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________________ पूर्वकृत कर्मों से इस प्रकार निवृत्ति पाने को आचार्य असुहोवओगरहिदो सुहोवजुत्तो ण अण्णदवियम्हि। कुन्दकुन्द ने प्रतिक्रमण कहा है होज मज्झत्थोऽहं णावधगमप्पगं झाए॥ शुभ और अशुभ अनेकविध, के कर्म पूरव जो किये। अब अगला चरण है कायोत्सर्ग एवं मन्त्र-जाप का। उनसे निवर्ते आत्म को, वो आतमा प्रतिक्रमण है। | कायोत्सर्ग ही सच्ची ध्यान की अवस्था है। विकल्पों को तोड़ने का समयसार नाटक ३८३ | विकल्प एवं भक्तिभाव का विकल्प भी इस चरण में न्यून हो जाता इसी प्रकार सामायिक के अन्तर्गत प्रत्याख्यान का अर्थ | है। अपनी काया से भी पृथक मात्र अपने चेतन-तत्त्व में स्थित होता है भविष्य के समस्त कार्यों से निवृत्ति, यानी भविष्य के | होने का यह अवसर है। कायोत्सर्ग का अर्थ मात्र कायोत्सर्ग पाठ संभावित कार्यों का भी अपने आपको कर्ता न मानकर निमित्त | पढ़ना नहीं है। भोजन बनाने की विधि पढ़ने मात्र से भोजन नहीं मानना । निमित्त की मान्यता स्वीकारते ही हमारी भावी कार्यसूची | बनता है। आचार्य अमृतचन्द्र का निम्नांकित कथन विशेष ध्यान का भार कम हो जाता है। ज्ञानी को प्रति समय ऐसा ज्ञान रहता है। | देने योग्य हैअज्ञानी किन्तु जिज्ञासु साधक कम से कम कुछ मिनट के लिए अयि कथमपि मृत्वा तत्त्वकौतूहलीसन्। अपने आगामी कार्य के बोझ को सामायिक के समय उतारता है। ननुभव भवमूर्तेः पार्श्ववर्ती मुहूर्तम्॥ वर्तमान के कार्यों का कर्ता न मानना आलोचना कहलाता (समयसार कलश-२३) है। प्रत्याख्यान व आलोचना के सम्बन्ध में भी इस प्रकार की इस कलश में आचार्य अमृतचन्द्र अज्ञानी जिज्ञासु को उपदेश विवेचना समयसार में आचार्य कुन्दकुन्द ने की है। देते हुए प्रेरणा दे रहे हैं कि अरे भाई ! तू तत्त्वों का कौतूहली होकर, यानी नाटक के रूप में ही सही, अपने आपको मृत मानकर समताभाव के अन्तर्गत साधक यह स्वीकारता है कि कोई एक मुहूर्त के लिए अपने शरीर का पड़ोसी अनुभव कर। भी पदार्थ या व्यक्ति बुरा नहीं है। समस्त पदार्थों एवं व्यक्तियों से इस कायोत्सर्ग के काल को महर्षि महेश योगी की भाषा मोह, द्वेष, कम से कम सामायिक के काल में छोड़ने का संकल्प में भावातीत ध्यान कहा जा सकता है। कर्म सिद्धान्त की भाषा में इस प्रक्रिया में होता है। आचार्य योगीन्दु देव कहते हैं इस काल में पाप कर्मों का पुण्य में संक्रमण व कई कर्मों की राग-द्वेष दो त्यागकर, धारे समताभाव। निर्जरा सम्भव है। आधुनिक वैज्ञानिक भाषा में यह कहा जा यह सामायिक जानना, भाडं जिनवर राव। सकता है कि मन, वाणी एवं शरीर को विश्राम मिल गया है, बुध महाचन्द्र कृत सामायिक पाठ में बहुत ही सुन्दर शब्दों आक्सीजन की खपत कम हो गई है, ब्लडप्रेशर सामान्य होने की में कहा है दिशा में अग्रसर हो गया है, शरीर के समस्त पुों का भटकाव इस अवशर में मेरे सब सम कंचन अरु त्रण। रुकने से शरीर के पुर्जे स्वस्थ मार्ग की ओर बढ़ने लगे हैं । दार्शनिक महल मसान समान शत्रु अरु मित्रहिं सम गण॥ जे. कृष्णमूर्ति की भाषा में यानी सावधान किन्तु प्रयासरहित अवस्था जामन मरण समान जानि हम समता कीनी। की उपलब्धि है। आचार्य अमृतचन्द्र की भाषा में विकल्पजाल से गायक का कालाजत यह भाव नवाना॥१३॥ | रहित साक्षात् अमृत पीने वाली अवस्था है। यह विश्व के ऊपर आचार्य कन्दकुन्द प्रवचनसार में समस्त अन्य द्रव्यों के | तैरने वाली अवस्था है जिसमें न तो कर्म किया जा रहा होता है प्रति माध्यस्थ भाव रखते हुए मात्र अपने आत्म-तत्त्व को ध्यान | और न ही प्रमाद होता है। अध्यात्म की भाषा में ध्यान, ध्याता एवं की प्रेरणा देते हैं ध्येय में अभेदपने की अवस्था है। भक्ति की भाषा में ... पापं जो सिद्धभत्तिजुतो उवगृहणगो दु सव्वधम्माणं। क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजां'। सो उवगृहणकारी सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो॥ यहाँ एक प्रश्न यह उपस्थित हो सकता है कि क्या इस इतना सब मस्तिष्क में प्रवेश करने पर एवं सामायिक के | स्तर की सामायिक हमसे सम्भव है? इसका उत्तर यही है कि समय संकल्पपूर्वक इतना सब स्वीकारने की उत्कट भावना से प्रारम्भ में कठिन होता है। इसमें अभ्यास की आवश्यकता है। हमारे तनाव कुछ ही मिनट में हल्के हो सकते हैं। इससे अगले | प्रारम्भ में विकल्प अधिक आते हैं किन्तु विकल्पों से थोड़ा भी चरण में तीर्थंकरों की वन्दना व स्तवनपूर्वक भक्ति के भावों से रहा। परेशान होने की आवश्यकता नहीं है। जैसे ही लगे कि विकल्प में सहा तनाव या विकल्पों का जाल भी कुछ समय के लिए हमारे हम उलझ गये हैं वैसे ही प्रभुनाम के मन्त्र के सहारे पर मन लगाना मानस पटल से अदृश्य सा हो सकता है। भक्ति में ऐसी सामर्थ्य है। | चाहिए। ज्यों-ज्यों ज्ञाता-द्रष्टा भाव यानी साक्षीभाव विकल्पों के आचार्य कुन्दकुन्द समयसार में ये ही भाव निम्नानुसार व्यक्त करते | | प्रति अपनाते रहेंगे त्यों-त्यों हमारी सामर्थ्य बढ़ती जायेगी। ५ मिनट से प्रारम्भ करते हुए कायोत्सर्ग का काल कुछ महीनों के 22 अक्टूबर 2003 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524278
Book TitleJinabhashita 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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