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________________ श्री सीमंधर स्वामी का समय जिस क्षेत्र के बीच में मेरु पर्वत होता है उसको विदेह क्षेत्र । से देखा है। उनके उस उत्सव में इन्द्रादि देव भी विमानों पर बोलते हैं। इस क्षेत्र में देवकुरु-उत्तरकुरु को छोड़ कर शेष में सदा | चढ़कर आये थे। मैंने वहाँ यह भी सुना कि इनके जन्म समय में चतुर्थ काल रहता है। जहाँ कभी मोक्षमार्ग बंद नहीं होता है। और | भी इन्द्रादिकों ने आकर इनका जन्मभिषेक मेरु पर्वत पर किया सदा ही जहाँ के मनुष्यों की काया प्रायः पाँच सौ धनुष की ऊँची | था। जैसा कल्याणकों का उत्सव यहाँ भरत क्षेत्र में मुनिसुव्रतभगवान व आयु अधिक से अधिक एक करोड़ पूर्व वर्ष की होती है। मेरु का हुआ है, वैसा ही विदेह में सोमंधर स्वामी का हुआ है।' से पूर्व दिशा की तरफ का भाग पूर्व विदेह और पश्चिम का भाग इस वृत्तांत से जाना जाता है कि सीमंधर स्वामी का अस्तित्व पश्चिम विदेह कहलाता है। अढ़ाई द्वीप में पांच मेरु पर्वत होने के | मुनिसुब्रत और नमि तीर्थंकर के अंतराल समय में था। कारण पाँच विदेह क्षेत्र होते हैं। सभी विदेहों में उक्त प्रकार से जिनसेन कृत हरिवंश पुराण पर्व 43 श्लो. 90 में लिखा है पूर्व-पश्चिम भाग होते हैं। पूर्व-पश्चिम भागों में सोलह-सोलह कि प्रद्युम्न के हरे जाने के बाद उसका पता लगाने को नारदजी पूर्व महादेश होते हैं। पाँच विदेहों के दश भागों में कुल महादेशों की विदेह में पुष्कलावती देश की पुंडरीकिणी नगरी में गये। वहाँ संख्या 160 होती है। कभी-कभी एक ही समय में इन 160 देशों समवशरण में पहुंचकर भगवान सीमंधर से प्रझुम्न का हाल मालूम में 160 तीर्थंकरों का सद्भाव रहता है। कहते हैं श्री अजीत नाथ | किया। स्वामी के समय में पांचों विदेहों में 160 तीर्थंकर विद्यमान थे। पद्मपुराण के कथनानुसार तो सीमंधर ने मुनिसुब्रत और निश्चयत: प्रत्येक विदेह के पूर्व पश्चिम भाग में कम से कम दो-दो | नमि के अंतराल समय में दीक्षा ली थी और हरिवंशपुराण के तीर्थंकर तो हमेशा विद्यमान रहते ही हैं। तदनुसार पाँचों विदेहों में अनुसार नेमिनाथ के समय में वे केवल ज्ञानी हो गये थे। यह तो कम से कम 20 तीर्थंकर नित्य पाये जाते हैं। इस वक्त भी पांचों स्पष्ट ही है कि- पद्मपुराणकार ने पउमचरिय नामक प्राकृत भाषा विदेहों में सीमंधरादि 20 तीर्थंकर मौजूद हैं। जिस जंबूद्वीप में हम के पुराण का बहुत करके अनुसरण किया है। इसलिए सीमंधर रहते हैं उसके विदेह क्षेत्र में भी पूर्व भाग में दो और पश्चिम भाग स्वामी का उक्त वृत्तांत जैसा पउमचरिय में लिखा था वैसा ही में दो कुल 4 तीर्थंकर इस वक्त मौजूद हैं । सीमंधर, युग्मंधर, बाहु पद्मपुराण में लिखा गया है। ऐसा ही कथन हेमचन्द्र कृत जैनरामायण और सुबाहु ये उनके नाम हैं। उनमें से सीमंधर स्वामी की नगरी | श्वेताम्बर ग्रन्थ के भी हैं। पूर्व विदेहस्थ पुष्कलावती देश की पुंडरीकिणी है। युग्मंधर की हरिवंशपुराणकार जिनसेन के समक्ष रविषेण का पद्मपुराण नगरी पश्चिम विदेहस्थ व प्रदेश की' विजया' है। बाहु भगवान् मौजूद था ही अत: जिनसेन भी रविषेण के कथन की संगति की नगरी पूर्वविदेहस्थ वत्स की 'सुसीमा' है और सुबाहु की बैठाते हुये नेमिनाथ के समय में सीमंधर स्वामी को केवल ज्ञानी नगरी पश्चमविदेहस्थ सरित् देश की 'वीतशोका' है। सीमंधर बीस प्रगट किया और नारद जी ने उनसे प्रद्युम्न का हाल जाना ऐसा तीर्थंकरों का चरित्र ग्रन्थ तो हमारे देखने में नहीं आया है। अलबत्ता लिखा। बीस बिहरमान पूजापाठों में उनके माता-पिता चिन्ह आदिकों के | इन दोनों ग्रन्थों की इन कथाओं के आधार पर बहुत से नाम जरूर पढ़े हैं। | जैनी भाई यह समझे बैठे हैं कि - मुनिसुब्रत स्वामी के तीर्थकाल अब हमें यह देखना है कि ये बीस तीर्थंकर जो इस समय | से ही सीमंधर भगवान् का अस्तित्व चला आ रहा है। महासेनकृत विदेहों में विद्यमान हैं। इनका प्रादुर्भाव कब हुआ है ? भरतक्षेत्र के | प्रद्युम्नचरित (११वीं शती) पृष्ठ ५२-५३ में भी प्रद्युम्न का हाल किस 2 तीर्थंकर के तीर्थकाल में ये हुए हैं। शास्त्रों में इस विषय | सीमंधर स्वामी से ही जानना लिखा है। में सिर्फ एक सीमंधर स्वामी के बारे में कुछ जानकारी मिलती है। किन्तु आचार्य श्री गुणभद्र प्रणीत उत्तर पुराण में इससे अन्य तीर्थंकरों के बावत् कथन हमारे देखने में नहीं आया है। भिन्न कुछ और ही कथन मिलता है। विदेहक्षेत्र में जाकर नारद रविषेण कृत पद्मपुराण पर्व 23 श्लो. 7 आदि में लिखा | जी ने जिन तीर्थंकर केवली से प्रद्युम्न का पता लगाया था। वह है कि - एकबार नारदजी राजा दशरथ से मिलने गये। दशरथ ने कथन उत्तर पुराण में इस प्रकार हैउनसे देशांतरों का हाल पूछा । उस प्रसंग में उत्तर देते हुए नारदजी नारदस्तत्वमाकर्ण्य श्रणु पूर्व विदेहजे। ने कहा कि नगरे पुंडरीकिण्यां मया तीर्थकृतो गिरा॥६८॥ 'मैं पूर्व विदेह में गया था, वहाँ पुंडरीकिणी नगरी में स्वयं प्रभस्य ज्ञातानि वार्ता बालस्य पृच्छता। सीमंधरस्वामी का दीक्षाकल्याणक का महोत्सव मैंने अपनी आँखों भवांतराणि तद्वृद्धिस्थानं लाभो महानपि॥१९॥ -अक्टूबर 2003 जिनभाषित 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524278
Book TitleJinabhashita 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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