, होने पर एक साझा संसदीय समिति इस पूरे प्रकरण की जांच कर
आंतो के घाव, हड़ियों की विकारता, मोटापा, हृदय रोग, गुर्दे की रही है। पथरी, कैफीन का आदी डायविटीज, दांतों की बीमारियाँ, पेट में आवश्यकता है हम स्वयं विवेकवान बनें एवं अपने और जलन, डकार, एसिडिटी चिड़चिड़ापन आदि बीमारियों में कहीं न सरकारी स्तर पर देशी पेय पदार्थों, विभिन्न जूस, शेक, शिकंजी कहीं किसी न किसी रूप में शीतल पेयों की उपस्थिति स्वीकार लस्सी, मट्ठा, ठंडाई आदि को प्रोत्साहित करें। सुखद बात तो की गयी।
यह है कि हमारे आचार्यों, साधु संतों, विद्वानों, बुद्धि जीवियों द्वारा यूरोपीय संघ एवं अमेरिका आदि विकसित देशों में इन | समय-समय पर इस तरह के आधुनिक खान-पान के प्रति जन शीतल पेयों पर कड़ी नजर रखी जाती है। पेयों की जो गुणवत्ता | सामान्य को सचेत किया जाता रहा है। अतः स्वयं को परिवार एवं मानक नियमों की व्यवस्था इन देशों में है वैसी व्यवस्था हमारे को, समाज एवं देश को स्वस्थ रखने के लिये इन हानिकारक पेयों देश में नहीं है यही कारण है कि भारत में ये कपनियाँ विज्ञापनों ] से और कुछ भी पी लेने से बचें। पर तो करोड़ों रूपये खर्च कर देती हैं पर अपने पेयों की गुणवत्ता
शिक्षक आवास 6,
कुन्दकुन्द महाविद्यालय परिसर पर नहीं। इतने नुकसान देय होने के बावजूद इन शीतल पेयों की
खतौली-251201 (उ.प्र.)
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आधुनिक विज्ञान, ध्यान एवं सामायिक
डॉ. पारसमल अग्रवाल १. प्रस्तावना
सकती है। इस लेख में यह दर्शाया जा रहा है कि आज पश्चिम जगत् अमरीका में बहु प्रशंसित प्रख्यात चिकित्सक डॉ. दीपक के वैज्ञानिकों ने ध्यान को अनेक भौतिक लाभों के जन्मदाता के
चोपड़ा ने उनकी पुस्तक 'परफेक्ट हेल्थ' में पृ. १२७ से १३० पर रूप में स्वीकार कर लिया है। हजारों वर्षों से जैन संस्कृति में | ध्यान को औषधि के रूप में वर्णन करते हुए प्रायोगिक आंकड़ों गृहस्थ के लिए भी प्रतिदिन सामायिक करने की परम्परा रही है।। का विश्लेषण किया एवं कई तथ्यों का रहस्योद्घाटन किया। ४० आज आवश्यकता इस बात की है कि हम ध्यान या सामायिक के ] वर्ष से अधिक उम्र के ध्यान करने वाले एवं ध्यान न करने वालों महत्त्व को समझकर इसका लाभ लें। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु इस
की तुलना करने पर उन्होंने यह पाया कि जो नियमित ध्यान करते लेख में ध्यान के बारे में पश्चिम के वैज्ञानिकों एवं डॉक्टरों के हैं उन्हें अस्पताल जाने की औसत आवश्यकता लगभग एकअनुसन्धान से प्राप्त निष्कर्षों का वर्णन करने के उपरान्त सामायिक | चौथाई (२६.३ प्रतिशत) रह जाती है। इसी पुस्तक में डॉ. चोपड़ा का विशेषण किया गया है। यह भी बताया गया है कि सामायिक
ने बल्डप्रेशर एवं कोलेस्टराल के आंकड़ों द्वारा भी यह बताया है ध्यान का एक विशिष्ट रूप है। सामायिक के विश्लेषण का उद्देश्य कि ध्यान करने से कोलेस्टराल का स्तर गिरता है व रक्तचाप यह भी है कि हम सामायिक को एक रूढ़ि की तरह न करते हुए सामान्य होने लगता है। हृदय रोग के आंकड़े बताते हुए डॉ. उसको समझकर करें ताकि उसका आध्यात्मिक एवं भौतिक लाभ | चोपड़ा लिखते हैं कि अमरीका में हृदयरोग के कारण अस्पतालों तत्काल ही हमारे जीवन में दृष्टिगोचर हो सके।
में प्रवेश की औसत आवश्यकता ध्यान न करने वालों की तुलना २. आधुनिक विज्ञान एवं ध्यान
में ध्यान करने वालों को बहुत कम, मात्र आठवां भाग (१२.७ अमरीका के प्रिंसटन विश्वविद्यालय की एक वैज्ञानिक
प्रतिशत) होती है। इसी प्रकार कैंसर के कारण अस्पताल में भर्ती डॉ. पैट्रिशिया पैरिंगटन ने ध्यान मग्न अवस्था में कई व्यक्तियों पर
होने की आवश्यकता ध्यान न करने वालों की तुलना में लगभग कई प्रयोग इन वर्षों में किए। उनके निष्कर्ष उनके द्वारा लिखित
आधी (४४.६ प्रतिशत) होती है। डॉ. चोपड़ा लिखते हैं कि आज पुस्तक 'फ्रीडम इन मेडिटेशन' में देखे जा सकते हैं। डॉ. पैरिंगटन
तक ध्यान के मुकाबले में ऐसी कोई रासायनिक औषधि नहीं बनी ने सिद्ध किया कि ध्यान से ब्लडप्रेशर सामान्य होता है, कोलेस्टराल
है जिससे हृदय रोग या कैंसर की इतनी अधिक रोकथाम हो ठीक होता है, तनाव कम हो जाता है, हृदय रोगों की सम्भावना
| जाये। १९८० से १९८५ के एक ही चिकित्सा बीमा कम्पनी के कम हो जाती है, याददाश्त बढ़ती है, डिप्रेशन के रोगी को भी
सभी उम्रों के ६ लाख सदस्यों के आंकड़ों के विश्लेषण से यह भी लाभ होता है इत्यादि ...... इत्यादि।
ज्ञात हुआ कि ध्यान न करने वालों की तुलना में ध्यान करने वालों अमरीका के ही उच्चकोटि के वैज्ञानिक डॉ. बेनसन ने भी
| को डॉक्टरी परामर्श की औसत आवश्यकता आधी रही। इस प्रकार के परिणाम उनके अनुसंधान कार्यों द्वारा प्राप्त की।
इस प्रकार के अनुसन्धान से प्रभावित होकर ही अमरीका अमरीका के डॉ. राबर्ट एन्थनी ने इनकी पुस्तक 'टोटल | क कई
| के कई डॉक्टर कई बीमारियों के उपचार हेतु दवा के नुस्खे के सेल्फ कॉन्फिडेंस' में ध्यान के २४ भौतिक लाभ गिनाने के बाद
साथ ध्यान का नुस्खा भी लिखने लगे हैं। ध्यान के नुस्खे के यह बताया कि ये सब लाभ तो साइड इफेक्ट,यानी अनाज के
अन्तर्गत रोगी को ध्यान सिखाने वाले विशेषज्ञ के पास जाना होता उत्पादन के साथ घास के उत्पादन की तरह हैं। मूल लाभ तो यह
है जो ध्यान सिखाने की फीस लगभग ६० डालर प्रतिघण्टा की दर है कि आप ध्यान द्वारा अपनी आन्तरिक शक्ति के नजदीक आते
से लेता है। अमरीका की कई चिकित्सा बीमा-कम्पनियाँ ध्यान हो। डॉ पथनी ने जो २४ लाभ मिनाजसोनाली पर होने वाले रोगी के इस खर्चे को दवा पर होने वाले खर्चे के रूप मुक्ति, ड्रग एवं नशे की आदत से छुटकारा पाने में आसानी,
| में मानने लगी हैं व इसकी भरपाई करती हैं। अवस्थमा से राहत, ब्लडप्रेशर, कैंसर, कोलेस्टराल, हृदयरोग आदि
अधिक क्या कहें, यहाँ तक कि डॉक्टरों के संगठन में लाभ सम्मिलित है।
'अमरीकन मेडिकल एशोसिएशन' ने ८३२ पृष्ठों की एक पुस्तक डॉ. आरनिश (अमरीका) ने उनकी पुस्तक 'रिवर्सिंग
'फैमिली मेडिकल गाइड' लिखी है जिसमें पृ. २० पर विस्तार से हार्ट डिजीज' में ध्यान का महत्त्व विस्तार से स्वीकार किया है। वे
यह बताया है कि जीवन को स्वस्थ बनाये रखने के लिए नियमित यह प्रचारित करते हैं कि हृदय रोग की बीमारी ध्यान से ठीक हो | ध्यान करना चाहिए। पुस्तक के एक अंश का हिन्दी अनुवाद 20 अक्टूबर 2003 जिनभाषित
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निम्नानुसार होगा :
इसी प्रकार दूसरी प्रतिमा व्रतप्रतिमा है। इस प्रतिमा के ___'ध्यान करने की कई विधियाँ हैं किन्तु सभी का एकमात्र | अन्तर्गत ५ अणुव्रत, ३ गुणव्रत एवं ४ शिक्षाव्रत, इस प्रकार १२ लक्ष्य है दिमाग को घबराहट एवं चिन्ताजनक विचारों से शून्य | व्रत होते हैं। आचार्य समन्तभद्र ने सामायिक को ४ शिक्षाव्रतों में करके शांत अवस्था प्राप्त करना।
से एक शिक्षाव्रत बताया है। परम्परा यह भी है कि अव्रती श्रावकों कई संस्थाएँ एवं समूह ध्यान करना सिखाते हैं किन्तु यह को भी यह प्रेरणा दी जाती है कि चाहे वे व्रती श्रावकों की तरह आवश्यक नहीं है कि आप वहाँ जाकर ध्यान करना सीखें। अधिकांश | नियमित सामायिक न करें किन्तु यथासम्भव सामायिक अवश्य व्यक्ति अपने आप ही ध्यान करना सीख सकते हैं। निम्नांकित | करें। सरल विधि को आप अपना सकते हैं :
सामायिक की इस चर्चा का उद्देश्य यह है कि जो सामायिक १. एक शान्त कमरे में आराम से आँख बन्द कर कुर्सी पर | करते हैं या कर रहे हैं उनको सामायिक की विशेषाताएं भलीऐसे बैठो कि पाँव जमीन पर रहे व कमर सीधी रहे।
भांति ज्ञात हो सकें ताकि सामायिक में व्यतीत किए गए समय का २. कोई शब्द या मुहावरा ऐसा चुनो जिससे आपको उन्हें पूरा-पूरा लाभ मिल सके। इसके अतिरिक्त इस लेख का भावनात्मक प्रेम या घृणा न हो। आप अपने होंठ हिलाए बिना मन | उद्देश्य यह भी है कि जो सामायिक नहीं कर रहे हैं वे भी पूर्ण रूप ही मन इस शब्द का उच्चारण बार-बार दुहराओ। शब्द पर ही पूरा | से या आंशिक रूप से, अपनी क्षमता एवं परिस्थिति के अनुसार, ध्यान दो, शब्द के अर्थ पर ध्यान नहीं देना है। इस प्रक्रिया को | सामायिक जैसे बहुमूल्य रत्न को अपनाकर अपना आत्मिक एवं करते हुए यदि कोई विचार या दृश्य दिमाग में आए तो सक्रिय | शारीरिक स्वास्थ्य सुधार सकें। होकर उसे भगाने का प्रयास मत करो एवं उस दृश्य या विचार पर | सामायिक प्रक्रिया में निम्नांकित चरण होते हैं : अपना ध्यान भी केन्द्रित करने का प्रयास मत करो। किन्तु बिना १. प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचना व समता भाव होंठ हिलाए आप मन ही मन जो शब्द बोल रहे हो उसकी ध्वनि
२. वन्दना व स्तवन पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करो।
३. कायोत्सर्ग एवं मन्त्र जाप ३. इस प्रक्रिया को प्रतिदिन दो बार ५-५ मिनट तक एक
प्रचलित सामायिक पाठ में इन सबका समावेश स्पष्ट दिखाई सप्ताह के लिए या जब तक कि दिमाग को अधिक समय के लिए | देता है। उक्त तीन चरणों में प्रथम दो चरण अन्तिम चरण की प्राप्ति विचार-शून्य करने के लिए प्रवीण न हो जाओ तब तक करो
| की तैयारी हेतु हैं। तीसरा चरण यदि बीजारोपण है तो प्रथम एवं तत्पश्चात् ध्यान की अवधि धीरे-धीरे बढ़ाओ। शीघ्र ही देखोगे कि
द्वितीय चरण भूमि को नर्म एवं नम बनाने हेतु हैं। सामायिक पाठ आप २०-२० मिनट के लिए ध्यान करने में समर्थ हो गए हो।
का मुख्य उद्देश्य प्रथम दो चरणों द्वारा व्यक्ति के तनाव को कम कुछ व्यक्तियों को शब्द के आश्रय के बदले किसी चित्र
| करना है। विकल्पों के जाल से बंधा व्यक्ति सीधे कायोत्स्यग एवं या मोमबत्ती आदि वस्तु का आश्रय लेना सरल लगता है। महत्त्वपूर्ण
जाप में प्रवेश करने में कठिनाई अनुभव करता है। सामायिक पाठ बात यह है कि इस प्रकार के किसी भी शांत ध्यान से दिमाग को | की निम्नांकित पंक्तियों पर विचार करना उपयोगी होगा। विचारों एवं चिन्ताओं से रिक्त करना।'
जो प्रमादवशि विराधे जीव घनेरे। उक्त वर्णन अमरीकन मेडिकल एशोसिएशन ने दिया है।
तिनको जो अपराध भयो मेरे अघ ढेरे॥ अन्य कई विशेषज्ञों के वर्णन भी अन्यत्र देखे जा सकते हैं। अब
