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________________ अभ्यास के बाद २०-२५ मिनट तक बढ़ाया जा सकता है। ऐसा । प्रवचनसार में कहते हैंसम्भव है, इस बात की पुष्टि पूर्व वर्णित अमरीकन मेडिकल नाहं देहो न मनो न चैव वाणी न कारणं तेषां। ऐशोसिएशन की पुस्तक भी करती है। कर्ता न न कारयिता अनुमन्ता नैव कर्तृणाम्॥ इतना सब पढ़ने के बाद ऐसा भी किसी को लग सकता है (प्रवचनसार संस्कृत छाया-१६०) कि ऐसा वर्णन तो मुनियों के लिए सुनने में आता है। गृहस्थ इसका भावार्थ यह है कि मैं न शरीर हूँ, न मन हूँ, न वाणी अवस्था में इतना कैसे सम्भव हो सकता है? इसका उत्तर स्वयं हूँ, न इनका कारण हूँ, न इनका कर्ता हूँ, न कराने वाला हूँ, और अनुभव करके या शास्त्रों से प्राप्त किया जा सकता है। आचार्य न ही करने वाले की अनुमोदना करने वाला हूँ। इस प्रकार के ज्ञान समन्तभद्र रत्नकरण्डश्रावकाचार में स्पष्ट रूप से लिखते हैं - एवं आस्था से सामायिक प्रतिक्रमण आदि, भाव जाग्रत होना सामयिके सारम्भाः परिग्रहा नैव सन्ति सर्वेऽपि। सरल हो जाते हैं एवं इससे विकल्पों में कमी अधिक सरलता से चेलोपसृष्टमुनिरिव, गृही तदा याति यतिभावम्।। की जाती है। भौतिकवादी को इसके विपरीत स्थूल विकल्पों का (रत्नकरण्डश्रावकाचार - १०२) ध्यान की प्रक्रिया में कुछ मिनट के लिए भी उपशय करना अधिक इसका अर्थ यह है कि सामायिक के समय गृहस्थ के | कठिन होता है। आरम्भ एवं परिग्रह नहीं रहते हैं अत: उस समय गृहस्थ भी ऐसे । ३. सामायिक को प्रतिदिन करने की शिक्षा एवं संस्कार ध्यानस्थ मुनि की तरह हो जाता है, जिस पर किसी ने उपसर्ग | जहाँ हजारों वर्ष से दिये जाते हों वहाँ उसमें आस्था होने पर ध्यान किया हो और कपड़े डाल दिए हों। का कार्य भी सुगम हो सकता है। __यहाँ इतना विशेष है कि ये कथन चरणानुयोग की अपेक्षा ४. उपसंहार है। करणानुयोग की अपेक्षा गृहस्थ एवं मुनि में बहुत अन्तर रहता सारांश यह है कि हृदय रोग, ब्लडप्रेशर, अनिद्रा, तनाव, ही है। कैंसर, एलर्जी आदि कई बीमारियों से बचाव एवं छुटकारा पाने ४. सामायिक एवं ध्यान तथा आत्म शान्ति एवं आध्यात्मिक लाभ हेतु प्रतिदिन एक-दो आधुनिक प्रचलित ध्यान में किसी शब्द या चित्र या दृश्य बार, एक-दो घड़ी के लिए एकान्त में बैठकर शरीर, मन एवं के सहारे या बिना किसी सहारे अपने मस्तिष्क को विकल्पों से वाणी को एक साथ विश्राम देने का अभ्यास करना चाहिए। बचाया जाता है। सामायिक क्रिया में भी अन्ततोगत्वा निर्विकल्पता सामायिक के रूप में ऐसा करने का उपदेश जैनाचार्यों ने हजारों पर ही जोर है। फिर भी निम्नांकित तथ्य ध्यान देने योग्य हैं। वर्षों पूर्व दिया है। यही बात आज के वैज्ञानिक एवं डाक्टर भी १. अरिहंत को ध्यानस्थ मूर्ति के दर्शन जिसने किए हैं मेडिटेशन या ध्यान की शब्दावली में कह रहे हैं। जिसका लाभ और बार-बार जिसे दर्शन करने का सुअवसर प्राप्त होता है उसके | प्रयोगों द्वारा वर्तमान में देखा जा चुका है। नाम हम चाहे जो दें, लिए ध्यान की दशा की प्राप्ति अधिक सरल हो सकती है। मेडिटेशन कहें या भावातीत ध्यान कहें, प्रेक्षाध्यान कहें या २. माना कि धन १०० रु. है और धन १०० रु. है, इन | सामायिकध्यान कहें, महत्त्वपूर्ण यह है कि इसे हम जीवन में दोनों में बहुत अन्तर है। अध्यात्म में यह मानने की आवश्यकता | भौतिक एवं आत्मिक लाभ हेतु अपनाएँ। नहीं होती है कि मैं देह, मन, वाणी आदि से भिन्न हूँ। अध्यात्म में तो इसे एक सच्चाई के रूप में स्वीकारा जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द विवेकानन्द कॉलोनी, उज्जैन (म.प्र.) विषयासक्त चिन्तानां, गुण: को वा न नश्यति। न वैदुष्यं न मानुष्यं नाभि जात्यं न सत्यवाक्॥ भावार्थ - विषयासक्त मनुष्य के प्रायः सभी गुणों की इति श्री हो जाती है अर्थात् ऐसे मनुष्यों में विद्वता, मनुष्यता, कुलीनता, और सत्यता आदि एक भी गुण नहीं रहते हैं। पराधनजाद दैन्यात, पैशून्यात परिवादतः। पराभवात्कि मन्येभ्यो, न विभेति हि कामुकः॥ भावार्थ- विषयासक्त मनुष्य दूसरे की खुशामद से उत्पन्न दीनता, चुगली, निन्दा और तिरस्कार से नहीं डरता फिर और बातों से क्या डरेगा ? अर्थात् नहीं डरेगा। -अक्टूबर 2003 जिनभाषित 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524278
Book TitleJinabhashita 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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