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समर्पित करते हुये लिखते हैं
मैं पोता हूँ भव जलधि के आप तो पोत 'दादा' विद्या की जो शिवगुरु अहो दो मिटा कर्मबाधा ॥ अपने गुरु आचार्य ज्ञानसागर को सर्वस्व समर्पण करने को उद्यत आचार्य विद्यासागर जी ने, जो भक्ति और सेवा अपने गुरु की सल्लेखना और समाधिमरण के समय की, वह श्रमण धर्म के इतिहास में बेजोड़ रहेगी।
पूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने उस महासत्ता में अपनी सत्ता को मिला देने के लिए जो सल्लेखना ली, उसकी उल्लेखना आचार्य श्री के मुखारविंद से सुनकर रोमांचित हुये बिना नहीं रहा जा सकता। बिना आधि और व्याधि के समाधिमरण का निर्णय लेकर आचार्य ज्ञानसागर जी ने पुनः एक बार श्री शांतिसागर जी की सल्लेखना और समाधिमरण को दोहरा दिया। ऐसे अपने गुरु के प्रति कवि का हृदय प्रणिपात हुये बिना कैसे रह सकता है ?
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मेरी भी हो इस विध समाधि, रोष तोष नशे, दोष उपाधि
मम आधार सहज समयसार मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ।
इस प्रकार आचार्य विद्यासागर के काव्य साहित्य का आलोडन करने पर उनके साहित्य में भक्ति वैशिष्ट्य की अनुपम छटा देखते हैं। संत स्वयं में भक्ति का जीवंत प्रतिरूप हुआ करता है। उसे देखकर तो जनमानस का हृदय भक्ति से श्रद्धाभिभूत हो उठता है।
यदि आचार्य विद्यासागर के महाकाव्य मूक माटी में ऐसे भक्ति के प्रसंग तलाशें, तो वह एक स्वतंत्र कृति बन सकती है। परंतु इस संक्षिप्त आलेख में उस प्रसंग को न छूते हुये केवल उनकी कुछ स्फुट काव्य रचनाओं को ही विषयान्तर्गत किया है। जबाहर वार्ड बीना (म.प्र.)
रे मन ! तु व्ययसायी है
लाभ देखता, दाव लगाता, गणित बिठाया करता है। वस्तु जात की ओर दौड़ता, सत्य तोड़ता जाता है । कौड़ी कौड़ी का हिसाब कर, कचड़े को भर लेता है। व्यर्थ देखता सुनता पढ़ता, घट उलटा रख लेता है ॥ सम्मान नहीं देता जीवन को, तूं तो खूब कषायी है ॥ १ ॥
पाप-पुण्य भाषा नहिं देखी, निज स्वभाव नहिं परखा है। प्रश्नों में ही उलझा रहता, मुँह मिट्ठू बन जाता है ॥ अहंकार में डूबा रहता, और नहीं कुछ पाता है। जंजीरों को भूषण माना, यों ही भटका रहता है ॥ बुद्धू बन कचड़े को पाला, करता नहीं घिसायी है ॥२ ॥
सब कुछ बटोरकर भारी होता, पत्थर सा हो जाता है। चिन्ता से मन व्यग्र हुआ कि, फिर लोलित हो जाता है ॥ दर्पण छिन्न हुआ और फिर, भटकन शुरु हुई सारी । धन छोड़ा, तन मन जोड़ा फिर भी दौड़ रही जारी ॥ आपाधापी छोड़ो पागल, वैचारिक भीड़ लगायी है ॥३ ॥
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प्रोफेसर भागचंद जैन भास्कर
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ये विचार बबूले पानी के हरदम उठते रहते हैं। निर्विकार जब चित्त बनेगा, निस्तरंग हो जाते हैं । परमात्मा नहिं कावा में, नहिं कैलाशी, काशी में वह बैठा तेरे ही भीतर, पा सकते हो इक झटके में ॥ निर्विकार निर्भाव हुए बिन, नहिं मिल पाय हिसाबी है ॥ ४ ॥
तुकाराम चाल, सदर, नागपुर- 440001
-अक्टूबर 2003 जिनभाषित 13
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