सो सब झूठो होउ जगतपति के परसादै। हम उस विधि की चर्चा करते हैं जो जैन संस्कृति में सामायिक |
जा प्रसाद मैं मिलै सर्व सुख दुःख न लाधै। नाम से हजारों वर्षों से प्रचलित है।
इन पंक्तियों का सन्देश यही है कि जो कुछ पाप कार्य पूर्व अनुभूति के इस विषय पर लिखा जाना अर्थहीन सा होगा। में किरावे' हो जाबडा अजीब लाता जो कार्य यानी मुनि के दासानुदास की पंक्ति को मेरे जैसा सामान्य गृहस्थ | है. वह तो हो चका है, वह झूठा कैसे होगा? यहाँ जैनदर्शन कहता इस विषय में लिखने में असमर्थ है। अत: गृहस्थों के लिए सामायिक
| है कि जो तुझसे हुआ उसमें तू तो निमित्त मात्र था। तू उन किए गः की चर्चा करना ही इस लेख में अभीष्ट है।
कार्यों का स्वामी अपने आपको मानता है यह तुम्हारी बड़ी गलती गृहस्थों की ग्यारह प्रतिमाओं में तीसरी सामायिक प्रतिमा | है। पूर्वकत अच्छे कार्य का अहंकार एवं बुरे कार्यों का दर्द इसलिए
है कि तू उन कार्यों का कर्ता स्वयं को मान लेता है। कर्ता न बनकर दंसण वयसामाइय पोसह सचित रायभत्ते य।
मात्र निमित्त समझ लेने से अहंकार एवं दुःख हल्के हो सकते हैं, बुंभारीपरिग्गह अणमण उद्दिट्ट देसविरदो य॥
अत: ऐसी त्रुटिपूर्ण मान्यता को सामायिक के समय में झूठी भान्यता ( चारित्रपाहुड-२२) | के रूप में स्वीकारना
के रूप में स्वीकारना लाभप्रद एवं उचित है।
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पूर्वकृत कर्मों से इस प्रकार निवृत्ति पाने को आचार्य
असुहोवओगरहिदो सुहोवजुत्तो ण अण्णदवियम्हि। कुन्दकुन्द ने प्रतिक्रमण कहा है
होज मज्झत्थोऽहं णावधगमप्पगं झाए॥ शुभ और अशुभ अनेकविध, के कर्म पूरव जो किये। अब अगला चरण है कायोत्सर्ग एवं मन्त्र-जाप का। उनसे निवर्ते आत्म को, वो आतमा प्रतिक्रमण है। | कायोत्सर्ग ही सच्ची ध्यान की अवस्था है। विकल्पों को तोड़ने का
समयसार नाटक ३८३ | विकल्प एवं भक्तिभाव का विकल्प भी इस चरण में न्यून हो जाता इसी प्रकार सामायिक के अन्तर्गत प्रत्याख्यान का अर्थ | है। अपनी काया से भी पृथक मात्र अपने चेतन-तत्त्व में स्थित होता है भविष्य के समस्त कार्यों से निवृत्ति, यानी भविष्य के | होने का यह अवसर है। कायोत्सर्ग का अर्थ मात्र कायोत्सर्ग पाठ संभावित कार्यों का भी अपने आपको कर्ता न मानकर निमित्त | पढ़ना नहीं है। भोजन बनाने की विधि पढ़ने मात्र से भोजन नहीं मानना । निमित्त की मान्यता स्वीकारते ही हमारी भावी कार्यसूची | बनता है। आचार्य अमृतचन्द्र का निम्नांकित कथन विशेष ध्यान का भार कम हो जाता है। ज्ञानी को प्रति समय ऐसा ज्ञान रहता है। | देने योग्य हैअज्ञानी किन्तु जिज्ञासु साधक कम से कम कुछ मिनट के लिए
अयि कथमपि मृत्वा तत्त्वकौतूहलीसन्। अपने आगामी कार्य के बोझ को सामायिक के समय उतारता है।
ननुभव भवमूर्तेः पार्श्ववर्ती मुहूर्तम्॥ वर्तमान के कार्यों का कर्ता न मानना आलोचना कहलाता
(समयसार कलश-२३) है। प्रत्याख्यान व आलोचना के सम्बन्ध में भी इस प्रकार की
इस कलश में आचार्य अमृतचन्द्र अज्ञानी जिज्ञासु को उपदेश विवेचना समयसार में आचार्य कुन्दकुन्द ने की है।
देते हुए प्रेरणा दे रहे हैं कि अरे भाई ! तू तत्त्वों का कौतूहली
होकर, यानी नाटक के रूप में ही सही, अपने आपको मृत मानकर समताभाव के अन्तर्गत साधक यह स्वीकारता है कि कोई
एक मुहूर्त के लिए अपने शरीर का पड़ोसी अनुभव कर। भी पदार्थ या व्यक्ति बुरा नहीं है। समस्त पदार्थों एवं व्यक्तियों से
इस कायोत्सर्ग के काल को महर्षि महेश योगी की भाषा मोह, द्वेष, कम से कम सामायिक के काल में छोड़ने का संकल्प
में भावातीत ध्यान कहा जा सकता है। कर्म सिद्धान्त की भाषा में इस प्रक्रिया में होता है। आचार्य योगीन्दु देव कहते हैं
इस काल में पाप कर्मों का पुण्य में संक्रमण व कई कर्मों की राग-द्वेष दो त्यागकर, धारे समताभाव।
निर्जरा सम्भव है। आधुनिक वैज्ञानिक भाषा में यह कहा जा यह सामायिक जानना, भाडं जिनवर राव।
सकता है कि मन, वाणी एवं शरीर को विश्राम मिल गया है, बुध महाचन्द्र कृत सामायिक पाठ में बहुत ही सुन्दर शब्दों
आक्सीजन की खपत कम हो गई है, ब्लडप्रेशर सामान्य होने की में कहा है
दिशा में अग्रसर हो गया है, शरीर के समस्त पुों का भटकाव इस अवशर में मेरे सब सम कंचन अरु त्रण।
रुकने से शरीर के पुर्जे स्वस्थ मार्ग की ओर बढ़ने लगे हैं । दार्शनिक महल मसान समान शत्रु अरु मित्रहिं सम गण॥
जे. कृष्णमूर्ति की भाषा में यानी सावधान किन्तु प्रयासरहित अवस्था जामन मरण समान जानि हम समता कीनी।
की उपलब्धि है। आचार्य अमृतचन्द्र की भाषा में विकल्पजाल से गायक का कालाजत यह भाव नवाना॥१३॥ | रहित साक्षात् अमृत पीने वाली अवस्था है। यह विश्व के ऊपर आचार्य कन्दकुन्द प्रवचनसार में समस्त अन्य द्रव्यों के | तैरने वाली अवस्था है जिसमें न तो कर्म किया जा रहा होता है प्रति माध्यस्थ भाव रखते हुए मात्र अपने आत्म-तत्त्व को ध्यान | और न ही प्रमाद होता है। अध्यात्म की भाषा में ध्यान, ध्याता एवं की प्रेरणा देते हैं
ध्येय में अभेदपने की अवस्था है। भक्ति की भाषा में ... पापं जो सिद्धभत्तिजुतो उवगृहणगो दु सव्वधम्माणं। क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजां'। सो उवगृहणकारी सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो॥
यहाँ एक प्रश्न यह उपस्थित हो सकता है कि क्या इस इतना सब मस्तिष्क में प्रवेश करने पर एवं सामायिक के | स्तर की सामायिक हमसे सम्भव है? इसका उत्तर यही है कि समय संकल्पपूर्वक इतना सब स्वीकारने की उत्कट भावना से प्रारम्भ में कठिन होता है। इसमें अभ्यास की आवश्यकता है। हमारे तनाव कुछ ही मिनट में हल्के हो सकते हैं। इससे अगले | प्रारम्भ में विकल्प अधिक आते हैं किन्तु विकल्पों से थोड़ा भी चरण में तीर्थंकरों की वन्दना व स्तवनपूर्वक भक्ति के भावों से रहा। परेशान होने की आवश्यकता नहीं है। जैसे ही लगे कि विकल्प में सहा तनाव या विकल्पों का जाल भी कुछ समय के लिए हमारे हम उलझ गये हैं वैसे ही प्रभुनाम के मन्त्र के सहारे पर मन लगाना मानस पटल से अदृश्य सा हो सकता है। भक्ति में ऐसी सामर्थ्य है। | चाहिए। ज्यों-ज्यों ज्ञाता-द्रष्टा भाव यानी साक्षीभाव विकल्पों के आचार्य कुन्दकुन्द समयसार में ये ही भाव निम्नानुसार व्यक्त करते |
| प्रति अपनाते रहेंगे त्यों-त्यों हमारी सामर्थ्य बढ़ती जायेगी। ५ मिनट से प्रारम्भ करते हुए कायोत्सर्ग का काल कुछ महीनों के
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अभ्यास के बाद २०-२५ मिनट तक बढ़ाया जा सकता है। ऐसा । प्रवचनसार में कहते हैंसम्भव है, इस बात की पुष्टि पूर्व वर्णित अमरीकन मेडिकल
नाहं देहो न मनो न चैव वाणी न कारणं तेषां। ऐशोसिएशन की पुस्तक भी करती है।
कर्ता न न कारयिता अनुमन्ता नैव कर्तृणाम्॥ इतना सब पढ़ने के बाद ऐसा भी किसी को लग सकता है
(प्रवचनसार संस्कृत छाया-१६०) कि ऐसा वर्णन तो मुनियों के लिए सुनने में आता है। गृहस्थ
इसका भावार्थ यह है कि मैं न शरीर हूँ, न मन हूँ, न वाणी अवस्था में इतना कैसे सम्भव हो सकता है? इसका उत्तर स्वयं
हूँ, न इनका कारण हूँ, न इनका कर्ता हूँ, न कराने वाला हूँ, और अनुभव करके या शास्त्रों से प्राप्त किया जा सकता है। आचार्य
न ही करने वाले की अनुमोदना करने वाला हूँ। इस प्रकार के ज्ञान समन्तभद्र रत्नकरण्डश्रावकाचार में स्पष्ट रूप से लिखते हैं -
एवं आस्था से सामायिक प्रतिक्रमण आदि, भाव जाग्रत होना सामयिके सारम्भाः परिग्रहा नैव सन्ति सर्वेऽपि। सरल हो जाते हैं एवं इससे विकल्पों में कमी अधिक सरलता से चेलोपसृष्टमुनिरिव, गृही तदा याति यतिभावम्।।
की जाती है। भौतिकवादी को इसके विपरीत स्थूल विकल्पों का (रत्नकरण्डश्रावकाचार - १०२) ध्यान की प्रक्रिया में कुछ मिनट के लिए भी उपशय करना अधिक इसका अर्थ यह है कि सामायिक के समय गृहस्थ के | कठिन होता है। आरम्भ एवं परिग्रह नहीं रहते हैं अत: उस समय गृहस्थ भी ऐसे । ३. सामायिक को प्रतिदिन करने की शिक्षा एवं संस्कार ध्यानस्थ मुनि की तरह हो जाता है, जिस पर किसी ने उपसर्ग | जहाँ हजारों वर्ष से दिये जाते हों वहाँ उसमें आस्था होने पर ध्यान किया हो और कपड़े डाल दिए हों।
का कार्य भी सुगम हो सकता है। __यहाँ इतना विशेष है कि ये कथन चरणानुयोग की अपेक्षा ४. उपसंहार है। करणानुयोग की अपेक्षा गृहस्थ एवं मुनि में बहुत अन्तर रहता सारांश यह है कि हृदय रोग, ब्लडप्रेशर, अनिद्रा, तनाव, ही है।
कैंसर, एलर्जी आदि कई बीमारियों से बचाव एवं छुटकारा पाने ४. सामायिक एवं ध्यान
तथा आत्म शान्ति एवं आध्यात्मिक लाभ हेतु प्रतिदिन एक-दो आधुनिक प्रचलित ध्यान में किसी शब्द या चित्र या दृश्य बार, एक-दो घड़ी के लिए एकान्त में बैठकर शरीर, मन एवं के सहारे या बिना किसी सहारे अपने मस्तिष्क को विकल्पों से वाणी को एक साथ विश्राम देने का अभ्यास करना चाहिए। बचाया जाता है। सामायिक क्रिया में भी अन्ततोगत्वा निर्विकल्पता सामायिक के रूप में ऐसा करने का उपदेश जैनाचार्यों ने हजारों पर ही जोर है। फिर भी निम्नांकित तथ्य ध्यान देने योग्य हैं। वर्षों पूर्व दिया है। यही बात आज के वैज्ञानिक एवं डाक्टर भी
१. अरिहंत को ध्यानस्थ मूर्ति के दर्शन जिसने किए हैं मेडिटेशन या ध्यान की शब्दावली में कह रहे हैं। जिसका लाभ और बार-बार जिसे दर्शन करने का सुअवसर प्राप्त होता है उसके | प्रयोगों द्वारा वर्तमान में देखा जा चुका है। नाम हम चाहे जो दें, लिए ध्यान की दशा की प्राप्ति अधिक सरल हो सकती है। मेडिटेशन कहें या भावातीत ध्यान कहें, प्रेक्षाध्यान कहें या
२. माना कि धन १०० रु. है और धन १०० रु. है, इन | सामायिकध्यान कहें, महत्त्वपूर्ण यह है कि इसे हम जीवन में दोनों में बहुत अन्तर है। अध्यात्म में यह मानने की आवश्यकता | भौतिक एवं आत्मिक लाभ हेतु अपनाएँ। नहीं होती है कि मैं देह, मन, वाणी आदि से भिन्न हूँ। अध्यात्म में तो इसे एक सच्चाई के रूप में स्वीकारा जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द
विवेकानन्द कॉलोनी, उज्जैन (म.प्र.)
