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अर्थ - श्रीकृष्ण की बात सुनकर नारद कहने लगा सुनो ! पूर्व विदेह की पुंडरीकिणी नगरी में मैंने स्वयंप्रभ तीर्थंकर को बालक प्रद्युम्न की वात पूछी थी। उनकी वाणी से मैंने प्रद्युम्न के 'भवांतर जान लिये हैं। और वह इस वक्त किस स्थान में बढ़ रहा है तथा उसको क्या- क्या महान् लाभ होने वाला है यह भी मैंने उन्हीं भगवान् की वाणी से जान लिया है।
उत्तर पुराण के इस उल्लेख से प्रगट होता है कि नारद ने पद्युम्न का हाल विदेह क्षेत्र में स्वयंप्रभ तीर्थंकर से जाना था। न कि सीमंधर स्वामी से। वहाँ उस वक्त सीमंधर थे ही नहीं बल्कि वे तो उस समय पैदा भी नहीं हुए थे। क्योंकि एक नगरी में ही नहीं विदेह के किसी एक महादेश में भी एक काल में दो तीर्थंकरों का सद्भाव नहीं हो सकता है।
यहाँ यह भी ध्यान में रखने की बात है कि ये स्वयंप्रभ तीर्थंकर वे नहीं हैं जिनका नाम बीस सीमंधरादि में ६ वें नम्बर पर आता है। वे तो धातकी खण्ड के विदेहक्षेत्र में हुए हैं। इसलिये उत्तर पुराण में लिखे उक्त तीर्थंकर पुंडरीकिणी नगरी में उस वक्त कोई जुदे ही स्वयंप्रभ नाम के तीर्थंकर थे, जिनके पास में जाकर नारदजी ने प्रद्युम्न का हाल पूछा था। अगर उस वक्त वहाँ सीमंधर होते तो आचार्य गणुभद्र स्वयंप्रभ का नाम नहीं लिखते ।
पुष्पदंत कवि का बनाया हुआ अपभ्रंश भाषा में एक महापुराण है जिसमें गुणभद्र कृत उत्तरपुराण की कथाओं का अनुसरण किया गया है। उसके तीसरे खण्ड के पृ. 160 पर भी यह कथन उत्तरपुराण के अनुसार ही लिखा है। अर्थात वहाँ भी प्रद्युम्न का हाल स्वयंप्रभ तीर्थंकर ने बताया लिखा है।
इस प्रकार उत्तरपुराण जो कि मूलसंघ की परम्परा का ग्रन्थ माना जाता है उसके अनुसार तो नारद जी विदेह में प्रद्युम्न का हाल पूछने गये तब तक तो सीमंधर स्वामी वहाँ विद्यमान ही नहीं थे इसलिये यही मानना पड़ता है कि वे बाद में ही कभी हुए हैं
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जबकि उत्तर पुराण से डेढ़ सौ वर्ष करीब पहिले पद्म पुराण बन चुका था और हरिवंश पुराण भी उत्तर पुराण से पहिले का है फिर भी गुणभद्र ने उनके कथन को अपनाया नहीं. इससे यही फलितार्थ निकलता है कि रविषेण और जिनसेन (हरिवंश पुराणकार) की आम्नाय अलग थी एवं गुणभद्र की अलग थी। भिन्न आम्नाय होने से ही यही नहीं अन्य भी कितना ही कथन आपस में मिलता नहीं है। यह समस्या श्रुतसागर सूरि के सामने भी आई दिखती है इसी से उन्होंने इनका समाधान करते हुए पट् प्राभृत की संस्कृत टीका के अन्त (पृष्ठ ३७९) में इस प्रकार लिखा है:
'पूर्व विदेह पुण्डरीकिणी नगर वंदित सीमंधरा पर नाम स्वयं प्रभ जिनेन
