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________________ स्वयंभू के राम अपभ्रंश के प्रबन्ध ग्रन्थकारों में सर्वप्रथम कवि स्वयंभू तथा अपभ्रंश के प्रबन्ध ग्रन्थकारों में भी कवि स्वयंभू द्वारा रचित पउमचरिउ का नाम ही सर्व प्रथम आता है। चूंकि समाज और संस्कृति का परप्पर अटूट सम्बन्ध है । समाज में रहते हुए साहित्यकार पर भी अपनी संस्कृति का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है जिसकी अभिव्यक्ति अनायास उसके साहित्य में हो जाती है। वही साहित्यकार अपने साहित्य के माध्यम से चिर स्थायी कीर्ति प्राप्त कर सकता है जो अपने साहित्य को बहुजन हिताय बनाने की चिन्ता से युक्त हुआ सम्पूर्ण सांस्कृतिक परम्परा पर विचार करके सम्पूर्ण समाज को उसके वास्तविक रूप के दर्शन कराने तथा सही मार्ग दिखलाने का दायित्व भी ग्रहण करता है। कवि स्वयंभू भी अपने साहित्यकार के दायित्व का निर्वाह करने में पूर्ण सफल रहे हैं। यही कारण है कि 'राहुलसांकृत्यायन ने अपभ्रंश भाषा के काव्यों का आदिकालीन हिन्दी काव्य के अन्तर्गत स्थान देते हुए कहा है-' हमारे इसी युग में नहीं. हिन्दी कविता के पांचों युगों के जितने कवियों को हमने यहाँ संग्रहीत किया है यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि उनमें स्वयंभू सबसे बड़े कवि थे। वस्तुतः वे भारत के एक दर्जन अमर कवियों में से एक थे । डॉ. देवेन्द्र जैन के अनुसार इनका समय अनुमानित ई. सन् 783 है। इनकी 6 रचनाओं में पउमचरिउ, रिट्ठणेमिचरिउ, स्वयंभूछन्द उपलब्ध है तथा पंचमीचरिट, स्वयंभूव्याकरण तथा सोडयचरि अनुपलब्ध है। इस पउमचरिउ में पाँच काण्ड हैं 1. विद्याधर काण्ड 2. अयोध्या काण्ड 3. सुन्दर काण्ड 4. युद्ध काण्ड 5. उत्तर काण्ड । कवि स्वयंभू ने इस प्रथम विद्याधर काण्ड में मनुष्य समाज का विभिन्न वर्गों में वर्गीकरण और उनके पृथक पृथक विशेष आचारों का वर्णन एवं जीवन के उत्थान व पतन का क्रम दिखलाकर भारत देश के विभिन्न वंशों का उद्भव व विकास के रूप में भारतीय संस्कृति का एक जीती जागती प्रयोगशाला के रूप में जीवन्त चित्र खींचा है। विद्याधर काण्ड के बाद अयोध्या काण्ड से उत्तर काण्ड तक की पूरी कथा श्रीराम के वन गमन से लेकर निर्वाण प्राप्ति तक होने से इस कथा का आधार श्रीराम का जीवन वृत्त ही रहा है। वैसे भी राम कथा न केवल भारत की अपितु विश्व की अत्यन्त लोकप्रिय कथा है। इस पृथ्वी तल में आबाल वृद्ध सभी अक्टूबर 2003 जिनभाषित 14 Jain Education International श्रीमती स्नेहलता जैन राम नाम के गीत गाते हैं। धरती पर न्याय व शांति का राज्य ही राम राज्य कहलाता है। इसीलिए अपने देश को सभ्य एवं सुसंस्कृत बनाने की महती भावना से अनेक रचनाकारों ने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी की बोलियों तथा भारतीय भाषाओं व विश्व की अन्यान्य भाषाओं में अपने देश को प्रेरणा प्रदान करने के लिए रामकथा की विविध काव्य विधाओं के माध्यम से प्रस्तुति की है। स्वयंभू देव ने इस राम कथा में परम्परा पोषित दीर्घगामी रामकथा का अनुसरण तो किया है परन्तु अपनी बुद्धि से उसमें नवीनता एवं निजी मौलिकता का भी समावेश किया है। वे पउमचरिउ के प्रारम्भ में ही स्पष्ट लिखते हैं- 'पुणु रविसेणयरिय पसाएं बुद्धिएं अवगाहिय कइराएं' अर्थात तदनन्तर आचार्य रविषेण के प्रसाद से कविराज ने इसका अपनी बुद्धि से अवगाहन किया है तथा पुणु अप्पाणड पायडमि रामायण कावें। अर्थात मैं स्वयं को रामायण काव्य के द्वारा प्रकट करता हूँ। उनकी इस परम्परा एवं नवीनता मिश्रित मौलिकता को उनके द्वरा काव्य को पढ़कर आसानी से समझा जा सकता है। इस तरह कवि स्वयंभू द्वारा रचित यह पउमचरिउ भी राम के चरित्र के साथ नवीन मौलिक उद्भावनाओं एवं जीवन मूल्यों की अमर प्राणवत्ता को लेकर उभरा है। कवि स्वयंभू ने इस पउमचरिउ के नायक श्रीराम के रूप में मानव मात्र के शाश्वत आदर्श का अनुसंधान किया है। उनके जीवन की घटनाओं से हमें व्यष्टि से समष्ट तथा समष्टि से परमेष्टि पद के रूप में मानव की सम्पूर्ण जीवन यात्रा का जीवन्त चित्रण मिलता है जिसका अनुकरण कर प्रत्येक मानव अपनी जीवन यात्रा को क्रमश: सार्थक बना सकता है। व्यष्टि के रूप में राम एक सामाजिक इकाई है जिसमें वे आर्दश पुत्र, भाई, पति तथा पिता के रूप में प्रेम व कर्त्तव्य परायणता की भावनाओं से ओत-प्रोत होकर जिये हैं। जैसे ही वे यति से समष्टि की ओर अग्रसर होते हैं अर्थात् राजपद पर आसीन होते हैं वैसे ही उनका व्यक्तित्व भी सीमित सीमाओं से परे होकर समटि की दिशा में छलांग लगा देता है। तदोपरान्त समष्टि से परमेष्ठि की यात्रा पर आरूढ़ होने पर उनका व्यष्टि व समष्टि रूप में पूर्ण उत्कर्ष व अभ्युदय को प्राप्त व्यक्तित्व भी इस यात्रा के लिये अवरोधक बन जाता है। इतने उदात्त गुणों के होने के बावजूद भी उनकी राग द्वेष रूप मानवीय दुर्बलताएँ उनके वहाँ तक पहुँचने में बाधक बनती है। अन्त में राम इन राग द्वेष रूप दुर्बलताओं पर क्षमा भाव धारण कर विजय प्राप्त कर शिव पद प्राप्त कर लेते हैं। इसका बहुत For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524278
Book TitleJinabhashita 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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