विषयासक्त चिन्तानां, गुण: को वा न नश्यति।
न वैदुष्यं न मानुष्यं नाभि जात्यं न सत्यवाक्॥ भावार्थ - विषयासक्त मनुष्य के प्रायः सभी गुणों की इति श्री हो जाती है अर्थात् ऐसे मनुष्यों में विद्वता, मनुष्यता, कुलीनता, और सत्यता आदि एक भी गुण नहीं रहते हैं।
पराधनजाद दैन्यात, पैशून्यात परिवादतः।
पराभवात्कि मन्येभ्यो, न विभेति हि कामुकः॥ भावार्थ- विषयासक्त मनुष्य दूसरे की खुशामद से उत्पन्न दीनता, चुगली, निन्दा और तिरस्कार से नहीं डरता फिर और बातों से क्या डरेगा ? अर्थात् नहीं डरेगा।
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पशु बलि का औचित्य?
मेनका गांधी कुछ समय पूर्व तमिलनाडु की मुख्यमंत्री को तिरुचिरापल्ली । के मंदिर के पुजारी का काम गांव वालों की दान-दक्षिण से चल में एक मंदिर में 1500 भैसों की बलि देने की बात पता चली। | जाता था। अब मंदिरों के पास ही फल-फूल कौर मिठाई वालों उस समारोह की अध्यक्षता एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने की थी | की दुकानें भी लग गई हैं, जो सिर्फ विशेष अवसरों पर ही खुलती कई अन्य राज्यों की भांति तमिलनाडु में भी पशु बलि को रोकने | हैं। गांवों में मंदिरों को उतना चढ़ावा नहीं आता कि पुजारी अपना का कानून है। अभी तक किसी राज्य ने उसकी तरफ कोई ध्यान काम चला सकें। अब विशेष अवसरों पर पुजारी मंदिर में आने नहीं दिया है। जयललिता ने जिला कलक्टरों, पुलिस अधीक्षकों वाले चढ़ावे को उन्हीं दुकानों पर वापस बेच कर अपनी अतिरिक्त
और महानिरीक्षकों की बैठक बुलाई। उस समारोह में भाग लेने जुगाड़ कर लेते हैं। यही नहीं, पुजारी यह भी कहते हैं कि ग्रामदेवी वाले पुलिस अधिकारी को निलम्बित कर दिया और पशु बलि पर | ने उन्हें दर्शन देकर पशु बलि की मांग की है अन्यथा वारिश नहीं रोक लगाने के आदेश जारी किए। यह देश में पशुओं के प्रति । होगी या कोई बड़ा अनिष्ट हो जाएगा। वे बताते हैं कि किस-किस क्रूरता निवारण के प्रयासों को काफी समय बाद मिली एक बड़ी गांव में ग्राम देवी के क्रोध से क्या-क्या विपदा आई। अंधविश्वास सफलता है।
के कारण ग्रामीण इस प्रपञ्च में फंस जाते हैं। कई बार पुजारियों सभी आधुनिक समाजों ने बलि की प्रथा को छोड़ दिया | के गांव के साहूकारों से अच्छे सम्बन्ध होते हैं। गांव वाले अपनी है। भारत में तो बीसवीं सदी में यह कम होने की बजाए बढ़ी ही | जमीन या फसल का कुछ हिस्सा गिरवी रख पशुबलि का इंतजाम है। मुस्लिम समाज में मनाई जाने वाली बकरीद पर इतने बकरे | करते हैं। बलि का एक हिस्सा पुजारी को मिलता है, जिसे वह नहीं कटते होंगे, जितने कि हिन्दुओं के मंदिरों में बलि चढ़ाई कसाई को बेच देता है। अगर गांव पर कोई विपदा नहीं आई तो जाती है। बहुत से इलाकों में ग्राम देवता को खुश करने के लिए इसका मतलब हुआ कि पशु बलि से ग्रामदेवी प्रसन्न हो गई। वलि दी जाती है । महाकाली के समक्ष बलि देना तो और भी आम | अगर फिर भी विपदा आ गई तो इसका मतलब हुआ कि पशु बात है। आदिवासी समुदाय इनमें सबसे आगे हैं। यह और भी | बलि पर्याप्त नहीं थी, ग्रामदेवी को प्रसन्न नहीं किया जा सका। दो बुरी बात इसलिए है क्योंकि वे जिन पशुओं की बलि देते हैं उनमें | चार बार ऐसा होने पर यह पशुबलि गांव की 'परम्परा' बन जाती अनेक की गणना तो अब दुर्लभ प्रजातियों में की जाती है। उड़ीसा | है। कई बार अन्य कारणों से भी गांव वाले देवी-देवताओं को में सिमलीपाल के सुरक्षित अभयारण्य में बिना किसी धार्मिक | प्रसन्न करना जरूरी समझते हैं। जैसे घर में पुत्र का जन्म हो, या रिवाज के ही पशुओं को मार दिया जाता है। जहां धार्मिक रिवाज | बेटी के लिए अच्छा वर मिल जाए यासूखे कुएं में पानी आ जाए। के नाम पर ऐसा होता है, उसके पीछे भी मांस विक्रेताओं और | गांव के पुजारी और साहूकार इन बातों को प्रोत्साहन देते हैं ताकि पशुओं की खाल को बेचने वाले तत्वों की पर्दे के पीछे मिलीभगत | उनकी आमदनी बढ़ सके। साहूकार से पैसा लेकर ग्रामीण कर्ज होती है।
के भंवरजाल में फंस जाते हैं। बहुधा कुछ और न होने पर वे कुछ वार्षिक समारोह तो ऐसे हैं, जिनमें किसी एक ही | अपनी जमीन को गिरवी रख देते हैं। चूंकि पशु-बलि की घटनाएँ नस्ल के पशुओं की शामत आ जाती है उदाहरण के लिए कर्नाटक ज्यादातर ऐसे समय में होती हैं जो सूखे का हो, या फिर फसल में मकर संक्रांति के दिन लोमडियों की पिटाई की जाती है और पकी नहीं हो तो बेचारे ग्रामीणों के पास अपनी भूमि या फसल के फिर उनको मार दिया जाता है। नाग पंचमी के दिन सांपों की हिस्से को गिरवी रखने के सिवाए और कोई चारा नहीं होता। शामत आ जाती है। लाखों सांप मारे जाते हैं। सपेरे उन्हें बिलों से | अध्ययनों से पता चलता है कि गांवों में किसानों पर लदे ऋण भार निकाल लेते हैं। महीनों बास्केट में बंद कर रखते हैं और नाग | में एक बड़ा हिस्सा तो पशु बलि देने के कारण लिए गए कर्ज का पंचमी के दिन शहरों में घर-घर घूम कर उन्हें दिखाते हैं और दूध । है। कर्जे के भार से किसान की जमीन उससे छिन जाती है उसके पीने को बाध्य करते हैं। हर वर्ष यही होता है और इसका लाभ समक्ष बड़े भूस्वामियों के यहां खेत मजदूर के रूप में काम करने सांपों की खाल के व्यापारी उठाते हैं, जो उनकी खाल उतार कर | के सिवाए कोई विकल्प नहीं बचता। इसलिए पशु बलि से देवताओं बटुए और जूते बनाते हैं। हकीकत तो यह है कि पशुओं की बलि | के प्रसन्न हो जाने की बात एक ढकोसले से ज्यादा कुछ नहीं हैं। देने के काम से व्यापारिक हित जुड़ गए हैं। पुराने जमाने में गांव
लेखिका केन्द्र में राज्यमंत्री रही हैं।
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जिज्ञासा-समाधान
हैं?
