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________________ वीरसेन स्वामी ने मोहनीयकर्म का क्षय बतलाया है-मोहणीयविणासो । स्नपनार्चा स्तुति जापान् साम्यार्थं प्रतिमार्पिते। पुण्ण धम्मज्झाणफ लं, सुहु मसां परायचरितसमए तस्स युज्यांथाऽऽनायमाद्यादृते संकलिपतेऽर्हति ॥ विणासुवलंभादो ॥ (धवला पु.13, पृ. 81) मोहनीयकर्म का विनाश साम्य-भाव की प्राप्ति के लिए अर्हन्त प्रतिमा का स्थापन, करना धर्म्यध्यान (शुभभाव-पुण्यभाव) का फल है क्योंकि | अर्चन, स्तवन और जपन करें। सूक्ष्मसाम्पराय दसवें गुणस्थान के अन्तिम समय में मोहनीयकर्म भरत ने खोटे स्वप्नों के निवारण के लिए क्या किया था, का विनाश देखा जाता है। अत: यह स्पष्ट है कि शुभोपयोग उनका वर्णन करते हुए जिनसेनाचार्य लिखते हैंमोक्षमार्ग में सहकारी है। शान्तिक्रियामतश्चक्रे दुःस्वप्नानिष्टशांतये। शुभोपयोग सम्यग्दृष्टि के ही रहता है। आचार्य देवसेन ने जिनाभिषेकसत्पात्रदानाद्यैः पुण्यचेष्टितैः कहा है कि 'सम्माइट्ठी पुण्णं ण होइ संसारकारणं णियमा' अर्थात् ॥आदिपुराण ४१/८१ सम्यग्दृष्टि का पुण्य संसार का कारण नहीं होता। सम्यग्दृष्टि गृहस्थ दुःस्वप्नरूपी अनिष्ट की शांति के लिए जिनेन्द्र भगवान् का को शुद्धोपयोग की प्राप्ति दुर्लभ है । जैसा कि प्रवचनसार की टीका | अभिषेक सत्पात्र दान आदि पुण्य क्रियाओं से शांति क्रिया की थी। में लिखा है- गृहिणां तु सर्वनिरतेतरभावेन शुद्धात्मप्रकाशनस्याभावात्। अभिषेक पूजन के पूर्व जिस प्रकार आवश्यक है उसी (3/54) गृहस्थों के सर्वविरति का अभाव है, अतएव शुद्धात्माचरण प्रकार आह्वानन, स्थापन और सन्निधिकरण भी आवश्यक हैं। की स्थिरता के प्रकाश का अभाव है। श्रावक पीले चावलों या लौंग से ठोना पर वीतराग जिनबिम्ब के जब शुद्धोपयोग गृहस्थ प्राप्त नहीं कर सकता है, तब उसे सामने जिनेन्द्र भगवान् का आह्वानन करता है और मन, वचन, काय शुभोपयोग ही एकमात्र आश्रयभूत है, इसलिये उसे प्रतिदिन ब्रह्ममुहूर्त | की एकाग्रता के लिए उसी ठोने पर स्थापना करता है । उस ठोने पर में शय्या का परित्याग करके णमोकार महामंत्र के स्मरणानन्तर | स्थापित चावलों में जिनबिम्ब का स्थापन होने से वे अतिशय पवित्र नित्यक्रिया से निवृत्त होकर स्नान कर धुले हुए शुद्ध धोती दुपट्टा होते हैं, उन्हीं के निमित्त से अपनी भावना पवित्र होती है। पूजक आदि वस्त्र पहनकर घर से न्यायोपार्जित सम्पत्ति से क्रय की हुई | द्वारा अपने भावों को जिनेन्द्र सदृश बनाना सन्निधिकरण है। प्रासुक सामग्री को थाली में लेकर जिनमंदिर में जाना चाहिए। वहाँ पूजक अभिषेक, आह्वानन, स्थापन आदि करके पूजन में सविनय जिनबिंबों को नमन करके तदनन्तर कुएं से जल लाकर | प्रवृत्त होता है । आदिपुराण में जिनसेनाचार्य ने भरत द्वारा बताये गये अग्नि पर प्रासुक करके द्रव्य धोकर वेदी शुद्धि करनी चाहिए। द्रव्य | पूजन के प्रकारों पर प्रकाश डाला है- अरिहन्तदेव की पूजा चार की शुद्धि भावविशुद्धि के लिये अत्यावश्यक होती है, इसीलिये