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________________ आचार्य विद्यासागर काव्य साहित्य में भक्ति-वैशिष्ट्य प्राचार्य निहालचन्द्र जैन मानस-हंस अपनी अपूर्व आस्था की शरणाभिभूत होकर | बझा दीपक - यह संसारी बहिरात्मा है- संयम के पदार्थों के क्रीत-जगत् के मानसरोवर से चेतनाभूत परमार्थ के | अक्षय/अकम्पदीपक से यह बहिरात्मा अन्तरात्मा का आलोक मोती चुनकर भक्ति की भाव-भूमिका में विचरण करता है। वे | और फिर परमात्मा की महासत्ता का दिव्यालोक केवल चरणों की मानहंस हैं- आचार्य विद्यासागर जी। जिनके काव्य हृदय की | भक्ति की शरणागत से हुआ जा सकता है। गंगोत्री से अजस्र स्रोतस्विनी गंगा की अनन्त धारायें उद्भूत हुईं, भक्ति-अपने उपास्य के प्रति सर्वस्व समर्पण में ही उपासना जो कभी 'नर्मदा का नरम कंकर' बनकर संवेदना के धरातल पर | का साकार रूप मानता है। भक्ति ऐसा मनमोहक संगीत है जो प्रभु शंकर बनकर पूजी गई तो कभी भक्ति के उन्मेष का यह संदेश नाम को श्वास-श्वास पर स्वरांकित कर नाभिमण्डल और हृदय बनकर मुखर हुआ कि भव-सागर में 'डूबो मत लगाओ डुबकी' कमल चक्र से पार कराता हुआ ब्रह्मरंध्र तक ऊर्ध्वमान कराता है। और भक्ति की डुबकी वही लगा सकता है जो तैरने की कला ऐसे श्रुतिमधुर संगीत से आचार्यश्री की काव्यधारा प्रस्फुटित होती जानता है। भक्ति की भाव-भूमिका के बिना-तोता यानी आत्मा | है। रोता ही रहता है । अस्तु आचार्य श्री को एक और काव्यकृति की | आचार्यश्री की अपने गुरु चरणों में भक्ति की उत्कर्ष भावना प्रस्तुति करनी पड़ी- 'तोता क्यों रोता?' को देखते हैं तो लगता है उनकी भक्ति अनुराग से ऊपर उठकर क्रमशः अपने पांच शतकों में आचार्यश्री की काव्य विद्या | विशुद्ध वीतराग भाव की ओर टिक गई है। दीक्षोपरान्त समयसार ने अन्तश्चेतना की अतल गहराइयों में जाकर 'निजानुभव शतक', | के ज्ञानार्जन हेतु जब बालयति विद्यासागरजी ने अपने को गुरुचरणों 'मुक्तक शतक', 'दोहास्तुति शतक', 'पूर्णोदय शतक' और 'सर्वोदय | में समर्पित कर दिया तो फिर समयसार की प्रत्येक गाथा उनके शतक' लिखकर भक्ति की अपूर्व छटा निहारी। लिए अध्यात्म अमृत की निर्झरणी बन गई। भक्ति का यह फल उपर्युक्त काव्य कृतियों को 'समग्र' में बांधने का एक | उन्हें तत्क्षण आत्मानुभूति के रूप में मिलने लगा और उनकी अकिंचन प्रयास अवश्य किया गया, परन्तु काव्य, भाव-चेतना का | काव्यधारा-मौन मुखरित होकर इस प्रकार अभिव्यक्त हुई। स्फुरण हुआ करता है उसे बांधने के सारे प्रयास निरर्थक हो । दक्षिण में भट्टारकों का उद्भव-जैन संस्कृति के संरक्षण साबित होते हैं इस आलेख में मैंने कतिपय काव्य-कृतियों से | के कारण हुआ क्योंकि विशुद्ध दिगम्बर मुनि केवल दक्षिण भारत भक्ति के मोती चुनने का प्रयास किया है। में अवशेष रहे हैं, वह भी विरल रूप में अपने अनन्य पितामह गुरु आचार्य विद्यासागर जी की दृष्टि में भगवद्-भक्त वह है, | आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज, जिन्होंने बीसवीं शताब्दी के जो विषयवासना की धरती के गुरुत्वाकर्षण से ऊपर होकर उससे | विच्छिन्न हुई दिगम्बर मुनि स्वरूप को पुर्नजीवित किया और अप्रभावित रहता है। उसका आकर्षण बनाम समर्पण केवल परम- | भगवती आराधना तथा मूलाचार्यों में वर्णित मुनि साधना को जीवंत गुरु भगवत् सत्ता के लिए होता है। नर्मदा के नरम-कंकर को | किया, ऐसे आचार्य शांतिसागर जी महाराज के चरणों में अपनी प्रतीक बिम्ब बनाकर वे इसमें अनंत गुणों की रचना धर्मिता से | विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हुये एक निष्ठ भक्ति प्रदर्शित की। सुन्दर सुडौल शैल शंकर के रूप में रूपायित कर भक्ति की अपूर्व प्रायः कदाचरण युक्त अहोधरा थी, निष्ठा का प्रणयन करते हैं। सनमार्ग रूढ़ मनि मूर्ति न पूर्व में थी। हृदय में अपूर्व निष्ठा लिये- यह किन्नर! अकिंचन किंकर!! चारित्र का नव नवीन पुनीत पंथ, नर्मदा का नरम कंकर चरणों में उपस्थित हुआ है। जो भी यहाँ दिख रहा तव देन संत॥ यद्यपि कंकर कठोर होता है परन्तु भक्ति की रसधारा उत्तरी भारत में निर्दोष मुनिवर के दर्शन न जाने कितने सौ उसमें नरम होने की व्याप्ति भर देती है। भक्ति-भक्त को पूर्णतः की | वर्षों के बाद मिले थे, ऐसे आचार्य श्री को मुनि विद्यासागर अपनी ओर ले जाने का एक सबल कारण है। अनन्य भक्ति प्रदर्शित करते हुये लिखते हैंएक गीत में उन्होंने यह भावना मुखर की है कि ....... संतोष कोष गति रोष सुशांति सिन्धु। और में ......... सविनय ...........दोनों घुटनों टेक। पंजों के बल मैं बार-बार तव पाद सरोज बन्धु॥ बैठ। हूँ ज्ञान का प्रथम शिष्य अवश्य बाल। दो दो हाथों से / अकम्प / अक्षय दीपक की ओर? विद्या सुशांति पद में धरता स्व-भाल॥ चिर बुझा दीपक बढ़ाया जलाने / जोत से जोत मिलाने पूज्य आचार्य विद्यासागर जी को भक्ति की अावली 12 अक्टूबर 2003 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524278
Book TitleJinabhashita 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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