पं. रतल लाल बैनाड़ा जिज्ञासा-वृहद्र्व्य संग्रह गाथा-41 की टीका में श्री । तब वे भगवान् के समवशरण में गिरनार पर्वत पर गये। वहाँ ब्रह्मदेवसूरी ने बज्रकुमार नामक विद्याधर को श्रमण लिखा है। ये | दिव्यध्वनि सुन संसार से भयभीत हो दीक्षा लेकर तपश्चरण करने बज्रकुमार मुनि की कथा है। तो क्या मुनिराज विद्याधर हो सकते लगे। तभी एक दिन रात्रि को सोमशर्मा नाम का ब्राह्मण, जो अपनी
पुत्री के त्याग के कारण अत्यन्त क्रोधित था, वह उन मुनिराज समाधान-आपने जो प्रश्न किया वह उचित ही है। इस गजकुमार के शिर पर तीब्र अग्नि प्रज्जवलित करने लगा। उस अग्नि संबंध में 2 प्रश्न उठते हैं।
से उनका शरीर जलने लगा और उसी अवस्था में वे शुक्ल ध्यान 1.क्या मुनिराज विद्याधर हो सकते हैं।
के द्वारा कर्मों का क्षय कर अन्तकृत केवली हो मोक्ष चले गये। 2. क्या मुनिराज को इस प्रकार आकाश में जैन रथ भ्रमण इस कथा के अनुसार उस समय गजकुमार एक दम नवयुवा कराकर प्रभावना कराना उचित है, जबकि उस काल में भट्टारकों | थे, इसलिए हमको ऐसा लगता है कि उनको अल्पायु मिली । मेरे का सद्भाव नहीं था।
| इसी प्रश्न के उत्तर में पूज्य आचार्य विद्यासागर जी महाराज ने इन दोनों प्रश्नों के समाधान के लिए हमें बज्रकुमार मुनि की | समाधान दिया था कि इस नवयुवा आयु को अल्प आयु नहीं कहा कथा का श्री रत्नकरण्डश्रावकाचार गाथा-20 की, श्री प्रभाचन्द्राचार्य | जाता है। 8 वर्ष अर्तमुहूर्त की आयु में तो जीव संयम धारण कर, निर्मित टीका को देखना चाहिए, जो इस प्रकार है
केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त कर सकता है । अत: 8 वर्ष अन्तर्मुहूर्त 'फाल्गुन मास की नन्दीश्वर यात्रा में उर्विला (जैन रानी)ने | से कम आयु को अल्पायु मानना चाहिए। तद्नुसार गजकुमार रथयात्रा की तैयारी की। उसे देख उस बौद्ध पटरानी ने राजा से कहा | महामुनि को अल्पायु प्राप्त करने वाला नहीं कहा जा सकता। कि देव, मेरा बुद्ध भगवान का रथ इस नगर में पहले घूमे। राजा ने | प्रश्नकर्ता- एच.डी. वोपलकर, उस्मानावाद । कह दिया कि ऐसा ही होगा। तद्नन्तर उर्विला ने कहा कि यदि मेरा | जिज्ञासा - लोक के निचले एक राजू भाग में निगोदिया रथ पहले घूमता है तो मेरी आहार में प्रवृत्ति होगी, अन्यथा नहीं। जीव ही रहते हैं या अन्य स्थावर जीव भी। आगम प्रमाण उत्तर ऐसी प्रतिज्ञा कर वह क्षत्रिय गुहा में सोमदत्त आचार्य के पास गई। | दीजिए? उसी समय बज्रकुमार मुनि की वंदना भक्ति के लिए दिवाकर देव | समाधान - लोक के निचले एक राजू भाग में, जिसे आदि विद्याधर आए थे। बज्रकुमार मुनि ने यह सब वृतांत सुनकर | अकलंक स्वामी ने राजवार्तिक में कलकला भूमि कहा है, पाँचों उन विद्याधरों से कहा कि आप लोगों को प्रतिज्ञा पर आरूढ़ उर्विला स्थावर जीव पाये जाते हैं। यह तो आपको ज्ञात ही होगा कि की रथयात्रा कराना चाहिए। तद्नन्तर उन्होंने बुद्ध दासी का रथ | निगोदिया जीव वनस्पतिकाय में ही गर्भित होते हैं। अन्य चार तोड़कर बड़ी विभूति के साथ उर्विला की रथयात्रा कराई। । स्थावरों में निगोदिया जीव नहीं होते। नीचे के एक राजू में पंच
(टीका-पं. पन्नालाल जी, सागर) स्थावर होते हैं इसके आगम प्रमाण इस प्रकार हैंउपरोक्त कथा के पढ़ने पर हमें उपर्युक्त दोनों प्रश्नों का 1. स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा- 120 की टीका में इस समाधान मिल जाता है । इस कथा में बज्रकुमार मुनि को विद्याधर नहीं प्रकार कहा हैकहा है और न ही उन्होंने स्वयं आकाश में रथ भ्रमण कराया था।
तस्मादधोभागे रज्जुप्रमाणक्षेत्रं भूमिरहित विद्याओं का त्याग नहीं करने पर, विद्याधरों के केवल। से
निगोदादिपचस्थावरभृतं च तिष्ठति। 5 गुणस्थान तक हो सकते हैं, इससे अधिक नहीं। जैसा कि
अर्थ- उस लोक के अधोभाग के भूमिरहित एक राजू तिलोयपण्णत्ति अधिकार-4 की गाथा 2938 में कहा है
| प्रमाण क्षेत्र में निगोद आदि पांच स्थावर जीव निवास करते हैं। विजाहरसेढीए तिगुणट्ठाणाणि सव्वकालम्मि।
2. द्रव्यसंग्रह गाथा - 35 की टीका में पृष्ठ - 133 पर श्री पणगुणठाणा दीसइ छंडिदविउजाण चौद्दसट्ठाणं॥ | ब्रह्मदेव सूरी ने भी ठीक इसीप्रकार कहा है(२९३८)
तस्माद् अधोभागे रज्जुप्रमाण क्षेत्रं भूमिरहितं अर्थ- विद्याधर श्रेणियों में सदा तीन गुणस्थान (मिथ्यात्व,
निगोदादिपन्चस्थावरभृतं च तिष्ठति। असंयत और देशसंयत) और उत्कृष्ट रूप से पांच गुणस्थान होते हैं। अर्थ- उपरोक्त प्रकार ही है। विद्याओं को छोड़ देने पर वहाँ चौदह भी गुणस्थान होते हैं। इससे 3. श्री सिद्धान्तसागर दीपक अधिकार -2 के श्लोक 7-8 स्पष्ट है कि बिना विद्याएं छोड़े निर्ग्रन्थ मुनिपना संभव नहीं होता। | में इस प्रकार कहा हैजिज्ञासा - श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लोक नं. 35 के
सप्तानां श्वभ्रपृथ्वीनामधो भागेऽस्ति केवलम्। अनुसार सम्यग्दृष्टि जीव अल्पायु नहीं होता। तो फिर गजकुमार
एक रज्जूप्रभं क्षेत्रं पृथिवीरहितंभृतम्॥7॥ मुनिराज का निर्वाण अल्पायु में क्यों हुआ?
नानाभेदैनिकोदादिपन्चस्थावरदेहिभिः ॥8॥ समाधान - श्री हरिवंशपुराण सर्ग-61, श्लोक नं. 2 से 7 अर्थ- सातों नरक पृथ्वियों के नीचे एक राजू प्रमाण क्षेत्र के अनुसार जब गजकुमार के विवाह के प्रारंभ का समय आया था | नरक पृथ्वी से रहित है, उसमें केवल पन्च स्थावरों के शरीर को
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है।
धारण करने वाले नाना प्रकार के निगोद आदि स्थावर जीव रहते । शास्त्रों में भी कहा गया है। वह इसप्रकार है- अन्तर्मुहूर्त में जो
केवलज्ञान प्राप्त करते हैं वे क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती 'निर्ग्रन्थ' उपरोक्त प्रमाणों से यह स्पष्ट होता है कि लोक के निचले | नामक ऋषि कहलाते हैं। उन्हें उत्कृष्ट रूप से चौदह पूर्व श्रुतज्ञान एक राजू भाग में पन्चस्थावर पाए जाते हैं। यह पूरा लोक पांच | होता है और जघन्यरूप से पांच समिति और तीन गुप्ति जितना ही प्रकार के एकेन्द्रिय जीवों से भरा पड़ा है, इसका प्रमाण इस प्रकार | श्रुतज्ञान होता है।
जिज्ञासा -छद्मस्थ किसे कहते हैं? सुहम पुढविकाइय सुहुम आउकाइय सुहुमतेउकाइय समाधान- श्री वृहद्रव्य संग्रह में छद्मस्थ शब्द का अर्थ सुहुमवाटकाइय, तस्सेव पज्जत्ता अपज्जत्ता सत्थाणेण समुग्घादेण | इसप्रकार लिखा हैउववादेण केवडिखेत्ते ? सव्वलोगे । (धवला पु. 7)
छद्मशब्देन-ज्ञानदर्शनावरणद्वयं भण्यते, तत्र तिष्ठन्तीति सूक्ष्म पृथिवीकायिक,सूक्ष्मजलकायिक, सूक्ष्म तैजस | छद्मस्थाः कायिक, सूक्ष्मवायुकायिक इनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीव जीव | अर्थ- छद्म शब्द से ज्ञानावरण और दर्शनावरण ये दो कहे स्वस्थान समुद्घात और उपपाद से कितने क्षेत्र में रहते हैं ? उक्त जाते हैं, उसमें जो रहते है, वे छद्मस्थ हैं। अर्थात् जब तक जीव सर्वलोक में रहते हैं।
ज्ञानावरण और दर्शनावरण का उदय है, तब तक वे सभी जीव श्री कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा- 122 में इस प्रकार कहा है- छद्मस्थ कहलाते हैं। एइंदिएहिं भरिदो पंच-पयारेहिं सव्वदोलोओ।
श्री धवला पुस्तक 13, पृष्ठ-44 में छद्मस्थ की परिभाषा अर्थ - सर्वलोक पाँच प्रकार के एकेन्द्रिय जीवों से भरा
कार के एकेन्द्रिय जीवों से भरा | इस प्रकार कही हैहुआ है। कुछ स्वाध्यायी ऐसा मानते हैं कि नीचे के एक राजू भाग । 'संसरन्ति अनेन घातिकर्मकलापेन चतसृषुगतिष्विति में, केवल नित्य निगोदिया जीव ही रहते हैं। उनकी यह धारणा | घतिकर्मकलाप: संसारः । तस्मिन् तिष्ठन्तीति संसारस्था: छद्मस्थः । गलत है। एक राजू भाग में पाचों स्थावर जीव मानना चाहिये। | जिस घातिकर्म समूह के कारण जीव चारों गतियों में
जिज्ञासा - तत्वार्थसूत्र अध्याय-9 के सूत्र नं. 37 'शुक्ले संसरण करते हैं वह घातिकमसमूह संसार है। और इसमें रहने वाले चाद्ये पूर्वविदः' के अनुसार आदि के शुक्ल ध्यान पूर्वविद अर्थात् | जीव संसारस्थ या छगस्थ हैं।' छद्मस्थ चार प्रकर के होते हैंश्रुतकेवलियों के होते हैं । यदि ऐसा माना जाये तो निर्ग्रन्थ मुनियों 1. सम्यक्त्व से रहित छद्मस्थ, जिनके प्रथम, दूसरा और के अष्टप्रवचन मातृ का प्रमाण श्रुत होता है, यह कैसे घटित होगा। तीसरा गुणस्थान होता है। क्योंकि निर्ग्रन्थों के तो आदि के दो शुक्ल ध्यान होते हैं? | 2. सराग छद्मस्थ- जिनके चौथे से दशवाँ गुणस्थान तक
समाधान - सूत्र नं. 37 का अर्थ आपने ठीक ही लिखा है। | होता है। परन्तु यदि इसको उत्कृष्टता की अपेक्षा मान लिया जाये और | 3. वीतराग छद्मस्थ जो ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानवर्ती जघन्य श्रुत अष्टप्रवचन मातृका मान लिया जाये तो सूत्र नं. 47 के | मुनिराज हैं। अनुसार कोई विरोध नहीं रहता। अर्थात् फिर निर्ग्रन्थों के शुक्ल 4. कृतकृत्य छद्मस्थ - बारहवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज के ध्यान की अवस्था में जघन्य श्रुत अष्टप्रवचनमातृका प्रमाण अविरोध अन्तिम काण्डक के पतित होने पर, उनको कृतकृत्य छदमस्थ कहा को प्राप्त होता है। वास्तविकता भी यही है। सूत्र नं. 47 की टीका | जाता है। जैसा कि श्री क्षपणासार में कहा हैमें इस प्रकार कहा है
चरिमेखंडेपडिदे,कदकरणिज्जोत्तिभण्णदेऐसा ।।212।। 'दश तथा चौदह पूर्व के श्रुतज्ञान से ध्यान होता है वह भी | जिज्ञासा- तीर्थंकर प्रकृति का बंध केवली के पादमूल में उत्सर्ग वचन है। अपवाद व्याख्यान से तो पांच समिति और तीन | ही होता है या श्रुतकेवली के पादमूल में भी? गुप्ति के प्रतिपादक सारभूत श्रुतज्ञान से भी ध्यान होता है और समाधान - तीर्थंकर प्रकृति का बंध केवली के पादमूल में केवलज्ञान भी होता है । यदि ऐसा अपवाद व्याख्यान न हो तो 'तुष- | ही होता है, जिसके आगम प्रमाण इसप्रकार हैंमाप का उच्चारण करते हुए श्री शिवभूति मुनि केवलज्ञानी हो गये' तत्थ मणुस्सगदीए चेव तित्थयरकम्मस्स बंध पारंभो होदि, इत्यादि गन्धर्वाराधनादि ग्रन्थों में कहा गया व्याख्यान किस प्रकार | ण अण्णत्थेत्ति। ......... घटित होता है?'
के वलणाणोबलक्खियजीवदव्वसह कारिकारणस्स प्रश्न - श्री शिवभूति मुनि पांच समिति और तीन गुप्तियों | तित्थयरणामकम्मबंधपारंभस्स तेण विणा समुप्पत्ति विरोहादो। का प्रतिपादन करने वाले द्रव्यश्रुत को जानते थे और भावश्रुत उन्हें । अर्थ- मनुष्य गति में ही तीर्थंकर कर्म के बन्ध का प्रारम्भ पूर्णरूप से था?
