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दशानन के दाह संस्कार के बाद इन्द्रजीत के विद्रोह की आशंका को देखकर सभी सामन्तों के द्वारा राम को स्नान करने व पानी देने के लिये मना करने पर भी राम ने लोकाचार से दशानन को पानी दिया। इसमें राम के सामाजिक पक्ष की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है।
। बोली- 'तुमने यह सब बोलना क्या प्रारम्भ किया है ? मैं आज भी सतीत्व की पताका ऊँची किये हुए हूँ इसीलिये तुम्हारे देखते हुए भी मैं विक्षब्ध हूँ । नर और नारी में यही अन्तर है कि नारी उस लता और नदी के सदृश है जो मरते दम तक भी पेड़ का सहारा नहीं छोड़ती तथा समुद्र को भी अपना सब कुछ समर्पित कर देती इस प्रकार राम एक आदर्श व्यक्ति के रूप में अवतरित है। इसके विपरीत नर उस समुद्र के समान है जो पवित्र और कुलीन नर्मदा नदी को जो रेत, लकड़ी और पानी बहाती हुई समुद्र के पास जाती है खारा पानी देने से नहीं अघाता।'
समष्टि रूप में राजा राम
भरत के तपोवन के लिये चले जाने पर राजगद्दी पर बैठते ही राजा राम ने यह घोषणा की कि अविचल रूप से वही राजा राज्य करता है जो प्रजा से प्रेम रखता है तथा विनय व नय में आस्था रखता है। तभी प्रजा राजभवन के द्वार पर आकर कहने लगी कि खोटी स्त्रियाँ खुले आम दूसरे पुरुषों के साथ रमण कर रही हैं और पूछने पर उनका उत्तर होता है क्या सीतादेवी वर्षों तक रावण के घर पर नहीं रही और क्या उसने सीतादेवी का उपभोग नहीं किया। प्रजा के इन दुष्ट शब्दों की चोट से आहत राजा राम ने विचार किया कि जनता यदि किसी कारण निरंकुश हो उठे तो वह हाथियों के समूह की तरह आचरण करती है, जो उसे भोजन व जल देता है वह उसी को जान से मार डालती है किन्तु राजा लोग प्रजा को न्याय से अंगीकार करते हैं, वे बुरा भला कहें तो भी वे उसका पालन करते हैं । तब सीतादेवी के सतीत्व को जानते हुए भी नारी के असंस्कृत आचरण के प्रचार से फलित होने वाले दुष्परिणामों को जानकर राम ने सीता को वन में छोड़ आने के लिये कहा ।
अतः आदर्श शासक के रूप में प्रजा के रक्षण पालन के लिये अपने सभी सुख और स्नेह सम्बन्ध प्राणप्रिया पत्नी तक को त्यागने का आदर्श प्रस्तुत कर राम ने राजा राम के रूप में समष्टि पद का पूरी तरह निर्वाह किया है।
(अ) तदनन्तर लंका में सीता के साथ रही त्रिजटा व लंकासुन्दरी के द्वारा सीता के सतीत्व की साक्षी देने पर राम ने प्रमुख लोगों को सीता को अयोध्या में लाने हेतु भेजा। मन नहीं होने पर भी सीता सभी के अनुरोध पर चलने को तैयार हुई और वहाँ जाकर आसन पर बैठ गयी। तभी स्त्री की कांति को सहन न करते हुए स्वभावतः पौरुष वृत्ति के कारण राम ने हँसकर कहा, स्त्री चाहे कितनी ही कुलीन और अनिन्द्य हो वह बहुत निर्लज्ज होती है। अपने कुल में दाग लगाने से तथा इस बात से भी कि त्रिभुवन में उनके अपशय का डंका बज सकता है वे नहीं झिझकती । धिक्कारने वाले पति को अंग समेटकर आकर कैसे अपना मुख दिखाती हैं।
तभी एकाएक सीता का मौन आक्रोश में बदल गया। वह अक्टूबर 2003 जिनभाषित
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सीता के वचन सुनकर वहाँ उपस्थित जन समूह हर्षित हो उठा किन्तु अकेले कलुषित राम नहीं हँसे । 'पर हियवएँ कलुषु वहन्तउ रहुवइ एक्कु ण हरिसियउ' । जैसे ही सीता ने अग्नि परिक्षा दी सभी ने उन कलुषित राम को धिक्कारा और कहा- 'राम निष्ठर निराश, मायारत, अनर्थकारी और दुष्ट बुद्धि हैं, पता नहीं सीतादेवी को इस प्रकार होम कर कौन सी गति पायेंगे।'
(ब) राम ने जब लक्ष्मण की मृत्यु का समाचार सुना तो रागभाव के उदय से लक्ष्मण के पास आकर एक ही पल में मूर्च्छित हो गये होश आने पर राम लक्ष्मण का आलिंगन करते, चूमते और कभी पौछते फिर गोदी में लेकर रोने बैठे जाते। सामन्तों ने जब राम से लक्ष्मण का दाह संस्कार करने के लिये कहा तो राम बोले- अपने स्वजनों के साथ तुम जलो, तुम्हारे माँ बाप जलें, मेरा भाई तो चिरंजीवी है। लक्ष्मण को लेकर मैं वहाँ जाता हूँ जहाँ दुष्टों के वचन सुनने में न आवें । इस प्रकार 6 माह तक अपने कन्धों पर कुमार का शव ढोते रहे। लक्ष्मण प्राण छोड़ चुके थे परन्तु राम तब भी मोह छोड़ने को तैयार नहीं थे।
इस तरह राम की सीता के प्रति अपनी स्वभावतः कलुष पौरुष वृत्ति तथा लक्ष्मण के प्रति उनकी यह राग / मोह रूप प्रवृत्ति ही थी जो उनके समष्टि पद से आगे परमेष्ठी पद की ओर बढ़ने में अवरोधक बन खड़ी थी।
परमेष्ठी पद की ओर राम
(अ) परमेष्ठी पद पर आरूढ़ होने के लिये तत्पर परमवीर राम ने अग्नि परीक्षा के पश्चात् सीता से कहा कि 'अकारण दुष्ट चुगलखोरों के कहने में आकर मेरे द्वारा की गयी अवमानना से तुम्हें जो इतना दुख सहना पड़ा इसके लिये मुझे एक बार क्षमा कर दो तथा मेरा कहा अपने मन में रक्खो।' तब सीतादेवी ने जैसे ही तपश्चरण अंगीकार कर सिर के केश उखाड़कर राम के सम्मुख डाल दिये वैसे ही राम मूर्च्छित होकर धरती पर गिर पड़े। मूच्छां दूर होने पर सीता के पास गये। वहाँ जाकर और आत्म निन्दा कर कि 'धिक्कार है मुझे जो लोगों के कहने से बुरा बर्ताव कर अकारण प्रिय पत्नी को वन में निर्वासित किया' सीतादेवी का अभिनन्दन किया।
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