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________________ __ आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने भावपाहुड़ में भी देवपूजनको । के समान है। उपासकाध्ययन में बताया गया है किजन्म मृत्यु का विनाशक वर्णित किया है। एकाऽपि समर्थेयं जिनभक्तिदुर्गतिं निवारयितुम्। जिणवर चरणांवुरुह णमंति जे परमभत्तिरायण। पुण्यानि च पूरयितुं दातुं मुक्तिश्रियं कृतिजनम्॥१५५॥ ते जम्मवेलिमूलं खणंति वरभावसत्तेण ॥१५०॥ अकेली एक जिनभक्ति ही ज्ञानी के दुर्गति का निवारण जो भव्य जीव उत्कृष्ट भक्ति तथा अनुराग से भी जिनेन्द्रदेव | करने में, पुण्य का संचयन करने में और मुक्ति रूप लक्ष्मी को देने के चरण कमलों को नमस्कार करते हैं, वे उत्कृष्ट भाव रूपी शस्त्र | में समर्थ है। के द्वारा जन्म रूपी बेल की जड़ को खोद लेते हैं। विगत् 50-60 वर्षों से कुछ आगम विरुद्ध वृत्ति वालों ने जिनेन्द्रदेव की पूजा को गृहस्थ के लिये आवश्यक बताते | जिनबिम्बों को जड़ कहना शुरु कर दिया है और वे कहते हैं कि हुए आचार्य पद्मनन्दि कहते हैं जड़ की पूजन से चेतन को क्या लाभ? ये जिनेन्द्रं न पश्यन्ति, पूज्यन्ति स्तुवन्ति न। उन आगम अनभिज्ञ लोगों को चारित्रसार की ये पंक्तियाँ निष्फलं जीवितं तेषां, तेषां धिक् च गृहाश्रमम्॥ अवश्य पढ़ना चाहिए, फिर चिन्तन मनन के बाद अपनी भ्रान्त पंचविंशति का ६/१५ | धारणा का उन्मूलन करना चाहिएजो जीव भक्ति से जिनेन्द्र भगवान् का दर्शन न करते हैं, न | 'जिनबिम्बानि भव्यजनभक्त्यनुसारेण गीर्वाणनिर्वाणपदपूजन करते हैं और न स्तुति ही करते हैं, उनका जीवन निष्फल है, | प्रदायिनि गरुडमुद्रया यथा गरलापहरणं तथा चैत्यावलोकनमात्रेणैव उनके गृहस्थाश्रम को धिक्कार है। दुरितापहरणं भवत्यतश्चैत्यस्यापि वन्दना कार्या।' पृ. 150 अर्थात् देवपूजा-भक्ति सभी कर्मों को शिथिल करने के लिए एक जिनबिम्ब भव्य लोगों की भक्ति के अनुसार स्वर्ग और मोक्ष पद देते समर्थ निमित्त है। जैसा कि कल्याण मंदिर स्तोत्र में श्रीमद् | हैं, जैसे गरुडमुद्रा से विष दूर हो जाता है, उसी प्रकार जिनबिम्ब कुमुदचन्द्राचार्य ने लिखा है के दर्शनमात्र से पापों का नाश हो जाता है। इसलिए जिनबिम्ब की जिस प्रकार चन्दन के पेड़ों से लिपटे हुए सर्प मयूर की | वन्दना करनी चाहिए और जिनबिम्ब के आश्रय होने से चैत्यालय ध्वनि सुनकर भाग जाते हैं, उसी प्रकार भगवान जिस भक्त के हृदय | की भी वंदना करनी चाहिए। में आप समा जाते हैं, उसके कर्मबन्ध शीघ्र ही शिथिल हो जाते हैं। भक्ति पूजन को मात्र पुण्य का हेतु कहने वालों से अनुरोध जो गृहस्थ देवपूजा के बिना कल्याण चाहता है, वह अज्ञान- | है कि धवल आदि ग्रन्थ का अध्ययन करें, उनसे ज्ञात होगा कि भाव में स्थित है। देवपूजा स्तवन रूप भक्ति में अद्भुत शक्ति है, | पूजन केवल बन्धका कारण नहीं है। पूजन आदि शुभ-भाव संवर वह सम्पूर्ण सन्तापों से विमुक्त कराकर सुख प्राप्त कराती है। पापों | निर्जरा के भी कारण हैं-जिनपूया वंदण णमंसणेहिं य बहूकम्मपदेस का क्षय करने वाली होती है। आचार्य श्री मानतुङ्ग देवाधिदेव णिज्जरुवलंभादो। (धवला 10 पृ. 