होता है, अन्यत्र नहीं ....... क्योंकि अन्य गतियों में उसके बन्ध का उत्तर- ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि यदि ये पांच प्रारम्भ नहीं होता, कारण कि तीर्थंकर नामकर्म के बन्ध के प्रारम्भ समिति और तीन गुप्ति के प्रतिपादक द्रव्यश्रुत को जानते होते तो का सहकारी केवलज्ञान से उपलक्षित जीवद्रव्य है, अतएव, मनुष्यगति 'द्वेष न कर, राग न कर' इस एक पद को क्यों नहीं जानते ? अतः के बिना उसके बन्ध प्रारम्भ की उत्पत्ति का विरोध है। ज्ञात होता है कि उनको पांच समिति और तीन गुप्ति रुप आठ प्रवचन | गो.क./जी.प्र./93/78/7 मातृका प्रमाण ही भाव श्रुत ज्ञान था और द्रव्य श्रुत कुछ भी नहीं था।
1/205, प्रोफेसर कॉलोनी, यह व्याख्यान हमने कल्पित नहीं किया है, वह चारित्रसार आदि
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बोध कथा
सबसे बड़े मूर्ख की खोज
एक राज्य था सोनपुर। वहां का राजा सत्य सिंह बूढ़ा हो चला था। उसकी मृत्यु के दिन निकट थे। अपनी मृत्यु के दिन निकट देखते हुए उसने अपने बेटे अवध सिंह को राजा बना दिया। कुछ दिन बाद उसने दरबार में घोषणा करवायी 'जो व्यक्ति राज्य के सबसे बड़े मूर्ख को हमारे सामने लायेगा उसे मुंहमांगा इनाम दिया जायेगा। राज्य का कोई भी व्यक्ति इसके लिए प्रयास कर सकता है।'
बस फिर क्या था ? पूरे राज्य में हलचल मच गयी। अपना काम छोड़ मूर्खों की तलाश में निकल पड़े। कुछ लोग अपने साथ मूर्खों को लेकर दरबार में आये। मूर्खों की मूर्खतापूर्ण कारनामे और हरकतों पर राजा खूब हंसता, परन्तु बाद में लोगों को यह कहकर भगा देता - 'यह तो सामान्य सी मूर्खता है। मुझे तो राज्य के सबसे बड़े मुर्ख को तलाश है।'
अब
महीना बीत गया। इस कारण राज्य की स्थिति चौपट होने लगी। अभी तक राजा सबसे बड़े मूर्ख की तलाश में था। एक दिन एक बेहद गरीब किसान राजा के समक्ष प्रस्तुत हुआ। राजा उसके फटे कपड़ों पर नजर डालते हुए बोला- 'क्या तुमने उस मूर्ख को खोज लिया है ?' आत्मविश्वास के साथ वह किसान बोला 'हां राजन! पर शर्त यह है कि उसके कारनामे सुनने के पश्चात् ही आप कोई निर्णय लेंगे।' राजा मान गया और बोला- 'ठीक है, वताओ वह मूर्ख कौन है ?' तनिक सुस्ताते हुए किसान बोला'राज्य के सबसे बड़े मूर्ख आप स्वयं हैं राजन!' राजा क्रोध से लाल हो गया फिर भी चुप बैठा रहा। किसान कहता गया'राजन्! आप हमारे रक्षक हैं। हमारी रक्षा करना आपका कर्तव्य है, फिर भी आप राज-काज भूलकर उटपटांग बातों में अपने को उलझाये हुए हैं। लोगों की उल्टी सीधी बातों को सुनकर यहां बैठे-बैठे हंस रहे हैं। उधर राज्य की फसलें सूख रही हैं। चोर नित्य मकानों में सेंध लगा रहे हैं। पड़ोसी राज्य हम पर हमला करना चाहते हैं। क्या यही कारनामे आपको सबसे बड़ा मूर्ख घोषित नहीं करते ?"
-
राजा की आंखें शर्म से झुक गयीं। किसान की बातों में दम था। गंभीर होकर वह बोला 'हां, असल में सबसे बड़ा मूर्ख
|
तो मैं स्वयं ही हूँ।' उसने किसान को कुछ देना चहा, परन्तु गरीब किसान ने नहीं लिया। उस दिन के पश्चात् राजा ने फिर अपना ध्यान अपने राज-काज में लगा दिया।
सन्मार्ग : बी. एन. राय
माया का बंधन
एक बार एक महात्मा अपने शिष्य के साथ कहीं जा रहे थे। चलते-चलते सत्संग की बातें भी हो रही थीं। कुछ दूरी पर एक ग्वाला अपनी भैंस को रस्सी से बांधकर कहीं ले जा रहा था। भैंस जाना नहीं चाह रही थी, पर रस्सी से बंधी होने के कारण वह बेबस थी। भैंस की दशा देखकर शिष्य को दया आ गयी।
'महात्मा उस भैंस का क्या कसूर है जो कि उसे बंधन में रहना पड़ रहा है ?' शिष्य ने आतुर होकर पूछा ।
शिष्य को चिंतित देख महात्मा मुस्कुरा उठे। शिष्य को महात्मा के इस व्यवहार पर बहुत आश्चर्य हुआ ।
'महात्मन, आप मुस्कुरा रहे हैं ? क्या आपको भैंस पर दया नहीं आ रही है ?"
'मुझे तो भैंस से ज्यादा ग्वाले पर तरस आ रहा है। भैंस तो बाह्य बंधन में बंधी हुई है, पर वह ग्वाला तो माया के बंधन में जकड़ा हुआ है। बाह्य बंधन से तो कभी भी मुक्ति मिल सकती है, पर मन के बंधन से मुक्त होना असंभव है। यथार्थ में भैंस नहीं, बल्कि ग्वाला ही बंधन में जकड़ा हुआ है।' महात्मा ने शिष्य को समझाया। शिष्य को महात्मा की बातों का यकीन नहीं हुआ। कुछ ही देर बाद भैंस ने जोर लगाकर रस्सी तोड़ दी। रस्सी टूटते ही भैंस भागने लगी। ग्वाला भैंस को पकड़ने के लिए उसके पीछे-पीछे भागने लगा। आगे-आगे भैंस भाग रही थी और पीछे-पीछे ग्वाला।
महात्मा ने शिष्य को दिखलाते हुए कहा 'देखो, अब कौन असली बंधन में है भैंस, या ग्वाला ? ग्वाले की गर्दन में माया की रस्सी बंधी हुई है। यही कारण है कि वह भैंस के पीछे भागे जा रहा है। भैंस तो बंधन से मुक्त हो गयी, पर ग्वाला तो जीवन भर इस बंधन से मुक्त नहीं हो पायेगा। महात्मा की बातें सुनकर शिष्य की आँखें खुल गयीं। वह समझ गया कि माया का बंधन ही असली बंधन है।'
सन्मार्ग: पंकज राय
सदस्यों से विनम्र निवेदन
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सर्वोदय जैन विद्यापीठ
1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी हरीपर्वत, आगरा (उ.प्र.) futants - 282 002
•अक्टूबर 2003 जिनभाषित 27
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समाचार तीर्थक्षेत्र बहोरीबंद में वृक्षा रोपण जीवन स्तर में सुधार हेतु चल रहे एक अनूठी मुहिम की एक
श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र बहोरीबंद में विराजमान | कड़ी मात्र हैं। परम पूज्य संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर महाराज के परम
लगभग एक वर्ष पूर्व इस मुहिम की शुरूआत मुनि श्री को शिष्य मुनि श्री समतासागर जी, मुनि श्री प्रमाण सागर जी एवं
मण्डला के वीरान जंगलों में तपस्या हेतु पहुंचने से हुई और उनके ऐलक श्री निश्चयसागर जी महाराज की प्रेरणा तथा आशीर्वाद से
आने से समीपवर्ती आदिवासी ग्रामों में श्रद्धा की लहर दौड़ गई। शांतिवन में सघन वृक्षारोपण का कार्यक्रम रखा गया है। पर्यावरण
जंगल में दर्शनार्थ पहुंचने वाले आदिवासियों का तांता लग गया। को साफ सुथरा बनाये रखने तथा मंदिर परिसर को हरा भरा बनाने
तभी आदिवासियों की बदहाली एवं पिछड़ेपन पर ध्यान देते हुये के उद्देश्य से 101 वृक्षों का रोपण अनेक धर्माबलंबी बन्धुओं द्वारा
मुनि श्री ने पाया कि इसके आर्थिक पिछड़ेपन का मूल कारण किया गया है तथा ऐसे ही कई और वृक्षों को लगाने का संकल्प।
है नया ही कई और वनों को लगाने का संकल्प। शराब है, जो उन्हें निम्नतम स्तर का जीवन जीने पर विवश कर मुनि श्री के समक्ष सभी ने लिये। कार्यक्रम का शुभारंभ विश्व
रही है। हिन्दू परिषद के प्रदेश महामंत्री पंडित राधिका प्रसाद मिश्र एवं
मुनि श्री ने आदिवासियों के मन में उपजी श्रृद्धा के माध्यम बहोरीबंद थाना प्रभारी श्री चौधरी जी ने किया।
से उनके जीवन स्तर में परिवर्तन लाने, शराब बंदी की मुहिम छेड़ इस अवसर पर गीत प्रार्थना के साथ मुनिश्री के मंगल
| दी। जूना मण्डला से प्रारंभ होकर 89 गाँवों तक फैले इस अभियान प्रवचन भी हुये एवं मुनि श्री के प्रवचन रविवार एवं मंगलवार को
में झिंगाटोला, छिवलाटोला, सिमरिया, बर्राटोला, तिलईपानी, होते हैं। बहोरीबंद क्षेत्र के अध्यक्ष सिंघई केवल चंद एवं केन्द्रीय
हिरनाही टोला, छपरी गुणाजनिया, माराबारू उन ग्रामों के नाम हैं कोयला मंत्री श्री प्रहलाद पटेल ने भी वृक्षारोपण किया।
जिनके बच्चों से लेकर बूढ़े सभी शराब बंदी हेतु संकल्पित हो स्वपनिल साहूकार
| चुके हैं । शत् प्रतिशत शराब बंदी वाले इन गाँवों को आदर्श ग्राम
बाकल (कटनी) | घोषित किया गया है। संत ने बदली आदिवासियों की जीवन धारा
आदिवासियों के उद्धार में शासन प्रशासन भी खासा तकरीबन दस हजार लोगों से भरे पंडाल में आदिवासी | उत्साहित होकर मुनि श्री के साथ आ खड़ा हुआ, और वनराज्य एवं पिछड़े से दिखते वहाँ सौ से अधिक लोग मंच की ओर बढ़ते मंत्री श्री देवेन्द्र टेकाम एवं कलेक्टर संजय शुक्ला ने शराब बंदी हैं, उनके हाथों में मछली को पकड़ने में प्रयुक्त होने वाले जाल, वाले सभी ग्रामों (आदर्श घोषित ग्रामों) को विकासशील बनाने मंच पर दो दिगम्बर जैन संत नासाग्र दृष्टि किये हुय निर्लिप्त भाव से
के प्रयास प्रारंभ कर दिये है। इस दिशा में प्रथम आदर्श ग्राम जूना बैठे हुये हैं, वहीं दूसरी ओर राजस्थान के राज्यपाल महामहिम श्री मण्डला में गत दिनों में सम्पन्न एक कार्यक्रम के दौरान सामुदायिक निर्मल चंद जैन एवं म.प्र. विधान सभा उपाध्यक्ष श्री ईश्वर दास | भवन, आंगनबाड़ी केन्द्र, रंग मंच हाल आदि का शिलान्यास रोहणी भी मंचासीन हैं। शनैःशनैः वे आदिवासी मंच पर चढ़कर सम्पन्न कर दिया गया है ! शासन प्रशासन ने स्पष्ट रूप से घोषणा जैन संतों के चरणों में जाल रख देते हैं, तभी अचानक सम्पूर्ण कर दी है कि जो भी ग्राम आदर्श घोषित होंगे, उन्हें इसी तरह परिसर तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठता है।
सड़क, पानी से युक्त अन्य तरह की सुविधायें प्रदान की जावेंगी। ये दृश्य पूर्व प्रायोजित या किसी फिल्मकार की कल्पना मण्डला कलेक्टर संजय शुक्ला इस अभियान के बारे में नहीं है। सम्पूर्ण घटनाक्रम की तह तक जाने पर ज्ञात होता है कि | बताते हैं कि इस क्षेत्र में आदिवासियों की आर्थिक अवनति का ये आदिवासी लोग जैन संत चिन्मय सागर जी से प्रभावित होकर | मूल कारण शराब थी, जिस पर शासन प्रशासन की लाखों रूपये अपने हिंसात्मक व्यापार का त्याग करते हुये अपने श्रद्धास्पद के | की योजनायें रोक नहीं लगा सकी, परंतु जैन संत की प्रेरणा से यह चरणों में जाल का त्याग कर रहे हैं। तभी मंच से मनि चिन्मय | सहज हो सका। वन राज्यमंत्री श्री देवेन्द्र टेकाम भी अपने निर्वाचन सागर जी के स्वर गंज उठते हैं और आदिवासी उनके वाक्यों को | क्षेत्र में हो रहे इस अनोखे सुधार से अत्यंत प्रसन्न है। विनम्रता से दोहराते हैं। ये वाक्य उन्हें आजीवन हिंसक व्यापार | कुछ समय पूर्व मुनि श्री चिन्मय सागर जी महाराज से छोड़ने के लिये संकल्प में बांधते हैं। इसके पश्चात् समारोह के आशीर्वाद लेने प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री दिग्विजय सिंह मण्डला आयोजक इन लोगों को (जो आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र मण्डला के | पहुंचे और इस अनोखी शराब बंदी की मुहिम को देखकर चकित हैं) कुछ अनुदान राशि भाटापारा के श्री प्रकाश मोदी के माध्यम | रह गये। मुख्यमंत्री महोदय ने आदर्श ग्राम घोषित जूना मण्डला से वितरित करते हैं। मध्यप्रदेश के जबलपुर में आयोजित यह | हेतु 80 लाख रूपये की सिंचाई परियोजना की मंजूरी दे दी। समारोह आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र मण्डला में आदिवासियों के इस मुहिम की सफलता को संदिग्ध इसीलिये नहीं कहा 28 अक्टूबर 2003 जिनभाषित -
