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________________ श्रावक का प्रथम कर्तव्य देवपूजा डॉ. श्रेयांसकुमार जैन तीर्थकर की दिव्यध्वनि के आधार पर ही गणधर स्वामी ने | एकदम छोड़ देना चाहिए। श्रमण और श्रावक धर्म का प्ररूपण किया है। ध्यान और अध्ययन | द्रव्यपूजा, भावपूर्वक ही फलदायी होती है। अत: गृहस्थ श्रमणधर्म है। दान और पूजा श्रावकधर्म है। जयधवला टीका में | की अपेक्षा द्रव्य और भाव दोनों सापेक्ष हैं। कविवर बनारसीदास आचार्य वीरसेन ने श्रावकधर्म पर विचार करते हुए लिखा है- 'तं जहा | लिखते हैंदाणं पूया सीलमुववासो चेदि चउव्विहो सावयधम्मो' 1/82 अर्थात् लोपै दुरित हरै दुःख संकट, आवै रोग नित देह, दान, पूजा, शील और उपवास चार प्रकार का श्रावक धर्म है। पुण्य भण्डार भरै जस प्रकटे, मुक्ति पंथ सौ करे सनेह। श्रावक के धर्म और कर्तव्यों में देवपूजा को अनिवार्य माना रचे सुहाग देय शोभा जग, परभव पहुँचावत सुरगेह, गया है। श्रावक के षटावश्यक-देवपूजा, गरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, कुगति बन्ध दहमलहि बनारसि, वीतराग पूजा फल येह। तप, दान हैं। श्रावक के इन कर्तव्यों या आवश्यकों में देवपूजा को देवलोक ताको घर आंगन, राजरिद्धि सेवै तसु पाय, प्रथम और अनिवार्य स्वीकार किया है। आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी ताकोमन सौभाग्य आदिगुन, केलिविलासकरनित आय। जिनेन्द्रपूजन की महत्ता स्वीकार करते हुए लिखते हैं सो नर त्वरित तर भवसागर, निर्मल होय मोक्ष पद पाय। देवाधिदेवचरणे परिचरणं, सर्वदुःखनिर्हरणम्। दुख-भावविधिसहित बनारसि, जोजिनवरपूजैमन लाय। कामदुहि कामदाहिनि, परिचिनुयादादृतो नित्यम्॥9॥ अर्थात् द्रव्य भाव विधि सहित वीतराग जिनेन्द्र की पूजा रत्नकरण्डश्रावकाचार करने वाला मानव संसार-सागर से पार हो जाता है। कर्म-मल के इच्छित फल देने वाले और काम बाण का भस्म करने वाले दूर हो जाने से आत्मलाभ प्राप्त करता है । भगवान् की पूजा उपासना जिनेन्द्र भगवान् के चरणों में पूजन करना समस्त दुःखों का नाश करने साधनामय है। वाला है। इस प्रकार प्रतिदिन जिनार्चन करना परमावश्यक है। देव पूजा से महान् फल की प्राप्ति होती है, ऐसा आचार्य वीतराग भगवन्तों की मन, वचन, काय की एकतापूर्वक कुन्दकुन्द स्वामी रयणसार में लिखते हैंजल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फल इन अष्ट द्रव्यों पूयाफलेण तिलोय सुरपुज्जो हवेइ सुद्धमणो। से भक्ति सहित पूजा करने का महान् फल प्राप्त होता है । श्रावकाचारों दाणफलेण तिलोए सास्सुहं भुंजदे णियदं॥१४॥ में आचार्यों ने पुरजोर के साथ कहा है कि गृहस्थ को द्रव्यपूजा की जो शुद्ध-भाव से श्रद्धापूवर्क पूजा करता है, वह पूजा के परमावश्यकता है, क्योंकि गृहस्थ निरन्तर द्रव्यसंग्रह में संलिप्त फल से तीनों लोकों में देवताओं के इन्द्रों से वन्द्य तथा पूज्य हो जाता रहता है। जब तक गृहस्थ मूर्छा कम नहीं करता है, तब तक श्रद्धा, है और जो सुपात्रों को चार प्रकार का दान देता है, वह दान के फल संवेग, वैराग्य-विरति, उपशम एवं अनासक्ति इत्यादि गुणों से | से त्रिलोक सारभूत उत्तम सुखों को भोगता है। गर्भित शुभ-भाव अपने में पैदा नहीं कर सकता तथा देवाधिदेव आचार्य विद्यानन्द स्वामी भी कारण परम्परा से महान् फल वीतराग जिनेन्द्र की पूजा रुचि सम्पन्नता से नहीं कर पाता। अतएव | के मूलस्रोत की पूजा करने की प्रेरणा देते हुए कहते हैंप्रशस्त शुभ भाव में प्रतिबन्धक द्रव्य मूर्छा को हटाना आवश्यक अभिमतफलसिद्धिरभ्युपाय: सुबोधः, है। द्रव्य मूर्छा को पृथक् करने का समर्थ कारण द्रव्यपूजा है। स च भवति सुशास्त्रात्तस्य चोत्पत्तिराप्तात्। द्रव्यपूजा मात्र से परम लक्ष्य की सिद्धि असम्भव है। अत: द्रव्यपूजा इति भवित स पूज्यस्तत्प्रसादात्प्रबुद्धैः, के साथ शुभ-भावों का लक्ष्य रखना आवश्यक है क्योंकि भाव न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति । विशुद्धि के बिना की हुई क्रिया फलवती नहीं होती है। इष्ट फल की सिद्धि का उपाय सुबोध है, सुबोध शास्त्र से गृहस्थ अपने सांसारिक जीवन में विविध द्रव्यों के सहकार होता है, सुशास्त्र की उत्पत्ति आत्मा से होती है, इसलिए उनके से अशुभ भावों से युक्त होता है, उन अशुभ भावों के निर्मूलन के प्रसाद के कारण आप्तपुरुष बुधजनों द्वारा पूजने योग्य हैं । बुद्धिमान् लिए द्रव्यपूजा युक्त भावपूजा उपादेय है। हाँ गृहस्थ को उपवास के उन आप्त की पूजन अवश्य करें, क्योंकि कृत उपकार को सज्जन दिन राग के अंगों का परित्याग पूर्वक भावपूजा करना श्रेयस्कर है।। विस्मरण नहीं करते हैं। पण्डित श्री आशाधरजी लिखते हैं आचार्य योगीन्दुदेव ने परमात्मप्रकाश में कहा हैपूजयोपवसन् पूज्यान्, भावमय्यैव पूजयेत्। दाणं ण दिण्णउ मुणिवरहं, ण वि पुज्जइ जिणणाहु। प्रासुकद्रव्यमय्या वा, रागानं दूरमुत्सृजेत्॥4॥ पंचणवंदियपरमगुरु, किमुहोसह सिवलाहु॥१/१९१॥ अ. 4 सागारधर्मामृत जिसने मुनियों को दान नहीं दिया, जिनेन्द्र की पूजा नहीं की उपवास के दिन गृहस्थ को भावमयी पूजा ही करनी चाहिए तथा पञ्चपरमेष्ठी की वंदना नहीं की, उसे मुक्ति का लाभ कैसे हो अथवा प्रासुक द्रव्य से पूजन करना चाहिए और राग के अंगों को सकता है? -अक्टूबर 2003 जिनभाषित 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524278
Book TitleJinabhashita 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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