289) जिनपूजा, वन्दना और आदिनाथ जिनेन्द्र की स्तुति करते हुए कहते हैं नमस्कार आदि शुभ भावों से भी बहुत कर्मप्रदेशों की निर्जरा पाई त्वत्संस्तवेन भव-सन्तति सन्निबद्धं, जाती है। पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम्। अशुभोपयोग तो संसार का ही कारण है किन्तु शुभोपयोग आक्रान्तलोकमलिनीलमशेषमाशु, को अशुभोपयोग के समान नहीं कहा जा सकता है क्योंकि शुभोपयोग सूर्यांशुभिन्नमिवशार्वरमन्धकारम्॥ भक्तामर स्तोत्र ७ | आम्नव, बन्ध के साथ संवर, निर्जरा का भी कारण है। जिनभक्ति हे जिनेन्द्र ! जिस प्रकार सूर्य की किरणों से सम्पूर्ण लोक रूप शुभ-भाव से संसार का छेद करके अक्षय अनन्त सुख में व्याप्त भ्रमर सदृश कृष्ण रात्रि का अन्धकार अति शीघ्र मिट जाता | (मोक्षसुख) को प्राप्त किया जा सकता है। आचार्य श्री कुन्दकुन्द है, उसी प्रकार आपके स्तवन से जीवों के संसार परम्परा से बन्धे | स्वामी, अमृतचन्द्राचार्य आदि के ग्रन्थों में शुभोपयोग से तथा भक्ति हुए पाप क्षण भर में समाप्त हो जाते हैं। रूप शुभोपयोग से व विनयरूप शुभोपयोग से मोक्ष की प्राप्ति होती - जिनस्तवन की महिमा अगम-अपार है जिसे स्तुतिकारों ने है, ऐसा कहा है, जो परम पद मुक्ति की प्राप्ति का कारण हो वह विशेष रूप से प्रस्तुत की है। आचार्य समन्तभद्र लिखते हैं- सर्वथा हेय हो सकता है ? विचारणीय है। जन्मारण्यशिखी स्तवः स्मृतिरपि क्लेशाम्बुधे नौ पदे।। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने भावपाहुड़ में उपयोगों का भक्तानां परमी निधिः प्रतिकृतिः, सर्वार्थसिद्धिः परा॥ | वर्णन करते हुए लिखा है स्तुतिविद्या ११५ भावं तिविहपयारं सुहासुहं सुद्धमेव णायव्वं। जिनेन्द्र भगवान् का स्तवन रूप शुभ-भाव संसार रूपी असुहं च अट्टरुदं सुहं धम्मं जिणवरिदेहि ।। ७६ ॥ अटवी को नष्ट करने के लिए अग्नि के समान है। अर्थात् जिस भाव तीन प्रकार के शुभ, अशुभ और शुद्ध जानना चाहिए। प्रकार जिनेन्द्र का स्तवन रूप शुभ भाव भी संसार के भ्रमण को नष्ट | इनमें आर्त, रौद्र को अशुभभाव और धर्म्यध्यान को शुभभाव जिनेन्द्र कर देता है और मोक्ष को प्राप्त करा देता है। | भगवान् ने बताया है। जिनेन्द्र स्मरण दुःख रूप समुद्र से पार होने के लिए नौका | धर्म्यध्यान शुभभाव है, इसी शुभभाव (शुभोपयोग) से श्री 6 अक्टूबर 2003 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524278
Book TitleJinabhashita 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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