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जा सकता, क्योंकि आदर्श घोषित ग्रामों की पंचायतों ने तो स्वेच्छा से यह नियम बना लिये हैं कि यदि गाँव में कोई व्यक्ति शराब पीते हुये पाया जायेगा, तो उसे अर्थदण्ड से लेकर गाँव से निकालने तक की सजा का खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। शराब बंदी का संकल्प लेने वालों का रिकार्ड भी यहाँ उपलब्ध है ।
मुनि श्री के मण्डला से सौ किलोमीटर दूर स्थित जबलपुर पहुँचने पर भी आदिवासियों द्वारा वहाँ आकर के हिंसक व्यवसाय को छोड़ना जीवन स्तर को सुधारने विकसित हुई, जागृति का ही प्रतीक है। पुरातन कालीन सभ्यता में जीने वाले एवं समाज की मुख्य धारा से कटे हुये इन आदिवासियों के निम्न जीवन स्तर के मूल कारण पर प्रहार कर मुनि श्री ने उन्हें नई राहें दिखाई है, यदि भारत में विचरण करने वाले सभी संत अपने श्रृद्धालुओं की श्रृद्धा का दोहन न करते हुये इसी तरह उनके जीवन स्तर को सुधारने का प्रयास करते रहे तो संतों के सानिध्य में राम राज्य की कल्पना संभावित है
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अमित पड़रिया
जानकारी दें
ऐसा ज्ञात हुआ है कि इस शताब्दी के महानतम चिन्तक, शतावधानी श्रीमद राजचन्द्र जी की पुस्तक 'श्रीमद राजचन्द्र' का प्रस्तावना महात्मा गांधी ने लिखी थी। यह अत्यन्त गौरव का विषय है। आजकल मूल गुजराती से अनुदित इस पुस्तक के जो संस्करण उपलब्ध हैं, उनमें महात्मा गांधी की प्रस्तावना नहीं है। यदि किन्हीं धर्मानुरागी महानुभाव के पास महात्मा गांधी की प्रस्तावना से युक्त उक्त पुस्तक का गुजराती या हिन्दी संस्करण हो तो अवश्य सूचित करने का कष्ट करें या प्रस्तावना की फोटोकापी भेजने की कृपा करें। अग्रिम आभार सहित ।
डॉ. कूपर चंद जैन, खतौली २५१२०१ ( उ.प्र. )
डॉ. ज्योति जैन
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एक उभरती जैन चित्रकार
सुश्री शुभा जैन ने अपने चित्रों की एक प्रदर्शनी गंगा तट, आर्ट गैलरी बाराणसी में लगायी तैल, जल तथा पेस्टल रंगों का उचित मिश्रण कर चित्रों को प्रकृति के अनुरूप बना दिया। बुवा कलाकर ने जीवन के प्रत्येक बिंब को चित्रों के माध्यम से उभारने
का प्रयास किया है। चित्रों में जहाँ एक ओर वे मानवीय संवेदनाओं को उकेरती हैं तो वहीं दूसरी ओर जैन धर्म संस्कृति से सबंधित अनेक विषयों पर उनका रूझान है।
युवा चित्रकार शुभा जैन सुप्रसिद्ध लेखक एवं संपादक (जैन प्रचारक) डॉ. सुरेश चन्द्र जैन की सुपुत्री हैं। शुभा की संयुक्त और एकल अनेक चित्र प्रदर्शनियां प्रर्दशित हो चुकी हैं। डॉ. श्रीमती ज्योति जैन
खतौली
प्रवीण जैन के आध्यात्मिक चित्र
5 सितंम्बर 03 सुंगभदशमी के दिन आदिनाथ जिनालय छत्रपति नगर में आचार्य श्री विद्यासागर जी के शिष्य ऐलक निशंक सागर जी के सानिध्य में प्रवीण जैन की आध्यात्मिक कृतियों की प्रदर्शनी तूलिका एवं रंग, जैनत्व के संग का भव्य शुभारंभ हुआ। प्रदर्शनी 7 सितम्बर, रविवार तक खुली रही, जिसमें बड़ी संख्या में लोगों ने प्रवीण के चित्रों की भूरि-भूरि प्रशंसा की। आचार्य श्री विद्यासागर जी का पोर्टेट डबल डक, पशुओं का आंदोलन, वास्तविक जैन (ऊँ) ओम, माँ जिनवाणी का प्रतीकात्मक चित्र आदि लोगों ने बेहद सराहा।
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मूलत: सुल्तानगंज (रायसेन) निवासी प्रवीण जैन सी. एस. इंटर के छात्र हैं तथा आगे भी चित्रों के माध्यम से जैनधर्म का प्रचार करना चाहते हैं। प्रदर्शनी में कुल 33 चित्र रखे गये थे, जो प्रवीण ने कड़ी और सतन मेहनत करके बनाये हैं। वे अपना प्रेरणा स्रोत आचार्य विद्यासागर जी एवं मुनि प्रमाण सागर जी को मानते हैं। ऐसे युवाओं को जैन समाज को आगे बढ़ाना चाहिए।
सफल नागोरी, इन्दौर
जैन पुरातत्व के विध्वंस की कहानी के प्रकरण में न्यायाधीश ने दादाबाड़ी पुलिस को मामले की जांच के आदेश दे दिये
संभावित अभियुक्तों में हाई कोर्ट व सुप्रीम कोर्ट के तीन रिटायर जज एवं राजस्थान में तैनात एक आई.ए.एस. अफसर भी !
कोटा 18 सितम्बर। अपर मुख्य न्यायित मजिस्ट्रेट क्रम -2 कोटा ने जैन पुरातत्व के विध्वंस की कहानी के मामले में दादाबाड़ी पुलिस को प्रकरण प्रेषित कर मामले की जांच के आदेश दिये हैं।
चूंकि यह फौजदारी प्रकरण है और इसमें अभियुक्त नं.3 जैन संस्कृति रक्षा मंच जयपुर के समस्त पदाधिकारीगण शामिल हैं और इन पदाधिकारियों में हाई कोर्ट व सुप्रीम कोर्ट के 3 रिटायर्ड जजों समेत कई हस्तियाँ भी हैं, जो अब जांच के घेरे में आएंगे इन महत्वपूर्ण लोगों में तो एक आई.ए.एस. अफसर भी है, जो राजस्थान में तैनात है।
जानकारी के अनुसार यह प्रकरण अतिशय क्षेत्र चांदखेड़ी खानपुर के निर्माण मंत्री राजेन्द्र हरसोरा व नई धानमंडी निवासी अतुल गोधा ने जैन पुरातत्व के विध्वंस की कहानी के सम्पादक मिलापचंद जैन, प्रकाशक णमोकार जैन, जैन संस्कृति मंच के समस्त पदाधिकारियों व मालिक मुद्रक श्री प्रिंटर्स जयपुर के खिलाफ भारतीय दंड सहिता की धारा 153 ए, बी, 295 ए 499, 500
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एवं 504 के तहत इस न्यायालय में पेश किया था।
वकील आलोक जोहरी के जरिये पेश इस इस्तगासे में वर्णित है कि वर्ष 2002 में प्रार्थीगण व अन्य जैन धर्मावलंबियों व चांदखेड़ी मंदिर समिति की सहायता से चांदखेड़ी खानपुर स्थित अतिशय क्षेत्र में जीर्णोद्धार के कार्य का जैन पुरातत्व महत्व की मूर्तियों, शिलालेखों व स्तंभों को जो कि वर्षा से, प्राकृतिक आपदाओं, पानी, सीलन, धूप व अन्य प्रकार के अविनय से बचाने की मंशा से, उन्हें संरक्षित करने का कार्य किया, जिसकी सर्वत्र प्रशंसा हुई और चांदखेड़ी जैन तीर्थ का नाम दुनिया भर में जाना जाने लगा।
इस्तगासे में आगे दर्ज है कि मुलजिम नं. 1 मिलापचंद जैन द्वारा पुरातत्व के विध्वंस की कहानी पत्रिका का संपादन किया जाता है। इन सहित सभी मुलजिमानों ने जीर्णोद्धार को लेकर जैन धर्मावलंबियों में यह भ्रांतियाँ फैलाने का प्रयास किया गया कि मंदिर में पुरातत्व महत्व की वस्तुओं के साथ तोड़फोड़ की गयी और इस तरह के आरोप लगाकर जैन श्रद्धालुओं व धर्मावलंबियों की भावनाओं को ठेस पहुंचाई। जिसका संस्था द्वारा समय-समय पर समुचित स्पष्टीकरण दिया जा चुका है, लेकिन फिर भी मुलजिमान अवैध कार्यवाहियों से बाज नहीं आ रहे हैं।
फरियादीगण ने वर्णित किया है कि मुलजिमान ने 6.2.02 को एक झूठी शिकायत पुरातत्व विभाग को भी की तो विभाग द्वारा 15.2.02 को जांच अधिकारी नियुक्त कर वस्तु स्थिति की जांच करवाई गई और फिर विस्तृत तहकीकात के बाद जांच अधिकारी ने 6.3.02 को अपनी रिपोर्ट पेश कर सभी आरोपों को गलत करार दिया बल्कि यह भी टिप्पणी की कि जीर्णोद्धार कार्यक्रम में पुरातत्व महत्व के मान स्तम्भ के 52 जिनालय को इस जीर्णोद्धार डॉ. विद्यार्थी व कमल जी का भावभीना सम्मान
से और सुरक्षित व संरक्षित कर दिया गया है।
इस रिपोर्ट को प्राप्त करने के पश्चात् भी अभियुक्तों ने दुर्भावनापूर्वक सार्वजनिक रूप से अखबारों में रिपोर्ट पर अपनी प्रतिक्रिया व अभिव्यक्ति कर जनता की धार्मिक भावनाओं को भड़काने का प्रयास किया। इसके बाद अपनी पत्रिका में खुली आलोचना की और लेख छाया चित्र प्रकाशित कर इसको वितरित किया। जिससे प्रार्थीगण व जैन धर्मावलंबियों को काफी टेस पंहुची और अपमान महसूस किया 1
अभियुक्तों का यह कृत्य भारतीय दण्ड संहिता के तहत दण्डनीय अपराध बताते हुये फरियादीगण ने इनको सजा देने की मांग की तो न्यायाधीश द्वारा मामले की गहन जांच के लिये दादाबाड़ी थाने को समूचा प्रकरण भिजवाने का आदेश दे दिया। फरियादीगण की ओर से पैरवी आलोक जौहरी और सतीश पचोरी अधिवक्ताओं ने की।
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तुषारकांत विद्यार्थी राष्ट्रपति शौर्य पदक से विभूषित
छतरपुर मध्यप्रदेश पुलिस के उप पुलिस अधीक्षक इंजी.
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तुषारकांत विद्यार्थी का भोपाल में 15 अगस्त 03 को संपन्न स्वतंत्रता दिवस समारोह में उनके अदम्य साहस एवं उत्कृष्ट सेवाओं के लिए देश के सर्वोच्च पुलिस सम्मान राष्ट्रपति शौर्य पदक से सम्मानित किया गया। गौरतलब है कि यह सर्वोच्च पुलिस अलंकरण कई वर्षों बाद मध्यप्रदेश के इकलौते पुलिस अधिकारी के रूप में छतरपुर (म.प्र.) निवासी तुषारकांत विद्यार्थी को मिला है। ग्वालियर जिले के डबरा में एस.डी.ओ.पी. के रूप में पदस्थ श्री विद्यार्थी जैन समाज के जाने माने विद्वान, पूर्व विधायक एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्व. डॉ. नरेन्द्र विद्यार्थी एवं से. नि. प्राध्यापक व समाज सेविका डा. श्रीमती रमा जैन के सुपुत्र हैं I
भोपाल के लालपरेड ग्राउण्ड में स्वतंत्रता दिवस के भव्य एवं गरिमामयी समारोह में म.प्र. के मुख्य मंत्री श्री दिग्विजय सिंह ने श्री विद्यार्थी को राष्ट्रपति शौर्य पदक लगा कर देश के सबसे बड़े पुलिस अलंकरण से नवाजा। इस अवसर पर अनेक राजनेता, पुलिस महानिदेशक म.प्र. श्री दिनेश जुगरान सहित अनेक उच्च प्रशासनिक अधिकारी एवं गणमान्य व्यक्ति मौजूद थे। श्री विद्यार्थी अब तक अनेक दुर्दान्त ईनामी दस्यु सरगनाओं को अत्यन्त साहसिक मुठभेड़ में धराशायी कर चुके हैं, तथा 25 से ज्यादा खूंखार दस्यु सरगनाओं को पकड़ चुके हैं। इन दस्यु सरगनाओं का ग्वालियर चम्बल क्षेत्र में अत्यधिक आतंक एवं भय व्याप्त रहता था, जिसे श्री विद्यार्थी ने अनेक बार अपनी जान की बाजी लगा कर इन दस्युओं का सफाया कर या पकड़कर दूर किया।
इंजी. शिखर चंद जैन अध्यक्ष जैन समाज, छतरपुर (म.प्र.)