अर्थ - पूर्व विदेह की पुण्डरीकिणी नगरी के जो सीमंधर
अक्टूबर 2003 जिनभाषित
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हैं उन्हीं का दूसरा नाम स्वयंप्रभ है।
यह समाधान कहाँ तक समुचित है इस पर विशेषज्ञ विद्वान् विचार करें। वृहज्जैन शब्दार्णव प्रथम भाग में, मोक्षमार्ग प्रकाशक के प्रारम्भ में, पुण्याह वाचन में, द्यानतराय जी, जौहरीलाल जी, थानसिंह जी कृत बीस विहरमान पूजाओं में, संस्कृत विद्यमान विंशति जिन पूजा आदि में बीस तीर्थंकरों के नाम इस प्रकार हैं
१. सीमंधर २. युग्मंधर ३ बाहु ४. सुबाहु ५. संजातक ६. स्वयंप्रभ ७. ऋषभानन ८. अनंतवीर्य ९. सूर्यप्रभ १० विशाल कीर्ति ११. वज्रधर १२. चन्द्रानन १३. चन्द्रवाहु (भद्रबाहु ) १४. भुजंगम १५. ईश्वर १६. नेमप्रभ १७. वीरसेन १८. महासेन १९. देवयशं ( यशोधर) २०. अजितवीर्य ।
उपरोक्त कुछ ग्रन्थों में क्रमश: चार तीर्थकरों को जंबुद्वीप विदेह में, आठ को धात की खंड में और आठ को पुष्करार्ध द्वीप में बताया है। तदनुसार यह बात इस लेख के शुरू में भी व्यक्त की गई है किन्तु प्राचीन महापुराण (भारतीय ज्ञान पीठ, दिल्ली से प्रकाशित) पुण्याश्रव कथा कोश (जीवराज ग्रन्थमाला शोलापुर से प्रकाशित ) में इससे विपरीत कथन पाया जाता है, जिनका विवरण मयपृष्ठ के इस प्रकार है:
सीमंधर- धातकी खण्ड द्वीप पूर्व विदेह आदिपुराण (जिनसेन कृत) प्रथम भाग पृष्ठ १४५ तथा पुण्याश्रव कथा कोश पृष्ठ २४८ ।
युगमंधर- पुष्करार्थ दीप पूर्व विदेह आदिपुराण प्रथम भाग पृष्ठ १४६ तथा उत्तरपुरण (गुणभद्र कृत) पृष्ठ ८७ एवं पुण्याश्रव कथा कोश पृष्ठ २४५ व २४८ ।
स्वयंप्रभ जम्बूद्वीप पूर्व विदेह आदिपुराण प्रथम भाग पृष्ठ १९९ उत्तर पुराण पृष्ठ १४, १६६, १७३, ३४१, ४११ । स्वयंप्रभधातकी खण्ड द्वीप उत्तर पुराण पृष्ठ ५०-५१ । इस विषय में एक विशेष बात और ज्ञातव्य है समाधि भक्ति के अन्तर्गत एक गाथा पाई जाती है:
पंच अरिजयणामे पंच व मदिसायरे जिणे बंदे पंच जोवरणामे पंच व सीमंदरे बंदे ॥९ ॥
इसमें बताया है कि प्रत्येक विदेह क्षेत्र में अरिंजय, मतिसागर, जसोधर और सीमंधर ये चार-चार तीर्थंकर विशेष जुदा ही होते हैं।
इस सब से यह फलित होता है कि कहीं एक रूपता एक नियम नहीं है एक सीमंधर स्वामी भी पाँचों मेरु सम्बन्धी पाँचों विदेहों में एक ही समय में पाये जाते हैं यह नाम सर्वत्र शाश्वत रूप है। इस विषय में और भी कोई मतितार्थ हो या कोई संशोधन की स्थिति हो तो विद्वानों से निवेदन है कि वे उसे अवश्य प्रकट करें। शास्त्र समुद्र अथाह है।
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जैन निबंध रत्नावली
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