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प्रवचनसार
प्रकृति से दूर
आ. श्री विद्यासागर जी
थे।
तत्त्व चिन्तक दार्शनिक आचार्य विद्यासागर जी ने । हुआ ऐसा, ठंड में गरमी आ गयी, लाल हो गये, क्योंकि अन्दर के अमरकंटक में कहा कि काया की अनुकूलता के लिए कृत्रिम परिणामों ने बाहर के परिणामों को प्रभावित कर दिया, अंदर की साधनों के प्रबन्धों से प्रकृति से दूर हो रहे हैं । बाह्य प्रतिकूलता में | गरमी से बाहर की ठंडक में भी गरमी आ गयी। ऐसा ही साधना आन्तरिक शक्ति उद्घाटित होती है, यह ज्ञान कराते हुए साहित्य | रत साधु आत्मा की अनुकूलता से बाहर की प्रतिकूलता की अनुभूति साधक आचार्य श्री ने कहा कि शून्य से चालीस डिग्री कम तापमान | करते हैं। में भी भारत की रक्षा के लिए सैनिक सीमा पर अपने कर्त्तव्य को काया की अनुकूलता के लिये कृत्रिम साधनों की निर्भरता निभाता है, क्योंकि उसके अन्दर में भारत की रक्षा की संकल्प से प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं यह बताते हुए आचार्य श्री ने कहा शक्ति का बल है। इस अवसर पर असम, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, | कि अमरकंटक में शीत काल में बहुत ठण्ड पड़ती है। प्रबंधकों ने हरियाणा आदि सुदूर प्रान्तों सहित बड़ी संख्या में श्रोता उपस्थित | बताया महाराज शीत ऋतु के पश्चात् अमरकंटक का मौसम सुहावना
हो जाता है, शीत ऋतु में ही हम सर्वप्रथम अमरकंटक आए थे तब बादलों से आच्छादित अमरकंटक की सभा में आचार्य श्री भी यहां बादल मंडरा रहे थे। प्रबंधकों को ठंड में पसीना आ रहा ने कहा कि श्रोताओं को बादलों के स्पर्श से शीत की अनुभूति हो | था। आचार्य श्री ने कहा कि कर्मों के बंधन कहने के लिए शीत रही है। प्रतिकूल मौसम में काया की अनुकूलता के लिए कृत्रिम ऋतु में ऐसे ही स्थल उपयुक्त होते हैं । साधना के क्षेत्र में संसारी प्रबंध किए जाते हैं, किन्तु आपके सम्मुख दिगम्बर साधु विराजमान साधनों की कोई आवश्यकता नहीं है । यहाँ बादल आ रहे हैं, स्पर्श हैं, उन्हें किसी कृत्रिम साधनों की आवश्यकता नहीं क्योंकि साधनों कर चले जाते हैं। श्रमण प्रकृति के सानिध्य में साधना करते हैं, को त्याग कर साधना की जाती है। अंदर अनुकूलता है तो बाहर स्वाध्याय से कर्मों की निर्जरा हो जाती है । सूरज चांद छिपे निकले की प्रतिकूलता का कोई प्रभाव नहीं हो रहा। यही अन्तर है, साधु | ऋतु फिर-फिर कर आवे, प्यारी आयु ऐसी बीते पता नहीं पावे।
और श्रावक में। साधु आत्मिक अनुकूलता के लिए साधना कर गरमी में बदली की प्रतीक्षा, शीत ऋतु में गरमी की प्रतीक्षा, करते रहे हैं, श्रावक काया की अनुकूलता के लिए साधनों का प्रबंध। हुए आयु निकल जाती है। अंदर यदि कटुता हो तो बाहर कटुता दोनों बादलों के समूह के सानिध्य में हैं, किन्तु साधु और श्रावक | व्याप्त हो जाती है । अंदर मधुरता होने पर चहुँ ओर माधुर्य छा जाता की अनुभूति पृथक-पृथक है। आचार्य श्री ने बताया कि काया की | है। कृत्रिम प्रबंधों, साधनों की आवश्यकता ही क्या है। इन प्रबंधों अनुकूलता के लिए शीत में ऊष्ण स्थानों पर एवं ग्रीष्म काल में | में न्यूनता होने से भारत का ऋण भार भी कम हो सकता है। बच्चों शीतल स्थानों पर जाने का प्रबन्ध किया जाता है। किन्तु आत्मा की रक्षा के लिए भी मृगेन्द्र के सामने खड़ा हो जाता है। आत्मा की अनुकूलता में रत साधक ग्रीष्म में ऊष्ण और शीत काल में | की रक्षा के लिए संकल्प हो तो अनुकूलता की ही अनुभूति होती शीतल स्थानों पर साधना के लिए जाते हैं, क्योंकि बाह्य प्रतिकूलता | है। भूत से वही भय भीत होता है जिसके अन्दर भय के भाव होंगे, में ही आंतरिक शक्ति उद्घाटित होती है। अंदर की अनुभूति से | निर्भय के भावों से भूत स्वयं भयभीत रहता है। रत्नत्रय की शुद्ध बाहर का मौसम भी अनुकूल हो जाता है। कायिक रोग से मुक्ति | आराधना से अनन्तकालीन रोगों से मुक्ति मिल सकती है। ज्ञानवान के लिए चिकित्सक शीत ऋतु में भी शीतल स्थानों पर जाने का | विद्यार्थी की ऊपरी कक्षा में उन्नति को देखकर सहपाठियों को भी परामर्श देता है तो तत्काल प्रबंध किया जाता है क्योंकि रोग मुक्त | प्रेरणा मिल जाती है। इसके पूर्व सभा का संचालन करते हुए होना है। साधक भी अनन्त कालीन रोग से मुक्त होना चाहता है | पत्रकार वेद चन्द्र जैन ने बताया कि सर्वोदय तीर्थ समिति द्वारा इसीलिए साधनों का आश्रय तजकर साधना का सहारा लेता है, | आचार्य श्री की प्रेरणा से अमरकंटक में लगभग एक हजार विकलांगों यह साधना ग्रीष्म स्थानों में शीतलता का और शीतल स्थानों में | के कृत्रिम अंग निःशुल्क लगाए गये हैं। कृत्रिम अंगों के प्रत्यारोपण ऊष्णता की अनुभूति कराती है, अंदर के परिणामों से बाहर के भी | के लिये सुदूर प्रदेशों से आए श्रोताओं ने सहयोग राशि की घोषणा परिणाम परिवर्तित हो जाते हैं। इसकी गूढ़ता को सहजता से | की। कार्यवाहक अध्यक्ष प्रमोद सिंघई ने आगंतुकों का अभिनन्दन सिखाते हुए आचार्य श्री ने बताया कि ठंड में भी यदि शेष का | किया। आवेश हो तो शरीर गर्म हो जाता है गुस्से में लाल हो जाते हैं। क्यों |
वेदचन्द जैन
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अक्टूबर 2003 जिनभाषित
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