छतरपुर। प्रसिद्ध आध्यात्मिक जैन संत पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी की 121 वीं जयंती श्री सिद्धक्षेत्र द्रोणगिरि में द्रोण प्रांतीय नवयुक संघ, द्रोणगिरि के तत्वाधान में अत्यंत भव्यता व गरिमा के साथ मनाई गई। इस प्रसंग पर वर्णी साहित्य के लेखक संपादक एवं कर्मठ समाज सेवियों डॉ. नरेन्द्र विद्यार्थी एवं स्व. श्री कमल कुमार जैन (मरणोपरांत) का भावपूर्ण सम्मान किया गया। साथ ही क्षेत्र के मेधावी विद्यार्थियों का अभिनंदन किया गया। कार्यक्रम में डॉ. नरेन्द्र विद्यार्थी एवं डॉ. रमा जैन द्वारा संपादित 'मेरी जीवन गाथा' के दूसरे संस्करण का विमोचन संघ की स्मारिका के साथ किया गया।
सेवक चंद जैन, बड़ामलहरा, छतरपुर (म.प्र.)
जैन युवा सम्मेलन संपन्न
शिवपुरी, धार्मिक संस्था 'सन्मति यूथ क्लब समिति' (रजि.) द्वारा आयोजित 'जैन युवा सम्मेलन' विभिन्न घोषणाओं एवम् क्रियाकलापों के बीच 7 सितम्बर 2003 को मानस भवन, गांधी पार्क, शिवपुरी में संपन्न हुआ। यह कार्यक्रम शिवपुरी के समस्त जैन भाई, बहिनों के लिये था। क्लब के संयोजक संजय
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जैन मृदु ने बताया कि समाज के विकास के लिये इस कार्यक्रम के | श्री मुन्नालाल जी जैन द्वारा श्री अमरकंटक क्षेत्र पर बन रहे श्री द्वारा छात्रवृत्ति व पुस्तकालय की व्यवस्था के अतिरिक्त सामाजिक आदिनाथ दिगम्बर जैन मंदिर के निर्माण हेतु 31000/- इकत्तीस व धार्मिक कार्यों में प्रतिभावान भाई, बहिन के लिए प्रतिवर्ष हजार रूपया की दानराशि देने की घोषणा की तथा पूज्य आचार्य अवार्ड भी दिया जायेगा।
श्री का शुभाशीष प्राप्त किया।
पं. शिखरचंद जैन साहित्याचार्य' श्री मदनलाल सरावगी (छाबडा) का स्वर्गवास
उप प्राचार्य कोलकाता। सरल स्वभावी उदारमना मुनि भक्त स्वाध्याय
शास्त्री वार्ड, (सुभाष नगर)
सागर (म.प्र.) प्रेमी सुजानगढ़ निवासी श्री मदनलाल सरावगी (छाबड़ा) का आकस्मिक देहावसान गत सोमवार दिनांक 29 सितम्बर 2003
वार्षिक कलशाभिषेक को अपने निवास स्थान में 78 वर्ष की आयु में हो गया है। आप अजमेर, परमपूज्य आचार्य १०८ श्री विद्यासागर जी महाराज पिछले तीन-चार वर्षों से अस्वस्थ्य चल रहे थे।
एवं उनके परमशिष्य मुनि पुंगव १०८ श्री सुधासागर जी महाराज
की पावन प्रेरणा एवं शुभाशीर्वाद से निर्मित हो रहे बहुउद्देशीय श्री अजित पाटनी
दिगम्बर जैन ज्ञानोदय तीर्थक्षेत्र नारेली, अजमेर के वार्षिक शोक सभा का आयोजन
कलशाभिषेक समारोह में भाग लेने के लिये हजारों की तादाद में आज श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र मंदिर संघी जी, | अजमेर, किशनगढ़, नसीराबाद, छोटा लाम्बा, जेठाना, रूपनगढ, सांगानेर के प्रांगण में राजस्थान के राज्यपाल महामहिम श्री भवानीखेडा आदि स्थानों के पदयात्री आज प्रातः 10 बजे ज्ञानोदय निर्मलचन्द जी जैन, के आकस्मिक निधन पर शोक सभा का | तीर्थक्षेत्र पर बैण्ड बाजे के साथ जुलूस के रूप में पहुंचे जहाँ पर आयोजन किया गया। मानद मंत्री श्री निर्मलजी कासलीवाल ने ज्ञानोदय तीर्थ क्षेत्र कमेटी द्वारा उनका तिलक लगाकर भावभीना बताया कि सांगानेर संघीजी जैन मंदिर के प्रति उनकी आस्था, हार्दिक अभिनंदन किया गया। श्रद्धा एवं विशेष लगाव था। इसीलिये उन्होंने राजस्थान के राज्यपाल अजमेर की पदयात्रा का सोनीजी की नसियाँ से श्रीमान् का पद भार संभालने से पूर्व सपरिवार मंदिरजी में पधार कर | तिलोकचंदजी सोनी द्वारा हरी झंडी दिखाकर शुभारंभ किया गया। हमारा व मंदिर का गौरव बढ़ाया। उनका मिलनसार व्यक्तित्व जिसका नया बाजार, मदारगेट, केसरगंज, लाल कोठी, मृदंग सिनेमा, हमारे लिये चिरस्मरणीय रहेगा। यह उनके धार्मिक, आध्यात्मिक | गांधीनगर, नेहरू नगर, नाका मदार जैन मंदिर पर भव्य स्वागत एवं सात्विक जीवन का ही परिणाम है कि मात्र चार माह के
किया गया। पदयात्रा जुलूस के रूप में श्री आदिनाथ सभागार कार्यकाल में चार साल से पड़ रहा भीषण अकाल सुकाल में | भवन में पहुंची जहाँ जिनेन्द्र भगवान के कलश करने का सौभाग्य परिवर्तित हो गया।
सर्व श्री ताराचंद पांडया केसरगंज, शान्तिलाल सेठी भवानीखेडा, इसके पश्चात् प्रबन्ध कारिणी कमेटी श्री दिगम्बर जैन
पवनकुमार मोहनकुमार केसरगंज, मूलचंद कासलीवाल अतिशय क्षेत्र मंदिर संघीजी सांगानेर के सदस्यों ने दो मिनट का मांगलियावास ने सौधर्म इन्द्र बनकर भगवान के कलशाभिषेक मौन रखकर णमोकार मंत्र के साथ भावभीनी श्रद्धांजली अर्पित | किये। प्रो. सुशील पाटनी के नेतृत्व में श्री दि. जैन संगीत मंडल करते हुये उनकी दिवंगत पुण्य आत्मा की शांति के लिये भगवान
द्वारा सुन्दर भजन प्रस्तुत किये गये। आदिनाथ जी से प्रार्थना की और वीर प्रभु से शोक संतप्त परिवार इसके पूर्व आज की धर्मसभा का शुभारंभ श्री हुकमचन्द को इस असहनीय दुःख को सहन करने की शक्ति प्रदान करने की सेठी द्वारा प. पू. आचार्य १०८ श्री विद्यासागर जी एवं मुनि श्री कामना की।
सुधासागर जी महाराज के चित्रों के समक्ष दीप प्रज्जवलन से निर्मल कासलीवाल
हुआ। केसरगंज समाज के नवयुवा अध्यक्ष श्री धर्मेशकुमार जैन मानद मंत्री
जिन्होंने ज्ञानोदय तीर्थ पर अस्पताल का निर्माण कराया का भी विमोचन समारोह सम्पन्न
समिति की ओर से भावभीना सम्मान किया गया। अमरकंटक क्षेत्र (शहडोल) दिनांक 28.9.03 रविवार
. आज प्रात: ज्ञानोदय तीर्थक्षेत्र पर पंचपरमेष्ठी मंडल विधान को अपरान्ह चार बजे श्री सिद्धोदय अतिशय क्षेत्र अमरकंटक में | का आयोजन किया गया, जिसमें सैकडों धर्म बन्धुओं ने भाग पू. 108 संतशिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी महाराज के सानिध्य | लिया। में डॉ. माणिकचन्द्र जी जैन (ब्र. माणिक भैया जी) सप्तम प्रतिमाधारी ज्ञानोदय तीर्थक्षेत्र के अध्यक्ष श्री भागचंद गदिया ने आये द्वारा लिखित 'स्वस्थ जीवन का आधार आयुर्वेद' पुस्तक का हुये सभी अतिथियों, पदयात्रियों तथा साधर्मी बन्धुगणों का आभार विमोचन सागर से पधारे श्री मुन्नालाल जी जैन वीरपुरा वाले व्यक्ति करते हुये बतलाया कि क्षेत्र के अधिकांश कार्य सन् 2004 लम्बरदार सागर के कर कमलों द्वारा किया गया। इस अवसर पर | तक पूर्ण हो जायेंगे तथा सन 2005 में आदिनाथ जिनालय का
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पंचकल्याणक गुरुवर आचार्य १०८ श्री विद्यासागर जी महाराज सकल दिगम्बर जैन समाज खुरई ने पंचकल्याणक ससंघ के पावन सान्निध्य में होने की पूर्ण संभावना है। महामहोत्सव करने का निर्णय किया है, जिसके लिये प्रारंभिक
हीराचन्द जैन कार्यवाही शुरु हो गई है। नगर में विराजित परम पूज्य १०८ सहप्रचार प्रसार संयोजक
मुनिद्वय का आशीर्वाद प्राप्त कर नगर का एक प्रतिनिधि मंडल ज्ञानोदय नगर, नारेली, अजमेर - 305024
परम पूज्य १०८ आचार्य श्री विद्यासागर जी के पास अमरकंटक पावन वर्षायोग
गया एवं आशीर्वाद प्राप्त कर आचार्य श्री से निवेदन किया है कि श्रमण संस्कृति के उन्नायक युग दृष्टा परम पूज्य आचार्य
पंचकल्याणक महामहोत्सव परमपूज्य गुरुवर आचार्य श्री एवं उनके श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज के परम प्रभावक शिष्य मुनिश्री
ससंघ सानिध्य में आयोजित हो। गुरु कृपा की प्रतीक्षा है। १०८ प्रशान्तसागर जी एवं १०८ मुनिश्री निर्वेगसागर जी का वर्षायोग
चौधरी ज्ञानचन्द जैन खुरई नगर में चल रहा है, जिससे धर्म की पावन वर्षा निरन्तर हो
महामंत्री, खुरई रही है। एक लम्बे अन्तराल के बाद गुरु की कृपादृष्टि से मुनि संघ
एक सी.डी. तैयार का चातुर्मास प्राप्त होने से सर्वत्र प्रसन्नता है। मुनिसंघ श्री आदिनाथ हमारे तीर्थंकर भगवन्तों ने दिव्य ध्वनि के माध्यम से भव्य प्राचीन दि. जैन मंदिर जी में विराजमान है।
जीवों के कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया था। इसके बाद गणधरों इस वर्षायोग में नित प्रतिदिन धार्मिक शिक्षण, प्रवचन तो
और आचार्यों ने परम्परा से उसे जीवन्त रखा। जब श्रुत परम्परा हुआ ही। समाज के युवा वर्ग में भगवान की पूजन, अभिषेक के
क्षीण होती दिखी तो ताड़पत्रों पर और फिर कागजों पर शास्त्रों का प्रति विशेष रूचि बढ़ी, जिससे अनेक नवयुवक प्रतिदिन अभिषेक, लेखन हुआ। आज कम्प्यूटर और इन्टरनेट का जमाना है अत: पूजन करने लगे। परम पूज्य १०८ मुनिद्वय के परम आशीर्वाद से
आवश्यकता थी एक ऐसी योजना की जिसमें सभी आचार्यों और जैन धर्म की शिक्षा हेतु एक जैन पाठशाला का शुभारंभ हुआ
मुनिराजों के समय-समय पर दिये गये महत्त्वपूर्ण प्रवचनों को जिसमें लगभग ३०० बालक, बालिकायें धार्मिक शिक्षण प्राप्त कर
संकलित कर उन्हें उत्तम गुणवत्ता वाली सी.डी. आडियो-वीडियो रहे हैं। पाठशाला में १५ शिक्षित बहिनें निस्वार्थ सेवायें प्रदान कर
कैसेट में रिकार्ड रखा जा सके, ताकि वे अधिक समय तक रही है। इनकी सेवा भावना से पाठशाला सुचारू रूप से चल रही
सुरक्षित रहें। इस श्रम साध्य और मंहगे कार्य का बीड़ा उठाया है है। दशलक्षण महापर्व के अवसर पर नगर में प्रथम बार 'श्रावक