प्रकार की होती है। नित्यमह, चतुर्मुखमह, कल्पद्रुममह और पूजन के प्रारंभ में पूजक प्रतिज्ञा करता है आष्टाह्निकपूजा। प्रतिदिन अपने घर से जिनालय में ले जाये गये द्रव्यस्य शुद्धिमधिगम्य यथानुरुपं भावस्य, गन्ध, अक्षत, पुष्प आदि द्रव्यों से जिन भगवान् की पूजा करना शुद्धिमधिकामधिगन्तुकामः। नित्यमह कहलाती है। महामुकुटबद्ध राजाओं के द्वारा की जाने आलम्बनानि विविधान्यवलम्ब्यबल्गन, वाली पूजा महामह या सर्वतोभद्र है। चक्रवर्तियों द्वारा किमिच्छक भूतार्थयज्ञपुरुषस्य करोमि यज्ञम्॥ दान देकर जिनार्चन करना कल्पद्रुममह है। आष्टह्निक पर्व में सर्व द्रव्यों की शुद्धता को पाकर जिनस्तवन, जिनविम्बदर्शन साधारण जनों के द्वारा नंदीश्वरद्वीप गत प्रतिमाओं की अर्चना आदि अनेक अवलम्बनों का आश्रय लेकर भूतार्थ रूप पूज्य अरिहंत | आष्टाह्रिकपूजा है। इन चार प्रकार की पूजाओं के सिवाय इन्द्रों द्वारा आदि का पूजन करता हूँ। की जाने वाली महान् पूजा को इन्द्रध्वजमह कहते हैं। जिनपूजा के पाँच अंग हैं- अभिषेक, आह्वानन, स्थापन, श्रावक (पूजक) को नित्यमह पूजन तो करना आवश्यक सन्निधिकरण और विसर्जन। इन पांचों में से एक के बिना भी पूजा ] ही है, किन्तु नैमित्तिक पूजाओं को करके भी महान् पुण्य प्राप्त करना दोषप्रद है। वर्तमान में आगम से अनभिज्ञ कुछ लेखकों ने अभिषेक | चाहिए क्योंकि भव्य मार्गोपदेशक उपासकाध्ययन में आचार्य यही और स्थापना का निषेध किया है। उन्हें भी आगम प्रमाणों से अपनी प्रेरणा दे रहे हैं- 'प्रतिष्ठा कराने से, अभिषेक से, पूजा करने से और भ्रान्त धारणा को छोड़ देना ही उचित है। दान के फल से मनुष्य इस लोक और परलोक में देवों के द्वारा पूज्य आगम में अभिषेक पूर्वक ही जिनपूजा का विधान है- | होता है।' जिनाभिषेक, जिनपूजन, जिनप्रतिष्ठा और जिनगुणकीर्तन 'सिद्धभक्त्यादिशान्त्यन्ताः पूजाभिषेकमंगलं' (सागारधर्मामृत) | करने का जो महान् पुण्य होता है, उसे मैं अल्पबुद्धि कैसे वर्णित अर्थात् पूजा अभिषेक और मंगलक्रिया सिद्धभक्तिपूर्वक होती है। | कर सकता हूँ। अत: इतना ही अनुरोध है कि प्रतिदिन आचार्यों के श्रावक के कृतिकर्म की विधि के प्राचीन ग्रन्थों में जो प्रमाण | बताये हुए मार्ग के अनुसार प्रत्येक श्रावक, श्राविका को जिनेन्द्र उपलब्ध हैं, उनमें अभिषेक के सम्बन्ध में लिखा है- अहिसेय भगवान् का पूजन अवश्य ही करना चाहिए। यही जीवन के वंदणासिद्धि चेदिय पंचगुरु संति भत्तीहि । (भावसंग्रह) विकास के लिए आवश्यक है। इसी से आत्मा की उन्नति भी जिनेन्द्रप्रभु का अभिषेक और पूजा सिद्ध, चैत्य पञ्चगुरु | सम्भव है। और शान्तिभक्ति पूर्वक करना चाहिए। वृहत्सामायिक पाठ में भी उपाचार्य (रीडर) संस्कृत विभाग, लिखा है दिगम्बर जैन कालिज, बड़ौत -अक्टूबर 2003 जिनभाषित 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524278
Book TitleJinabhashita 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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