भी दिगम्बर जैन पंचबालयति मंदिर इंदौर से जुड़े ब्र. अजित भैया संस्कार शिविर' का आयोजन पूज्य मुनिद्वय के आशीर्वाद से किया
| ने। उन्होंने अब तक लगभग तीन हजार घंटे की सी.डी. तैयार की गया, जिसमें ५३ शिविरार्थियों ने भाग लेकर संयम को अंगीकार
| है। इसमें आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज, आचार्य वर्धमान करने का प्रयोग किया। एक नया अनुभव प्राप्त हुआ जो संस्कारित
सागर जी महाराज, मुनिश्री क्षमा सागर जी महाराज, मुन पुंगव श्री जीवन के लिये नींव का पत्थर साबित होगा।
सुधासागर जी महाराज आदि के प्रवचनों की सी.डी. तैयार हो दशलक्षण महापर्व पर अत्यधिक रोचक धार्मिक, शिक्षाप्रद
चुकी हैं। विशेषता यह है कि आचार्य विद्यासागर जी महाराज ने कार्यक्रमों का आयोजन नवीन स्थापित पाठशाला के छात्राओं एवं
अपने शिष्यों को समयसार, परमात्म प्रकाश, कार्तिकेयानुप्रेक्षा, नवयुवकों द्वारा किया गया, अत्यंत सुन्दर जीवन्त झाकियों का भी
रत्नकरण्डक श्रावकाचार, न्यायदीपिका आदि महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों प्रदर्शन हुआ। प्रातः एवं दोपहर परमपूज्य मुनिद्वय के मंगलमय
का अध्ययन कराया, उन ग्रंथों की सी.डी. आचार्य श्री की वाणी प्रवचन हुये। दशलक्षण महापर्व के समापन पर विमानोत्सव का
| में ही तैयार हो चुकी है। एम.पी. थ्री-१० से २२ घंटे तक की आयोजन किया गया, जिसमें समस्त जैन समाज ने अति उल्लास के
| सी.डी. को तीन स्तरों में रखा है। उत्कृष्ट 150 रु. मध्यम 100 रु. साथ भाग लिया। रात्री में विराट कवि सम्मेलन भी हुआ।
हल्के स्तर की प्रत्येक सी.डी. 75 रु. की और वीडियो 21 तथा १० अक्टूबर को शरदपूर्णिमा के अवसर पर परम पूज्य
31 एवं 51 रु. में प्राप्त है। एक एलबम 24 सी.डी. का है ऐसे 11 गुरुवर आचार्य का जन्म दिवस एवं पूज्य मुनिद्वय का दीक्षा दिवस
एलबमों में 3000 घंटों की वाणी है। हमारे आचार्य उपाध्याय, मनाया गया एवं पूज्य मुनिद्वय को शास्त्र भेंट किये गये।
मुनिराज तो सभी जगह नहीं पहुँच पाते। ऐसी स्थिति में जैनमंदिरों नगर से ४ किलोमीटर दूर स्थित दयोदय जीवरक्षा संरक्षण
के अध्यक्ष, मंत्री, विभिन्न सामाजिक संस्थायें महिला-मंडल एवं संस्थान (गौशाला) में भारत सरकार के सहयोग से निर्मित नवीन
सभी धर्मप्रेमी बन्धु इन सी.डी. आदि के माध्यम से घर में, मंदिरों पशु संरक्षण गृह एवं पशु चिकित्सालय भवन का लोकार्पण परमपूज्य | में निशित समय
में निश्चित समय तय कर प्रवचनों का लाभ ले सकते हैं। इस १०८ मुनिद्वय के परम सानिध्य में हुआ, जिसमें जैन एवं जेनेतर
विषय में निम्न पते पर सम्पर्क किया जा सकता हैसमाज ने भारी संख्या में उपस्थित होकर जीव दया के प्रति अपनी
'ब्र. अजित भैय्या, श्री दि. जैन पंच बालयति मंदिर, सत्यम् निष्ठा एवं प्रतिवद्धता प्रदर्शित की एवं उदारता का परिचय देते हुये | गैस के सामने, इंदौर (म.प्र.) फोन : ०७३१-२५७१८५१, राशियाँ एवं भूषा प्रदान किया।
| २५७०६८९ फैक्स ०७३१-२५७०६८७ मो. ९८२७२ ४२४५३ 32 अक्टूबर 2003 जिनभाषित -
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शब्दार्थ की अपेक्षा भावार्थ महत्त्वपूर्ण
RANAS
आ. श्री विद्यासागर जी अन्तरंग की तंरग से बाह्य आकृति तरंगित हो जाती है, अमरकण्टक के अरण्य में तपोनिधि ज्ञाननिधि आचार्य विद्यासागरजी ने कहा कि शाब्दिक अर्थ की अपेक्षा भावार्थ महत्वपूर्ण होता है। भोजन पानी छूटते ही सभी सम्बन्ध भी छूट जाते हैं यह स्मरण कराते हुए आचार्य श्री ने कहा कि संध्या में रैन बसेरा पर मिले पक्षी भोर होते ही भिन्न-भिन्न दिशाओं में उड़ जाते हैं, कोई किसी के लिए नहीं रुकता, कोई किसी का साथी भी नहीं।
मेकल के आंचल में अठखेलियाँ करते बादलों की मनोरम छटा में भारत के भिन्न-भिन्न भागों से आए श्रोताओं को प्रकृति की प्रतीति कराते हुए आचार्य विद्यासागरजी ने कहा कि वज्रमय बलशाली, साहसी, शूरवीर जिनका शरीर बाणों से विंध जाता है, छेदन भेदन की पीड़ा का भी प्रभाव नहीं होता, करुणा, दया, शोक और वियोग के भाव भीतर होने पर नयन सजल हो जाते है, अंदर के भाव का प्रभाव बाहर दिखने लगता है। कठोर पराक्रमी भी पिघल जाते हैं, शरीर नहीं पिघला फिर आँखों में पानी कहाँ से आया? क्यों आया? अन्दर अनुभूति होती है पानी बाहर बहने लगता है। आचार्य श्री ने बताया कि धर्म के प्रदर्शन की कोई आवश्यकता नहीं है। दर्शन की आवश्यकता है. विश्वास की आवश्यकता है, किन्त मनष्य विचार अधिक करता है. विश्वास कम करता है। भय का भाव भी मनुष्यों में अधिक होता है, निर्भय होने के लिए हाथ में डंडा लेते हैं, संसार में अन्य कोई प्राणी हाथ में डंडा नहीं पकड़ता। सहारे की तलाश और मांगने की क्रिया केवल मनुष्य करता है, क्योंकि वह विचार अधिक करता है, विश्वास कम। विश्वास कम है इसीलिए भ्रान्ति अधिक है यह बताते हुए आचार्य श्री ने कहा कि जहाँ भ्रान्ति हो वहां शांति की तो बात ही नहीं। एक प्राचीन घटना का उदाहरण देते हुए आचार्य श्री ने बताया कि यदि पशु को कोई प्रतीक समझ में आ जाता है तो वह उस पर विचार नहीं करता संकल्प ले लेता है। मृगेन्द्र का जीवन जितना लम्बा होगा मृग के जीवन पर संकट भी उतना अधिक होता है । मृगेन्द्र अपने जीवन के लिए मृग का जीवन समाप्त करता है। सिंह के दिखते ही नाड़ी की गति बदल जाती है, ठंड में भी कंठ सूख जाते हैं। इसके एक प्रहार से ही अंदर बाहर का अस्तित्व मिट जाएगा। सिंह के भोजन का अर्थ है एक जीवन का अन्त । ऐसे दयाहीन पशु को संयोग वश करुणा वान जीवन का सान्निध्य मिल जाता है। करुणा के सान्निध्य में सिंह के भाव में परिवर्तन हो जाता है। दया के भाव से कुछ दिवस सूखी घास पत्ती से जीवन यापन किया किन्तु सिंह का आहार घास नहीं था। करुणा के सान्निध्य का प्रभाव मांसाहार नहीं किया एवं संकल्पपूर्वक प्राण त्याग दिये। प्रत्येक बार एक जीवन को समाप्त करने वाले पशु ने अपना जीवन दांव पर लगा दिया। पशु की प्रकृति विचार करने की नहीं होती। आचार्य श्री ने बताया कि पशु का यह उदाहरण भी पतित पावन बनने के लिये दर्पण हो सकता है रिश्ते नातों का सम्बन्ध तब तक होता है जब तक भोजन पानी से सम्बन्ध होता है। भोजन पानी से सम्बन्ध छूटते ही संसार के सभी सम्बधी सम्बन्ध तोड़ लेते हैं। आचार्य श्री ने कहा कि किससे था सम्बन्ध भोजन पानी से?
शाब्दिक अर्थ की अपेक्षा भावार्थ को महत्वपूर्ण बताते हुए कहा कि शब्द का प्रभाव इस पर निर्भर करता है कि उसका प्रयोग किस भाव के साथ किया गया है। एक शब्द का भिन्न-भिन्न भाव के साथ प्रयोग करने पर अर्थ भी भिन्न-भिन्न हो जाता है। राजस्थान के मड़ना ग्राम में आचार्य ज्ञान सागर महाराज के प्रवचन सुनने के लिए श्रोताओं की भीड़ लगी थी। अजमेर से आए एक महाशय ने महाराज से कहा मेरा आदेश है महाराज अजमेर पधारें। यह सुनते ही सभा दंग रह गयी किन्तु महाराज भाव विभोर हो गये क्योंकि उपरोक्त शब्दों का प्रयोग करते समय श्रावक के हाथ निवेदन की मुद्रा में जुड़े हुए थे एवं मस्तक आदर के भाव सहित झुका हुआ था। सभा में श्रावक के उपरोक्त शब्दों का अर्थ आदेशात्मक था किन्तु भाव अनुरोध युक्त। भाव और मुद्रा के कारण दर्शकों को अनुरोध की ही अनुभूति हुई। भावों के महत्व का बोध कराते हुए आचार्य श्री ने कहा कि दीवाली पर दीवाल की स्वच्छता की जाती है। अंधकार को दूर करने के लिए प्रकाश का प्रयोग करते है, किन्तु अंदर अंधकार हो तो बाहर दीवाली की क्या सार्थकता है। सबकी आत्मा को समान बताते हुए आचार्य श्री ने कहा कि मनुष्य का सुधरना ही स्वर्ग अवतरण है तथा यही रामराज्य है। जब जागो तभी सबेरा की उक्ति के माध्यम से आचार्य श्री ने बताया कि अहिंसा करुणा दया के भाव से सुधार संभव है। संयम का पालन मनुष्य तो क्या पशु भी कर सकते हैं। बाह्य रुप संवरने में काल बीत गया आत्मा को संवारने का संकल्प ले सकते हैं । विचार की प्रवृत्ति से मुक्ति पाकर विश्वास को आत्मसात करने से भ्रान्ति मिट सकती है।
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________________ राज.न. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC डाक पंजीयन क्र.-म.प्र./भोपाल /588/2003 प्रगति केसोपान ििजनभाषित जिनभाषित | जिनधाषिता Egenua CENTATI श्रृंत पंचमी भगवान महावीर का 2600 वोन जन्मकल्याणक महोत्सव आचार्यश्री वीरसागर जी बीमती माती आणा भी शामिला जी समाधिदिवस पर्वराज पर्युषण जिनभाषित जिनभाषित जिनभाषित जिनभाषित जलमंदिर नैनागिरि स मयपर मारियों युगसष्टा महर्षि का दियानादीला विकास ...मानवजीवन की शोभा आहारवानी विसंगतियों समयमा नामसारमा .COरियायत •पासता समापवरमध्यात्य जिनभाषित जितभाषित जिनभाषित जिनभाषित Thear yeater Deurat निEिR SEMENबानी raartinuiमिकाअनलाज जिनभाषित जिनभाषित जिनभाषित जिनभाषित कुण्डलपुरशबईबाबा के निधीनमंदिर का स्वम्य Motosairat aman aeatmein स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, जोन-1, महाराणा प्रताप नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित।