Book Title: Jinabhashita 2001 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभाषित नवम्बर 2001 कुण्डलपुर-बड़े बाबा के निर्माणाधीन मन्दिर का स्वरूप जैनधर्म और हवन धर्म का भावकाण्ड नदारद वीर निर्वाण सं. 2528 कार्त्तिक, वि.सं. 2058 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि. नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC नवम्बर 2001 जिनभाषित मासिक वर्ष 1 अङ्क 6 सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन अन्तस्तत्त्व कार्यालय 137, आराधना नगर, भोपाल-462003 म.प्र. फोन0755-776666 . आपके पत्र, धन्यवाद . सम्पादकीय : धर्म का भावकाण्ड नदारद लेख सहयोगी सम्पादक पं. मूलचन्द लुहाड़िया पं. रतनलाल बैनाडा डॉ. शीतलचन्द्र जैन डॉ. श्रेयांस कुमार जैन प्रो. वृषभ प्रसाद जैन डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती' शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कँवरीलाल पाटनी (मे. आर.के. मार्बल्स लि.) किशनगढ़ (राज.) श्री गणेश राणा, जयपुर द्रव्य-औदार्य श्री अशोक पाटनी (मे. आर.के. मार्बल्स लि.) किशनगढ़ (राज.) • दीपावली पं. सुमेरुचन्द्र जी दिवाकर • वनवासी और चैत्यवासी : पं. नाथूराम जी प्रेमी जैन धर्म और हवन : पं. मिलापचन्द्र जी कटारिया जैन संस्कृति और साहित्य के विकास में कर्नाटक का योगदान : प्रो. (डॉ.) राजाराम जैन जैसा नाम वैसा काम है मुनि श्री सुधासागर का : डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन भारती 17 आँखें नहीं, आँसू पोंछो : श्रीमती सुशीला पाटनी • खुलकर प्रेम करने की छूट : डॉ. अशोक सहजानन्द .शंका समाधान : पं. रतनलाल बैनाड़ा - व्यंग्य : शिखरचन्द्र जैन .नारी लोक कर्नाटक की कुछ ऐतिहासिक श्राविकाएँ : प्रो. (डॉ.) विद्यावती जैन •गृहिणी और सच्चा साथी रसोईघर : कृ. समता जैन • संस्मरण : सच्ची दीपावली : ब्र. त्रिलोक जैन . कविताएँ • मैं न आदमी रख पाया न कुत्ता : प्रो. (डॉ.) सरोज कुमार • दीवाली : मुनि श्री चन्द्रसागर महावीर निर्वाण महोत्सव : अनूपचन्द न्यायतीर्थ • भूले-बिसरे अपने को : ऋषभ समैया ‘जलज' दो कविताएँ : डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती' • बहुत उथली हो रही हैं : अशोक शर्मा 26 • मानस दर्पण में : आचार्य श्री विद्यासागर आवरण 3 समाचार 29-32 प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) फोन : 0562-351428,352278 सदस्यता शुल्क शिरोमणि संरक्षक 5,00,000 रु परम संरक्षक 51,000रु संरक्षक 5,000 रु. आजीवन 500 रु वार्षिक 100रु एक प्रति 10रु सदस्यता शुल्क प्रकाशक को भेजें। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपके पत्र, धन्यवाद : सुझाव शिरोधार्य Received "Jina Bhashita" Sept issue. I just तरह के लेख के लिये। कर्नाटक की जैन संस्कृति पर प्रो. राजाराम had a bird's view. The format and get up is जैन साहब का लेख तो उच्चकोटि का शोधपत्र है। pleasing, the editorial is thought provoking. It श्रीमती विद्यावती जैन का लेख भी उच्च कोटि का है। श्री analyses the mentality of pseudo religious per शिखरचन्द्र जैन ने अपने व्यंग्य से वर्तमान हालात पर सीधी चोट sons of present day. Well written. The replies of पहुँचायी है। कहाँ तक लिखू, सबकुछ तो अच्छा ही है। आप इस Pt. Ratan lal Bainada to searching questions are पत्रिका की गरिमा को बनाये रखेंगे, यह विश्वास है। यह पत्रिका बत्तीस excellant expositions of the spirit of agamas. पृष्ठों की होकर भी 320 पृष्ठों की ऐसी-वैसी पत्रिका से बहुत ज्यादा Generally the issue is a collection of good write श्रेष्ठ और उपयोगी है। ups. विनोद कुमार तिवारी Br. Adinath रीडर व अध्यक्ष, इतिहास विभाग Shri Visakha Aacharya यू.आर. कालेज, रोसड़ा, Tapo-Nilayam, Kund-Kund Nagar, (समस्तीपुर), बिहार Tamilnadu-604505 सितम्बर 2001 'जिनभाषित' का अंक देखने का सौभाग्य सितम्बर 2001 के सम्पादकीय में आपने एक अब तक के प्राप्त हुआ। इसके पूर्व जुलाई 2001 अंक बड़ागांव, शास्त्री परिषद् अछूते विषय को शक्तिशाली व विश्लेषणात्मक शैली में उठाया है। अधिवेशन में देखने को मिला था। आज जैन समाज की 300-400 विधान-पूजा, भजन-आरती और पंचकल्याणक आदि उत्सवों में होने के लगभग पत्र-पत्रिकाएँ निकल रही हैं, उनमें से कतिपय अपनी वाली फिल्मी-अनैतिक घुसपैठ मनोरंजन के नाम पर नहीं होने देना विशिष्टता के लिये जानी-पहचानी जाती हैं, उसी श्रेणी में जिनभाषित चाहिए। इस विकृति पर आचार्यों, गणिनियों, प्रतिष्ठाचार्यों और शीर्ष भी आती है। जैन नेतृत्व को तत्काल रोक लगानी चाहिए। पूजा के पुराने छंदों की आपका सम्पादकीय समयानुकूल वेदनायुक्त है। वैराग्य जगाने लय यदि मनोरंजक नहीं है, तो छंद नहीं, लय बदली जा सकती है के अवसरों के फिल्मी-फूहड़ मनोरंजनीकरण के कारण ही आज हमारा शास्त्रीय या उपशास्त्रीय लय पुराने छंद को मनोरंजक/सामयिक बना युवा वर्ग भटक रहा है। आज विधान हो या पंचकल्याणक, जिसमें सकती है। फिल्मी फूहड़ गीतों की ध्वनि पर कोई कार्यक्रम न हुआ, तो जानिये संगीतकार रवीन्द्र जैन से प्रेरणा लेकर मौलिक धुनों व सीधे उसे लोग 'असफल' घोषित कर देते हैं। उसी फिल्मी तर्ज पर गाये सच्चे बोलों पर गीत-संगीत की रचना कर आडियो कैसेट तैयार किये गये गीत पर धार्मिक आयोजनों में जिस प्रकार नृत्य आदि देखने को जा सकते हैं। 'मास' के लिये 'क्लास' की बलि न चढ़ाई जाये, बल्कि | मिलते हैं, वे शालीनता की सीमा-रेखा को भी कभी-कभी पार कर 'क्लास' में ही संगीत परम्परा-सम्मत उपयुक्त परिवर्तन कर 'मास' जाते हैं, खैर.....। कब चेतेगा हमारा समाज? श्रमण ज्ञान भारती, के लिये भी तैयार किया जाये व यँ करके 'मास' (आमजन) के 'टेस्ट' | मथुरा की स्थापना जैन विद्याध्ययन के लिये स्तुत्य कदम है। को भी 'अपग्रेड' किया जाये। अपनी गीत-संगीत-भाषा, संस्कृति, 'भवाभिनन्दी मुनि और मुनि निन्दा' पठनीय चिंतनीय है। मैं पूर्णतः कला आदि को 'अन्य' से प्रेरणा लेकर समृद्ध करना बुरा नहीं, बशर्ते | समर्थक हूँ इस लेख का। आदरणीय बैनाड़ाजी का शंका समाधान स्तंभ शास्त्रीयता का ध्यान रखा जाए, परम्परा का निर्वाह किया जाये। बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इससे अच्छा लाभ होगा। देवस्तुति का ब्र. संजय सम्यक् महेश जी, सतना (वर्तमान में सांगानेर) का हिन्दी अनुवाद सभी के महेश जा, सतना (वतमान एम-213, शिवनगर, दमोह नाका, जबलपुर | लिये पठनीय है। आपके सम्पादकत्व में पत्रिका ने शीघ्र ही सफलता अर्जित की 'जिनभाषित' का सितम्बर अंक हस्तगत हुआ। मुखपृष्ठ पर | है। कवर पृष्ठ चुम्बकीय आकर्षण युक्त है। कागज का प्रयोग, छपाई की आचार्य श्री वीरसागर जी का चित्र देखकर मन श्रद्धा और आदर | सन्दर है. जो आज कम देखने को मिलती है। से भर उठा। 'सम्पादकीय' में तो आपने बस जो सही स्थिति है आज सुनील जैन 'संचय' शास्त्री धर्म स्थल की, उसी का सही चित्रण खींचा है। यह प्रेरक और अपनाये ___ बी-3/80, भदैनी, जाने योग्य है, पर लोग इससे कुछ सीखें, तब न। दुग्धसेवन पर वाराणसी (उ.प्र.) -221001 जो आज अनाप-शनाप लिखा जा रहा है, स्वीटी और ऋतु जैन ने 'जिनभाषित' के सभी अंक प्राप्त हुए हैं, एतदर्थ धन्यवाद। इसका सही और वैज्ञानिक जवाब दिया है, बधाई हो दोनों को, इस -नवम्बर 2001 जिनभाषित Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिखते हुए प्रसन्नता है कि अंकों में चयनित प्रायः सभी लेख धर्म हित में समाज में जागृति हेतु होने से प्रशंसनीय हैं। आप द्वारा लिखित सम्पादकीय समाज में व्याप्त धर्म के नाम पर होने वाली विकृतियों के परिमार्जन हेतु ध्यान देने योग्य हैं। जिज्ञासाओं का समाधान भी अत्यंत आवश्यक होने से अभिनंदनीय है। परम पूज्य आचार्यों एवं मुनि वृन्दों के लेख ज्ञानवर्धक और मार्गदर्शक हैं। सभी दृष्टियों से पत्रिका का भविष्य उज्ज्वल प्रतीत होता है। यह समाज का मार्गदर्शक, आदर्श पत्र बने, इसी शुभकामना के साथ | 'जिनभाषित' के अंक मिल रहे हैं। आपकी विद्वत्तापूर्ण प्रतिभा से सम्पादित इस पत्रिका ने अल्प समय में ही पत्रजगत् में शीर्ष स्थान प्राप्त कर लिया है जो हर्षद आक्षर्य का विषय है। नाथूराम डोंगरीय जैन 549, सुदामा नगर, इंदौर (म.प्र.) नवोदित मासिक पत्रिका 'जिनभाषित' के दो अंक पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जिनमें महत्त्वपूर्ण जैनतत्त्व ज्ञान को सुबोध शैली में उद्घाटित किया गया है। 'शंका-समाधान' जो स्थायी स्तम्भ है। इससे शास्त्रों का अवलोकन करने वाले स्वाध्यायार्थियों को अत्याधिक लाभ होगा। जैसा कि पत्रिका का नाम 'जिनभाषित' है, इससे जिनवाणी का रहस्य उद्घाटित होगा 'शोध सम्भावनाओं से भरा जैन साहित्य डॉ. कपूरचन्द्र जैन का लेख पठनीय है। इसी प्रकार "जैन संस्कृति एवं साहित्य का मुकुट मणि कर्नाटक और उसकी कुछ श्राविकाएँ" ज्ञानवर्धक सामग्री प्रस्तुत करता है। विश्वास है, उक्त पत्रिका भविष्य में जैन धर्म और साहित्य की सेवा करने वाली पत्रिकाओं में अग्रणी होगी सम्पादन, प्रकाशन एवं साज-सज्जा आकर्षक है। पत्रिका के द्वारा जैन साहित्य और समाज का महान उपकार होगा। 2 अरुण कुमार शास्त्री सेठजी की नसियाँ, ब्यावर (राज.) -305901 'जिनभाषित' पत्रिका जैन धर्म के सिद्धान्त को जन-मानस तक पहुँचाने का अद्भुत प्रयास है। गुरुणां गुरु आचार्य श्री शांति सागर जी की स्मृति में समाधि दिवस पर प्रकाशित जुलाई-अगस्त अंक पढ़ा। मुनि श्री क्षमासागर जी द्वारा लिखित आचार्य श्री शांतिसागर जीवन यात्रा एवं वचनामृत" लेख पढा, मन हर्ष से ओत-प्रोत हो गया। आचार्य श्री विद्यासागर जी ने बहुत अच्छा लिखा कि दीक्षा दिवस का अर्थ है- संकल्प दिवस। इस दिवस के माध्यम से अपने संकल्प को दृढ़ बनाया जा सकता है। 'एक वृक्ष की अन्तर्वेदना' पढ़कर तो मन द्रवित हो उठा। ऐसी संवेदनशील कथाएँ कहीं मन को छू लेती हैं और आवरण पृष्ठ पर छपी श्रद्धेय क्षमासागर जी की ये पंक्तियाँ भी हृदयस्पर्शी है श्रद्धा से झुककर गलाते जायें नवम्बर 2001 जिनभाषित विजय कुमार शास्त्री एम.ए. आचार्य, श्री महावीर जी अपना मान मद पर्त दर पर्त निरन्तर ताकि कम होता जाये हमारे और प्रभु के बीच का अंतर । उन्हें मेरा शत-शत प्रणाम। एक निवेदन है, एकीभाव स्तोत्र का हिन्दी अर्थ क्षमासागर जी द्वारा प्रस्तुत दो-दो, तीन-तीन काव्य यदि प्रत्येक अंक में क्रमबद्ध प्रकाशित हों, तो जनमानस इसका पूरा लाभ उठा सकेगा, क्योंकि 'एकी भाव -स्तोत्र' लोग उतना नहीं पढ़ते, जितना 'भक्तामर स्तोत्र' । 10 अक्टूबर को मुनिश्री ने जब 'एकीभावस्तोत्र' पढ़ा, तो ऐसा लगा जैसे यह हमारे घट तक पूरा का पूरा, ज्यों का त्यों उतर रहा है। 'जिनभाषित' के अंक 2.3 (संयुक्तांक) और अंक 4 सामने हैं। निश्चित रूप से आपके सम्पादन में यह पत्रिका जैन पत्रकारिता जगत में अपना स्थान शीघ्र ही बना लेगी। आपका एवं प्रकाशक संस्थान का अभिनन्दन। बधाई स्वीकारें। अरुणा जैन 92/20/2 : 4 से. 16, वाशी नगर, नवी मुम्बइ है। 'जिनभाषित' के जून 2001 के अंक के लिये कृतज्ञ हूँ। यह अंक मुनिपुंगव विद्यासागर जी पर विशिष्ट सामग्री प्रस्तुत करता है। एवं इतर सामग्री भी पर्याप्त उपादेय है। आपके अग्र लेख भी परम्परा और प्रगति के साथ व्यक्तित्व की छाप से अभिषिक्त रहते हैं। यह विशिष्ट आकर्षण होता है, इस पत्रिका का । कृपया नवोदित लेखकों को अधिक प्रोत्साहन दें, कल उनका कुसुम जैन संपादिका 'णायसायर सचिव, सहजानन्द फाउन्डेशन, बी-5/263, यमुना विहार, दिल्ली-110053 डॉ. रवीन्द्र कुमार जैन 13, शक्ति नगर, पल्लवरम्, चेन्नई- 43 सितम्बर 2001 का 'जिनभाषित' प्राप्त हुआ। प्रातः स्मरणीय प.पू. 108 आचार्य श्री वीरसागर जी की पद्मासनी प्रतिमा का मुखपृष्ठ छायाचित्र अतीत क्षणों को स्मृति पटल पर तरंगित कर रहा है। साक्षात् वर्तमान के रूप में अतीत ने अर्धशतकापरांत मुझे पावन किया था। आचार्य श्री की छत्रछाया में जयपुर (खानिया) चातुर्मास में प्रथम पट्टाधीश के रूप में कुंथलगिरी से चारित्र्य चक्रवर्ती 108 आ.श्री शांतिसागर जी द्वारा आचार्य पदासीन कमंडलु पिछी स्वीकारने का भव्य समारोह चतुर्विध संघ का सुदर्शनीय था। प्रथम पट्टाधीश के मानसपुत्र, संघ संचालक प्रतिष्ठाचार्य, बंधु ब्र. सूरजमलजी के भव्य आयोजन का अर्धशतकपूर्व ऐतिहासिक घटनाओं का 'चित्रपट' दिखाई पड़ा। विशाल चतुर्विध ( मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका) संघ लगभग 50 से ज्यादा संख्या में आचार्य श्री की वात्सल्यमयी Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्रछाया में चातुर्मास संपन्न कर रहा था। आचार्य श्री का आचार्य | समर्थ होंगे। माननीय 'मुख्तार' जी का 'भवाभिनन्दीमुनि और पद विभूषित रूप 'जल में भिन्न कमल' के सदृश ही था। 'अर्वाग् | मुनिनिन्दा' लेख झूठे मुनियों से बचकर सच्चे मुनियों के प्रति भक्ति विसर्ग वपुषा एवं मोक्षमार्ग निरूपयन्तम्' की मुद्रा देखते ही भूले | को अक्षुण्ण बनाये रखने की दिशा में मार्गदर्शन करता है। भटके कई भव्यजीवों ने भवतारक काष्ठ नौका का आश्रय लिया था। अरविन्द फुसकेले ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे जे आचारहिं ते नर न घनेरे' ऐसी स्व पर ई.डब्ल्यू.एस.-541, कोटरा, भोपाल-462003 । उद्धारकचर्यारत आचार्यश्री अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग में लीन रहते थे। संघस्थ साधु-साध्वियों का स्वाध्याय, तत्त्वचर्चा, भक्तिपाठ, सूक्ष्म अध्ययन-अध्यापन मैंने प्रत्यक्ष देखा, अनुभव किया है। बीसवीं सदी धार्मिक एवं वैवाहिक अनुष्ठान तथा के प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर जी के अनंतर प्रथम पट्टाधीश आचार्य सात्त्विक संगीत नृत्य श्री वीरसागर जी, पू. शिवसागर जी, पू. धर्मसागर जी, पू. सुरेश जैन, आई.ए.एस. अजितसागर जी, श्री वर्धमान सागर जी, पू. अभिनंदन सागर जी, जिनभाषित के सितम्बर, 2001 के अंक में 'वैराग्य जगाने आचार्यकल्प श्रुतसागर जी, विदुषी आर्यिका माताजी गणिनी ज्ञानमती | के अवसरों का मनोरंजनीकरण' एवं अक्टूबर, 2001 के अंक में जी, सुपार्श्वमतीजी, विशुद्धमतीजी, स्व. जिनमतीजी संघस्थ | 'विवाह एक धार्मिक अनुष्ठान' शीर्षक से प्रकाशित जिनभाषित के शताधिक माताजी और विद्यमान आचार्य प.पू. 108 विद्यासागर जी | दोनों संपादकीय हमारी ज्वलंत धार्मिक एवं सामाजिक समस्याओं की अन्य परंपरा के स्व. देशभूषण जी (एलाचार्य जी) प्रायः सभी महान | ओर प्रभावी ढंग से प्रत्येक पाठक का ध्यान आकर्षित करते हैं और साधुवृंद का पावन दर्शन, आहारदान, स्वाध्याय द्वारा उद्बोधन आदि हमें गहन मनन और चिंतन कर ठोस निर्णय करने और उनका का परिसंस्पर्श होकर मेरा भी जीवन धन्य हुआ, संतृप्त हुआ है। आ. | कार्यान्वयन करने के लिये प्रेरित करते हैं। यह आवश्यक ही नहीं, श्री स्व. चंद्रमती माताजी (मेरी पूर्वाश्रमीय जन्मदा) के दीक्षा गुरु थे। प्रत्युत अनिवार्य हो गया है कि ऐसे धार्मिक एवं सामाजिक अवसरों प्रायः उनके मोहवश मैं हर साल संघदर्शनार्थ चौमासा में राजस्थान पर हमारे युवक/युवतियों का व्यवहार संयमित, शालीन एवं परिष्कृत के सभी नगरों में जाया करती थी। आहारदान, तत्त्वसंगोष्ठी, | हो। स्वाध्याय, वैयावृत्यादिक का लाभ लिया करती थी। सोलापुर | संपादक महोदय ने अपने दोनों संपादकीय आलेखों में इन श्राविकासंस्था की स्व. ब्र. सुमतीबाई जी तथा बहन प्रभावती जी | महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं को प्रस्तुत किया है, उन्हें लीड बनाया और साथ थीं। आज श्री 105 प.पू. सुपार्श्वमती माताजी की संघस्था 105 जनसरोकार की चिंता को मीडिया के केन्द्र में स्थापित किया है। इस (आर्यिका सुप्रभावती जी अंतिम धर्मसाधना में अमूल्य क्षण बिता रही | प्रकार उन्होंने महत्त्वपूर्ण प्रश्नों को मुख्य धारा में लाकर जैन पत्रकारिता को नई ऊँचाई प्रदान की है। निश्चित ही यह जिनभाषित का उल्लेखनीय, मैंने आचार्य श्री जी की प्रेरणा से 'सप्तम प्रतिमा' का व्रत धारण असाधारण, साहसिक और स्वागत योग्य अवदान है। किया और उज्ज्वल दिशा जीवन की पग डंडियो पर हूँ। आचार्य श्री हमें सर्वसम्मति से यह निर्णय करना चाहिए कि भक्ति और के 42 वें पुण्यतिथि के पावन अवसर पर त्रिदिवसीय तत्त्वचर्चा में | वैराग्य का वातावरण बनाने के लिए मंदिरों में हम केवल धार्मिक/ जयपुर में आक्टो, 99 में उपस्थिती का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। शास्त्रीय राग-रागिनियों का ही प्रयोग करें। पवित्र वाद्यों के द्वारा आचार्य श्री विद्यासागर जी के पट्टशिष्य पं. रतनलाल जी बैनाड़ा ने | सात्त्विक/संयमित नृत्य एवं संगीत का सृजन करें। धार्मिक नृत्य एवं 'जिनभाषित' के अंक नियमित पढ़ने का सुअवसर दिया है। अंक के | गीत सात्त्विक संगीत पर ही आधारित हों। सुनहरे पन्नों द्वारा मैं खूब प्रभावित होकर अगले अंक की प्रतीक्षा करती जिनभाषित के संपादकीय से प्रभावित होकर दैनिक भास्कर, भोपाल ने 2 नवम्बर 2001 को प्रकाशित अपने संपादकीय में ब्र.कु. विद्युल्लता हिराचन्द शहा , संपादिका-'श्राविका' | महाकवि सूरदास के पद 'नाच्यो बहुत गुपाल' के माध्यम से सम्पूर्ण श्राविका संस्थानगर, 197, बुधवार पेठ, श्राविका चौक, समाज का ध्यान आकर्षित करते हुए विवाह एवं बारातों में दूल्हे के सोलापुर (महा.) आगे पाश्चात्य तर्ज पर युवक/युवतियों द्वारा किये जा रहे नृत्य को संयमित करने की आवश्यकता प्रतिपादित की है। "जिनभाषित' सितम्बर 2001 में आपके सम्पादकीय आलेख जिनभाषित के संपादकीय आलेख से प्रेरणा लेते हुए 'पूज्य 'वैराग्य जगाने के अवसरों का मनोरंजनीकरण' ने हृदय को छू लिया। | सिंधी पंचायत, भोपाल' ने औपचारिक रूप से युवतियों को सलाह मिथ्यात्व किस-किस रूप में धर्म में प्रवेश पा रहा है, इसका लेख | दी है कि वे बारात के अवसर पर बीच सड़क पर नाच नहीं करें। में तथ्यात्मक मनोवैज्ञानिक विवेचन किया गया है। सचमुच फिल्मी धार्मिक एवं वैवाहिक अनुष्ठानों में ध्वनि प्रदूषण को प्रतिबंधित संगीत कड़वी दवा के लिये चाशनी के समान नहीं, बल्कि मदिरा करना भी आवश्यक है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश पारित की बूंदों के समान है। हम जितनी जल्दी इस सच को समझ सकें, | किया है कि धर्म के नाम पर भी किसी को यह अधिकार नहीं है कि उतनी जल्दी धर्म के नाम पर व्याप्त इस विष से छुटकारा पाने में | वह अपनी पूजा और प्रार्थना के माध्यम से दूसरों की शांति भंग करे। -नवम्बर 2001 जिनभाषित 3 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक अवसरों पर लाउडस्पीकर, ड्रम, बैंड-बाजे आदि का उपयोग | आवश्यक है कि इस विषय में पहले से ही हमारे आध्यात्मिक एवं विधि-विरुद्ध है। माननीय न्यायालय ने बताया कि वृद्ध, बीमार तथा | सामाजिक नेतृत्व द्वारा प्रतिबंधात्मक कार्यवाही की जाए। छोटे बच्चों पर ध्वनि प्रदूषण का दुष्प्रभाव गंभीर होता है। अतः सभ्य हमें यह जानकर प्रसन्नता है कि 'जिनभाषित' सोद्देश्यता और समाज में किसी को भी ऐसे कार्य करने की अनुमति नहीं दी जा सकती, प्रामाणिकता के साथ आदर्श, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, जिससे वृद्ध या असहाय अथवा बीमार व्यक्तियों के आराम में खलल नैतिक मानदण्डों एवं शाश्वत मूल्यों की स्थापना एवं विघटनशील पड़े, शिशुओं की निद्रा भंग हो या विद्यार्थी व अन्य कार्यरत व्यक्तियों सामाजिक चेतना के पुनर्जागरण के प्रति प्रयत्नशील है। की पढ़ाई या कार्य में बाधा पड़े। विद्यार्थियों को अधिकार प्राप्त है हमारे राष्ट्र एवं समाज का सर्वतोमुखी विकास हमारे कि वे शांतिपूर्ण वातावरण में पढ़ाई कर सकें और पड़ोसियों का कर्तव्य कर्तव्यनिष्ठ सुसंस्कृत एवं प्रतिभासम्पन्न युवक-युवतियों पर ही है कि उनकी पढ़ाई में खलल न डालें। इसी प्रकार वृद्ध, असहाय और आधारित है। यह हमारा महत्त्वपूर्ण सामाजिक कर्तव्य एवं मानवीय बीमार लोगों को अधिकार प्राप्त है कि वे ध्वनि प्रदूषणरहित वातावरण उत्तरदायित्व है कि हम अपने युवाओं को सतत संस्कारित करें जिससे में शांतिपूर्वक रह सकें। कि वे अपना सर्वतोमुखी विकास कर सकें और राष्ट्र के कर्तव्यनिष्ठ वातावरण प्रदूषण नियंत्रण विधि के अनुसार रहवासी क्षेत्र में नागरिक बन सकें। जैसे हमारे प्रतिष्ठाचार्य पत्थर या धातु की मूर्तियों ध्वनि की मात्रा दिन में 55 डेसीमल तथा रात्रि में 45 डेसीमल से का पंचकल्याणक कर उन्हें भगवान बना देते हैं, वैसे ही 'जिनभाषित' अधिक नहीं होनी चाहिए, परन्तु 'विश्व स्वास्थ्य संगठन' के मानकों अपनी युवा प्रतिभा को संस्कारित कर उन्हें सच्चा एवं बेहतर इन्सान के अनुसार, निद्रास्थल में ध्वनि प्रदूषण 30 डेसीमिल से अधिक होना बनाने के लिये प्रयत्नशील है। मुझे विश्वास है कि 'जिनभाषित' के स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है। चूंकि किसी भी विवाह तथा धार्मिक प्रयत्न निश्चित ही सफल होंगे और हमारे युवा आधुनिक दृष्टि, स्वस्थ या सामाजिक उत्सव में ध्वनि प्रदूषण 100 डेसीमल से ऊपर ही विचार और उत्कृष्ट जीवन मूल्यों को अपने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र होता है। अतः यह नितांत आवश्यक है कि रहवासी क्षेत्रों में मांगलिक में महत्त्व देते हुए अपनी सर्वतोमुखी प्रगति कर सकेंगे। उत्सव या विवाह स्थल चलाने पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाए। ध्वनिप्रदूषण से एक ओर जनस्वास्थ्य प्रभावित होता है तथा दूसरी हमारी यह पवित्र भावना है कि हमारे युवा कर्म के साथ धर्म को जोड़कर प्रत्येक कर्म को सत्कर्म बनाएँ। विचार के साथ धर्म को ओर उससे व्यक्ति की प्रवृत्ति आक्रामक हो जाती है और वह हिंसक हो जाता है। जोड़कर प्रत्येक विचार को सदविचार बनाएँ। संकल्प के साथ धर्म सम्पूर्ण विश्व में विवाह स्वाभाविक हर्ष/आनन्द का महत्त्वपूर्ण की जोड़कर प्रत्येक संकल्प को सत्संकल्प बनाएँ। भावना के साथ धर्म को जोड़कर प्रत्येक आचार को सदाचार बनाएँ। जीवन के प्रत्येक अवसर होता है और यह आनन्द नृत्य एवं गायन के माध्यम से अभिव्यक्त होता है। अतः प्राकृतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक पक्ष के साथ धार्मिक विवेक जोड़कर सभी पक्षों को उज्ज्वल बनाएँ। व्यवस्था वैवाहिक अवसरों पर शालीनतापूर्वक नृत्य एवं गायन की युवक एवं युवतियों से मेरा विनम्र आग्रह है कि वे विश्व की भौतिक उपलब्धियाँ प्राप्त करने के लिये आवश्यक प्रयास करें, यथाशक्ति स्वीकृति प्रदान करती है। शालीन एवं संयमित आचरण हमारे युवक-युवतियों के मस्तिष्क को संस्कारित करता है और उन्हें सभ्य धनसंपदा अर्जित करें, किन्तु साथ ही जैन साहित्य का अध्ययन कर और जैन संस्कृति को अपनाकर मानवीय जीवन का सार प्राप्त करने एवं शिक्षित समाज में प्रतिष्ठित करता है। जब ऐसे नृत्य एवं गायन, संयम एवं शालीनता की सीमाएँ लाँघकर कामुकता, अपसंस्कृति, के लिये ठोस प्रयत्न करें, जिससे कि हमें शाश्वत सुख एवं संतोष फूहड़ता एवं असामाजिकता के क्षेत्र में प्रवेश कर जाते हैं तब अनेक प्राप्त हो सके। 30, निशात कालोनी, अवांछनीय समस्याएँ जन्म ले लेती हैं। इन समस्याओं एवं उनसे भोपाल-462003, म.प्र. उत्पन्न सामाजिक तथा आध्यात्मिक विरूपण से बचने के लिये योग्य विधानाचार्य एवं प्रवचनकार उपलब्ध सांगानेर (जयपुर)। प्रात: स्मरणीय आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के शुभाशीर्वाद एवं मुनिश्री सुधासागर जी महाराज की प्रेरणा से विगत 5 वर्ष की अल्पावधि की उपलब्धि के क्रम में श्री दि. जैन श्रमण संस्कृति संस्थान, सांगानेर में सभी धार्मिक पर्व, दशलक्षण पर्व, अष्टाह्निका पर्व, मंदिर वेदी प्रतिष्ठा, नैमित्तिक पर्व एवं अन्य विधि विधान आदि महोत्सव सम्पन्न कराने हेतु सुयोग्य प्रभावी विद्वान वक्ता उपलब्ध हैं। अष्टाह्निका पर्व में विधि-विधान एवं प्रवचनार्थ आप अपने आमंत्रण पत्र संस्थान कार्यालय में अथवा फोन से सम्पर्क करें ताकि समय रहते व्यवस्था की जा सके। पं. प्रद्युम्न कुमार शास्त्री, व्याख्याता जैन नसियाँ, नसियाँ रोड, सांगानेर-303902 जयपुर (राज.) फोन-0141-730552 मोवाईल-98290-81553 4 नवम्बर 2001 जिनभाषित - Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय ___ धर्म का भावकाण्ड नदारद श्रावकधर्म चार काण्डों का समूह है : कर्मकाण्ड, ज्ञानकाण्ड, | कब्जा कर लेती हैं, साथ ही अपनी बहन, ननद, भाभी और सहेलियों व्रतकाण्ड और भावकाण्ड। के लिए भी रेलगाड़ी या बस के समान आसपास की जगह सुरक्षित कर्मकाण्ड : पूजा-भक्ति, विधान, हवन, पंचकल्याणक, कर लेती हैं, ताकि देर से आने पर भी उन्हें अच्छा स्थान मिल जाए। गजरथ, प्रतिष्ठा, जप, पाठ, साधुसन्तों की सेवा, तीर्थ-वन्दना, जन्म उस पर वे किसी अन्य स्त्री-पुरुष को नहीं बैठने देती। यदि कोई जिद जयन्ती, निर्वाणमहोत्सव, क्षमावाणी पर्व आदि का मनाया जाना। करके बैठ जाता है तो उनका क्रोध उमड़ पड़ता है, वाग्युद्ध छिड़ ज्ञानकाण्ड : शास्त्रों का अध्ययन, उपदेश-श्रवण, शंकास- जाता है। इस प्रकार कर्मकाण्ड के लिए भावकाण्ड (न्याय, सहिष्णुता, माधान, धर्मग्रन्थ-लेखन, प्रवचन, शोधकार्य, संगोष्ठियों में शोध- | विनय वात्सल्य आदि) की बलि चढ़ा दी जाती है। पत्रवाचन, शिक्षण-प्रशिक्षण-शिविरों का संचालन आदि। ___मुनियों को आहार हेतु पड़गाहने के लिए जब मंदिर या धर्मशाला व्रतकाण्ड : अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षव्रत, एकाशन, उपवास, के विशाल परिसर में चौकेवाले लाइन से खड़े होते हैं, तब अनेक रविवार, सुगन्धदशमी, सोलहकारण आदि व्रत-नियमों का पालन, चौके वाले अपना स्थान छोड़कर दूसरों के आगे आ जाते हैं, ताकि श्रावक-प्रतिमाओं का अंगीकरण। मुनि महाराज की नजर उनपर ही पड़े, और उन्हें ही आहारदान का भावकाण्ड : विनय, वात्सल्य, मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, अवसर मिल जाए। इस प्रकार आहारदान की पुण्यक्रिया करते समय माध्यस्थ्य, क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच (निर्लोभ), हितमितप्रिय- | भी दूसरों की आहारदानक्रिया में विघ्न उपस्थित करने का कुत्सित वचन, नि:कांक्षितत्व, औदार्य आदि आत्मगुणों का विकास। भाव मन में आ जाता है। तथा जिस चौके में मुनिश्री की पड़गाहना इनमें से श्रावकों के जीवन में कर्मकाण्ड पहले नम्बर पर दिखाई | होती है, उसमें बाहर के श्रावक आकर घुस जाते हैं और अपने हाथ देता है, ज्ञानकाण्ड दूसरे नम्बर पर है, व्रतकाण्ड तीसरे नम्बर पर | से उठा-उठा कर आहार देने लगते हैं तथा वहाँ से टस से मस नहीं और भावकाण्ड प्रायः नदारद है। इसके दर्शन विरले ही श्रावकों में | होते। इस प्रकार जिन्होंने चौका लगाया है उन्हें आहार देने का मौका होते हैं। ही नहीं मिल पाता। वे विषादग्रस्त होकर दूर खड़े-खड़े देखते रहते कर्मकाण्ड हैं। अन्त में एकाध अंजली जल देने का उन्हें मौका मिल जाता है वर्तमान में श्रावकों का धर्म कर्मकाण्ड-प्रधान बन गया है। आये तो वे अपना अहोभाग्य समझते हैं। इस तरह चौकेवालों को आहारदान दिन विभिन्न प्रकार के विधानों, यज्ञों, पंचकल्याणकों और गजरथों से वंचित कर उनके पुण्य पर डाका डालने का जो काम किया जाता का आयोजन हो रहा है। इनमें भाग लने के लिये लोग बहुत उत्साह है, वह धर्मकार्य के प्रसंग में भी हमारी सांसारिक स्वार्थवृत्ति के प्रकट दर्शाते हैं। चक्रवर्ती, इन्द्र-इन्द्राणी, कुबेर आदि के पद धारण करने होने का प्रमाण है। के लिए होड़ सी मच जाती है। यह शुभ लक्षण है। इस रागरंगमय इसी प्रकार सिद्धचक्रादि विधानों की पूजा में बैठे हुए श्रावकों भोगप्रधान युग में धार्मिक अनुष्ठानों में रुचि होना इस बात का सूचक को जो लोग द्रव्य वितरित करते हैं उनकी दृष्टि स्वपर-भेदविज्ञान से तो है ही कि मनुष्य सर्वथा नास्तिक नहीं हुआ है, धर्म में उसकी आस्था प्रभावित हो जाती है। अपने परिचितों को जब पूजाद्रव्य वितरित करते जीवित है और वह पुष्ट हो रही है। हैं तब उनके हाथ में बादाम, लौंग, छुहारे आदि बहुमूल्य पदार्थ आते किन्तु हम पाते हैं कि यह कर्मकाण्ड भावकाण्ड से प्रायः शून्य हैं, किन्तु अपरिचितों को वितरित करते समय उनकी मुट्ठी केवल होता है। लोग प्रतिदिन पूजा-भक्ति करते हैं, विधानों और हरसिंगार से रँगे चावल ही ग्रहण करती है। पंचकल्याणकों में इन्द्र-इन्द्राणी बनकर भगवान् को पूजते, नाचते-गाते । सामूहिक भोजनशाला में भी भोजन परोसते समय स्वपरभेद हैं, तीर्थवन्दना के लिये जाते हैं, साधु सन्तों की सेवा करते हैं, विज्ञान काम करता है। मित्रों और सम्बन्धियों की थाली में भोज्य पदार्थ आहारदान देते हैं, किन्तु उनमें जनसामान्य के प्रति विनय, वात्सल्य, पंक्तिक्रम का उल्लंघन करते हुए जल्दी-जल्दी आकर विराजमान हो मैत्री, कारुण्य, उदारता आदि आत्मिक गुणों का अस्तित्व दिखाई जाते हैं, जबकि अन्यों की थाली उपेक्षा की पीड़ा से सिसकती हुई नहीं देता। उक्त कर्मकाण्ड करते समय भी उनके हृदय के अनौदार्य, परोसनेवालों को याचनाभरी निगाहों से निहारती रहती है। मिष्टान्न अवात्सल्य, अविनय, असहिष्णुता आदि कुत्सितभाव प्रकट हो जाते परोसते समय तो स्वपर भेद विज्ञान चौदहवें गुणस्थान में पहुँच जाता हैं। उदाहरणार्थ, जब वे कर्मकाण्ड में प्रवृत्त होते हैं तब लौकिक पदार्थों है। किसी की थाली में लड्ड या बरफी का टुकड़ा एक बार भी नहीं के समान कर्मकाण्ड के अवसरों और सुविधाओं को भी स्वयं ही अधिक आता, जबकि किसी-किसी की थाली में बिना बुलाये बार-बार महमान से अधिक हथिया लेने का प्रयत्न करते हैं और इस बात की परवाह बनता रहता है। यहाँ भी हमारी रागद्वेषवृत्ति काम करने लगती है। नहीं करते कि दूसरे उनसे वंचित रह जायेंगे। जैसे कोई विधान चल हमने देखा है कि जो लोग सिद्धचक्रादि विधानों में इन्द्र-इन्द्राणी रहा होता है तो स्त्रियाँ पहले से आकर पूजा के लिए अच्छे स्थान पर बनकर भक्तिभाव से पूजा करते हैं, रातदिन साधुसन्तों की वैयावृत्य में लगे रहते हैं वे अपने शासकीय कार्यालयों में घूसखोरी के अवसरों -नवम्बर 2001 जिनभाषित 5 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की तलाश करते रहते हैं और यदि उनका कोई उच्च अधिकारी इसमें बाधा डालता है तो वे उस पर प्राणघातक हमला कर देते हैं। उनका क्रोध इस हद तक चला जाता है कि उस पद पर यदि साधर्मीबन्धु होता है तो उसे भी नहीं बख्शते। यह साधर्मी पर प्रहार नहीं, धर्म पर ही प्रहार है, क्योंकि आचार्य समन्तभद्र ने कहा है। 'न धर्मों धार्मिकैर्विना।' इतना ही नहीं, ये कर्मकाण्डप्रेमी एक ओर विश्वशान्ति महायज्ञ का आयोजन करते हैं और हवन कुण्ड में विश्वशान्ति की कामना करते हुए आहुतियाँ प्रदान करते हैं, दूसरी ओर अपने ही साधर्मी बन्धुओं के हाथ से किसी तीर्थ, मंदिर या धर्मशाला का कब्जा हथियाने के लिए लाठियों के प्रहार से उनका सिर फोड़ देते हैं। कहीं-कहीं यह भी देखा जाता है कि धार्मिक अनुष्ठानों या मंदिर आदि के निर्माण के लिये इकट्ठे किये गये धन को कुछ अति धर्मात्मा श्रावक विभिन्न तरीकों से हड़प लेते हैं। वस्तुतः वे इसे अपना उद्योग ही बना लेते हैं। इसीलिए ऐसे श्रावक धार्मिक अनुष्ठानों के आयोजन हेतु जी जान से पुरुषार्थ करते हैं। बोलियों का द्वन्द्वात्मक मनोविज्ञान वर्तमान में कर्मकाण्डों के आयोजन हेतु धन जुटाने की जो पद्धति है वह भी भावकाण्ड को चोट पहुँचानेवाली है। इसमें धन जुटाने के लिये इन्द्र, चक्रवर्ती, कुबेर आदि पदों के लिए नीलामी बोलियाँ लगायी जाती हैं। यह धन जुटाने की मनोवैज्ञानिक पद्धति है। इससे मनुष्य की मानकषाय तुष्ट होती है। मनुष्य में दूसरों को हीन और स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने की दूसरों की पराजय और अपनी विजय का झण्डा लहराते हुए देखने की आदिम प्रवृत्ति होती है। इसे मानकषाय कहते हैं। नीलामी बोलियाँ इस आदिम प्रवृत्ति को तुष्ट करने का अवसर देती हैं। जब किसी पद के लिए नीलामी बोली लगती है, तब श्रावकों में प्रतिस्पर्धा की भावना उत्पन्न हो जाती है, एक बोलीयुद्ध शुरु हो जाता है। इसमें जो बोली जीत लेता है वह समाज में आदरणीय और प्रशंसनीय बन जाता है। अतः बोली युद्ध में प्राप्त विजय उसे असीम आनन्द का अनुभव कराती है। इस आनन्दानुभूति के लिए मनुष्य ऊँची से ऊँची बोली लगाने की कोशिश करता है, फलस्वरूप अधिक से अधिक धन इकट्ठा हो जाता है। इस प्रकार नीलामी बोली धन जुटाने का मनोवैज्ञानिक उपाय है। यदि यह उपाय न अपनाया जाए तो पंचायती कार्य के लिये धनी से धनी आदमी भी इतना पैसा गाँठ से निकालने के लिये तैयार नहीं होगा। पहले ये कर्मकाण्डीय आयोजन पंचायती नहीं होते थे, अपितु कोई एक व्यक्ति स्वयं उनका आयोजन करता था और सारे धन की व्यवस्था उसी के द्वारा की जाती थी। इसके पीछे उसकी धर्मसाधना की भावना होती थी, कषायतुष्टि की नहीं इसलिये नीलामी बोलियों की आवश्यकता नहीं होती थी। आजकल सारे धार्मिक अनुष्ठान पंचायती होने लगे हैं, इसलिये नीलामी बोलियाँ आवश्यक हो गई हैं। धार्मिक अनुष्ठानों के पंचायती हो जाने के कारण व्यवस्था बनाने के लिए भी बोलियाँ एक मनोवैज्ञानिक उपाय होती हैं। यदि नीलामी बोली न रखी जाये तो समाज के सभी लोग इन्द्र-इन्द्राणी चक्रवर्ती 6 नवम्बर 2001 जिनभाषित · आदि बनने के लिये तैयार हो जायेंगे, किन्तु सबका इन्द्र-इन्द्राणी आदि बनाना संभव नहीं है, क्योंकि सौधर्म इन्द्र, कुबेर, चक्रवर्ती आदि के पद एक-एक ही होते हैं। अतः हजारों लोगों में से कुछ ही लोगों को चुनना आवश्यक हो जाता है। यह चुनाव इन्द्रादि पदों की नीलामी बोली द्वारा ही सरलतया हो पाता है। किन्तु इसका एक प्रतिपक्षी मनोविज्ञान भी है। इसके साथ एक ऐसी बुराई जुड़ी हुई है जो बहुत खतरनाक संदेश देती है। नीलामी बोली लगाने का मतलब है धनवान् को धार्मिक कार्यों में प्रमुखता देकर धन को सम्मानित करना और निर्धनता को अपमानित करना, लोगों के मन में यह भाव भरना कि धन के सामने विद्वत्ता, सौजन्य (निर्लोभ, न्याय-मार्गावलम्बन, अनुकम्पा, औदार्य) आदि अन्य गुण तुच्छ हैं। जो लोग बोली युद्ध में निर्धनता के कारण पराजित हो जाते हैं, वे हीनता के भाव से ग्रस्त हो जाते हैं। उनके मन में यह भाव उत्पन्न होता है कि धन ही समाज में सम्मान और धार्मिक कार्यों में प्रमुखता पाने का एकमात्र साधन है। यह भाव उनके मन में अपरिग्रह की निस्सारता और धन की सारमूलता में आस्था पैदा करता है। फलस्वरूप वे भी धनार्जन को जीवन का साध्य बना लेते हैं और जिन अच्छे-बुरे तरीकों से दुनिया के लोग धन कमाते हैं, उन्हीं तरीकों से वे भी कमाने में लग जाते हैं। नीलामी बोलियाँ यह अधःपतनकारी सन्देश देती हैं। पूज्यपादस्वामी ने कहा है कि दान के भाव से कमाना पुण्य के भाव से पाप करना है त्यागाय श्रेयसे वित्तमवित्तः सञ्चिनोति यः । स्वशरीरं स पहून स्नास्वामीति विलिम्यति ।। दूसरी ओर बोलीयुद्ध में दिग्विजय प्राप्त करनेवाले की मानकषाय का ठिकाना नहीं रहता। पहले वह धन को सारभूत समझने वाले लौकिक पुरुषों के बीच में ही सम्मानित होता था, अब धन को निस्सार समझने वाले कुछ साधुसन्तों के बीच में भी प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेता है। फलस्वरूप उसकी मानकषाय में चार चाँद लग जाते हैं। दूसरी बात यह कि धन के द्वारा धर्मक्षेत्र में दिग्विजय प्राप्त कर लेने के बाद उसकी धनाकांक्षा पर विराम लग जाता हो, उसकी आरम्भ-परिग्रह की प्रवृत्ति परिमित हो जाती हो, सो बात नहीं है। उसका न्याय-अन्यायपूर्ण तरीकों पर आधारित धनार्जनतन्त्र ज्यों का त्यों चलता रहता है। अर्थात् बोलीयुद्ध में विजय प्राप्त कर पाण्डुकशिला पर भगवान का अभिषेक करते हुए भी वह लोभकषाय और मानकषाय की बेड़ियों में ज्यों का त्यों जकड़ा रहता है, उसके धनार्जनतन्त्र में अनैतिक मार्ग का अवलम्बन यथावत् कायम रहता है। इस प्रकार कर्मकाण्ड ही फलता-फूलता रहता है, भावकाण्ड नदारद रहता है। वस्तुतः दान करना निर्लोभ होने का लक्षण नहीं है, दान करना तो अकृपण या उदार होने का लक्षण है। अनावश्यक धन कमाने की लालसा न होना निर्लोभ होने का लक्षण है। बोलीपद्धति की बुराई को सीमित करने का एक उपाय यह हो सकता है कि जैसे लोकसभा के लिये वोटों से चुनाव होता है और राज्यसभा के लिए कुछ सदस्य साहित्य, कला आदि के क्षेत्रों में विशिष्ट योगदान करने वालों में से मनोनीत किये जाते हैं, वैसे ही इन्द्रादि पदों के लिए कुछ लोगों का चुनाव नीलामी बोली के माध्यम से किया जाय और कुछ लोगों को विद्वानों और सज्जनों के बीच से Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामांकित किया जाए। शायद इससे केवल धन ही महिमामंडित नहीं | दुष्ट मानते हैं तथा दूसरी उपजाति वालों से घोर ईर्ष्या, द्वेष और घृणा होगा, विद्वत्ता और सज्जनता को भी प्रतिष्ठा मिलेगी, फलस्वरूप | करते हैं, उनके बारे में दुष्प्रचार करते हैं, उनकी छबि को दृषित करते लोग धार्मिक अनुष्ठानों में प्रमुखता पाने के लिये विद्वान् और सज्जन | हैं, उनकी प्रगति में रोड़े अटकाते हैं तथा सामाजिक, आर्थिक और बनने का भी प्रयत्न करेंगे। धार्मिक रूप से उन्हें हानि पहुँचाने की कोशिश करते हैं। हमारे वात्सल्य ज्ञानकाण्ड का आधार साधर्म्य नहीं, अपितु समान उपजाति है। 'धर्मी सों गोवच्छ यद्यपि ज्ञानकाण्ड की प्रवृत्ति कर्मकाण्ड की अपेक्षा दूसरे नम्बर प्रीति सम कर निज धर्म दिपावै' इस उपदेश को हम ताक पर रख देते हैं। यह महामिथ्यात्व-प्रेरित उपजातिद्वेष-विष हमारी धमनियों में पर है, फिर भी व्रतकाण्ड और भावकाण्ड से अधिक है। किन्तु वह भी प्रायः भावकाण्ड से विरक्त होकर चल रहा है। स्वाध्याय होता इस हद तक व्याप्त हो गया है कि अब तो हमारी मुनिभक्ति भी उपजाति के आधार पर बँट गई है, हमारे मन्दिर अलग-अलग हो है, किन्तु कुछ स्वाध्यायी अनेकान्तवाद का गला घोंट कर एकान्त गये हैं, हमारी प्रतिमाएँ अलग-अलग हो गई हैं, हमारे तीर्थ अलगनिश्चयवाद या एकान्त व्यवहारवाद का प्रचार करते हैं। शास्त्रों के अनुवाद और भावार्थ में आगमविरुद्ध स्वाभीष्ट मान्यताओं का अलग हो गये हैं। शब्दब्रह्म की हमारी जन्मजन्मान्तरीय साधना पानी अपमिश्रण कर सर्वज्ञ की वाणी को दूषित करते हैं। मान लेते हैं कि को बिलोने और रेत को पेलने के समान निरर्थक सिद्ध हो रही है। वर्तमान में कोई सच्चा मुनि हो ही नहीं सकता। फलस्वरूप वे सच्चे ज्ञानकाण्ड चल रहा है, सम्यग्दर्शन की परिभाषाओं का मुनियों को भी 'नमोऽस्तु' नहीं करते, न उनका प्रवचन सुनते हैं, न विश्लेषण किया जा रहा है और हम त्रिमूढ़ताओं में फँस रह हैं। उन्हें आहार देते हैं। वे मिथ्या मुनियों के समान सच्चे मुनियों की भी 'भगवती' नाम देकर पद्मावती यक्षिणी की पूजा प्रचलित की जा रही है। मंत्रतंत्र में रत साधुओं की उपासना की जा रही है। इनके जन्मदिन निन्दा करते हैं। सच्चे मुनियों की जगह वे निश्चयाभास का प्रतिपादन करने वाले पण्डितों के प्रवचन सुनते हैं और उनके द्वारा लिखित अब पाश्चात्यशैली में मनाये जाने लगे हैं। जैसे पश्चिमी सभ्यता में अनुवादित ग्रन्थों का स्वाध्याय करते हैं तथा उन्हें ही मन्दिरों में रखते रंगे विषयभोगी गृहस्थ अपना जन्मदिन केक काटकर मनाते हैं, उसी हैं, ताकि उनकी एकान्तवादी मान्यताएँ सभी श्रावकों के मस्तिष्क में प्रकार मुनियों के जन्मदिन पर भी केक काटे जाने लगे हैं, अष्टद्रव्य प्रविष्ट हो जाएँ। अतः जब कोई सर्वज्ञ के मूल उपदेश की रक्षा के में एक नया पाश्चात्य नैवेद्य शामिल किया जा रहा है। शायद आगे लिए उन ग्रन्थों को मंदिर से हटाने का प्रयत्न करता है, तो उन्हें भद्दी चाकलेट और टाफियों का नम्बर आ जाय। मूढ़भक्ति के अन्धकार गालियों से अपमानित किया जाता है। दूसरा पक्ष भी युक्ति और में डूबे श्रावक जिनतीर्थ को लज्जित करने में कितनी प्रगति कर रहे सहिष्णुता से काम नहीं ले पाता, जिससे मारपीट हो जाती है। मामला पुलिस में चला जाता है। लोग हँसते हैं कि महावीर के उपदेशों से विद्वानों में भी परस्पर सौमनस्य दृष्टिगोचर नहीं होता। पत्रविश्व की समस्याएँ सुलझाने का उपदेश देने वाले जैन खुद अपनी पत्रिकाओं में वे एक-दूसरे पर कीचड़ उछालते हुए देखे जाते हैं। उनके समस्याएँ महावीर के उपदेशों से नहीं सुलझा पाते और उन्हें पुलिस संगठन अखण्ड नहीं रह पाते। तथा कोर्ट का सहारा लेना पड़ता है। इस प्रकार जैन ही महावीर के इस तरह हम देखते हैं कि ज्ञानकाण्ड भी भावकाण्ड की संगति से वंचित हैं। उपदेशों को बदनाम करने की चेष्टा में लगे हुए हैं। यह मारपीट मुनिभक्तों और मुनिनिन्दकों में ही होती हो. सो | व्रतकाण्ड नहीं। मुनिभक्तों में भी परस्पर हो जाती है। पर उसका कारण शास्त्र श्रावकों की धार्मिक प्रवृत्ति में व्रतकाण्ड तीसरे नम्बर पर है। नहीं, अपितु मन्दिरों और क्षेत्रों का स्वामित्व तथा उपजातीय विद्वेष | बहुत कम गृहस्थ ऐसे हैं, जिन्होंने विधिवत्, श्रावकव्रत ग्रहण किये होता है। सागर (म.प्र.) में घटी ताजा घटना इसका उदाहरण है। वहाँ | हो। प्रतिदिन देवदर्शन और पूजन करनेवाले तथा घर की चक्की के मुनिभक्तों के परस्पर विरोधी गुटों ने मंगलगिरि को अमंगलगिरि बनाने | आटे और कुए के पानी का उपयोग करने वाले गृहस्थ अल्पसंख्यक में कोई कसर नहीं छोड़ी। स्वाध्याय करते हुए श्रावक रटते रहते हैं- | ही हैं। श्रावकप्रतिमाएँ धारण करने वाले तो और भी अल्प हैं। किन्तु जीवादि प्रयोजनमूत तत्त्व, सरधै तिन माहिं विपर्ययत्व।। कुछ अपवादों को छोड़कर इनमें भी विनय, वात्सल्य, मैत्री, प्रमोद चेतन को है उपयोग रूप, बिन मूरत चिन्मूरत अनूप।। कारुण्य, माध्यस्थ्य आदि भावों के दर्शन दुर्लभ होते हैं। वर्षों से व्रतों पुद्गल नभ धर्म अधर्म काल, इनतें न्यारी है जीव चाल। का पालन करने वाली, शुद्ध अन्न-जल का सेवन करने वाली माताओं ता को न जान विपरीत मान, करि करें देह में निज पिछान।। | और उनकी बहुओं में इतनी कटुता और असहिष्णुता रहती है कि उनका फिर भी उन्हें आत्मा और देह की भिन्नता का ज्ञान नहीं होता। | अधिकांश समय अशान्ति में ही बीतता है। बेला, तेला और रविव्रत वे देहाश्रित उपजातियों के आधार पर साधर्मियों को भी श्रेष्ठ और हीन, | करने वाली जिठानी और देवरानी एक-दूसरे को फूटी आँखों नहीं शिष्ट और दुष्ट मानते हैं। उपजाति और कुछ नहीं, स्थानादि की | देखतीं। उन्हें शीघ्र ही अपने चूल्हे अलग-अलग करने पड़ते हैं। व्रतधारी समानता के कारण समुदायविशेष के लिये प्रसिद्ध हआ एक नाम है। पुरुषों का व्यापार या सेवा कार्य में अनैतिक मार्गों का अवलम्बन इन भिन्न-भिन्न नामोंवाले प्रत्येक समुदाय या उपजाति में श्रेष्ठ और ज्यों का त्यों चलता रहता है। दहेज की माँग करने में उन्हें जरा भी हीन पुरुष होते हैं। किन्तु हम अपनी उपजाति के लोगों को सर्वथा | पाप महसूस नहीं होता। दशलक्षण पर्व में दस दिन तक एकाशनश्रेष्ठ और शिष्ट तथा दूसरी उपजाति के लोगों को सर्वथा हीन और | उपवास करने के बाद भी पुराने वैरों का मैल मन से नहीं धुल पाता - नवम्बर 2001 जिनभाषित 7 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और क्षमावाणी पर्व पर वैरी अपने वैरियों से आँखें चुराते रहते हैं | के पाठ से ही हमारा दैनिक कार्य आरंभ होना चाहिए और दैनिक कार्य अथवा उनका क्षमा माँगना मात्र मायाचार बन कर रह जाता है। कुछ | की समाप्ति पर 'मेरी भावना' का स्मरण किया जाना चाहिए। जब प्रतिमा-धारियों के हृदय में भी विनय, वात्सल्य, मार्दव आदि के अंकुर | दैनिक कार्य 'मैत्रीभाव जगत में मेरा सब जीवों से नित्य रहे' इत्यादि नहीं फूटते अर्थात् व्रतकाण्ड को भी भावकाण्ड का आशीर्वाद प्राप्त | भावों के साथ आरंभ होना जरूरी है, तब पूजा, विधान, स्वाध्याय, नहीं है। आदि का आरंभ तो इन भावों के साथ होना अनिवार्य ही है। भावकाण्ड प्राण है, नदारद क्यों? किन्तु कर्मकाण्डीय ग्रन्थों में केवल व्यवहार साधनों और भावकाण्ड तो कर्मकाण्ड, ज्ञानकाण्ड और व्रतकाण्ड तीनों का व्यवहारविधियों का ही वर्णन मिलता है, उन्हीं के अनुसरण पर बल प्राण है। विनय, वात्सल्य, मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, क्षमा आदि भावों दिया जाता है और उन्हीं का ज्ञान कराने के लिये शिक्षण शिविर के होने पर ही कर्मकाण्डादि में धर्मत्व का संचार होता है। ये सम्यग्दर्शन आयोजित किये जाते हैं। कर्मकाण्ड में विनय, वात्सल्य, क्षमादि भावों के अंगों में गर्भित हैं और सम्यग्दर्शन के बिना कोई भी कर्मकाण्ड की अनिवार्यता का न तो किसी कर्मकाण्डीय ग्रन्थ में निर्देश है, न या व्रतकाण्ड सम्यक् नहीं होता। विनय, वात्सल्य, क्षमादिभावों की उन पर प्रतिष्ठाचार्य आदि जोर देते हैं, न ही किसी प्रशिक्षण शिविर अभिव्यक्ति ही कर्मकाण्डादि का लक्ष्य है और कर्मकाण्डादि-सम्पादन में उनका प्रशिक्षण दिया जाता है, न ही उनका उल्लंघन करने पर के ये माध्यम भी हैं। विनय-वात्सल्य-क्षमादिभावपूर्वक ही कर्मका किसी प्रायश्चित का विधान किया गया है। गोया भावकाण्ड को सर्वत्र ण्डादि का सम्पादन होना चाहिए। ये भाव कर्मकाण्डादि के निश्चय उपेक्षित रखा गया है। यही कारण है कि श्रावकों की धार्मिक प्रवृत्तियों साधन हैं और अष्टद्रव्यादि व्यवहारसाधन। भावकाण्ड कर्मकाण्डादि में भावकाण्ड नदारद है। और उसके अभाव में अन्य तीनों काण्ड का आरंभ बिन्दु भी है, केन्द्रबिन्दु भी और अन्त्य बिन्दु भी, क्योंकि निष्प्राण, नीरस और अनुर्बर बने हुए हैं। भावशून्य क्रियाएँ कैसे यही मोक्ष का निश्चय मार्ग है। 'मेरी भावना' रचकर स्व. पं. प्रतिफलित हो सकती हैं? 'यस्मात्क्रियाः प्रति फलन्ति न जुगलकिशोर जी मुख्तार ने यह बात स्पष्ट कर दी है। 'मेरी भावना' | भावशून्याः ।' रतनचन्द्र जैन नमोऽस्तु मैं न आदमी रख पाया न कुत्ता प्रो. (डॉ.) सरोज कुमार फिर भी मेरे यहाँ कोई नहीं घुसा! घर में कुत्ते न घुसें इसलिये मेरे पड़ोसी ने एक आदमी रख छोड़ा। और घर में आदमी न घुसें इसलिये दूसरे ने एक कुत्ता रख छोड़ा! घुसने वालों ने सोचा होगाकि ऐसे के यहाँ भी क्या घुसना जिसके दरवाजे पर न आदमी है, न कुत्ता! मैं न आदमी रख पाया न कुत्ता , 'मनोरम' 37, पत्रकार कॉलोनी इन्दौर-452001 (म.प्र.) 8 नवम्बर 2001 जिनभाषित - Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपावली कार्तिक कृष्णा अमावस्या के सुप्रभात में पावापुरी के उद्यान से भगवान् महावीर प्रभु ईस्वी सन् 527 वर्ष पूर्व संपूर्ण कर्म शत्रुओं को जीतकर अनन्त ज्ञान, अनन्त आनंद, अनंत शक्ति आदि अनन्त गुणों को प्राप्त कर मुक्ति धाम को पहुँचे थे। उस आध्यात्मिक स्वतंत्रता की स्मृति में प्रदीप पंक्तियों के प्रकाश द्वारा जगत् भगवान महावीर प्रभु के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करता हुआ अपनी आत्मा को निर्वाणोन्मुख बनाने का प्रयत्न करता है हरिवंश पुराण से विदित होता है, कि भगवान महावीर ने सर्वज्ञता की उपलब्धि के पश्चात् भव्यवृन्द को तत्त्वोपदेश दे पावानगरी के मनोहर नामक उद्यानयुक्त वन में पधारकर स्वाति नक्षत्र के उदित होने पर कार्तिक कृष्णा के सुप्रभात की संध्या के समय अघातिया कर्मों का नाशकर निर्वाण प्राप्त किया। उस समय दिव्यात्माओं ने प्रभु की और उनके देह की पूजा की। उस समय अत्यंत दीप्तिमान जलती हुई प्रदीप पंक्ति के प्रकाश से आकाश तक को प्रकाशित करती हुई पावा नगरी शोभित हुई। सम्राट श्रेणिक (विम्बसार) आदि नरेन्द्रों ने अपनी प्रजा के साथ महान् उत्सव मनाया था। तब से प्रतिवर्ष लोग भगवान् महावीर जिनेन्द्र के निर्वाण की अत्यंत आदर तथा श्रद्धापूर्वक पूजा करते हैं। आज भी दीपावली का मंगलमय दिवस भगवान् महावीर के निर्वाण की स्मृति को जागृत करता है। समग्र भारत में दीप मालिका की मान्यता भगवान् महावीर के व्यक्तित्व के प्रति राष्ट्र के समादर के परंपरागत भाव को स्पष्ट बताती है। इतिहास का उज्ज्वल आलोक दीपावली का सम्बन्ध भगवान् महावीर के निर्वाण से स्पष्टतया बताता है। दीपावली का मंगलमय पर्व आत्मीय स्वाधीनता का दिवस है। उस दिन संध्या के समय भगवान् के प्रमुख शिष्य गौतम गणधर को कैवल्य लक्ष्मी की प्राप्ति हुई थी। इससे दिव्यात्माओं के साथ मानवों ने केवल ज्ञान- लक्ष्मी की पूजा की थी इस तत्त्व को न जानने वाले रुपया पैसा की पूजा करके अपने आपको कृतार्थ मानते हैं। वे यह नहीं सोचते कि द्रव्य की अर्चना से क्या कुछ लाभ हो सकता है? वे यह भूल जाते हैं कि 'उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी दैवेन देयमिति कापुरुषा वदन्ति ।' दीपावली के उत्सव पर सभी लोग अपने-अपने घरों को स्वच्छ ★ करते हैं और उन्हें नयनाभिराम बनाते हैं। यथार्थ में वह पर्व आत्मा को राग, द्वेष, दीनता, दुर्बलता, माया, लोभ, क्रोध आदि विकारों से बचा, जीवन को उज्ज्वल प्रकाश तथा सद्गुण- सुरभि संपन्न बनाने में है। यदि यह दृष्टि जागृत हो जाए तो यह मानव महावीर बनने के प्रकाशपूर्ण पथ पर प्रगति किये बिना न रहे। स्व. पं. सुमेरुचन्द्र जी दिवारकर दीपावली के दिन से वीरनिर्वाण संवत आरंभ होता है। यह सर्व प्राचीन प्रचलित संवत्सर प्रतीत होता है। मंगलमय महावीर के निर्वाण को अमंगल नाशक मानकर भव्य लोभ अपने व्यापार आदि का कार्य दीपावली से ही प्रारंभ करते हैं। दीवाली मुनि श्री चन्द्रसागर (आचार्य श्री विद्यासागर के शिष्य) दीवाली आई दीवाली गई दीप जले आँगन रोशनी अँधेरे से उजाला पर कोई न जला न जला 'जैनशासन' से साभार दीवाली आई दीवाली गई कई बार आई कई बार गई आँगन उजयारा मन अँधा तन दुखयारा पर ये शकलें न बदली न बदलीं नवम्बर 2001 जिनभाषित 9 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयांश वनवासी और चैत्यवासी स्व. पं. नाथूराम जी प्रेमी पाँच जैनाभास देवसेन ने दर्शनसार (वि.सं. 990) | के मनि भूमि आदि का प्रबन्ध करते थे। | दूसरा उल्लेख आल्तम (कोल्हापुर) में मिले में पाँच जैनाभासों की उत्पत्ति का कुछ 2. चल्लग्राम के वयिरेदेव मंदिर में | हुए श.सं. 411 (वि.सं. 546) के दानपत्र इतिहास दिया है। उनमें से पहले के दोश.सं. 1047 का एक शिलालेख है जिसमें में मिलता है, जिसमें मूलसंघ का कोपल श्वेताम्बर और यापनीय - तो हमें छोड़ देने इन्हीं द्राविडसंघीय वादिराज के वंशज श्रीपाल आम्नाय के सिद्धनन्दि मुनि को अलक्तक चाहिए, क्योंकि आचार के अतिरिक्त उनके योगीश्वर को होय्सलवंश के विष्णुवर्द्धन नगर के जैनमंदिर के लिए कुछ गाँव दान किये साथ दिगम्बरों का सिद्धान्त भेद भी है। परन्तु पोय्सलदेव ने वसतियों या जैनमंदिरों के गये हैं। सिद्धनन्दि के शिष्य का नाम शेष तीन द्राविड़, काष्ठा और माथुर संघ के जीर्णोद्धार और ऋषियों के आहार-दान के लिए चिकाचार्य था, जिनके कि नागदेव, जिननन्दि साथ कोई बहुत महत्त्व का सिद्धान्त भेद नहीं शल्य नामक ग्राम दान दिया अर्थात् उन्होंने आदि 500 शिष्य थे और दान देने वाले मालूम होता। इन तीनों जैनाभासों का बहुतजैन-मंदिरों का जीर्णोद्धार भी कराया और पुलकेशी प्रथम (चालुक्य) के सामन्त सा साहित्य उपलब्ध है और दिगम्बर आहार-दान का प्रबंध भी किया। सामियार थे। सम्प्रदाय में उसका पठन-पाठन भी बिना 3. लाट-बागड़ संघ काष्ठासंघ की ही परन्तु यदि यह बात मान ली जाय कि किसी भेद-भाव के होता है, परन्तु उसमें ऐसी कोई बात नहीं पाई जाती जिससे उन्हें द्राविड़ संघादि को चैत्यवासी होने के कारण एक शाखा है, जो देवसेन के मत से जैनाभास जैनाभास कहा जाए। मोर के पंखों की पिच्छि था। दुबकुण्ड (ग्वालियर) के जैनमंदिर में जैनाभास बतलाया गया होगा, तो प्रश्न होता के बदले गाय के बालों की पिच्छि रखना या है कि देवसेन का दर्शनसार वि.सं. 990 की वि.सं. 1145 का एक शिलालेख मिला है। रचना है, इसलिए जिस शिथिलाचार के कारण पिच्छि बिल्कुल ही न रखना, खड़े होने के इस संघ के विजयकीर्ति मुनि के उपदेश से उन्होंने द्राविड़ संघ, काष्ठ संघ आदि को बदले बैठकर भोजन करना अथवा सूखे चनों दाहड़ आदि धनियों ने उक्त मंदिर बनवाया को प्रासुक मानना या रात्रि भोजन-विरति नाम जैनाभास बतलाया है, वही शिथिलाचार और कच्छपघात या कछवाहे वंश के राजा मूलसंघी मुनियों में भी तो था, क्योंकि विक्रम का छठा अणुव्रत भी मानना, ये सब बातें विक्रमसिंह ने उसके निष्पादन, पूजन, संस्कार और कालान्तर में टूटे - फूटे की इतनी संगीन नहीं हैं कि इनके कारण- ये सब की पाँचवीं छठी सदी तक के ऐसे अनेक लेख मरम्मत के लिए कुछ जमीन, वापिका के मिले हैं जिनसे मालूम होता है कि वे भी मंदिरों जैनाभास ठहरा दिये जाएँ और इनके प्रवर्तकों सहित एक बगीचा और मुनिजनों के को पापी, मिथ्याती बतलाया जाए। इसलिये की मरम्मत आदि के निमित्त गाँव-जमीन शरीराभ्यंजन (तैल-मर्दन) के लिए दो कर | आदि का दान लेने लगे थे। तब उन्हें जैनाभास आश्चर्य नहीं, जो ये तीनों चैत्यवासी ही हों और इसी कारण देवसेन ने जो चैत्यवासी नहीं घटिकाएँ दीं। ये बातें भी स्पष्ट रूप से क्यों नहीं बतलाया? थे, इन्हें जैनाभास बतला दिया हो। द्राविड़ इसका समाधान इस तरह हो सकता चैत्यवासियों के आचार को प्रकट करती हैं। है कि देवसेन ने दर्शनसार में जो गाथाएँ दी संघ के उत्पादक वज्रनन्दि के विषय में उन्होंने लिखा है कि 'उसने कछार, खेत, वसति हैं, वे स्वयं उनकी नहीं, पूर्वाचार्यों की बनाई पूर्वोक्त जैनाभासों को छोड़कर शेष (जैनमंदिर) और वाणिज्य से जीविका निर्वाह | हुई हैं। और चूँकि पूर्वाचार्य स्वयं वनवासी दिगम्बर सम्प्रदाय को मूलसंघ कहा जाता है। करते हुए और शीतल जल से स्नान करते थे, इसलिये उनकी दृष्टि में द्राविड़ संघादि के परन्तु हमारा ख्याल है कि यह नामकरण बहुत साधु जैनाभास होने ही चाहिए। हुए प्रचुर पाप का संग्रह किया। पुराना नहीं है। अपने से अतिरिक्त दूसरों को इससे बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि अमूल-जिनका कोई मूल आधार नहीं - पुराने और नये चैत्यवासी द्राविड़ संघ के साधु वसति या जैन मंदिरों बदलाने के लिये ही यह नामकरण किया गया गरज यह कि द्राविड़ संघ के स्थापक में रहते थे और उन मंदिरों के लिए दान मिली होगा और यह तो वह स्वयं ही उद्घोषित कर वज्रनन्दि आदि तो पुराने चैत्यवासी हैं, जिन्हें हुई जमीन में खेती - बाड़ी आदि कराते थे। रहा है कि उस समय उसके प्रतिपक्षी दूसरे पहले ही जैनाभास मान लिया गया था और इसके कुछ ऐतिहासिक प्रमाण भी हैं - दलों का अस्तित्व था। मूलसंघी उनके बाद के नये चैत्यवासी हैं, 1. 'न्यायविनिश्चयविवरण', 'पार्श्व- हमें मूलसंघ का सबसे पहला उल्लेख जिन्हें देवसेन ने तो नहीं, परन्तु उनके बहुत नाथ चरित' आदि प्रसिद्ध ग्रन्थों के कर्ता नोणमंगल के दानपत्र में मिलता है, जो पीछे के तेरहपंथ के प्रवर्तकों ने जैनाभास वादिराज इसी संघ के थे। उनके गुरु श.सं. 347 (वि. 482) के लगभग का है बतलाया। मतिसागर की आज्ञा के अनुसार जो दान-पत्र । और विजयकीर्ति के उरनूर के अर्हत्मन्दिर को श्वेताम्बर सम्प्रदाय में जिस अर्थ में लिखा गया उससे मालूम होता है कि इस संघ | कोंगुणिवर्मा महाराज ने दिया है। इसके बाद | सुविहित या विधि-मार्ग का प्रयोग होता है, मूलसंघ 10 नवम्बर 2001 जिनभाषित - Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लगभग उसी अर्थ में पहले दिगम्बर सम्प्रदाय में मूलसंघ का उपयोग किया जाता होगा, किन्तु आगे चलकर यह संज्ञा रूढ़ हो गई, अपने मूल अर्थ आगमोक्त चर्या को बतलाने वाली नहीं रही और इसलिए जब मूलसंधी भी शिथिल होकर चैत्यवासी मठपति बन गये तब भी यह उनके पीछे लगी रही। यहाँ तक कि खूब ठाठवाट से रहने वाले भट्टारक भी इसे पदवी के रूप में धारण किये रहे । इस तरह जिन्होंने पहले द्राविड संपादि को जैनाभास कहा था, वे मूलसंघी भी आगे चलकर जैनाभास बन गये। इसके एक नहीं, बीसों प्रमाण मिले हैं जिनमें से थोड़े से ये हैं 1. मर्करा का दान-पत्र प्रसिद्ध है। उसमें श. सं. 388 (वि. 523) में महाराजा अविनीत द्वारा कुन्दकुन्दान्वय के चन्द्रनन्दि भट्टारक को जैन मंदिर के लिए एक गाँव दान किये जाने का उल्लेख है। 2. राजाधिराज विजयादित्य ने पूज्यपाद के शिष्य उदयदेव को शंख-जिनेन्द्र' मन्दिर के लिए श. सं. 622 में कर्दम नाम का गाँव दान दिया । 3. राष्ट्रकूट कृष्ण तृतीय के सामन्त अरिकेसरी ने श. सं. 888 में अपने पिता बदिग के बनवाये शुभधाम जिनालय की मरम्मत और चूने की कलई कराने तथा पूजोपहार चढ़ाने के लिए सोमदेव (यशस्तिलक के कर्ता) को निकटुपुलु नाम का गाँव दान में दिया ।" कराया था। इन सब लेखों से स्पष्ट है कि हमारे इन बड़े-बड़े मुनियों के अधिकार में भी गाँव बगीचे आदि थे। वे मंदिरों का जीर्णोद्धार कराते थे, दूसरे मुनियों को आहार देते थे और दानशालायें भी बनवाते थे। गरज यह कि उनका रूप पूरी तरह से मठपतियों जैसा था ओर इसका पता विक्रम की छठी शताब्दि के बाद के लेखों से लगने लगता है। यह तो नहीं कहा जा सकता कि मठवासियों के समय में शुद्धाचारी और तपस्वी दिगम्बर मुनियों का अभाव हो गया होगा अथवा सारा जनसमुदाय उन्हीं का अनुयायी बन गया होगा। शुद्ध शास्त्रोक्त आचार के पालने वाले और उनकी उपासना करने वाले भी रहे होंगे, फिर भी वे विरल ही होंगे। जैसा कि पं. आशाधर ने कहा है - 'अफसोस है, सच्चे उपदेशक मुनि जुगनू के समान कहीं-कहीं ही दिखलाई देते हैं - 'खद्योतवत् सुदेष्टारो हा द्योतन्ते क्वचित् क्वचित्।' संदर्भ 1. दर्शनसार, गाया 27 2. 3. 5. इसके बाद के तो सैकड़ों दानपत्र हैं। जिनमें मूलसंघी और कुन्दकुन्दान्वय के 6. मुनियों को गाँव और भूमियाँ दान की गई हैं। श्रवणबेलगोल का जैन शिलालेख संग्रह तो ऐसे दानों से भरा हुआ है। नं. 80 के श.सं. 1080 के शिलालेख के अनुसार महाप्रधान हुल्लमय्य ने होय्सल-नरेश से सवणेरु गाँव इनाम में पाकर उसे गोम्मटस्वामी की अष्टविधपूजा और ऋषिमुनियों के आहार " के हेतु अर्पण कर दिया। नं. 90 के श. सं. 1100 के लेख में भी पूजन और मुनियों के आहार के लिए नयकीर्ति सिद्धान्तचक्रवर्ती को दान देने का उल्लेख है। 40 नं. के लेख से मालूम होता है कि हुल्लप मन्त्री ने अपने गुरु उन देवेन्द्रकीर्ति पंडित देव की निषिद्या बनवाई जिन्होंने रूपनारायण मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया था और एक दान- शाला का भी निर्माण 4. एपिग्राफिआ इण्डिका जिल्द 2, पृष्ठ 237-40 जै. सि. भा. भाग, किरण 2-3 जैन शिलालेखसंग्रह का 493 नं. का शिलालेख । 8. 9. जैन शिलालेख संग्रह द्वि. भा. पू. 60-61 इण्डियन एण्टिक्वेरी जिल्द 7, पृ. 209-17 7. पुव्वायरियकथाई गाहाई संचिऊण एवत्थ । सिरिदेवसेणगणिणा धाराए संवसंतेण ॥ रहओ दंसणसारो.... म. म. ओझाकृत सोलंकियो का इतिहास। 'सोमदेव का नीतिवाक्यामृत' शीर्षक लेख पृ 177-96 10. इन्द्रनन्दिकृत नीतिसार से भी जो केवल मुनियों के लिये बनाया गया है(अनगारान्प्रवक्ष्यामि नीतिसारसमुच्चयम्), इन बातों की पुष्टि होती है कि मुनि लोग मंदिरों का जीर्णोद्धार करते थे, आहार-दान देते थे और थोड़ा बहुत धन भी रखते थे। महावीर निर्वाण महोत्सव अनूपचन्द न्यायतीर्थ महावीर निर्वाण महोत्सव हर्ष पूर्वक अबकी बार ऐसा मने मिटे अँधियारा ज्ञान ज्योति का हो संचार महावीर निर्वाण हो गया कार्तिक मावस प्रातः काल संध्या केवल ज्ञान ज्योति से ज्योतित गौतम हुए निहाल देवों ने आ दीप जलाये घर-घर में था मंगलाचार वातावरण शांति का अद्भुत किया सभी ने जयजयकार | मना रहा है विश्व समूचा पूरा वर्ष 'अहिंसा वर्ष रोगमरी दुर्भिक्ष नहीं हो युद्ध टलें होवे उत्कर्ष । महावीर निर्वाण महोत्सव पच्चीसौ ढाईस महान देता है सन्देश सभी को दूर करो जग का अज्ञान । दीवाली का महापर्व यह जगहितकारी सुखदातार मन की कीट कालिमा धोकर सिखलाता है विनय अपार । जगमग जगमग ज्योति लाकर करता है निर्भय संसार धरती को धनधान्य पूर्णकर मानवता का करे प्रचार | जीओ और जीने दो सबको जीने का सबको अधिकार नहीं सताओ किसी जीव को करते रहो सदा उपकार महावीर निर्वाण महोत्सव दीवाली का सुन्दर मेल उग्रवाद आतंकवाद का मिटा सकेगा सारा खेल | 769, गोदीकों का रास्ता, किशन पोल बाजार, जयपुर 302003) नवम्बर 2001 जिनभाषित 11 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म और हवन स्व. पं. मिलापचन्द्र जी कटारिया धर्म के दो भेद हैं- मुनि धर्म और श्रावक के गुरु क्षीरकदंब भी अजैन ब्राह्मण ही थे। धर्म। हवन करना यह श्रावकों की क्रिया है, विद्वान् लेखक का प्रस्तुत शोधपूर्ण पद्मपुराण और हरिवंशपुराण में लिखा है कि वे मनियों की नहीं। परन्त श्रावकाचार ग्रन्थों- [आलेख विचारणीय है। यह 201 शिष्यों को आरण्यक ग्रन्थ पढाते थे। आरण्यक रत्नकरण्ड श्रावकाचार, पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, | नवम्बर 1964 के 'जैन सन्देश | यह वैदिकमत का ग्रन्थ है। हाँ, यह हो सकता चारित्रसार, वसुनन्दि श्रावकाचार, अमितगति | शोधांक' में प्रकाशित हो चका है। है कि जैन दीक्षा लेकर क्षीरकदंब जैन हो गये श्रावकाचार आदि में यहाँ तक कि पं. आशाधर 'हों। महाभारत शान्तिपर्व मोक्षाधिकार अ. 334 के सागारधर्मामृत में भी श्रावकों के लिए हवन करने का विधान कहीं । में बताया है कि - नहीं बताया गया है। इन ग्रन्थों में पूजा के प्रकरण में भी हवन का 'एक बार ऋषियों और देवताओं के बीच अज शब्द पर विवाद कोई उल्लेख नहीं है। अगर हवन करना श्रावक का धर्म होता या चला। ऋषियों का पक्ष था धान्य से यज्ञ करने का और देवों का पक्ष जिनपूजाविधि का कोई अंग विशेष होता तो उसका कथन श्रावकाचार था पशु बलि से यज्ञ करने का। राजा बसु से निर्णय माँगा गया, उसने के ग्रन्थों में अवश्य आता। पक्षपात से अज का अर्थ बकरा बताया जिससे पशुबलि की प्रथा ___किसी लौकिक कार्य की सिद्धि के लिये कोई मन्त्रविद्या साधी | चली। ऋषिशाप से वसु नरक गया।' जाती है, उसमें भिन्न-भिन्न विद्याओं के लिए भिन्न-भिन्न पदार्थों का । शान्तिपर्व 269 श्लोक 25, 26 तथा पर्व 271 श्लोक 1हवन करना मन्त्र शास्त्रों में बताया है, परन्तु धार्मिक अनुष्ठान में जपे | 13 में बताया है कि 'यज्ञों में प्रारंभ में हिंसा नहीं होती थी। क्योंकि जाने वाले मन्त्रों के साथ हवन का कोई नियम नहीं है। ज्ञानार्णव में | मनु ने अहिंसा को ही परमधर्म कहा है। सच्चा ब्राह्मण तो वह यज्ञ बहुत से उत्तमोत्तम मन्त्रों के जाप्य करने का वर्णन है, परन्तु वहाँ उनकी | करता है जिसमें किसी भी प्राणी की हिंसा न हो।' आहुतियाँ देने का कोई कथन नहीं है। शास्त्रों में पदस्थध्यान के वर्णन इससे भी यही सिद्ध होता है कि 'अजैर्यष्टव्यं' का विवाद वैदिकों में परमेष्ठीवाचक मन्त्रों का जाप्य तो बताया है पर उन मन्त्रों से हवन | में ही आपस का था। करना नहीं बताया है। जप-तप ध्यान से तो बड़ी-बड़ी सिद्धियाँ होती ब्राह्मण मत में अग्नि को देवताओं का मुख माना है इसलिये हैं इसलिये जैन शास्त्रों में जहाँ तहाँ इनकी तो बहुत महिमा लिखी उनके यहाँ अग्नि में डाली वस्तु देवताओं को मिल जाती है। इसी है, हवन की नहीं। श्री समन्तभद्राचार्य ने भी 'दयादमत्यागमसमा- माफिक उत्तर-पुराण पर्व 67 श्लोक 329 से 331 में कहा है कि धिनिष्ठ' इत्यादि कारिका में जैन मत को अद्वितीयमत इसी कारण 'तीन वर्ष के पुराने धान्य की बनी वस्तुओं से अग्निरूप मुख में देवता से बताया है कि उसमें दया, इन्द्रियसंयम, त्याग और ध्यान की की पूजा करना- आहुति देना यज्ञ कहलाता है। ऐसा अर्थ 'अजै.तव्यं' मुख्यता है। का नारद ने करके पर्वत को सुनाया था। इससे भी त्रिवर्षे धान्य से बहुत पुराने जमाने में घृत, मेवा, मिष्टान्न से हवन नहीं किया | हवन करने का विधान वैदिक मत का ही जाहिर होता है। क्योंकि अग्नि जाता था, क्योंकि ये मानव के पौष्टिक खाद्य हैं, किन्तु उस धान्य | को देवों का मुख मानना, ऐसा जैनों का मत नहीं है। इस प्रकार जैनधर्म से हवन किया जाता था जो तीन वर्ष का पुराना हो जाने से न तो में तो तीन वर्ष के पुराने धान्य से भी हवन करने का विधान नहीं वह मानव के काम का रहता था और न कृषि के योग्य, क्योंकि खेत | है। में बोने से वह उग नहीं सकता था। ऐसे निकम्मे, फालतू धान्य को पद्मपुराण पर्व 11 श्लोक 248 में कहा है कि "ज्ञानाग्नि, इस काम में लिया जाता था। उस वक्त की वह रस्म भी वैदिकमत | दर्शनाग्नि और जठराग्नि ये तीन अग्नियाँ इस शरीर में ही हैं। विद्वानों की थी, न कि जैनमत की। क्योंकि 'अजैर्यष्टव्यं' इस वाक्य को लेकर | को उन्हीं में दक्षिणाग्नि आदि तीनों अग्नियों का संकल्प करना चाहिए।" नारद और पर्वत के बीच जो विवाद हुआ था उसमें नारद कहता था इस कथन से सिद्ध होता है कि रविषेण के वक्त तक जैनधर्म में कि तीन वर्ष के पुराने धान्य जो बोने पर उगे नहीं वे अज कहलाते | दक्षिणाग्नि, गार्हपत्य और आहवनीय इन तीन अग्नियों की कल्पना हैं, उन अजों से हवन करना ऐसी वैदिकमत की मान्यता है। इसके | तीर्थकर-गणधर-सामान्य केवलियों के दग्ध शरीरों की अग्नियों में नहीं विरुद्ध पर्वत का कहना था कि अज कहिये बकरों से हवन करना ऐसी | हुई थी। मान्यता वैदिकमत की है। यहाँ दोनों ही ने वैदिकमत की मान्यता पर पद्मपुराण के इसी 11वें पर्व के श्लोक 241 से 244 में कहा विवाद किया था। जैनमत का तो यहाँ कोई प्रसंग ही नहीं है। जैनधर्म है- "प्रथम तो यज्ञ की कल्पना ही निरर्थक है। दूसरे यदि कल्पना करनी तो दयाप्रधान धर्म है, ऐसा आबाल-गोपाल प्रसिद्ध है, तब उसमें ही है तो विद्वानों को हिंसायज्ञ की कल्पना नहीं करनी चाहिए। उन्हें बकरों से होम करने की बात कोई कहेगा ही क्यों और उसकी यह | धर्मयज्ञ ही करना चाहिए। वह इस तरह की आत्मा यजमान है, शरीर बात चलेगी भी कैसे? इसके लिये राजा बसु की साक्षी की भी कोई | वेदी है, सन्तोष साकल्य है, त्याग होम है, मस्तक के केश कुशा जरूरत नहीं थी। हैं, प्राणियों की रक्षा दक्षिणा है, शुक्लध्यान प्राणायाम है, सिद्धिपद तीन वर्ष के पुराने धान्य से हवन करने की रीति जैनमत की | की प्राप्ति फल है, सत्य बोलना स्तम्भ है, तप अग्नि है, चंचलमन होती तो आचार्य जिनसेन स्वामी आदिपुराण में गर्भाधानादि संस्कारों | पशु है और इन्द्रियाँ समिधायें हैं। यही धर्मयज्ञ कहलाता है।' म हवन के लिए तीन वर्ष का पुराना धान्य बताते। इसलिये पर्वत | पद्मपुराण के इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि रविषेण के और नारद दोनों ही का विवाद वैदिकमत की मान्यता पर ही था। दोनों | वक्त तक भी जैनधर्म में अग्नि में आहुतियाँ देने रूप यज्ञ की कोई 12 नवम्बर 2001 जिनभाषित - Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवृत्ति नहीं थी। उस वक्त वैदिक मत में यज्ञ की जैसी प्रवृत्ति थी | स्तंभन, मारण, उच्चाटन आदि कर्म लिखे हैं, जिनमें साधक को मन्त्र उसे भी उन्होंने आध्यात्मिक रूपक में ढाल कर उस तरह के यज्ञ करने | का जाप्य करना पड़ता है और हवन भी करना पड़ता है। हवन अलगका आदेश दिया है। अलग मन्त्रों में अलग-अलग पदार्थों का होता है। विद्यानुशासन में इसी तरह वैदिकों के यहाँ देवाराधना में जिस प्रकार यज्ञ, स्वाहा, | लिखा है कि - आहुति शब्द प्रयुक्त हुए हैं उसी प्रकार हमारे यहाँ जैनधर्म में भी ये कनेर के फूलों के हवन से स्त्रियों का वशीकरण होता है। सुपारी शब्द प्रयुक्त हुए हैं, किन्तु इनका अर्थ हमारे यहाँ वैदिकों से जुदा | के फल-पत्तों के होम से राजा लोग वश में होते हैं। घृत मिले आम्र है। जल गंध अक्षतादि अष्टद्रव्यों से भगवान् की पूजा करने को हमारे फलों के होम से विद्याधरी वश में होती है। घृत सहित तिलों के होम यहाँ यज्ञ कहा है। से धनधान की वृद्धि होती है। इत्यादि' और लिखा है - होम से उस द्रव्यस्य शुद्धिमधिगम्य यथानुरूपं, मंत्र का अधिष्ठाता देवता तृप्त होकर साधक के आधीन हो जाता भावस्य शुद्धिमधिकामधिगंतुकामः। आलंबनानि विविधान्यवलंब्य वल्गन्, जपादविकलो मंत्र: स्वशक्ति लभते पराम्। भूतार्थयज्ञपुरुषस्य करोमि यज्ञम्।। होमार्चनादिभिस्तस्य तृप्ता स्यादधिदेवता।। - नित्यनियम पूजा अर्थ - अविकल जप करने से मंत्र में उत्कृष्ट शक्ति पैदा होती पूजन के वक्त इष्टदेव के आगे स्वाहा शब्द बोलकर हमारे यहाँ । है और हवनपूजादि से उस मंत्र का अधिष्ठाता देवता तृप्त हो जाता द्रव्य अर्पण किया जाता है और पूजा के अन्त में जो अर्घ दिया जाता है वह पूर्णाहुति कहलाती है। इस पूर्णाहुति शब्द का प्रयोग पं. आशाधर ये सब बातें मंत्रशास्त्रों से संबंध रखती हैं। इनका धार्मिक ने स्वरचित प्रतिष्ठापाठ में अनेक जगह किया है। इससे फलितार्थ | पूजापाठों के साथ कोई सरोकार नहीं। भगवान् पंचपरमेष्ठी की यही निकलता है कि जैनमत में भी यज्ञ करना बताया है परन्तु वह आराधनारूप मंत्रों में मंत्रों के अधिष्ठाता देव पंचपरमेष्ठी हैं, वे ब्राह्मणों की तरह अग्नि में आहुतियाँ देने रूप नहीं बताया है, किन्तु वीतरागी हैं। उनका होम से तृप्त होने का और साधक के आधीन होने पूज्य के आगे द्रव्य अर्पण करने रूप बताया है। का कोई प्रश्न ही नहीं है। अतः धार्मिक अनुष्ठान में हवन की कोई यशस्तिलकचम्पू आश्चास 4 पृ.105 पर दिगम्बर धर्म पर ऐसे | आवश्यकता नहीं है। सोमदेव ने भी यशस्तिलकचंपू उत्तरखंड आक्षेप का उल्लेख किया है - पृष्ठ-109 में 'षट्कर्मकार्यार्थ' इत्यादि श्लोक में स्तंभन, मोहन आदि न तर्पणं देवपितृद्विजाना, षट्कर्म के कार्य में ही होम को माना है, धर्मकार्यों के लिये नहीं। इससे स्नानस्य होमस्य न चास्ति वार्ता। यही सिद्ध होता है कि हवन का संबंध सिर्फ लौकिक मंत्र विद्या के श्रुतेः स्मृतेर्बाह्यतरे च धीस्ते साथ है। हवन की क्या, मंत्र विद्या के साथ तो दिशा, काल, मुद्रा, धर्मे कथं पुत्र दिगंबराणाम्। आसन, पल्लव, माला आदि अन्य भी कई बातों का विचार रखना अर्थ- जिस धर्म में देव-पितृ-द्विजों का तर्पण नहीं है, न स्नान पड़ता है। किसी-किसी मंत्रसाधना में तो घृणित वस्तुओं का उपयोग (जैन साधु स्नान नहीं करते) और न होम की जहाँ वार्ता है और जो | भी बताया है। इसके लिये देखिये 'भैरव पद्मावतीकल्प' नामक मंत्र श्रुति-स्मृति से अत्यंत बाह्य है ऐसे दिगम्बरों के धर्म में हे पुत्र, तेरी | ग्रन्थ। बुद्धि क्यों है? उक्त स्तंभन, मोहन आदि षट्कर्मों के साथ शान्ति, पुष्टि इस आक्षेप से क्या यह सिद्ध नहीं होता है कि प्राचीन काल | मिलाने से 8 कर्म भी मंत्रशास्त्रों में माने गये हैं। इस शांतिकर्म के में दिगम्बर मत में कतई हवन की प्रथा नहीं थी? साधारण तौर पर | लिये भी दिशा, काल, मुद्रा आदि के नियम लिखे हैं। जैसे लिखा भी सोचा जाये कि किसी का पूजा सत्कार करने में जो चीजें उसे | है कि - मुख पश्चिम में रहे, समय अर्द्धरात्रि का हो, पद्मासन, ज्ञानमुद्रा, भेट में देनी हैं उन चीजों को उसे न देकर उसके आगे अग्नि में जलाकर स्फटिक की माला, स्वाहा पल्लव, आसन सफेद, मध्यमांगुली से उन्हें भस्म कर देना क्या कोई बुद्धिमानी है और ऐसा भी क्या कोई माला फेरना, अग्निकुण्ड चौकोर, होम की समिधा 9 अंगुल की हो। पूजा का तरीका है? यह मांत्रिक, शांतिकर्म है। इस मान्त्रिक शांतिकर्म से जुदा एक धार्मिक वैदिक मत में 'अग्निमुखा वै देवाः' ऐसा श्रुति वाक्य है। | शान्तिकर्म भी होता है जिसमें पंचपरमेष्ठी सम्बन्धी मंडल पूजा जिसका अर्थ होता है 'देवगण अग्निमुख वाले होते हैं।' यानी जो चीजें | विधान, जाप्य, स्तुति, (सहस्रनाम स्तोत्र का पाठ) अभिषेकादि रूप अग्नि में हवन की जाती हैं वे देवताओं को पहुँच जाती हैं। ऐसा | धार्मिक अनुष्ठान किया जाता है। इस धार्मिक शांतिकर्म में दिशा, सिद्धान्त वैदिक मत का है अतः वैदिक लोग इस सिद्धान्त के माफिक | काल, मुद्रा, आसन आदि नियमों का कोई प्रतिबन्ध नहीं है। न इसमें अग्नि में हवन करते हैं। किन्तु जैनों का तो ऐसा सिद्धान्त नहीं है, | होम करने की जरूरत है। भगवज्जिनसेन ने आदि पुराण में ऐसे ही फिर वे क्या समझ कर अग्नि में हवन करते हैं, जैनमत में तो देवों शांतिकर्म का उल्लेख किया है। जिस वक्त भरत चक्री को अशुभ को अमृतभोजी लिखा है उनको हमारे खाद्यपदार्थों से प्रयोजन ही क्या स्वप्न आये थे तो उनके दोष निवारणार्थ उन्होंने शांतिकर्म किया था। है? यही बात सोमदेव ने भी हवन का निराकरण करते हुए यशस्तिलक उसका कथन करते हुए आदिपुराण में लिखा है किउत्तरखंड पृ. 109 में इन शब्दों में लिखी है शांतिक्रियामतश्चक्रे दुःस्वप्नानिष्टशांतये। _ 'सुधांधसः स्वर्गसुखोचितांगा: जिनाभिषेकसत्पात्रदानाद्यैः पुण्यचेष्टितैः।। खादति किं वह्निगतं निलिम्पाः।' अर्थ - जिनेन्द्र का अभिषेक, सत्पात्रों को दान इत्यादि अर्थ- स्वर्गीय सुखों में पलने वाले अमृतभोजी देवता क्या | पुण्यकार्यों से भरत ने दुःस्वप्नों और अरिष्ट (अशुभसूचक उत्पात) अग्नि में प्राप्त हुए खाद्य पदार्थों को खाते हैं? नहीं खाते हैं। की शान्ति के लिये शान्तिकर्म किया। लौकिक कार्यों के साधनार्थ मन्त्रशास्त्रों में वश्य, आकर्षण, | जो लोग शान्तिकर्म में हवन को मुख्य स्थान देते हैं। उन्हें -नवम्बर 2001 जिनभाषित 13 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिपुराण के इस कथन पर ध्यान देना चाहिए। अगर शांतिकर्म में | है कि - हवन एक मुख्य चीज होती तो आचार्य जिनसेन उसका नाम दिये । “तीनों प्रकार की अग्नियों में मन्त्रों के द्वारा पूजा करने वाला बिना नहीं रहते। उन्होंने तो पूजा, दान को प्रधानता दी है। अर्हद्भक्ति | द्विजोत्तम कहलाता है और जिसके घर इस प्रकार की पूजा नित्य होती और त्याग, यही तो जैनधर्म के प्राण हैं और सच्ची व स्थायी शांति | रहती है वह अग्निहोत्री कहलाता है। घर में बड़े यत्न के साथ इन भी इन्हीं से मिल सकती है। साथ ही बड़े-बड़े विघ्नों और उपद्रवों तीनों अग्नियों की रक्षा करनी चाहिये। जिनका कोई संस्कार नहीं हुआ के मिटाने का भी ये ही अमोघ उपाय है। पं. आशाधर जी ने भी अपने | है, ऐसे अन्य लोगों को कभी नहीं देनी चाहिये। ब्राह्मणों को व्यवहारनय प्रतिष्ठा पाठ में इसी प्रकार का शान्तिकर्म लिखा है। लिखते हैं | की अपेक्षा ही अग्नि की पूज्यता इष्ट है। इसलिये जैन ब्राह्मणों को कि - भी आज यह व्यवहारनय उपयोग में लाना चाहिये।" 'अष्ट दल के कमल के मण्डल में लघुशान्तिकर्म की विधि और | आदिपुराण के इन सब कथनों से साफ तौर पर यही प्रकट होता 81 कोठों के मण्डल में बृहत् शान्तिकर्म की विधि करनी चाहिए। है कि श्री जिनसेनाचार्य ने दो जगह हवन करना बताया है। एक तो ध्यान के माफिक ही उसका फल समझना चाहिए। विघ्नों की शान्ति | गर्भाधान-विवाह आदि लौकिक कार्यों में और दूसरे जैन ब्राह्मणत्व के के लिये दोनों शान्तिकर्म यथायोग्य, यथाविधि करने चाहिए।' इन दोनों | लिये। इनके सिवा जिनालय में मण्डल पूजा विधान आदि अन्य धार्मिक शान्तिकर्मों में उन्होंने सिर्फ पञ्चपरमेष्ठी व जयादि देवी-देवों की अनुष्ठानों में हवन किये जाने का अभिप्राय जिनसेन स्वामी का ज्ञात आराधना पूजा (जैसी कि उनकी आम्नाय थी) और भगवान् का नहीं होता है। और यह अग्निहवन भी गृहस्थ के घर पर ही होना चाहिये, अभिषेक करना बताया है। हवन करने का कथन नहीं किया है। सिद्धचक्र न कि जिन मन्दिर में। विवाह में तो आमतौर पर हवन घर पर होता मण्डल-विधान भी इसी तरह का शान्तिकर्म है। इसमें अनेक कवियों ही है और ब्राह्मणों के लिये स्वयं आचार्य श्री ने स्पष्टतया घर पर हवन की संस्कृत रचनाओं का संग्रह है। इसका संकलन भट्टारक शुभचन्द्र | करने को कहा ही है। अन्य गर्भाधानादि संस्कार भी लौकिक होने से ने किया है। इसमें कहीं भी हवन करने का नाम निशान नहीं है। तथापि उनका हवन भी घर पर ही होना योग्य है। रही मूर्ति प्रतिष्ठा और वेदी वर्तमान में हर अष्टाह्निका में जैन समाज में कई जगह इस पुस्तक प्रतिष्ठा में हवन की बात, सो लौकिक में नये घर में प्रवेश करते से सिद्धचक्र मण्डल विधान किया जाता है। उसमें हजारों की सामग्री समय हवन किया जाता है। उसी की देखा-देखी नूतन मंदिर में श्री अग्नि में फूंक दी जाती है। इसे हम उत्सूत्रप्रवृत्ति ही कह सकते हैं। जी को पधराते वक्त भी हवन की प्रथा चल पड़ी है, इससे इसकी यहाँ तक हमने इस लेख में शास्त्राधार से यह दिखाने का प्रयत्न गणना भी लौकिक विधान में ही जायेगी। इसे भी करना ही है तो संक्षिप्त किया है कि जैनधर्म में धार्मिक अनुष्ठान करने के लिये हवन करने रूप से कर लेना चाहिये। शान्तिमन्त्र का जितनी संख्या में जाप्य हुआ का कहीं कोई विधान नहीं है। अब हम आदिपुराण में उल्लखित हवन | है उसके दसवें हिस्से की आहुतियाँ देना ऐसा यहाँ कोई नियम नहीं पर विचार करते हैं - है। ऐसा नियम तो किसी मन्त्र विद्या के साधनों में कहा गया है। एक वक्त ऐसा गुजरा था कि हमारे इस देश में ब्राह्मण धर्म हवन यह जैन धर्म की मूल संस्कृति नहीं है। जैन धर्म की मूल का प्राबल्य था, तब हवन आदि क्रिया-कांडों का प्रचलन जोर-शोर | चीज है अन्तरंग में राग-द्वेषादि कषायों की विजय और बाह्य में पर था। उस वक्त जिनके हवनादि पूर्वक गर्भाधानादि संस्कार होते जीवदया का पालन। ये दोनों ही हवन में घटित नहीं होते हैं। हवन थे वे आर्य कहलाते थे और उच्च श्रेणी के माने जाते थे। ऐसी परिस्थिति से अग्निकायिक जीवों की विराधना होती है। दूर-दूर तक फैलने वाली में जैनधर्म की रक्षा और उसकी प्रतिष्ठा रखने के लिये हमारे आचार्य अग्नि की गरम-गरम धुएँ से वायुकाया आदि जीवों का विघात एवं जिनसेन को भी आधानादि संस्कारों और उनके सम्पादनार्थ हवनादि | मक्खी-मच्छर आदि उड़ने वाले छोटे-छोटे त्रस जीवों को बाधा आदि क्रिया-काण्डों की सृष्टि करनी पड़ी है। जिसका वर्णन आदिपुराण में तो प्रत्यक्ष ही दिखती है। साथ ही उसके काले धुएँ से मंदिर की सफेद लिखा मिलता है। उस वर्णन को गम्भीरता से अध्ययन करने पर ऐसा दीवारों के सुन्दर चित्रों, छत्र-चामरों और बहुमूल्य चन्दोवों की भी प्रतिभासित होने लगता है कि जब जिनसेन स्वामी को ऐसा नजर खासी मिट्टी पलीद हुये बिना नहीं रहती है। इससे कभी-कभी आग आया कि ब्राह्मण धर्म का असर जैनधर्म के मूल आचार-विचारों पर | लगने की भी संभावना रहती है। इस प्रकार हवन से सिवाय हानि तो नहीं पड़ रहा है। किन्तु जैनी लोग अपने पड़ौसी वैदिक मतवालों | के कोई लाभ नहीं दिखता है। अहिंसामय जैनधर्म में यह निरर्थक सावध की देखा-देखी विवाह, जातकर्म, शिलान्यास, नूतन गृह प्रवेश आदि | क्रिया कैसे पनप रही है? आज के जमाने में धृत, मेवा, मिष्टान्न फलादि लौकिक कार्यों को ब्राह्मण रीति से कराने लग गये हैं। यह भी चीज पदार्थ वैसे ही मँहगाई की पराकाष्ठा तक पहुँच कर जनसाधारण के जैनधर्म के लिये अवज्ञा की है। इसके लिए भी जैन जनता क्यों लिये अत्यन्त दुर्लभ हो गये हैं। उनको अग्नि में जला कर धर्म मानना परमुखापेक्षी रहे? और क्यों वैदिक मत का सम्पर्क करे? यही सब इससे बढ़कर अन्य क्या अज्ञानता हो सकती है? सिद्धचक्रादि विधानों सोचकर आचार्यश्री ने लौकिक क्रियाकाण्डों का जो प्रवाह चल पड़ा | में हजारों रुपयों की सामग्री जला कर खाक की जाती है। अगर ये था उसे रोकना मुश्किल समझ कर उसके विधिविधानों में वैदिक | ही रुपये दीन-अनाथों के भी काम में लगाये जायें तो कितना पुण्य आम्नाय के अनुसार देव, गुरु, अग्नि की साक्षी का उपयोग किया | हो। यह भी तो सोचना चाहिये कि अग्नि में घृतादि जलाने के साथ जा रहा था उनकी जगह उन्होंने जैन आम्नाय के अनुरूप देव, गुरु, | धर्म का सम्बन्ध कैसे है? अविचारपूर्ण क्रियाओं का कोई फल मिलने अग्नि के समक्ष में विधि विधान किये जाने की योजना चालू की। | वाला नहीं है। धर्म का असली तत्त्व छिपा जा रहा है और थोथे तदर्थ उन्होंने पीठिकादि हवन मन्त्रों, गार्हपत्यादि अग्नियों, तीर्थंकरादि क्रियाकाण्डों का जोर बढ़ता जा रहा है। विवेकी विद्वान मन में सब अग्निकुण्डों और गर्भाधानादि संस्कारों का प्रतिपादन किया है। साथ | कुछ जानते हुए भी अल्पज्ञ लोगों की रुख के विरुद्ध कदम उठाने ही इन कामों के कराने वाले ब्राह्मण भी चाहिये तो इसके लिये उन्होंने | का साहस नहीं कर रहे, यह बड़े ही परिताप का विषय है। जैन ब्राह्मण बनाने के उपाय भी बताये हैं। उन जैन ब्राह्मणों को खास 'जैन निबन्ध रत्नावली' तौर से हवनादि करने का आदेश देते हुए आदिपुराण पर्व 40 में लिखा | (प्रथमभाग) से साभार 14 नवम्बर 2001 जिनभाषित प्रतिभासित बाह्मण धर्म का ना लोग अपने पतन गृह प्रवेशाज Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वांक से आगे जैन संस्कृति और साहित्य के विकास में कर्नाटक का योगदान प्रो. (डॉ.) राजाराम जै बीसवीं सदी को भी कम सार्थक नहीं | विवेकी ने उसे एकाग्रमन से सुना, उसे संसार | किया है, यही कारण है कि उनके प्रवचन बड़े बनाया है कर्नाटक ने। पिछले कुछ सदियों से के क्षणिक सुखों की असारता का भान हो गया ही रोचक, तुलनात्मक एवं शोधपरक होते हुए दिगम्बर जैन मुनि-परम्परा अनेक अज्ञात और उसने तत्काल ही मुनि-मुद्रा धारण कर | भी सरल भाषा एवं शैली में होने के कारण दुखद कारणों से लगभग समाप्त प्राय थी, ली। सर्वभोग्य होते हैं। किन्तु धन्य हैं वे पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर चारित्र-चक्रवर्ती महामनीषी राष्ट्रसन्त जन-जागरण, नैतिक उत्थान के बिन जी महाराज, जिन्होंने अनेक प्रतिकूलताओं के आचार्य श्री विद्यानन्द जी सम्भवतः उसी सम्भव नहीं और इसके लिये अनेक उपायो मध्य भी श्रमणोचित आध्यात्मिक निर्भीकता वातावरण से ऊर्जस्वित होकर लगभग चार में से एक उपाय धर्मोत्सव, शलाका तथा कठोर दिगम्बर-चर्या का विधिवत् दशक पूर्व उत्तर-भारत में पधारे और उन्होंने महापुरुषों अथवा शलाकेतर महापुरुषों की पालन कर नये प्रेरक आदर्श प्रस्तुत किये। जिनवाणी के उद्धार तथा जैनधर्म के प्रचार- शताब्दी या सहस्राब्दी समारोह का आयोजन अनेक असामाजिक तत्त्वों द्वारा किये गये प्रसार के लिये जो कार्य किये, वे सभी बड़े विशेष महत्त्व रखता है। अतः आचार्य भीषण उपसर्गों को भी उन्होंने धैर्यपूर्वक सहा, ही अभूतपूर्व मौलिक, प्रभावक, प्रेरक एवं विद्यानन्द जी ने इस विषय में गम्भीर चिन्तन फिर भी, शास्त्रविहित मार्ग से वे कभी भी ऐतिहासिक हैं। स्थानीय समाजों तथा न्यास- किया, समय की नाड़ी टटोली और सामाजिक विचलित न हुए और दिगम्बर जैन साधुओं धारियों को प्रेरित कर गुणवत्ता के आधार पर समस्याओं को ध्यान में रखते हुए भगवान का एक संघ भी तैयार कर दिया, जो वर्तमान वरिष्ठ विद्वानों को नोबल पुरस्कार के समान महावीर का 2500वाँ परिनिर्वाण वर्ष समामें वृद्धिंगत है। षट्खण्डागम साहित्य के पुरस्कारों से सम्मानित कराने की परम्परा रोह, गोम्मटेश का सहस्राब्दि वर्ष समारोह प्रकाशन में आने वाली अनेक विघ्न बाधाओं उन्हीं ने प्रारम्भ करायी। इसी प्रकार विश्ववि- तथा उसके साथ ही महासेनापति वीरवर को उन्होंने दूर किया और आज उनकी कृपापूर्ण द्यालयों में प्राकृत एवं जैन-विद्या के विभागों श्रावक-शिरोमणि चामुण्डराय एवं उनके प्रतिदृष्टि से उक्त समग्र साहित्य प्रकाशित होकर | की स्थापना कराना, शौरसैनी-प्राकृत साहित्य ष्ठाचार्य गुरु आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त घर-घर में सुशोभित है। के प्रचार-प्रसार, उनके प्रामाणिक संस्करणों के चक्रवर्ती-सहस्राब्दि-समारोह, अ.भा. दि. शेडवाल एवं सदलगा ग्राम तो प्रकाशन तथा उच्चस्तरीय शोध कार्यों के जैन मुनि परिषद् का गठन, बाहुबलिकर्नाटक की अन्तरात्मा ही रहे हैं, जो दिगम्बर लिये कुन्दकुन्द भारती शोध संस्थान की कुम्भोज-क्षेत्र-विकासोत्सव, गोम्मटगिरि क्षेत्र मुनियों के जन्मदाता-केन्द्र बन गये। वहाँ के स्थापना, प्राकृतविद्या (त्रैमासिक शोध-पत्रिका) स्थापना-समारोह, शाकाहार, सदाचार एवं जैन समाज ने भारत को जो गुण-गरिष्ठ के प्रकाशन एवं संचालन की प्रेरणा, जैनविद्या श्रावकाचार समारोह, आचार्य कुन्दकुन्दआचार्यरत्न प्रदान किये, उनमें उक्त शान्ति- विषयक शोधार्थियों को शोधानुदानों के लिये सहस्राब्दि-वर्ष समारोह, जैन-विद्या का गौरव सागर जी के अतिरिक्त आचार्य श्री पायसागर समाज को प्रेरणा, जैन-विद्या एवं इतिहास ग्रन्थ 'कातन्त्र-व्याकरण' समारोह, शौरसेनी जी, देशभूषण जी, कुन्थुसागर जी, आचार्य विषयक दुर्लभ ग्रन्थों के प्रकाशन आदि के प्राकृत-साहित्य संसद की स्थापना, श्रुतपंविद्यानन्द जी, आचार्य विद्यासागर जी, लिये प्रेरणा देकर भारत की राजधानी दिल्ली चमी एवं प्राकृत भाषा दिवस समारोह, आचार्य वीरसागर जी. वर्धमानसागर जी | में जैनधर्म का उन्होंने अविस्मरणीय प्रचार- कलिंगाधिपति जैन सम्राट खारवेल-समारोह तथा बाहुबली सागर जी आदि-आदि प्रमुख प्रसार किया/कराया है। प्राकृतभाषा एवं आदि-आदि उसी परिप्रेक्ष्य में उन्हीं के जैनसाहित्य की सेवा के लिये समर्पित विद्वानों सान्निध्य में आयोजित किये गये। प्रतीत होता है कि आचार्य भद्रबाहु के को उनकी गुणवत्ता एवं वरिष्ठता के आधार इन आयोजनों से जैन-समाज की अमृतमय प्रवचनों को दक्षिण भारत के | पर राष्ट्रपति सम्मान पुरस्कार दिलाने हेतु प्रतिष्ठा बढ़ी है, देश-विदेश में जैन-विद्या का प्राकृतिक वातावरण ने पूर्णतया आत्मसात् उनकी बलवती प्रेरणाएँ भी अब साकार होने आशातीत प्रचार-प्रसार हुआ है, जैन इतिहास किया था। कृष्णा, कावेरी एवं गोदावरी के लगी हैं। के अनेक प्रच्छन्न तथ्यों को नया प्रकाश मिला अविरल प्रवाहों एवं उनके जल-प्रपातों में आचार्यश्री ने जैन धर्म के साथ-साथ है और विद्वानों में एक नई जिज्ञासा जाग्रत समाहित द्वादशांग-वाणी के मधुर स्वर, वहाँ यूनानी इतिहास, धर्म दर्शन तथा जैन एवं की वनस्पतियों, निर्झरों, पर्वतों एवं उद्यानों जैनेतर भारतीय धर्मों दर्शनों तथा पुरातत्त्व इस प्रकार अपनी दिगम्बर-मुनिचर्या में उनकी वाणी ऐसी समाहित है कि जिस इतिहास एवं संस्कृति का भी गहन अध्ययन | के प्रभाव, प्रेरणा, प्रवचनों तथा लेखन से - नवम्बर 2001 जिनभाषित 15 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्होंने जैनधर्म एवं जैन-जागरण का अलख जगाया है और अपने ओजस्वी व्यक्तित्व से अतीतकालीन महामहिम आचार्यों के सारस्वत युग को स्मरण करने के लिये आज की पीढ़ी को ऊर्जस्वित एवं उत्तेजित होने के लिये बाध्य किया है। यही नहीं, आचार्य श्री रहस्यवादी कवि होने के साथ-साथ एक महान् दार्शनिक चिन्तक एवं निबन्धकार भी है। उनकी निबन्ध- शैली देखकर यह अनुभव होता है। कि हिन्दी निबन्धों के पूर्व निर्धारित मानकों - में भी उनकी शैली ने एक नया आयाम जोड़कर उस दिशा में भी एक नया वैशिष्ट्य प्रदान किया है। पूज्य आचार्य विद्यासागर जी ने दक्षिणापथ से विहार कर उत्तरापथ के उस अंचल में जागृति की लहर उत्पन्न की है, जो युगों-युगों से अथवा भद्रबाहुकाल से वह यद्यपि जैन धर्म का केन्द्र रहा था किन्तु कुछ अज्ञात विषम परिस्थितियों और विदेशीआक्रमणों के कारण, जहाँ की एकाग्रता भंग हो चुकी थी, वहाँ के निवासी यद्यपि श्रावकोचित आस्था, विश्वास, सरलता एवं जिनवाणी- प्रेम से सुसंस्कृत थे, फिर भी जनजागृतिहासमान थी। ऐसे समय में पूज्य आचार्यश्री ने अपने दिगम्बर सम्मत कठोर आचार एवं प्रवचनों की अमृत स्रोतस्विनी प्रवाहित कर उस भूमि- बुन्देलखण्ड एवं बघेलखण्ड के प्रक्षेत्रों में जैनधर्म की प्रभावना कर सर्वजनहिताय सर्वजनसुखाय विविध विकासात्मक योजनाओं को साकार करने की प्रेरणाएँ देकर अनेक ऐतिहासिक कार्य किये हैं। · श्रवणबेलगोल की पुण्यधरा के प्रतिष्ठाता पूर्व भट्टारकों का इतिहास तो हमें ज्ञात नहीं, किन्तु वर्तमान कालीन कर्मयोगी पूज्य भट्टारक चारुकीर्ति जी के विषय में हमें कुछ जानकारी है क्योंकि उसकी प्रवर समिति ने उन्हीं के द्वारा संस्थापित 'प्राकृत ज्ञान भारती एजुकेशन ट्रस्ट' की ओर से आयोजित 'फर्स्ट नेशनल प्राकृत कान्फ्रेंस के बैंगलोर अभिवेशन (दिसम्बर 1990 ) में वरिष्ठ 10 विद्वानों के साथ मुझे भी पुरस्कृत किया था। उस समय उनके साथ की बैठकों में कुछ विचार-विमर्श करने का सुअवसर भी मिला था। उस समय हमने यह अनुभव किया था कि कन्नड़, हिन्दी एवं अंग्रेजी पर समाना 16 नवम्बर 2001 जिनभाषित धिकार रखने वाले वे (भट्टारकजी) जैनविद्या के प्रचार-प्रसार के लिये कितने चिन्तित हैं। यही नहीं, अपने स्तर से जैन समाज की नवीन पीढ़ी के भविष्य निर्माण के लिये भी वे उतने ही चिन्तित हैं, जितने कि राष्ट्र की समस्याओं के समाधान के प्रति इसके लिये उन्होंने अनेक योजनाओं पर तहेदिल से विचार किया है तथा उनमें से अनेक को साकार भी कर दिखाया है। पूज्य भट्टारक जी के सामाजिक एवं राष्ट्रीय विचारों से प्रभावित होकर ही भारत की तत्कालीन लोकप्रिय प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने 'कर्मयोगी' की उपाधि से विभूषित कर उन्हें सार्वजनिक सम्मान प्रदान किया था। आरा नगर (बिहार) से भी कर्नाटक का घना सम्बन्ध रहा है। इस प्रसंग में मैं प्रातः स्मरणीय ब्रह्म नेमिसागर जी वर्णों तथा श्री स्व. पं. के. भुजबली शास्त्री का सादर स्मरण करता हूँ। क्योंकि पूज्य वर्णी जी ने सन् 1903 में आरा (बिहार) के जैन सिद्धान्त भवन का शिलान्यास कर कुछ समय वहाँ व्यतीत किया था तथा श्री पं. के. भुजबली जी ने वहाँ के ग्रन्थालयाध्यक्ष के पद को स्वीकार कर वहाँ सुरक्षित सहस्रों की संख्या में ताड़पत्रीय पाण्डुलिपियों की सुरक्षाव्यवस्था एवं उनका मूल्यांकन किया था, साथ ही उनकी विवरणात्मक ग्रन्थ सूची भी तैयार कर उनमें छिपे हुए भारतीय सांस्कृतिक वैभव से प्राच्य विद्या जगत को सुपरिचित कराया था। भवन से प्रकाशित जैन सिद्धान्त भास्कर एवं जैन एण्टिक्वेरी का भी उन्होंने दीर्घकाल तक सम्पादन किया और उस माध्यम से जैन संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं कन्नड़ साहित्य के अनेक मौलिक तथ्यों को प्रकाशित कर प्राच्यविद्या जगत को विचारोत्तेजित किया था। a इस प्रसंग में मुझे यह कहते हुए प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है कि जैन सिद्धान्त भवन के संस्थापक श्री बाबू देवकुमार जी जैन ने वर्णी जी की प्रेरणा से ही सहस्रों पाण्डुलिपियों तथा सहस्रों की संख्या में प्रकाशित सन्दर्भ ग्रन्थों का संग्रह कर उसे भारत का श्रेण्यकोटि का ऐसा ग्रन्थागार बनाया कि जिसने महात्मा गाँधी, पं. मालवीय, पं. नेहरू, डॉ. हरमन याकोबी आदि को भी आकर्षित किया था। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन, डॉ. के. पी. जायसवाल, डॉ. आर. डी. बनर्जी की तो यहाँ अक्सर बैठकें होती रहती थीं तथा उनकी नई-नई साहित्यिक योजनाएँ यहीं बैठकर बनती थीं। खारवेल - शिलालेख की खोज की योजना जैन सिद्धान्त भवन, आरा में बैठकर ही बनी थी। श्रद्धेय भट्टारक जी के दिगम्बर जैन मठ का सामान्य जनहित में लोककल्याणकारी अनेक रचनात्मक कार्यों के कारण विशेष महत्त्व तो है ही, उन सबसे भी अधिक महत्त्व इस तथ्य में है कि दिगम्बरों के मूल आगम साहित्य - षट्खण्डागम की प्राचीनतम दुर्लभ ताड़पत्रीय पाण्डुलिपियों की सुरक्षा का प्रथम श्रेय इसी मठ को है। बाद में सम्भवतः कुछ कारण- विशेष से उन्हें मूडबिद्री के शास्त्रभण्डार में स्थापित प्रतिष्ठापित कर दिया गया। यदि इन भट्टारक- पीठों ने प्राणपण से उनकी सुरक्षा न की होती तो देश-विदेश के आक्रान्ताओं ने उनकी क्या दुर्गति की होती, उसका विचार करने मात्र से ही रोंगटे खड़े होने लगते हैं और चेहरा भात विकृति धारण करने लगता है। इन पाण्डुलिपियों के प्रतिलिपि एवं नागरीकरण सम्बन्धी कार्यों में पं. गजपति उपाध्याय, विदुषी पण्डिता लक्ष्मीबाई, पं. सीताराम शास्त्री एवं पं. लोकनाथ शास्त्री को लगातार लगभग 1520 वर्षों तक किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा होगा, उनका अनुभव भुक्तभोगी ही कर सकता है। उसके बाद उनके सम्पादन, अनुवाद एवं प्रकाशन में भी लगभग 50 वर्ष लग गये। तब कहीं हम लोग अपने उन आगम ग्रन्थों का दर्शन कर सके हैं। उनके महामहिम सम्पादकों प्रो. डॉ. हीरालाल जैन, प्रो. डॉ. ए. एन. उपाध्ये, पं. देवकीनन्दन जी शास्त्री, पं. हीरालाल जी सिद्धान्त शास्त्री, पं. फूलचन्द्र जी शास्त्री, पं. कैलाशचन्द्र जी शास्त्री एवं पं. लालबहादुर जी शास्त्री के लिये भी विनम्र प्रणाम है जिन्होंने लगभग 19000 पृष्ठों में समाहित इन आगम-ग्रन्थों के सम्पादनादि में अपनी युवावस्था की समस्त ऊर्जाशक्ति को समर्पित कर दिया। उनके इस अथक परिश्रम ने भारतीय प्राच्यविद्या एवं जैन समाज के गौरव को बढ़ाया है। महाजन टोली नं. 1, आरा- 802301 (बिहार) Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसा नाम वैसा काम है मुनि श्री सुधासागर का डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन 'भारती हमारा देश संतपरम्परा और संतों के विचारों-कार्यों से सदैव । मुनि श्री सुधासागर जी के प्रिय विषय हैं - तीर्थ जीर्णोद्धार, सम्पोषित होता रहा है। संत यहाँ लेते कम और देते अधिक हैं। उनकी तीर्थ सृजन, सत्साहित्य का अध्ययन और प्रकाशन, आत्मविद्या से सन्निधि ही नवस्फूर्ति, नवचेतना और नयी ऊर्जा प्रदान करती है। संतों | संपृक्त शिक्षा और शिक्षालयों का विकास, अनुसंधान और को चलते-फिरते तीर्थों की उपमा दी जाती है जिसे निरर्थक नहीं कहा | विद्वद्-गुणानुराग, जीव रक्षा और निःशक्त जनों को संबल देना। उनके जा सकता, क्योंकि वे जहाँ जाते है वहाँ तीर्थों जैसा माहौल पैदा हो | लिए अपने आवश्यक ध्यान और अध्ययन अनिवार्य हैं, अपरिहार्य जाता है और तीर्थदर्शन की प्रेरणा, वैराग्य के भाव भी जाग्रत होते | हैं। विरासत का संरक्षण और संरक्षित को आधुनिक सीढ़ी से जोड़ना हैं। वे परमोपकारी हैं, क्योंकि निस्वार्थभाव से भूले भटके जनों को | उनका अभीष्ट है। देवगढ़ तीर्थ क्षेत्र का जीर्णोद्धार, अशोक नगर में सन्मार्ग से जोड़ते हैं। बीसवीं शती में आचार्य श्री शान्तिसागर जी | | त्रिकाल चौबीसी का निर्माण, सांगानेर के संघीजी मंदिर का जीर्णोद्धार महाराज की परम्परा में आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के रूप एवं समुन्नयन, श्रमण संस्कृति संस्थान (सांगानेर) की स्थापना, में विद्वान संत का अभ्युदय समाज पर महान उपकार सिद्ध हुआ रैवासा के जैनमंदिर को भव्यरूप प्रदान कर भव्योदय तीर्थ के रूप जिनकी जयोदय, वीरोदय महाकाव्य जैसी कृतियाँ तो पूज्यता को में विकास, ज्ञानोदय तीर्थ-नारेली के रूप में राजस्थान की मरुभूमि प्राप्त हुई ही, उनकी जीवन्त कृति आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज | में नवतीर्थ का अवदान, शताधिक गोशालाओं की स्थापना, विकलांगों ने तो मानो साधुता को मूर्तिमान ही कर दिया। वे आज के आदर्श | को कृत्रिम अंग प्रदान कर सीकर जिले को विकलांगमुक्त करवाना, संत हैं, परमप्रिय हैं और संतत्व को जीते हैं। उन्हीं प.पू. आचार्य तीन सौ से अधिक शोध - खोजपूर्ण साहित्यिक कृतियों का प्रकाशन, श्री विद्यासागर जी की मूल्यवान कृति हैं मुनिश्री सुधासागर जी महाराज, विद्वत्संगोष्ठियाँ आदि कार्य उनके प्रेरणा से सहज सम्पन्न हुए हैं। वे जिनके पास विचार-सुधा का अमित भण्डार है, जिनके पास मानव- बिना समाज की प्रार्थना के स्वयं आगे होकर कोई कार्य नहीं करते, हित-साधक प्रेरणायें हैं, जिनके पास कर्तृत्व का अविरल प्रवाह है न करवाते हैं, किन्तु यदि कोई व्यक्ति या समाज कुछ अच्छा करना जिनके स्पर्श से कुछ न कुछ या कहें सब कुछ पावन हो जाता है। चाहता हो तो उसे आशीर्वाद भी भरपूर देते हैं। इतना आशीर्वाद देते उनके दादागुरु की दो प्रेरणायें उनमें सहज ही दृष्टिगोचर होती हैं। | हैं कि फिर भक्त को किसी बात की जीवन में कमी नहीं होती, उसके 1. वे रोटी के स्वार्थ के अभिशप्त नहीं, मनुष्यता के परमार्थ से | यश में वृद्धि होती है। आखिर हो भी क्यों न, संत की सन्निधि प्राप्त आपूरित हैं। 2. आत्महित के अनुकूल आचरण को मनुष्यता मानते | करके वह संत सौरभ की सुगन्ध से वंचित कैसे रह सकता है? वे हैं। आज का परिदृश्य भले ही ऐसा है कि - ऐसे दिगम्बर साधु हैं जो स्वयं परीक्षार्थी हैं और स्वयं परीक्षक हैं। स्वरोटिकां मोटयितुं हि शिक्षतेजनोऽखिल: सम्बलयेऽधुना क्षितेः। वे निर्भय रहते हैं क्योंकि उनमें भय नहीं है। उनमें भय भी इसलिये न कश्चनाप्यन्यविचारतन्मना नृलोकमेषा ग्रहते हि पूतना।। नहीं है क्योंकि वे सब जीवों को अभय प्रदान करते हैं। जो लोग उनके (वीरोदय महाकाव्य 9/9) विरोधी हैं, दरअसल उन्हें विकास कार्यों से डर लगता है, क्योंकि अर्थात् आज भूतल पर सभी लोग अपनी-अपनी रोटी को मोटी | वे पुरानी पीढ़ी के द्वारा प्रदत्त विरासत को भोगना तो चाहते हैं, किन्तु बनाने में लगे हुए हैं। कोई भी किसी अन्य की भलाई का विचार नहीं नयी पीढ़ी को कोई विरासत सौंपना नहीं चाहते। ऐसे लोगों को उनका कर रहा है। आज तो यह स्वार्थ परायणता रूपी पूतना (राक्षसी) सारे आशीर्वाद पहले है - सद्धर्मवृद्धिरस्तु। यदि उनमें सद्धर्म का विकास मनुष्य लोक को ही ग्रस रही है। इस परिदृश्य में भी अविचल भाव नहीं हुआ, तो उनका उत्थान कैसे होगा? से जो संत आत्मभाव की आभा से मंडित हैं और जिसे आराम का परमपूज्य मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी महाराज आतंकवाद के अर्थ आ+राम = राम (परमात्म) सहित है, का नाम सुधासागर है दौर में आतंकित नहीं होते। उनकी चर्या आतंकित नहीं करती, अपितु जो मानते हैं कि - श्रद्धालु बनाती है। उनकी सब चर्या अमृत-तत्त्व से आपूरित है, मनुष्यता ह्यात्महितानुवृत्तिर्न केवलं स्वस्यसुखे प्रवृत्तिः। इसलिये वे सुधीजनों के लिए सुधासागर के रूप में पूज्य है। उनमें आत्मा यथा स्वस्य हिता परस्य विश्वैक संवादविधिर्नरस्य।।। 'दिनकर' की ये पंक्तियाँ प्रतिभासित होती हैं (वीरोदय महाकाव्य 17/6) कौन बड़ाई चढ़े शृंग पर अपना एक भार लेकर? अर्थात् आत्महित के अनुकूल आचरण का नाम ही मनुष्यता कौन बड़ाई पार गए जो अपनी एक तरी खेकर? है, केवल अपने सुख में प्रवृत्ति का नाम मनुष्यता नहीं है, अतः सुधा गरल वाली यह धरती उसको शीश झुकाती है, विश्वभर के प्राणियों के लिए हितकारक प्रवृत्ति करना ही मनुष्य का खुद भी चढ़े, साथ ले चलकर गिरतों को बाँहे देकर।। धर्म है। एल-65, न्यू इंदिरा नगर ए, बुरहानपुर (म.प्र.) 450331 नवम्बर 2001 जिनभाषित 17 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आँखे नहीं, आँसू पोंछो श्रीमती सुशीला पाटनी हैं ऐसे निरीह जानवरों की अखिोधि हैं, अनाथ | का स्वप्न देश का बबादार देश की उन्नति आँसू बहाने वाले इस दुनिया होना बन्द हो जाये, मांस निर्यात रुक में बहत हैं. लेकिन जो दसरों के अपने आँसू पोंछना धर्म नहीं, दूसरों के आँस। जाये। दुःखों में रोते हैं, आँसू बहाते हैं, पोंछना धर्म है। आज दुनिया में बहुत आँसू हैं, फिर आओ, हम सब मिलकर अपने दूसरों के आँसू पोंछते हैं, ऐसे लोगों भी हमारी आँखों में आँसू नहीं आ रहे हैं, हमारी आँखे देश से इस पशु वध को रुकवायें। की संख्या इस दुनिया में बहुत कम | गीली नहीं हो रही हैं। अहिंसा की पहचान आँखों से पशुवध रुकवाना ही आज की अनिहै। अब आप दूसरों के आँसू पोंछना नहीं, आँसुओं से होती है। लेकिन आँसू उन्हीं आँखों| वार्यता है। सीखिए। अपने आँसू तो सभी पोंछ | में आ सकते हैं, जिसके दिल में करुणा होगी, दया जंगल में रहने वाले भी अहिंसा, लेते हैं। अपने आँसू पोंछना धर्म नहीं, | होगी। करुणा का पालन करते थे और आज दूसरों के आँसू पोंछना धर्म है। आज शहरों में रह करके भी हममें अहिंसा दुनिया में बहुत आँसू हैं, फिर भी और करुणा नहीं है। हमारी आँख में आँसू नहीं आ रहे हैं, हमारी | पशओं को बचाना होगा। हमारी साक्षरता का क्या अर्थ है? वह आँखें गीली नहीं हो रही हैं। हमारे पास आँखें | सुनते हैं कि पहले देवताओं के लिये जंगली हाथी साक्षर नहीं था। वह हाथी किसी तो हैं, लेकिन आँसू नहीं। अहिंसा की पहचान पशुओं की बलि चढ़ाते थे, लेकिन आज स्कूल कालेज में नहीं पढ़ा था वह निरक्षर था, आँखों से नहीं, आँसूओं से होती है, लेकिन आदमी के लिए पशुओं की बलि चढ़ाई जा फिर भी उसमें मानवता थी, लेकिन हमारे आँसू उसी के आँखों में आ सकते हैं, जिसके | रही है। आदमी के लिये पश का कत्ल हो रहा | पास आज मानवता मर गई है। अरे! धर्म दिल में करुणा होगी, दया होगी। करुणा से है, देश की उन्नति के लिए पशुओं का वध करने वालो, जरा सोचो तुमने आज तक खाली दिल वाले की आँख में आँसू नहीं आ हो रहा है, खून, मांस बेचकर देश की उन्नति कितना धर्म किया, कितना दान दिया? सकते। आज जो मूक हैं, निर्दोष हैं, अनाथ का स्वप्न देश की बर्बादी का लक्षण है। कितना त्याग किया? जीवन में जीवित धर्म आदमी के पास भुजाएँ हैं, फिर उन भुजाओं का पालन करो। पशुओं के पास भी धर्म होता वे पश अपनी करुण पुकार कैसे कहें, क्योंकि का सही दिशा में पुरुषार्थ क्यों नहीं किया जा है, भले वे किसी मंदिर नहीं जाते। उनमें भी उनके पास वचन नहीं, वे बोल नहीं सकते। रहा है? आज भुजाओं से भी पैर का काम अहिंसा और करुणा होती है। आप जरा विचार, यदि हमें इन मूक पशुओं की बददुआ लिया जा रहा है। भला हुआ कि आदमी के कीजिए, जब एक हाथी भी एक खरगोश को लगी तो हमारा देश तबाह हो सकता है। आज पास सींग नहीं हैं, अन्यथा यह आदमी क्या अपने पैर के नीचे जगह दे सकता है, तो वैज्ञानिकों ने भी सिद्ध कर दिया है कि क्या करता, पता नहीं। दूसरों के पैर तोड़कर जीवनदान दे सकता है फिर आप तो आदमी हिंसा, कत्ल की वजह से भूकम्प आते हैं। हम अपने पैरों पर खड़े नहीं हो सकते। भारत हैं, क्या आप पशुओं को जीवनदान नहीं दे आज प्रकृति में जो घटनाएँ घट रही हैं, कहीं कृषिप्रधान देश है। यहाँ की जनता सदियों से सकते? अकाल, कहीं भूकम्प, कहीं हिंसा, ये सारे पशु-पालन और उसके माध्यम से अपना ___ आर.के. मार्बल्स लि., मदनगंज-किशनगढ़ रूप हिंसक कार्यों के ही हैं। हिंसा से सारी निर्वाह करती चली आ रही है। कृषि उत्पादन 305801, जिला- अजमेर (राजस्थान) प्रकृति आन्दोलित हो जाती है, क्षुब्ध हो जाती के क्षेत्र में गौ-वंश का उपकार भुलाया नहीं है, वातावरण उत्तेजित हो जाता है, पर्यावरण जा सकता। आज अध्यात्म के शिविर लगाने नष्ट हो जाता है। यदि हमारे देश में कत्ल होता में जितना पैसा खर्च किया जा रहा है यदि सूचना रहा, कत्लखाने खुलते रहे, मांस निर्यात होता वह पैसा मांसनिर्यात रोकने में लगाया जावे रहा तो क्या हमारा पर्यावरण सुरक्षित रह तो बहुत अच्छा होगा और अब शिविर शहर सकता है? और जब हमारा पर्यावरण ही नष्ट में नहीं, राष्ट्रपति भवन में लगाओ और वह हो जाये तब हमारी उन्नति का क्या अर्थ? शिविर दया का, अनुकम्पा का, करुणा, क्या विदेशी मुद्रा पर्यावरण को बचा लेगी? अहिंसा का हो जिससे लाखों करोड़ों जानवरों जब आदमी का ही जीना मुश्किल हो जायेगा, का कत्ल रुके। देश के राष्ट्रपति को देश की प्राप्ति स्थान- श्री गुलाबचन्द जी तब दुनिया की सारी संपत्ति किस काम की? पशु सम्पदा का ध्यान होना चाहिए, लेकिन बाकलीवाल पर्यावरण और स्वास्थ्य का ठीक रहना ही आज नहीं है, इसीलिए नागरिकों अब जागो मानव जाति का विकास है, पर्यावरण को और मूक पशुओं की आवाज को राष्ट्रपति 35/1, नार्थ राजमोहल्ला बिगाड़ करके हम अपने स्वास्थ्य को जिन्दा भवन तक पहुँचाओ, ताकि वह भवन पशुओं इन्दौर-2, म.प्र. नहीं रख सकते। अतः पर्यावरण की रक्षा के की पुकार से हिल उठे और पशुओं का कत्ल लिये हिंसा, कत्ल के काम छोड़ने होंगे, | 18 नवम्बर 2001 जिनभाषित इन्दौर जैनतिथि दर्पण निःशुल्क प्राप्त करें Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुलकर प्रेम करने की छूट पिछले कुछ वर्षों से कुछ अखबारों और सेटेलाइट टी.वी. चैनलों की कृपा से पाश्चात्य सभ्यता पर मुग्ध हमारी नई पीढ़ी ने अपनाना / मनाना शुरू किया है एक नया त्यौहार यह नया त्यौहार है 'वेलेंटाइन डे'। जिन्हें 'वेलेंटाइन डे' का मतलब तथा उसका इतिहास भी नहीं मालूम, वे भी उसके रंग में डूब जाते हैं। 'वेलेंटाइन डे' को समर्पित एक 'रविवार्ता' में इस दिवस पर विशेष सामग्री छापी गई और बताया गया कि 'वेलेंटाइन डे' का मतलब है- 'कहो न प्यार है।' और यह भी कि यद्यपि प्रेम-प्रदर्शन में लड़के ही पहल करते हैं लेकिन नियमानुसार 'लीप ईयर' में लड़कियों को भी पहल करने की छूट थी और कौन भूलना चाहेगा कि सन् 2000 भी तो लीप ईयर था। एक ओर हर समझदार माता-पिता या, अभिभावक पढ़ने-लिखने की उम्र में अपने बच्चों को इस 'प्रेम रोग' से बचाने की एहतियात बरतते हैं, दूसरी ओर भाषायी अखबार, सब नहीं केवल कुछ, किशोरकिशोरियों और युवक-युवतियों को उकसा रहे हैं- 'लीप ईयर है खुलकर इजहार करो।' पहला प्यार कितना खतरनाक होता है, यह छिपा नहीं है। प्याली में आये तूफान की तरह वह होता तो क्षणिक है, लेकिन क्षणमात्र में ही वह कभी-कभी पूरी जिंदगी विषैली कर जाता है। यह प्यार कोई सात्त्विक नहीं होता, वह वासना प्रेरित होता है जो इस उम्र में सहज और स्वाभाविक भी है, लेकिन हर स्वाभाविक बात उचित और अच्छी भी होती है, इसे शायद ही कोई स्वीकार करे। 'वेलेंटाइन डे' एक पश्चिमी सभ्यता का त्यौहार है। हर सभ्यता का अपना इतिहास, एक संस्कृति होती है जो एक समुदाय विशेष की मानसिकता की रचना करती है। अमेरिका में किशोर-किशोरियों की 'डेटिंग' एक आम स्वीकार्य परम्परा है, रिवाज है। कोई उसे बुरा नहीं मानता। इस डेटिंग के चलते कौमार्यभंग पर भी वहाँ विशेष ध्यान नहीं दिया जाता। नार्वे और स्वीडन में 'सैक्स शॉप' आम है। वहाँ कुमारी लड़कियों के माँ बनने को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त है। लेकिन वर्षों से चली आ रही इस मानसिकता के घातक परिणाम अब नजर आने लगे हैं और सरकार तथा समाज के कर्णधार चिंतित हैं। अमेरिका में परिवार संस्था टूट गई है। विवाह संस्था में भी दरारें पड़ रही हैं। फलतः सामाजिक जीवन तनावों से भर गया है। तमाम भौतिक सम्पन्नता के बावजूद अमरीकियों का निजी जीवन पीड़ा और व्यथा से भरा हुआ है। विकसित होते, विकासमान देश बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आर्थिक साम्राज्यवाद के सहज शिकार होते हैं। 'वेलेंटाइन डे' जैसे त्यौहार 'ब्यूटी कांटेस्ट' जैसे आयोजन उनके उत्पादों की खपत बढ़ाते हैं, दूसरे अर्थों में उनका लाभ दुगना-तिगुना हो जाता है। अकेले वेलेंटाइन-डे पर कहा गया है करोड़ों के कार्ड बिके हैं। भारत जैसे देश में जहाँ कुपोषण, कुस्वास्थ्य, स्वच्छ पेयजल, साफ-सुधरे आवास की समस्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है, वहाँ युवा पीढ़ी की सृजनात्मक शक्ति को सही दिशा की ओर न मोड़, इस तरह के आयोजनों में मोड़ना कहाँ तक उचित है, यह विचारणीय है। आधुनिकता की उमंग में कहीं हम किसी सुनियोजित षडयंत्र के शिकार तो नहीं बनाये जा रहे हैं? भारत के लिए कुछ वर्षों तक एड्स दूर की चीज थी, अब भारत में एड्स के रोगियों की संख्या चिंताजनक होती जा रही है। धार्मिक आयोजनों में लाखों रुपया फूँक देने वाले लोगों और उनके धर्माचार्यों को भी इस ओर ध्यान देना चाहिए। अभी भी समय है। सम्पादक 'आपकी समस्या हमारा समाधान' (हिन्दी मासिक), 239, दरीबा कलाँ, दिल्ली-110006 डॉ. अशोक सहजानन्द अखिल भारतीय जैन प्रतिभा प्रोत्साहन योजना सराकोद्धारक परम पूज्य उपाध्याय 108 श्री ज्ञानसागर जी महाराज की प्रेरणा से प्रतिभावान जैन छात्रों को प्रोत्साहित करने के लिये प्रतिभा प्रोत्साहन योजना' 2001 अपने द्वितीय वर्ष में प्रगति पर है। भारत के समस्त माध्यमिक शिक्षा बोर्डों की सैकण्डरी / सीनियर सैकण्डरी परीक्षा 2001 में वरीयता सूची (मैरिट लिस्ट) में स्थान प्राप्त अथवा परीक्षा में 190 प्रतिशत या इससे अधिक अंक प्राप्त करने वाले, जैसी बोर्ड की व्यवस्था है। छात्र-छात्राओं को दिसम्बर के अंत में पदक, पुरस्कार, सम्मान द्वारा प्रोत्साहित किया जायेगा। प्रोत्साहन सम्मान का यह समारोह दिसम्बर 2001 के अन्त में परम पूज्य उपाध्याय श्री के मंगल सान्निध्य में आयोजित किया जायेगा। स्थान और तिथि की सूचना शीघ्र प्रकाशित की जायेगी तथा चयनित छात्रों को सूचना डाक से भेज दी जायेगी। चयनित छात्र एवं उसके एक अभिभावक को समारोह में सम्मिलित होने के लिये द्वितीय श्रेणी स्लीपर (आरक्षित) रेल/ बस का दोनों ओर का वास्तविक व्यय, साठ रुपये वाहन व्यय के साथ समिति के द्वारा प्रदान किया जायेगा। छात्रों को योजना के निर्धारित आवेदन पत्र भरकर तथा अपने शाला प्रधान से अग्रेषित कराकर अंक सूची की प्रमाणित फोटो प्रति के साथ आयोजन सचिव को भेजने होते हैं। अनेक स्थानों से आवेदन पत्र प्राप्त हो चुके हैं फिर भी कोई जैन छात्र यदि आवेदन करना चाहे तो निम्नांकित पते पर पत्र लिखकर आवेदन पत्र मँगा लें और शीघ्र भरकर भेजे। कैलाश गदिया (जैन), आयोजन सचिव, अखिल भारतीय जैन प्रतिभा प्रोत्साहन योजना 38 पार्श्वनाथ कॉलोनी, आतेड, वैशाली नगर, अजमेर (राज.) फोन : : (आ.) 0145-425003 'नवम्बर 2001 जिनभाषित 19 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका समाधान पं. रतनलाल बैनाड़ा शंकाकार - देवेश जैन, सागर भावार्थ - तिर्यंचों में 21 मोह प्रकृति के सत्व वाले जीव का शंका - क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव उत्तम भोगभूमि में ही जन्म | तात्पर्य क्षायिक सम्यक्दृष्टि तिर्यंच से है अर्थात् तिर्यंचगति में क्षायिक लेता है या जघन्य में भी? सम्यक्दृष्टि जीव कितने समय तक रहता है उसके उत्तर में कहा है समाधान - क्षायिक सम्यकदृष्टि मनुष्य को क्षायिक सम्यक्त्व कि जघन्य से पल्य का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्टतः तीन पल्य। हो जाने के बाद यदि आयुबंध होता है, तो वह देव आयु का ही होता यहाँ जघन्य से असंख्यातवाँ भाग से तात्पर्य जघन्य भोगभूमि की है। परन्तु यदि क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त होने से पूर्व उसने मनुष्य आयु जघन्य आयु से और तीन पल्य का तात्पर्य उत्तम भोगभूमि की उत्कृष्ट या तिर्यंच आयु बाँध ली हो, तो ऐसे बद्धायुष्क मनुष्य अगले भव | आयु से है। निष्कर्ष यह है कि श्री जयधवला के आधार पर भी क्षायिक में भोग भूमि के तिर्यंच या मनुष्य ही होते हैं, कर्म भूमि के नहीं। | सम्यक्दृष्टि जीव जघन्य, मध्यम और उत्तम तीनों भोगभूमि में पैदा ऐसे जीव के लिये यह नियम नहीं है कि वह क्षायिक सम्यक्त्वी होने हो सकता है। के कारण उत्तम भोग भूमि में ही जन्म लेगा अन्य में नहीं, वह उत्तम- यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि चौदहवें राजा नाभिराय की आयु मध्यम या जघन्य किसी में भी जन्म ले सकता है। ति.प. अधिकार एक समय अधिक एक करोड़ पूर्व माननी चाहिए, न कि एक करोड़ 511/515 में इस प्रकार कहा है पूर्व। क्योंकि भोगभूमियों की जघन्य आयु करोड़ पूर्व एक समय है। एदे चउदस मणुओ, पडिसुद पहुदि हु णाहिरायंता। शंकाकार- ब्रह्मचारी अरुण, मथुरा पुव्व भवम्हि विदेहे, रायकुमारा महाकुले जादा।। शंका- विपुलमतिमनःपर्ययज्ञान का विषय क्षेत्र कितना है। यह कुसला दाणादीसु, संजमतव णाणवंत पत्ताण। कितने क्षेत्र की बात को जानता है? णिय जोग्ग अणुट्ठाणां, मद्दव मज्जव गुणेहि संजुत्ता।। समाधान- विपुलमतिमनः पर्ययज्ञान का विषय क्षेत्र श्री मिच्छत्त भावणाएं, भोगाऊं बंधिऊण ते सव्वे। सर्वार्थसिद्धि में इस प्रकार कहा है - क्षेत्र तो जघन्यतः योजनपृथक्त्वं, पच्छा खाइय सम्मत्तं, गेण्हति जिणिंद चरण मूलम्हि।। । उत्कर्षेण मानुषोत्तरशैलस्याभ्यंतरं, न बहिः । णिय जोग्गसुदं पडिदा, खीणे भउम्मि, ओहि णाण जदा। अर्थ- क्षेत्र की अपेक्षा (विपुलमतिमनःपर्ययज्ञान) जघन्य से उप्पज्जिदूण भोगे, केइ णरा ओहि णाणेण।। योजन पृथक्त्व और उत्कृष्ट से मानुषोत्तर पर्वत के भीतर की बात जादि भरेणकेई भोग मणुस्साण जीवणोवायं। जानता है, इससे बाहर की बात नहीं जानता। 1/23 टीका। भासंति जेणतेणं मणुणो भणिदा मुणीदेहि।। श्री राजवार्तिक में भी 1/23 की टीका में, ठीक उपरोक्त प्रकार (तिलोय पण्णत्ति 4/511-515) | से ही लिखा है। अर्थ- प्रतिश्रुति आदि नाभिराय पर्यन्त ये 14 ही मनु पूर्व भव | इससे स्पष्ट होता है कि इस ज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र 450000 में विदेह क्षेत्र के अंतर्गत महाकुल में राजकुमार थे। संयम, तप तथा यो. है पर मानुषोत्तर पर्वत के बाहर नहीं। परन्तु इस आशय को स्पष्ट ज्ञान से युक्त पात्रों को दानादि देने में कुशल, स्वयोग्य अनुष्ठान | करते हुए आ. वीरसेन स्वामी ने श्री धवला पु. 9 पृष्ठ 67-68 इस से युक्त तथा मार्दव आर्जव आदि गुणों से सम्पन्न वे सब पूर्व में | प्रकार कहा हैमिथ्यात्व भावना से भोगभूमि की आयु बाँध कर पश्चात् जिनेन्द्र के 'माणुसुत्तर सेलस्स अब्भंतर दो चेव जाणेदि णो बहिद्धा' त्ति पादमूल में क्षायिक सम्यक्त्व ग्रहण करते हैं। अपने योग्य श्रुत को | वग्गण सुत्तेण णिद्धिट्ठादो माणुसखेत्त अब्भंतरट्ठिद सव्व मुत्ति दव्वाणि पढ़कर आयु के क्षीण हो जाने पर भोगभूमि में अवधि ज्ञान सहित | जाणदि णो बाहिराणि त्ति के वि भणति। तण्ण घडदे, मणुस्सुत्तर सेल मनुष्य उत्पन्न होकर इन 14 में से कितने ही अवधि ज्ञान से तथा | समीवे ठइदूण बाहिर दिसाए कओवयोगस्स णाणाणुप्पत्तिप्प संगादो। कितने ही जातिस्मरण से भोगभूमिज मनुष्यों को जीवनोपाय बताते | होदु च ण, तदणुप्पत्तीए कारणा भावादो। ण ताव खओव समाभावे... हैं, इसलिये ये मुनीन्द्रों द्वारा 'मनु' कहे गए हैं। अणिंदियस्स पच्चक्खस्स... माणुसुत्तर सेलेण पडिधादाणु ववत्तीदो। (ऐसा ही प्रमाण - आदि पुराण पर्व 3, श्लोक नं. 207 से 212 | तदो माणुसुत्तर सेलभंतर वयणं ण खेत्तणियामयं, किंतु माणुसुत्तर तक) सेलमंतर पण दालो सजोयण लक्खणियामयं, विउलमदि मदि जयधवल - पु. 2/260 में वीरसेन स्वामी जी लिखते हैं | मणपज्जवणाणुज्जोय सहिद खेत्ते धणागारेण ठइदे पणदाली सजोयण 'तिरिक्ख गईए तिरिक्खेसु एक्कवीस विह केवडिय। जहण्णेण | लक्खमेत्तं चेव होदि त्ति। पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागो, उक्कस्सेण तिण्णि पालिदोवमाणि। अर्थ- 'मानुषोत्तर शैल के भीतर ही स्थित पदार्थ को जानता अर्थ - तिर्यंचगति में तिर्यंचों में 21 मोह प्रकृति के सत्त्ववालों | है उसके बाहर नहीं' ऐसा वर्गणासूत्र द्वारा निर्दिष्ट होने से, मनुष्य क्षेत्र का एक जीव की अपेक्षा कितना काल है? जघन्य से पल्य का | के भीतर स्थित सब मूर्त द्रव्यों को जानता है, उससे बाह्य क्षेत्र में असंख्यातवाँ भाग तथा उत्कृष्टतः 3 पल्य। नहीं, ऐसा कोई आचार्य कहते हैं। किन्तु यह घटित नहीं होता है, क्योंकि 20 नवम्बर 2001 जिनभाषित Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसा स्वीकार करने पर मानुषोत्तर पर्वत के समीप में स्थित होकर बाह्य मानकर यदि 22.50 लाख योजन अर्द्धव्यास एक वृत्त खेंचा जावे दिशा में उपयोग करने के ज्ञान की उत्पत्ति न हो सकने का प्रसंग तो जितना क्षेत्र आता है, उतना इस ज्ञान का क्षेत्र मानना चाहिए। होगा। यह प्रसंग आवे तो आने दो, यह कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि अर्थात् यदि इस ज्ञान के धारी मुनिराज मानुषोत्तर पर्वत के किनारे उसके उत्पन्न हो सकने का कोई कारण नहीं है। क्षयोपशम का तो पर खड़े हों तो वे सुदर्शन मेरु की तरफ 22.50 लाख योजन और अभाव है नहीं, और न ही मनःपर्यय के अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष का मानुषोत्तर | मानुषोत्तर के बाहर 22.50 लाख योजन क्षेत्र के भीतर स्थित पर्वत से प्रतिघात होना संभव है। अतएव 'मानुषोत्तर पर्वत के भीतर' चिन्तवन करने वाले जीव के विचारों को जान लेंगे और यदि मन यह वचन, क्षेत्र का नियामक नहीं है, किन्तु 'मानुषोत्तर पर्वत के भीतर' में चिन्तित पदार्थ इतने ही क्षेत्र के अंदर स्थित है, तो उसे भी जानेंगे। 4500000 योजनों का नियामक है, क्योंकि विपुलमतिज्ञान का यदि चिन्तित पदार्थ इस क्षेत्र के बाहर है तो नहीं जान सकेंगे। उद्योत सहित क्षेत्र को घनाकार से स्थापित करने पर 4500000 | विपुलमतिमनःपर्यय का उत्कृष्ट क्षेत्र ऊँचाई मेरु के बराबर योजन मात्र ही है। अर्थात् एक लाख योजन बनता है। अतः यदि कोई व्यक्ति मेरु की उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि मानुषोत्तर पर्वत, क्षेत्र का चूलिका के ऊपर स्थित सौधर्म स्वर्ग के विमान की कोई बात मन नियामक न होकर 45 लाख योजनों का नियामक है। अर्थात् | में विचार रहा हो तो वे मुनिराज उसके विचार को तो जान सकेंगे, विपुलमतिमनःपर्यय ज्ञानी मुनि जहाँ पर स्थित हों, उसको केन्द्र बिन्दु | परन्तु सीमा से बाहर होने के कारण पदार्थों को नहीं जान सकेंगे। गीत भूले-बिसरे अपने को दो कविताएँ डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती' ऋषभ समैया 'जलज' भूले-बिसरे अपने को जमकर जकड़े सपने को दशा/दिशा भीतर कोलाहल-हलचल बैठे माला जपने को पाप-कषायी जंग चढ़ी छोड़ा नर-भव खतने को भाव-भासना-भान नहीं लगे ऋचाएँ रटने को कच्चे मिट्टी के बर्तन भट्टे डालो पकने को एक दिशा में चार चले समझो, कुछ कंधे पर है। चार दिशा में एक चले समझो, वह धंधे पर है। न एक दिशा न चार दिशा है सही दिशा वह जो दशा-दिशा बदले। यदि बदल सकी यह दिशा-दशा तो समझो, वह अपने पर है। लड़ाई उसूलों की लड़ाई बसूलों से हो रही है यह मैं नहीं कहता सारी जनता कह रही है यह किसकी, किससे, कैसी लड़ाई है जिसमें न क्रान्ति है, न शान्ति है बस एक भान्ति है। एल-65, न्यू इंदिरा नगर, बुरहानपुर आकुलता की बारिश में समता छाता बचने को धर्म बिलोना माखन सा नय की डोरी मथने को सम्यक बीज बुआई कर संयम सोंच पनपने को हटें विकारों के बादल आतम-सूर्य चमकने को निखार भवन कटरा बाजार, सागर -नवम्बर 2001 जिनभाषित 21 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यंग्य कवियों की बस्ती में शिखरचन्द्र जैन आदमी के जीवन में एक समय ऐसा | पहुँचते तक एक सौ आठ बार तो हो ही जाता | साइकिल चलाते थे फिर जीप कुदाने लगे। अवश्य ही आता है जब उसके मन में कविता | था। निश्चित ही, यह उसी जाप का प्रताप है | बाद में भिलाई स्टील प्लान्ट में नौकरी करने लिखने की हूक उठती है। यह अवस्था बहुधा, जो मैं आज सर्वांग रूप से विद्यमान रहते हुए | लगे। इकबाल भाई को अपने धर्म-निरपेक्ष किशोर से युवा होने के संक्रमण काल में होती यह लेख लिखने की अवस्था में हूँ। नाम से बड़ा लगाव था। उन्हें इकबाल सिंह, है। इन दिनों हर आदमी कविता की दो-चार जिन विद्युत-अभियंताओं को किसी इकबाल नाथ या इकबाल मियाँ कुछ भी कहा पंक्तियाँ तो लिख ही डालता है। बाज लोग उद्योग में मेन्टेनेस इंजीनियर के रूप में कार्य जा सकता था। वैसे यह उनका असली नाम दस-बीस तक लिख लेते हैं। जबकि कुछ ऐसे करने का दुर्योग प्राप्त हुआ है, वे यह अच्छी नहीं था। यह तो उन्होंने अपने शायरी के शौक भी होते हैं जो आरम्भ से ही महाकाव्य लिखने तरह जानते हैं कि जब तक आप सामान्य के कारण रख छोड़ा था। इकबाल भाई शायरी बैठ जाते हैं। ज्यादातर लोगों में यह बीमारी कार्यावधि में अपने कार्यस्थल पर उपस्थित | भी करते थे, इसकी जानकारी मुझे बड़ी ही अल्प-कालीन होती है। पर कुछ थोड़े से लोग रहते हैं तब तक प्रायः हर मशीन ठीक से | विषम परिस्थिति में मिली। इस बीमारी से लम्बे समय तक ग्रसित रहते चलती है। पर ज्यों ही ड्यूटी खत्म होने पर | हुआ यों कि मैं सदा की तरह एक हैं। ऐसे लोग कवि कहलाते हैं अथवा कहलाने आप वापिस घर लौटते हैं, मशीनों में | ब्रेकडाउन अटेण्ड करने जा रहा था। इकबाल हेतु प्रयत्नशील रहते हैं। ब्रेकडाउन होना प्रारंभ हो जाते हैं। घर का भाई जीप चला रहे थे। मैं सामने की सीट पर इसके आगे जो बात मैं कहने जा रहा टेलीफोन बजने लगता है। पूछताछ शुरू हो उनके बाजू में बैठा था। रात को चली थी। हूँ उसका उद्भव पिछली सदी के सातवें जाती है। सवाल-जवाब चालू हो जाते हैं। प्रति | बिजली बंद होने के कारण चारों ओर अँधेरा दशक के मध्य में हुआ था। उस समय मैं पल होती उत्पादन-क्षति की याद दिलाई था। जिस समय जीप, पहाड़ के सबसे कठिन भिलाई स्टील प्लान्ट की राजहरा लौह अयस्क जाती हैं। मशीनों को तत्काल ठीक करवाने चढ़ाव पर थी, इकबाल भाई ने सहसा जीप खदान में बिजली-इंजीनियर के पद पर नया- की हिदायत दी जाती है। घर के वातावरण रोक दी। उनका दायाँ पाँव आधा ब्रेक पर और नया पदस्थ हुआ था। तब राजहरा पहाड़ में तनाव तैरने लगता है। बच्चे अंदर के कमरे | आधा एक्सीलेटर पर, ताकि इंजिन बंद न हो लगभग अपने मूल रूप में था और वहाँ से में चले जाते हैं। आराम से एक कप चाय पीना | पाए। बाँया पाँव क्लच दबाए हुए, हाथ लौह अयस्क का उत्खनन प्रारंभ करने हेतु भी दुश्वार हो जाता है। ऐसे में सिवा इसके | स्टीयरिंग पर और गर्दन मेरी ओर।। पहाड़ के शीर्ष को समतल कर वहाँ बिजली कि घर का मोह त्याग कर पुनः वापिस | क्या हुआ?' मैंने पूछा- 'जीप क्यों से चलने वाली भारी मशीनें स्थापित की गई । कार्यस्थल पर चल दिया जाये, अन्य कोई | रोक दी?' थीं। साथ ही बिजली की हाईटेन्शन-ओवरहेड विकल्प नहीं रह जाता। मेरे साथ ऐसा होना । 'एक मिसरा बन पड़ा है जैन साब। लाइन भी वहाँ तक ले जायी गयी थी। बहुत आम था। इसलिए टेलीफोन करते ही | जरा गौर फरमाएँ।' कर्मचारियों को पहाड़ के ऊपर बने कार्यस्थल गैरेज से फौरन ही जीप घर भेज दी जाती थी | मैं हतप्रभ हो गया। ऐसी स्थिति में भी तक ले जाने के लिये पर्वत के स्वाभाविक जिसे ज्यादातर इकबाल भाई वाहन-चालक | किसी को शायरी सूझ सकती है, यह मेरी ढाल में मामूली काट-छाँट कर एक अस्थायी लेकर आया करते थे। कल्पना के बाहर की बात थी। मैंने बात को मार्ग निर्मित किया गया था जो कि इतना यहाँ से आगे बढ़ने के पूर्व, इकबाल | सम्हालते हुए कहा- 'पहले पहाड़ के ऊपर ऊबड़-खाबड़, इतनी खड़ी चढ़ाई वाला हुआ | भाई का थोड़ा परिचय दे देना समीचीन होगा। | | पहुँच लें फिर सुन लेता हूँ। ऐसे में तो समझ करता था कि केवल फोर-व्हील-ड्राइव वाहन कहते हैं कि इकबाल भाई किशोरावस्था में | में भी नहीं आएगा।' ही कर्मचारियों को लेकर इस पथ पर चढ़ते ही किसी क्रांतिकारी संगठन से जुड़कर । 'कैसी बात करते हैं साब?' उन्होंने हुए सफलता पूर्वक गंतव्य तक पहुँचने की स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े थे और किसी | कहा - 'आपको समझ नहीं आएगा? भला क्षमता रखते थे। उन दिनों पहाड़ के नीचे से कांड में गिरफ्तार कर लिए जाने पर जेल भेज | ये कैसे हो सकता है? आप तो स्वयं कवि ऊपर तक की दैनिक यात्रा अत्यंत ही दिए गए थे। स्वतंत्रता के बाद, चूँकि तुरंत | हैं।' रोमांचकारी हुआ करती थी। इस यात्रा के यह निर्विवाद रूप से सिद्ध नहीं हो पाया कि । मेरे लिए यह अप्रत्याशित था। मेरे दौरान हर कर्मचारी अपने इष्ट देव को निरंतर उनके जेल जाने का कारण स्वतंत्रता संग्राम | कवि होने की बात बहुत कम लोग जानते थे। याद करते चलता था। वाहन के भीतर इस से ही संबंधित था, वह रिहा तो कर दिए गए | | दरअसल बात यह थी कि जब चीन से भारत अवधि में बड़ा ही धार्मिक वातावरण बन पर अन्य कोई सुविधा प्राप्त नहीं कर पाये। | का युद्ध हुआ था तब मैंने वीर रस की एक जाता था। मैं भी जीप में बैठते ही णमोकार इस कारण उन्हें एक सर्कस में नौकरी करनी | कविता लिखी थी जो संयोग से उस समय मंत्र का जाप प्रारंभ कर देता था जो कि ऊपर | पड़ी, जहाँ पहले वो मौत के कुएँ में मोटर | आकाशवाणी से प्रसारित भी हुई थी। बाद में 22 नवम्बर 2001 जिनभाषित Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब पाकिस्तान के साथ युद्ध हुआ तो मैंने वही कविता एक पत्रिका में प्रकाशित करवा दी थी। कविता से मेरे रिश्ते का बस इतना ही इतिहास था जिसकी जानकारी मेरे कुछ सहपाठियों और रिश्तेदारों तक ही सीमित थी । इकबाल भाई को यह खबर कहाँ से मिली, यह मेरे लिए शोध का विषय था । बहरहाल, अपने आप को संयत रखते हुए मैंने कहा ' इकबाल भाई, ऊपर पहुँच कर सुनना ही ठीक होगा। फिर एक मिसरा ही क्यों पूरा शेर कहिएगा और भरपूर दाद लीजिएगा।' 2 'लेकिन तब तक तो बात जेहन से निकल जायेगी।' इकबाल भाई ने कहा । 'और जो आप जीप को यों ही कुछ देर और खड़ा रखें तो मेरी जान निकल जायेगी' मैंने कहा 'सो आप बेफिकर रहें साब।' उन्होंने कहा- 'ऐसा कुछ नहीं होगा। आप शायद जानते नहीं, पहले मैं सर्कस में जीप चलाया करता था। फिलहाल तो हुजूर गौर फरमाएँ ।' अब मेरे पास इरशाद कहने के अलावा अन्य कोई रास्ता नहीं था । इकबाल भाई ने मिसरा सुनाया। मैंने बाकायदा 'बहुत खूब' कहा। उन्होंने ब्रेक पर से पैर हटा कर एक्सीलेटर पर दबाव बढ़ाया तथा झटके से क्लच छोड़ा। जीप पहले नीचे की ओर लुढ़की। फिर थम गई और फिर आगे चल पड़ी तब मेरी जान में जान आई। इसके बाद जब कभी मुझे इकबाल भाई के साथ राजहरा पहाड़ पर जाने का संयोग होता तो मैं उनसे नीचे ही पूछ लेता कि कोई मिसरा तो नहीं बन पड़ा। वह मुस्करा कर दो-चार शेर कह डालते और तरोताजा महसूस करते हुए जीप चलाने लगते। उपर्युक्त प्रकरण के उपरान्त, राजहरा वासियों में मेरे अफसर होने के बावजूद कवि होने की खबर फैल गई। लोगों की दृष्टि में मेरे प्रति अतिरिक्त सम्मान परिलक्षित होने लगा। खदान प्रबंधन ने भी मेरे कवि होने को उचित महत्त्व देते हुए उस वर्ष विश्वकर्मा पूजा पर कव्वाली के बजाय अखिल भारतीय कवि सम्मेलन कराने का निर्णय लिया और मुझे यह दायित्व सौंपा कि इस कवि सम्मेलन में भाग लेने के लिये मैं दो स्थानीय कवियों का चयन करूँ। तब मुझे इस बात का कतई गुमान नहीं था कि इस जिम्मेदारी को लेकर मैं अपनी फजीहत कराने के रास्ते पर चल पड़ा था। इकबाल भाई की मदद से जब मैंने स्थानीय कवियों को मिलने के लिए बुलाया तो उमड़ पड़ी भीड़ को देखकर आश्चर्य चकित रह गया। कुल अढ़सठ कवि थे। राजहरा नगर की पच्चीस सौ की आबादी के मुकाबले कवियों की संख्या राष्ट्रीय औसत से बहुत ज्यादा थी। मानो राजहरा, खनिकर्मियों की नहीं, कवियों की बस्ती हो । लगा कि देश के ज्यादातर कवियों ने राजहरा में लौह अयस्क के उत्खनन का कार्य अपना लिया था। इस भीड़ में से दो कवियों का चुनाव उसी तरह चुनौती पूर्ण कार्य था जिस तरह कि आजकल हाईकमान का किसी राज्य के मुख्यमंत्री के चुनाव का होता है। प्रबंधन के नियम कि 'चयन न केवल निष्पक्ष होना चाहिए बल्कि निष्पक्ष दिखना भी चाहिए' का पालन करते हुए मैंने स्वयं की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की जिसमें हिन्दी और उर्दू भाषा के शिक्षकों का समावेश किया और चयन प्रक्रिया प्रारंभ कर दी जो कि बाकायदा एक सप्ताह तक चली। इस चयन कार्य में जो अनुभव हमें हुए उनका विस्तृत वर्णन तो यहीं नहीं करूंगा, पर संक्षेप में इतना अवश्य कहूँगा कि तकरीबन हर कवि में अपनी कविताएँ निरंतर सुनाते रहने की ललक पागलपन की हद तक पायी गयी। एक बार जो चालू होता था वह बंद होने का नाम ही नहीं लेता था। ज्यादातर कविताओं में भावों का नितांत अभाव पाया गया। भाषा के मामले में बहुतेरे कवियों को व्याकरण के 'रिफ्रेशर कोर्स' की आवश्यकता प्रतीत हुई। शायरों में कई के सीन काफ दुरुस्त नहीं थे। जो कवि सूर, तुलसी, मीर, कबीर, गिरधर या गालिब से प्रभावित थे वे अपने प्रेरणा स्रोत से बेहिचक काफी कुछ जस का तस ग्रहण करते पाए गए। अनेक कवि छंद में मात्रा और तुक के बंधन पर विश्वास नहीं करते थे। जो नई कविता लिखते थे वे स्वयं उसका अर्थ बतला पाने में सक्षम नहीं पाए गए। इन सभी विषमताओं के बीच सही कवि को ढूंढ निकालना चारे के ढेर से सुई खोजने के समान था । चयन प्रक्रिया के चलते भी, इकबाल भाई को उनके चयन का पूरा भरोसा था। अन्य कवि भी इसे लगभग तय मानकर ही चल रहे थे पर कोई कुछ बोलकर अपनी उम्मीदवारी खतरे में नहीं डालना चाहता था। लेकिन प्रक्रिया के सम्पूर्णता तक आते-आते इकबाल भाई का विश्वास हिलने लगा। चयन समिति के सदस्य जिस तरह मीन-मेख निकाल रहे थे, चुनाव के ईमानदारी से होने का अंदेशा हो रहा था। इकबाल भाई ने खुफिया तौर पर जब और खोज बीन की तो उन्हें यह लगभग निश्चित ही जान पड़ा कि उनका नाम चयनित सूची में नहीं था। बस ! फिर क्या था? असंतोष भड़क उठा। सभी कवि इकबाल भाई के नेतृत्व में चयन प्रक्रिया के विरुद्ध बोलने लगे। जिसका चुना जाना तय हो, जब वही चुनाव के तरीके के खिलाफ बोले तो भला कौन उसकी बात नहीं मानेगा? सभी कवि एक स्वर में चयनकर्ताओं की काबलियत पर संदेह करने लगे। कुछ तो यह कहते सुने गए कि अफसरों का तो काम ही कर्मचारियों में फूट डालना था उन्हें आपस में लड़ाते रहना था और वो जो अफसरनुमा कवि चयन समिति के अध्यक्ष थे उन्हें कवि मानता कौन था? अफसरी का कविता से भला क्या सरोकार ? फिर जो कवि सम्मेलन होगा उसमें सभी स्थानीय कवियों की कविता पाठ करने का अवसर क्यों नहीं मिलना चाहिए ? बाहर से कवि बुलाने की दरकार ही क्या है ? और यह भी कि यदि कवि सम्मेलन होगा तो सभी अदसठ कवि एक साथ मंच पर बैठेंगे, वरना कवि सम्मेलन नहीं होने दिया जावेगा। इसके बाद जो हुआ वह औद्योगिक संस्कृति के अनुकूल ही था। कर्मचारी यूनियन बीच में कूद पड़ी। प्रबंधन के विरुद्ध नारे बाजी चालू हो गई। औद्योगिक विवाद खड़ा हो गया और इस प्रक्रिया में कवि सम्मेलन बैठ गया। तब से मैंने कवि और कविता से दूर का भी संबंध न रखने की कसम खा ली। अब कोई व्यक्ति यदि परिचय देते हुए कहता है। 'मैं कवि हूँ।' तो प्रत्युत्तर में मैं कहता हूँ मैं बहरा - - हूँ।' 7/56 ए, मोतीलाल नेहरू नगर (पश्चिम) भिलाई (दुर्ग) छत्तीसगढ़-490020 नवम्बर 2001 जिनभाषित 23 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारीलोक जैन संस्कृति एवं साहित्य का मुकुटमणि कर्नाटक और उसकी कुछ ऐतिहासिक श्राविकाएँ प्रो. (डॉ.) श्रीमती विद्यावती जैन जिनालय का निर्माण छने हुए र उसे बड़ी | बसतिका कह विदुषीरत्न पम्पादेवी पूर्वांकों में कर्नाटक की पाँच ऐतिहासिक हुम्मच के सन् 1147 ई. के एक | समन्वयवादी थे। चन्द्रमौली होयसल नरेश श्राविकाओं के यशस्वी जीवन पर शिलालेख में विदुषी रत्न पम्पादेवी का बड़े वीर बल्लाल द्वितीय का महामन्त्री था और | प्रकाश डाला गया था। प्रस्तुत अंक में ही आदर के साथ गुणगान किया गया है। राज्य-संचालन में अत्यंत कुशल एवं धीरउसके अनुसार वह गंग-नरेश तैलप तृतीय अन्य ग्यारह श्राविकाओं की गौरव वीर। की सुपुत्री तथा विक्रमादित्य शान्तर की बड़ी गाथा वर्णित की जा रही है। अपने पति की सहमति पूर्वक आचबहिन थी। उसके द्वारा निर्मापित एवं चित्रित लदेवी ने सन् 1182 के दशक में अनेक चैत्यालयों के कारण उसकी यशोगाथा सवतिगन्धवारण का अर्थ है - सौतों (सवति) | श्रवणबेलगोल में अत्यंत भव्य एवं सुरम्य का सर्वत्र गान होता रहता था। उसके द्वारा के लिए मत्त हाथी। यह शान्तला देवी का एक | विशाल पार्श्व-जिनालय का निर्माण करवाया आयोजित जिन-धर्मोत्सवों के भेरी-नादों से उपनाम भी था। इस जिनालय में सन् 1122 था, जिसकी प्रतिष्ठा देशीगण के नयकीर्ति दिग-दिगन्त गूंजते रहते थे तथा जिनेन्द्र की ई. के लगभग भगवान शान्तिनाथ की मनोज्ञ | सिद्धान्तदेव के शिष्य बालचन्द्र मुनि ने की ध्वजाओं से आकाश आच्छादित रहता था। प्रतिमा स्थापित की गई थी। थी। यह जिनालय 'अक्कनवसदि' के नाम से कन्नड़ के महाकवियों ने उसके चरित्र- इस मन्दिर में प्रतिष्ठापित जिनेन्द्र के | प्रसिद्ध है। चित्रण के प्रसंग में कहा है कि - 'आदिनाथ अभिषेक के लिये उसने पास में ही गंग समुद्र कहा जाता है कि श्रवणबेलगोल में चरित का श्रवण ही पम्पादेवी के कर्णफूल, नामक एक सुन्दर बारामासी जलाशय का भी | उक्त वसदि ही एक ऐसा मन्दिर है, जो चतुर्विध-दान ही उसके हस्त-कंकण तथा निर्माण कराया था। साथ ही उसने नित्य | होयसल कला का एक अवशिष्ट तथा उत्कृष्ट जिन-स्तवन ही उसका कण्ठहार था। इस देवार्चन तथा जिनालय की भावी सुव्यवस्था कला का नमूना है। इस वसदि की व्यवस्था पुण्यचरित्रा विदुषी महिला ने उवितिलक- तथा सुरक्षा आदि के निमित्त अनेक गाँवों की के लिये स्वयं चन्द्रमौलि मंत्री ने अपने नरेश जिनालय का निर्माण छने हए प्रासक जल से | जमींदारी भी उसके नाम लिख दी थी। उक्त | से विशेष प्रार्थना कर कम्मेयनहल्लि नामक केवल एक मास के भीतर कराकर उसे बडी | बसतिका के तृतीय स्तम्भ पर एक शिलालेख | कर-मुक्त ग्राम प्राप्त किया था और उसे उक्त ही धूमधाम के साथ प्रतिष्ठित कराया था। भी उत्कीर्ण है जिसमें उक्त रानी की धर्म- | मंदिर की व्यवस्था के लिये सौंप दिया था। पम्पादेवी स्वयं पंडिता थी। उसने | परायणता की विस्तत प्रशंसा करते हए उसे जिनेन्द्र भक्त लक्ष्मी देवी अष्टविधार्चन-महाभिषेक एवं चतुर्भक्ति नामक अनेक विशेषणों से विभूषित किया गया है। जिस प्रकार गंग-नरेशों ने जैन धर्म के दो ग्रन्थों की रचना भी की थी। उसमें उल्लिखित उसके कुछ विशेषण निम्न प्रचार-प्रसार में बहुआयामी कार्य किये, पट्टानी शान्तलादेवी प्रकार हैं विद्यापीठों की स्थापना की, जैनाचार्यों को ___ अभिनव रुक्मिणी, पातिव्रत प्रभावश्रवणबेलगोल के एक शिलालेख में लेखन-कार्य हेतु सुविधा सम्पन्न आश्रय स्थल प्रसिद्ध सीता, गीत-वाद्य सूत्रधार, मनोजहोयसल वंशी नरेश विष्णुवर्द्धन की पट्टानी निर्मित कराये, उसी प्रकार उनकी महारानियों राज-विजय-पताका, प्रत्युत्पन्न-वाचस्पति, शान्तलादेवी (12वीं सदी) का उल्लेख बड़े ने भी उनका अनुकरण कर नये-नये आदर्श विवेक-बृहस्पति, लोकैक-विख्यात, भव्यही आदर के साथ किया गया है। वह प्रस्तुत किये। जन-वत्सलु, जिनधर्म-निर्मला, चतुःसमय पतिपरायण, धर्मपरायण और जिनेन्द्र-भक्ति ऐसी महिलाओं में से सेनापति गंगराज में अग्रणी महिला के रूप में विख्यात थी। समुद्धरण, सम्यक्त्व चूडामणि आदि-आदि। की पत्नी लक्ष्मी (12वीं सदी) का नाम संगीत, वाद्य-वादन एवं नृत्यकला में वह आचल देवी विस्मृत नहीं किया जा सकता। पति-परायणा निष्णात थी। आचार्य प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव आचल देवी (12वीं सदी) के जीवन होने के साथ-साथ वह जिनवाणी-रसिक एवं इसके गुरु थे। में एक बड़ी भारी विसंगति थी। उसका पति | जिनेन्द्रभक्त भी थी। उसे अपने पति की शान्तला ने श्रवणबेलगोल के चन्द्रगिरि चन्द्रमौली शैवधर्म का उपासक था, जबकि | 'कार्यनीतिवधू' और 'रणेजयवधू' कहा गया के शिखर पर एक अत्यन्त सुन्दर एवं विशाल वह स्वयं जैनधर्मानुयायी, किन्तु दोनों के | है। एक शिलालेख के अनुसार उसने जिनालय का निर्माण करवाया था, जिसका जीवन-निर्वाह में कोई कठिनाई नहीं आई, | श्रवणबेलगोल में ‘एरडुकट्टे वसदि' का नाम 'सवति-गन्धवारण-वसति' रखा गया। क्योंकि स्वभावतः दोनों ही सहज, सरल एवं | निर्माण कराया था। वह अपनी सासु-माता 24 नवम्बर 2001 जिनभाषित Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोचव्वे की बड़ी भक्त थी। अतः उसकी स्मृति में भी उसने कत्तले वसदि एवं शासन वसदि का निर्माण करवाया था। इसके साथसाथ उसने अपने भाई बूच एवं बहिन देमेति की स्मृति में तथा जैनाचार्य मेघचन्द्र की स्मृति में कई शिलालेखों को उत्कीर्णित करवाया था। वह जीवन भर उदारतापूर्वक चतुर्वि धदान देती रही। यही कारण है कि सन् 1121 ई. के एक शिलालेख में उसकी यशोगाथा में एक प्रश्न पूछा गया है कि - 'क्या अन्य महिलाएँ अपने चातुर्य, सौन्दर्य जिनभक्ति एवं उदारता में गंगराज की धर्मपत्नी लक्ष्मीयाम्बिके की समानता कर सकती है ? कठोर तपस्विनी पाम्वव्वे कडूर दुर्ग मुख प्रवेश द्वार के एक स्तम्भ पर 10वीं सदी की एक राजमहिषी पाम्बव्वे का उल्लेख हुआ है, जिसने अपने राज्य - वैभव के सुख भोगों को असार मानकर आर्यिका व्रत की दीक्षा धारण कर ली थी और लगातार 20 वर्षों तक कठोर तपश्चर्या की थी। एक सुप्रसिद्ध राजकुल में जन्मी पली तथा बड़ी हुई सुकुमार एवं सुन्दर नारी का इस प्रकार का सर्वस्व त्याग और कठोरतपस्या का यह एक अनुकरणीय आदर्श उदाहरण है वह राजा भूतंग की बड़ी बहिन थी । राजकुमारी हरियव्वरसि राजकुमारी हरियव्वरसि अथवा हरियल देवी (12वीं सदी) होयसल वंशी सुप्रसिद्ध नरेश विष्णुवर्धन की राजकुमारी थी । हन्तूरू नामक स्थान के एक जिनालय से प्राप्त सन् 1130 के एक शिलालेख से ज्ञात होता है, कि उसने अपने श्रद्धेय गुरु गण्डविमुक्तसिद्धान्तदेव की प्रेरणा से स्वद्रव्य से हन्तिगूर नामक नगर में एक विशाल भव्य कलापूर्ण जिनालय बनवाया था। जिसका अग्रकलश मणि रत्नों से जटित था। उस जिनालय की व्यवस्था के लिये उसने अनेक गाँव कर मुक्त कराकर उसे दान में दिये थे। उक्त शिलालेख में उक्त राजकुमारी की विस्तृत प्रशस्ति में उसकी तुलना सती सीता, वाग्देवी सरस्वती, रुक्मिणी आदि से की गई है और साथ ही उसमें उसे पतिपरायणा चतुर्विधदान देने में तत्पर विदुषी तथा अर्हत परमेश्वर के चरण-नख मयूख से जिसका ललाट एवं पलक-युग्म सदैव सुशोभित होते रहते हैं ऐसा लिखकर, उसकी प्रशंसा की गई है। चट्टल देवी शान्तर राजवंश की राजकुमारी चट्टल देवी (11वीं सदी) प्रारंभ से ही जैनधर्मपरायणा थी। उसका विवाह पल्लव नरेश काडुवेट्टी के साथ सम्पन्न हुआ था। उसने शान्तरों की राजधानी पोम्बुच्चपुर में अनेक भव्य जिनालयों का निर्माण कराया था। इसके अतिरिक्त उसने भक्तों तथा आम जनता की आवश्यकताओं के अनुसार अनेक स्थलों पर जैन मंदिर, वसतियाँ, तालाब तथा साधुओं के लिये गुफाएँ बनवाई और आहार, औषध, शिक्षा तथा आवासदानों की भी व्यवस्थाएँ की थी इस कारण उसे जैन समाज में श्रेष्ठ दानशीला नारियों में अग्रिम स्थान प्राप्त है। राजकुमारी कुन्दले तंजौर के 11 वीं सदी के पूर्वार्द्ध के एक अभिलेख के अनुसार राजराज चोल की पुत्री राजकुमारी कुंदव्वे (10वीं सदी) बड़ी ही धर्मात्मा और जिनभक्त थी वह बेंगी के चालुक्य नरेश विमलादित्य की महारानी थी। इसने तिरुमलै के पर्वत शिखर पर एक 'कुन्दब्बे - जिनालय का निर्माण करवाया था और उसकी व्यवस्था हेतु कई ग्रामों को दान में दिया था। यह भद्रपरिणामी महिला अपने अन्तिम समय तक भ. महावीर के सर्वोदयी जैन आदशों की संवाहिका बनी रही और जीवन पर्यन्त सुपात्रों को उदारतापूर्वक दान देती रहीं । मालल देवी कुन्तल देश के वनवासी क्षेत्र के कदम्ब - शासक कीर्तिदेव की अग्रमहिषी मालल देवी जिनेन्द्र भक्त तथा गरीबों के प्रति अत्यन्त दयालु थी। एक शिलालेख से विदित होता है कि उसने सन् 1077 ई. में कुप्यटूर में एक कलात्मक भव्य पार्श्वनाथ चैत्यालय का निर्माण कराया था, जिसकी प्रतिष्ठा पद्मनन्दि सिद्धान्तदेव के करकमलों द्वारा देवी ने राज्य से एक सुन्दर कर मुक्त भूखण्ड सम्पन्न हुई थी। इस जिनालय के लिये मालल प्राप्त किया था। चतुर प्रशासिका जक्कियव्वे जक्कियव्वे (10वीं सदी) की यह विशेषता है कि वह विदुषी श्राविका, पारिवारिक सद्गृहिणी तथा जिनभक्ता होने के साथ-साथ एक कुशल प्रशासिका भी थी। 11वीं सदी के आसपास के उत्कीर्ण एक शिलालेख (सं. 140) में उसकी यशोगाथा का वर्णन मिलता है। उसके पति का नाम नागार्जुन था। राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण द्वितीय (कन्नरदेव) उस परिवार से इतने प्रसन्न थे कि जक्किम के पति नागार्जुन के अक स्मात् स्वर्गवास हो जाने पर उसने उसे नागरखण्ड नामक एक जटिल प्रक्षेत्र की प्रशासिका के रूप में नियुक्त कर दिया था। जक्कियव्ये एक दूरदृष्टि सम्पन्न एवं कष्ट सहिष्णु किन्तु गम्भीर विदुषी महिला थी। उसके बहुआयामी व्यक्तित्व की सूचना इसी से मिलती है कि वह एक ओर तो राज्यप्रशासन का कुशलतापूर्वक संचालन करती थी और दूसरी ओर परिवार का एवं समाज का संचालन। उसने जिनेन्द्रभक्तिवश एक विशाल जैन प्रतिमा की स्थापना कर जिनधर्म की पताका फहराई थी। स्नेहमयी सरस्वती अम्मा इन प्रसंगों में हम मातुश्री सरस्वती अम्मा को भी विस्मृत नहीं कर सकते, जिनकी कोख से 20वीं सदी को सार्थक कर देने वाले राष्ट्रसन्त आचार्यश्री विद्यानन्द जी का जन्म हुआ। विद्यानन्द जी जब शिशु अवस्था में थे तो उनकी माता कन्नड़ - लोरियाँ सुना-सुनाकर उन्हें हँसा हँसा कर लोट-पोट कर दिया करती थीं तथा निरन्तर मनौती में गौरवपूर्ण उच्चतम स्थान प्राप्त करें। मनाया करती थीं कि वह प्रगति कर समाज विद्यानन्द जी के बचपन का नाम सुरेन्द्र था। प्रारंभ से ही वह नेता टाइप का छात्र था। छात्रावस्था में वह छात्रों के ऊपर ही रौब नहीं झाड़ता था, बल्कि जो शिक्षक अनियमित थे, वे भी उससे भयभीत रहा करते थे। वह स्वतन्त्रता आन्दोलन में भी भाग लेता, इस कारण पुलिस तथा गाँव के लोग अंग्रेज शासकों के विरोध में उसके उपवादी नारों तथा करतूतों के विषय में उसकी तरह-तरह की शिकायतें लेकर उसके घर आते। पिता तो उसको कभी-कभी डाँटफटकार पिलाते रहते, किन्तु उसकी भद्रस्वभावी स्नेहवत्सला माता कभी भी उन्हें डाँटती तक न थी । एक बार पिता के कहने से सुरेन्द्र ने नवम्बर 2001 जिनभाषित 25 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीविकोपार्जन का मन बनाया। कहीं बाहर जाने की समस्या आई, तो सभी ने उन्हें पूना जाने की सलाह दी। पूना में उनकी ननिहाल थी। जब वे अपने बैग में आवश्यक वस्त्रादि लेकर प्रस्थान करने लगे, उस समय का दृश्य बड़ा ही हृदय विदारक हो गया। माँ-बेटे दोनों ही रुदन करने लगे। उनके कण्ठ इतने हिलहिला उठे कि दोनों की बोलती ही बंद हो गयी। माँ चाहती थी कि बेटा घर से बाहर न जाये, किन्तु उसे रोकना क्या उसके लिये सम्भव था ? माँ ने ललाट पर रोरी का तिलक लगाया, उस पर अक्षत चिपकाये, जेब खर्च दिया, रोते-रोते अनेक प्रकार के आदेशउपदेश दिये नाश्ते का बैग पकड़ाया और मुँह छिपाकर फफक-फफक कर रुदन करने लगी। उस समय का कारुणिक दृश्य कैसा रहा होगा ? भुक्तभोगी ही इसका अनुभव कर सकता है। · नौकरी खोजने में उनके मामा ने बड़ा प्रयत्न किया। संयोग से उन्हें वहाँ की आर्डिनेंस फैक्टरी (आयुधशाला) में 47-1/2 रुपये मासिक की नौकरी मिल गई और वहाँ के नियमों के अनुसार गले में परिचय पट्टिका डालकर कार्यव्यस्त हो गये। अंग्रेज अफसर 'शाबाश सुरिन्दर, शाबाश सुरिन्दर टुम अच्छा काम करता हटा' कहकर उसकी बहुत प्रशंसा करने लगे। माँ को जब यह समाचार मिला, तो वह इतनी प्रमुदित हुई कि मानों उसके लिये बड़ा भारी राज्य मिल गया हो। माता की मनोकामना थी कि वह शीघ्र ही आयुधशाला का बड़ा अफसर बने, किन्तु सुरेन्द्र तो स्वतन्त्र विचारों का युवक था। भविष्य के गर्भ में कुछ और ही था । एक दिन ऐसा आया कि उसने दिगम्बर दीक्षा धारण कर ली और निर्मम होकर घरबार सबको बिलखता हुआ छोड़कर तपोवन की ओर चल दिया। किन्तु इस पुण्य - प्रसंग पर विवेकशील माता सरस्वती अम्मा रोई नहीं । उसने गहन विचार किया, धैर्य धारण किया और अपने प्रिय 'को आशीर्वाद दिया 'बेटे, तुम जहाँ भी रहो, सदैव हँसते रहो, विहँसते रहो, प्रसन्न रहो, अपने संकल्प को पूरा करो, धवल यश के भागी बनो। मेरा वात्सल्य भरा यही आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ रहेगा।' बहुत उथली हो रही हैं सोच की गहराइयाँ आदमी को खा रही हैं आज फिर परछाइयाँ । 26 नवम्बर 2001 जिनभाषित 1 सोच ने जिस आदमी को शब्द देकर दी कथाएँ सोच अब उस आदमी को हाशिये पर ला रही हैं। हाशिये की एक दुनिया एक जंगल को समेटे इस तरफ से, उस तरफ से, हर तरफ से आ रही है। दूर तक घिरने लगी हैं आज फिर वीरानियाँ ॥ धन्य है यह कर्नाटक की पुण्य भूमि और उस पर जन्म लेने वाली वह प्रातः स्मरणीया माता, जिसने शुभ-मुहूर्त में ऐसे पुत्ररत्न को जन्म दिया। उस माता को बहुत उथली हो रही हैं सोच की गहराइयाँ 2 आदमी की सोच देखो हाथ में बारूद लेकर अब मकानों की छतों से, खिड़कियों से झाँकती है। अनेकशः प्रणाम, जिसने अपने पुत्र को पावन-संस्कार दिये। आज यह उसी का सुफल है कि उसका वही बेटा महामनीषी राष्ट्र सन्त आचार्य विद्यानन्द के नाम से सर्वत्र विख्यात है। इस प्रकार प्रस्तुत निबंध में मैंने कर्नाटक की कुछ जैन यशस्विनी सन्नारियों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया। जैन संस्कृति एवं इतिहास के क्षेत्र में उनके बहुआयामी संरचनात्मक योगदानों के कारण उन्होंने जैन समाज को जो गौरव प्रदान किया, वह पिछले लगभग 1300 वर्षों के इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय है, जिसे कभी भी विस्मृत नहीं किया जा सकेगा। आवश्यकता इस बात की है कि यदि कोई स्वाध्यायशीला विदुषी प्राध्यापिका इस धैर्यसाध्य क्षेत्र में विश्व विद्यालय स्तर का विस्तृत शोध कार्य करे, तो मध्यकालीन जैन महिलाओं के अनेक प्रच्छन्न ऐतिहासिक कार्यों को तो प्रकाश-दान मिलेगा ही, भावी पीढ़ी को भी अपने जीवन को सार्थक बनाने हेतु नई-नई प्रेरणाएँ मिल सकेंगी। महाजन टोली नं. 1, आरा- 802301 (बिहार) अशोक शर्मा घुट रही हैं फिर हवाएँ उठ रहा काला धुंआ समझदारी एक वृद्धा बीमार सी, फिर खाँसती है पीतवर्णी हो रही हैं अब तरुण- अरुणाइयाँ ॥ 3 सोच ने इस आदमी को क्यों तराशा सोचता हूँ आदमी का डर समेटे आदमी डरने लगे हैं इस जगह से उस जगह तक फैलकर नंगे कथानक आज गँदला हर नदी के नीर को करने लगे हैं ढूँढी अमराइयों को आज फिर अमराइयाँ || अभ्युदय निवास, 36-बी, मैत्री विहार, सुपेला, भिलाई (दुर्ग) छत्तीसगढ़ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारीलोक गृहिणी और सच्चा साथी रसोईघर कु. समता जैन गृहिणी का अधिकतम समय उसके | बर्तन को ढूंढने में परेशानी न हो। यदि घर | की सब्जियाँ बनती हैं तथा कुछ चेहरे पर रसोईघर में ही गुजरता है। प्रत्येक गृहिणी यह में मिक्सी, फ्रिज आदि है तो उन्हें एक निश्चित | घिसने से त्वचा में निखार आता है। प्रयास करती है कि उसके द्वारा बनाया गया स्थान पर रखें जिससे श्रम व समय की बचत 8. खाना बनाने के लिये आप अपने भोजन स्वादिष्ट और पाचक हो तथा घर में होती है तथा बची हुई वस्तुओं का आसानी | घर के सभी सदस्यों की सलाह व पसंद का सभी लोग उसकी तारीफों के पुल बाँधे। कभी- से संरक्षण किया जा सकता है। ख्याल अवश्य रखें और क्या खाना बनाना कभी रसोईघर में जल्दी-जल्दी में कोई चीज 3. एक पेंसिल व डायरी रसोई में है इसकी प्लानिंग पहले से ही कर लें। जल जाती है, तो कोई कच्ची रह जाती, कभी जरूर लटका कर रखें और जब भी कोई वस्तु 9. प्लानिंग से पहले आप मौसम में कोई चीज मिलती ही नहीं है, तो कोई चीज समाप्त हो उसमें नोट कर लें जिससे आपको प्राप्त होने वाली सब्जियों व खाने की खत्म हो जाती है जिससे घर के सभी सदस्य बाजार जाते समय माथा-पच्ची करने की पौष्टिकता का अवश्य ध्यान रखें। झल्ला उठते हैं इसके लिये आवश्यकता है आवश्यकता नहीं पड़ेगी कि कौन-कौन सी 10.भोजन की तैयारी इस प्रकार करें कि शुरु से सतर्क रहें। रसोई में सभी वस्तुयें समाप्त हो गई हैं, जिन्हें बाजार से कि दोपहर के भोजन में बची हुई सामग्रियों आवश्यक वस्तुओं को सजा-सँवार कर रखें। | लाना हैं। का उपयोग, खासतौर से बची हुई सब्जियों सब वस्तुओं को सुव्यवस्थित ढंग से रखें। 4. रसोई घर में एक कैलेण्डर का प्रयोग शाम के लिये नये रूप में कर सकें। इसके लिये निम्नलिखित बातों का आवश्यक अवश्य ही टाँगना चाहिये। जिस पर जब दूध बहनें यदि उपर्युक्त सुझावों को रूप से ध्यान रखना चाहिये। न आये, कम आये अथवा गैस सिलिण्डर अपनायेंगी तो एक आदर्श गृहिणी के रूप में 1. सबसे पहले महीने भर में काम लगाने का दिन आदि बातें उन तारीखों पर उनका यश बढ़ेगा। आजकल आधुनिक आने वाली वस्तुओं की लिस्ट बनाकर उन्हें नोट करें। गृहिणी कम समय में भोजन बनाना चाहती मँगा लें और उन्हें उचित डिब्बों में स्टोर करके 5. खाना बनाते समय खाना बनाने हैं तथा परिवार को भी खुश रखना चाहती रखें। यदि डिब्बे पारदर्शक हों तो अच्छा है, | की सभी आवश्यक वस्तुयें चकला, बेलन, है, अत: वह इन सुझावों से श्रम एवं समय जिससे प्रत्येक डिब्बा खोलने की आवश्य- | चिमटा, चीनी, नमक, घी मसाले आदि दोनों की बचत कर सकती हैं और परिवार कता न पड़े। बाहर से ही दिखने पर प्रत्येक इकट्ठा करके रख लें। फिर बाद में गैस को भी प्रसन्न रख सकती है और जो नारी सामान लिया जा सके और यदि डिब्बे जलायें, जिससे गैस व समय की बचत होती | ऐसा करती है, उसके बारे में कहा है:पारदर्शक नहीं है तो प्रत्येक डिब्बे पर उसमें "नारी गुणवती धत्ते, सृष्टिरग्रिमं पदं।" रखी वस्तु का लेबल लगा दें और डिब्बों को 6. सब्जी, दाल-चावल हमेशा प्रेशर अगर नारी गुणवान हो, सुशिक्षित हो, अपनी जरूरत के मुताबिक क्रमानुसार रखें। | कुकर अथवा चौड़े मुँह के बर्तन में ही बनाना | | सुसंस्कारित हो, तो वह सृष्टि में अग्रिम पद 2. रसोई में आवश्यक बर्तनों का | चाहिये। जिससे गैस की बचत होती है। को धारण कर सकती है। होना आवश्यक है तथा उन्हें व्यवस्थित ढंग 7. सब्जियों के छिलकों को फेंकना 'जीवन सदन' सर्किट हाउस के पास, से जमाकर रखना चाहिये जिससे किसी भी नहीं चाहिये, उनमें से कई सब्जियों के छिलके शिवपुरी (म.प्र.) वाग्भारती पुरस्कार हेतु नाम आमंत्रित वाग्भारती पुरस्कार हेतु नाम 28 फरवरी तक सादर आमंत्रित हैं। डॉ. सुशील जैन, मैनपुरी द्वारा स्थापित, इस पुरस्कार के लिए अधिकतम आयु 40 वर्ष है। युवा विद्वान दशलक्षण पर्व पर प्रवचनार्थ अवश्य जाते हों, श्रमण परम्परा आर्ष मार्ग में पूर्ण आस्था रखते हुए संयमी जीवन के साथ निष्काम भाव से धर्म सेवा में तत्पर हों। वर्ष 2000 हेतु जो प्रविष्टियाँ प्राप्त हुई थीं, उनमें से पुरस्कार हेतु कोई नहीं चुना जा सका। अत: यदि योग्य पात्र प्राप्त हुए तो इस वर्ष दो पुरस्कार वर्ष 2000 व वर्ष 2001 के लिए दिये जा सकेंगे। जो पूर्व वर्षों में अपना नाम भेज चुके हैं वे पुनः न भेजें। विद्वान स्वयं, अन्य विद्वान, संस्थायें, समाज भी नाम प्रस्तावित कर सकती हैं। जन्म-तिथि, शिक्षा, परिचय, प्रवचनों का विवरण आदि पूर्ण जानकारी के साथ नाम भेजें। (डॉ. सौरभ जैन) मंत्री वाग्भारती ट्रस्ट,C/o जैन क्लीनिक सिटी पोस्ट आफिस के सामने मैनपुरी (उ.प्र.) पिन-205001 -नवम्बर 2001 जिनभाषित 27 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्मरण सच्ची दीपावली ब्र. त्रिलोक जैन युगों युगों से भारतीय वसुन्धरा मंगल | हो। अरे, आज की रात तो वहाँ उजेला करो | अद्भुत आनंद को लूटें। और सिद्ध करें कि दीपों से आलोकित है। कारण चाहे कुछ भी जहाँ अंधेरा हो। मुनिश्री की करुणामय वाणी | हम महावीर और राम के सच्चे उपासक हैं, रहा हो, चाहे तो प्रभु महावीर ने अष्ट कर्मों को सुनकर श्रावक श्रद्धा से नतमस्तक हो गये। करुणा, दया, प्रेम, वात्सल्य हमारा धर्म है पर विजय प्राप्त कर मुक्तिरमा का वरण किया सूर्य अस्ताचल की ओर, श्रावक अपने घर | जो कि सबके लिये अंधेरे जीवन में दिव्य हो, चाहे मर्यादा पुरुषोत्तम राम रावण पर की ओर। रात्रि सघन हो इससे पहले हजारों | प्रकाश है। विजय प्राप्त कर लौटे हों। दीप तो जले ही लघु दीप झिलमिल प्रकाश बिखेरने लगे। दीपावली एवं भगवान महावीर की हैं। दीपावली की रात एक ऐसी पावन रात श्रावकगण बस निकल पड़े अन्धेरे की खोज | निर्वाण बेला में - है जहाँ आकाश में चाँद, तारें तो धरती पर में तो पूरे नगर में पाँच ऐसे स्थान पाये, जहाँ | वर्णी दि. जैन गुरुकुल, पिसनहारी की मढ़िया धृत दीप प्रकाश की मनोहारी छटा बिखेरकर अन्धकार का साम्राज्य व्याप्त था। जबलपुर-3 (म.प्र.) मानों आकाश से प्रतिस्पर्धा ही करते हों। लोग चुपचाप लेटे थे, ना कोई उमंग, कारण कोई भी हो मानव जाति आमोद-प्रमोद ना कोई उल्लास, बस समझो उदास। मायूस में लीन हो ही जाती है पर जिस नगर, गाँव फीकी-फीकी थी उनकी दीवाली की रात। तभी में कोई संत पुरुष विराजमान हों तो होली, उनके करीब किया किसी ने प्रकाश,, तो चुनाव सम्पन्न दीवाली का परमानंद एक साथ बरस उठता उठकर बैठ गये। उन्हें लगा, उनके पास कोई है। मुनि श्री करुणामूर्ति क्षमासागर जी अपने देवता खड़ा है, पर गौर से देखा तो आदमी दिगम्बर जैन मंदिर महासंघ गुरुवर विद्यासागर जी की आज्ञा से अपना ही अपने देवत्व के साथ खड़ा था। दीप जयपुर की कार्य कारिणी समिति के प्रथम चातुर्मास गढ़ाकोटा की पावन भूमि पर जलाने के बाद जब मिठाई का पैकेट उन त्रिवर्षीय चुनाव दिनांक 16 सितम्बर कर रहे थे, तभी एक दिन चातुर्मास की गरीबों को दिया तो देने वाले और लेने वाले व 2 अक्टूबर 2001 को श्री ताराचंद समापन बेला के पूर्व कुछ श्रावकों ने महाराज दोनों की आँखों में आँसू थे. उन गरीबों के जी जैन एडवोकेट व श्री कुन्दनमल जी से निवेदन किया कि महाराजश्री दीपावली मुख से हजारों दुआएँ निकल रही थीं, तो बगड़ा ने सम्पन्न करायें। जिसमें श्री कैसे मनायें? श्रावकों की आँखों से आनंद के आँसू। श्रावक रामचंद्र कासलीवाल अध्यक्ष, श्री ज्ञान प्रश्न में कुछ गहरी प्यास देखकर मुनिश्री जब चलने लगे तो गरीबों के मुख से बरबस चंद खिन्दूका व श्री कुबेर चंद्र काला ने मन्द-मन्द मुस्कराते हुए पूछा इसके पहले निकल पड़ा 'भगवान तुम्हारा भला करें'। उपाध्यक्ष, श्री अनूप चंद्र न्यायतीर्थ कैसे मनाते थे? सुनकर श्रावक बोले- आपको श्रावक जब अपने अभियान में सफल होकर क्या बतायें महाराज जी, बस अपने स्वार्थ मुनिश्री के पास पहुँचे तो नमोस्तु करते हुए मंत्री, श्री विपिन कुमार बज संयुक्त की चहारदीवारी में ही हमारी दीपावली मन गद्गद् कण्ठ से बोले- 'महाराज हम धन्य हो मंत्री एवं श्री लाल चंद्र मुशरफ जाती है। घर पर पकवान बनते हैं, तो इष्ट गये।' आज हमे लगता है जीवन सफल हो कोषाध्यक्ष चुने गये हैं। जबकि कार्यमित्रों के साथ मिल-बाँटकर खाते है और रात्रि गया। हमको हमारा मानव धर्म मिल गया। तो कारिणी के सदस्य के रूप में सर्वश्री में अपने घर को दीपों से प्रकाशित करते हैं। मेरे प्रिय पाठको, धन्य हैं वो गाँव जहाँ मुनिश्री भागचन्द जैन रस्सी वाले, श्री देवेन्द्र इतना कहकर श्रावक मुनिश्री की ओर देखने के पावन चरण पड़े और दीवाली की पावन कुमार साह, श्री बाबूलाल सेठी, श्री लगे तो मुनिश्री बोले बस इतना ही? तो | रात में गरीबों के अन्धेरे जीवन में उजाले हुए। राजमल छाबड़ा, श्री रतन लाल श्रावक बोले महाराज एक बात भूल गये। हम यदि अपने जीवन में भी हमें वही झागवाले, श्री प्रवीण चन्द्र छाबड़ा, श्री लोग परमात्मा के मंदिर में भी एक दीप आनन्द लूटना है दूसरों की अंधेरी दुनिया में माणक चन्द मुशरफ, श्री बलभद्र कुमार प्रकाशित कर आते हैं। ऐसा कहते हुए श्रावक रोशनी भरना है तो फिर क्यों न बढ़ चलें अपने जैन, श्री पूनम चन्द छाबड़ा, श्री प्रकाश मुस्करा रहे थे जैसे लंका जीत ली हो। तभी नगर के चारों ओर कहीं किसी कोने में, जो चन्द्र दीवान, श्री राजेन्द्र कुमार लुहामुनिश्री बोले- भैया इतना तो सभी कर लेते अपने अंधेरों में जिन्दगी के गम लिये पड़े हो, ड़िया, श्री महेन्द्र कुमार पाटनी, श्री हैं। जहाँ पर दीप पहले से जल रहे हैं वहाँ एक उनकी मदद के लिये उनके अंधेरे जीवन में योगेश कुमार टोडरका, श्री ताराचन्द दीप और रख दिया तो क्या? अरे, दीप ही प्रकाश भरने। चलो चलें, इसी में जिनशासन पाटनी, श्री ज्ञानचन्द ठोलिया, श्री रखना हो तो वहाँ रखो जहाँ अन्धकार का की सच्ची प्रभावना होगी और मिलेगा जीवन महावीर कुमार रारा एवं श्री प्रकाश चन्द साम्राज्य दीपावली की पावन रात में भी का सच्चा आनंद। सचमुच दूसरों की मदद स्थापित है। अरे, पकवान यदि खिलाने हैं तो का आनंद अद्भुत होता है। आओ, हम सब जैन (बासखो) निर्वाचित हुए। उन्हें खिलाओ जिनके पेट में रोटी भी न गई भी इस जीवंत कहानी से प्रेरणा लें। इस अनूप चन्द न्यायतीर्थ, मानद मंत्री 28 नवम्बर 2001 जिनभाषित Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचार देश के 224 मेधावी जैन छात्रों का सम्मान श्रीमती विमला जैन, एच. जे. एस. जिला एवं सत्र न्यायाधीश शिवपुरी नगर में चातुर्मास कर रहे पूज्य मुनि श्री क्षमासागर जी एवं मुनि श्री भव्य सागर जी की प्रेरणा एवं आशीर्वाद से उनके सान्निध्य में 28 अक्टूबर 2001 को देश के 14 राज्यों के 224 मेधावी जैन छात्र/छात्राओं का सम्मान किया गया। मैत्री समूह द्वारा आयोजित इस समारोह की भव्यता एवं गरिमा अत्यधिक मनोरम, अपनत्वपूर्ण, आकर्षक एवं प्रभावी थी। समारोह की मुख्य अतिथि आई.आई.टी. दिल्ली में अंग्रेजी की प्रोफेसर डॉ. श्रीमती सुनीता जैन थीं। डॉ. जैन 45 से अधिक हिन्दी तथा अँग्रेजी भाषा की पुस्तकों की विश्वप्रसिद्ध लेखिका हैं। समारोह के संयोजक श्री सुरेश जैन आई.ए.एस. भोपाल थे। मैत्री समूह तथा जैन समाज शिवपुरी द्वारा आयोजित इस प्रतिभा सम्मान समारोह में देश भर के 75 प्रतिशत से 94 प्रतिशत अंक प्राप्त करने वाले 224 मेधावी जैन विद्यार्थियों को सम्मानित किया गया। देश में इस तरह का यह पहला और अनूठा कार्यक्रम था। इस सूची में 6 मेधावी विद्यार्थी ऐसे थे जिन्होंने एक-एक विषय में सौ में से सौ अंक हासिल किए। श्री संदीप पी. बैंगलोर ने गणित में अंकित नरेन्द्र कुमार जैन टीकमगढ़, कु. स्पूर्ति एन. बैंगलोर ने भौतिक शास्त्र में, श्री दीपक कुमार जैन आगरा ने बॉयोलॉजी में, श्री हेमंत चन्द्रकांतिभाई कोटाडिया, अहमदाबाद एवं कु. बीजल उत्तमभाई शाह, अमहदाबाद ने व्यापारिक गणित में शत प्रतिशत अंक प्राप्त किये हैं। भगवान महावीर की 2600वीं जन्म जयंती वर्ष के उपलक्ष्य में आयोजित देश के मेधावी जैन छात्र-छात्राओं के भाव भीने सम्मान का मुख्य आयोजन तात्याटोपे प्रांगण में सम्पन्न किया गया। इस अवसर पर विशिष्ट अतिथि के रूप में देश के सुप्रसिद्ध उद्योगपति एवं समाज सेवी श्री पन्नालाल बैनाड़ा आगरा, इतिहासविद डॉ. सुधा मलैया भोपाल, 'ए.बी.सी. ऑफ जैनिज्म' के लेखक एवं पूर्व मुख्य अभियंता श्री एस. एल. जैन, भोपाल तथा देश के सुप्रिसद्ध वैज्ञानिक डॉ. अनिल कुमार जैन, अहमदाबाद उपस्थित थे। इस प्रसंग पर पूज्य मुनिद्वय के सान्निध्य में सम्मानित मेधावी जैन विद्यार्थियों एवं अतिथियों की भव्य मंगल यात्रा तात्याटोपे प्रांगण से महावीर जिनालय, महल कॉलोनी तक निकाली गई। महावीर जिनालय में मुनि श्री क्षमासागर जी एवं मुनि श्री भव्यसागर जी के साथ छात्रों ने विश्व के कल्याण के लिए राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत प्रार्थना की। सम्मानित होने वाले मेधावी विद्यार्थियों में से देशभर में सर्वोच्च तीन स्थान प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों को विशिष्ट रूप से णमोकार मंत्र युक्त रजत पट्टिका से सम्मानित किया गया। इनमें नागपुर (महाराष्ट्र) के श्री योगेन्द्र कुमार जैन ने 93.7 प्रतिशत अंक पाकर प्रथम चोंदखेड़ा गाँधीनगर (गुजरात) की कु. हेमल जैन ने 93.4 प्रतिशत अंक पाकर द्वितीय तथा कु. नवीसा जैन, सिकन्दराबाद ने 93.3 प्रतिशत अंक पाकर तृतीय स्थान प्राप्त करने का गौरव हासिल किया। प्रत्येक राज्य से प्राप्त होने वाली 224 प्रविष्टियों में आन्ध्रप्रदेश से 6, बिहार से 1 छत्तीसगढ़ से 12 देहली से 4 गुजरात से 21, हरियाणा से 3, कर्नाटक से 8, मध्यप्रदेश से 116, महाराष्ट्र से 11 पंजाब से 1. राजस्थान से 25, तमिलनाडु से उत्तरप्रदेश से 14 एवं पश्चिम बंगाल से 1 प्रविष्टियाँ सम्मिलित हैं। इन सभी विद्यार्थियों को आमंत्रित करने के लिये मैत्री समूह द्वारा अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में पत्र प्रेषित किये गये थे। उनसे निर्धारित जानकारी एवं छायाचित्र 1, 1, जैन युवा प्रतिभा सम्मान समारोह? संकलित किए गए। सभी छात्रों की संक्षिप्त जानकारी एवं चित्र परिपत्र में प्रकाशित किये गये। इस कार्यक्रम के लिये आधुनिक ढंग से मंच निर्मित किया गया। छात्रों के स्वागत, आवास, भोजन, सभागार में आसन, बैठकर एवं सम्मान के लिए उत्कृष्टतम स्तर की वैज्ञानिक ढंग से आकर्षक व्यवस्था की गई। मैत्री समूह एवं शिवपुरी जैन समाज द्वारा गठित स्वागत समितियों के सदस्य शुद्ध एवं धवल गणवेश में उनके सहयोग के लिए सदैव उपस्थित रहें। इन सभी छात्रों में ऐसे अनेक छात्र हैं जिन्होंने छोटे-छोटे ग्रामीण स्थानों पर अध्ययन कर मेरिट में स्थान प्राप्त किया है। सम्मानित छात्रों में से 95 छात्र डॉक्टर और 105 छात्र इंजीनियर बन रहे हैं। शेष छात्र अन्य विषयों में अध्ययन कर रहे हैं। इन छात्रों को सम्मान स्वरूप स्वर्ण पदक, प्रशस्ति पत्र, स्मृति चिन्ह, शाश्वत जीवन मूल्यों की स्थापना हेतु पुस्तकें एवं उच्च अध्ययन हेतु रुपये 2 लाख की नवम्बर 2001 जिनभाषित 29 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठ दिवसीय सर्वोदय शिक्षण छात्रवृत्ति प्रदान की गई। से विकास के उच्चतम सोपानों पर आगे बढ़ते रहेंगे। सम्मानक: डॉ. सुनीता जैन ने छात्रों को और आगे बढ़ने तथा अंत में बधाई देना चाहूँगी शिवपुरी जैन समाज को, जिसके और ऊँचा उठने के लिए अपने जीवन की जीवन्त घटनाओं के माध्यम अपरिमित, हार्दिक, आत्मीय स्नेह एवं सतत, उत्कृष्टतम सहयोग से मार्मिक एवं प्रभावी ढंग से प्रेरित किया। से यह प्रतिष्ठापूर्ण आयोजन भारी सफलता के साथ सम्पन्न हो सका जैन युवा प्रतिभा सम्मान समारोह के निमित्त सम्पूर्ण राष्ट्र से | और राष्ट्रीय एवं ऐतिहासिक स्वरूप ग्रहण कर सका। एकत्रित छात्र-छात्राओं को संबोधित करते हुए पूज्य क्षमासागर जी 30, निशातकालोनी, ने अपनी मंगल भावना व्यक्त करते हुए बताया कि इन अत्यंत भोपाल-462003 म.प्र. आत्मीय, सुखद और दुर्लभ क्षणों में यदि धर्म, दर्शन, अध्यात्म और विज्ञान की स्पष्ट छबि हमारे भीतर आकार ले सके और हम अपने जीवन को अच्छा बनाने के लिये सही निर्देश ले सकें तो यह इस शिविर सम्पन्न समारोह की श्रेष्ठतम उपलब्धि होगी। दया, करुणा और प्रेम हमारा धर्म है। सत्य की साधना और जीवन का सम्मान हमारा दर्शन है। शिवपुरी म.प्र.। परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज आत्म-संतोष, आत्म-निर्भरता और साम्य-भाव हमारी आध्यात्मिक | के आशीर्वाद एवं मुनि श्री क्षमासागर जी, मुनि श्री भव्यसागर जी चेतना का मधुर स्वर है। विवेक और सदाचरण से समन्वित ज्ञान की प्रेरणा व सान्निध्य में 11 अक्टूबर को शिविर का उद्घाटन शिविर ही हमारा विज्ञान है। कुलपति श्रावक श्रेष्ठी श्री निरंजन लाल जी बैनाड़ा, आगरा एवं यह सच है कि आज वातावरण में अनेक विकृतियाँ और 'जिनभाषित' पत्रिका के संपादक पंडित श्री रतनचंद्र जी, भोपाल ने विषमताएँ हैं। इसके बावजूद भी हमारा कर्तव्य है कि हम अच्छा सोचें दीप प्रज्वलन कर महावीर जिनालय में किया। बालबोध पूर्वार्द्ध में और अच्छा करें। भौतिकता की चकाचौंध में रहकर भी हम अपनी 250, बालबोध उत्तरार्द्ध में 350, रत्नकरण्ड श्रावकाचार में 40, असलियत पहचानें। बढ़ती हुई भोगवादी विचार-धारा के बीच हम छहढाला में 60, द्रव्य संग्रह में 50 तथा तत्त्वार्थ सूत्र में 70 निस्वार्थ सेवा और त्याग की भावना बनाए रखें। संयुक्त परिवारों शिविरार्थियों ने भाग लिया। द्रव्य संग्रह एवं रत्नकरण्ड श्रावकाचार के विघटन और टूटते रिश्तों के बीच हम परस्पर आत्मीयता और की कक्षाएँ कुलपति श्री बैनाड़ा जी ने, तत्त्वार्थ सूत्र एवं छहढाला ब्र. संबंधों की मधुरता कायम रखें। खान-पान और रहन-सहन में निरन्तर बहिन ऊषा देवी भरतपुर, बालबोध उत्तरार्द्ध ब्र. भैया संजीव जी बढ़ते आडम्बर के बीच सादगी और शालीनता को बढ़ावा दें। कटंगी एवं मोती भैया कुम्हेर ने बालबोध पूर्वार्द्ध, ब्र. बहिन मैना गुरुजनों और आत्मीय जनों के प्रति निरंतर बढ़ते अनादर-भाव दीदी शिवपुरी, ब्र. विजय भैया लखनादौन, ब्र, भैया जितेन्द्र शाजापुर के बावजूद भी हम उनके प्रति अपनी श्रद्धा और विनय को बनाए एवं ब्र, भैया मौसम जी खुरई ने कक्षाएँ ली। 11 अक्टूबर से 17 रखें। निरंतर बढ़ती राजनैतिक बुराइयों और विदेशी मुद्रा के प्रति लोभ अक्टूबर तक तीनों समय कक्षाएँ ली गई जिसमें लगभग 800 लालच के कारण पनपने वाले हिंसक उद्योग-धंधों के बीच हम एक विद्यार्थियों ने भाग लिया और 750 विद्यार्थियों ने परीक्षा दी। इसमें अच्छे अहिंसक नागरिक बनने का प्रयास करें। निरंतर बढ़ती हुई हिंसा, | नागरिक बनने का प्रयास करें। निरंतर बढती हुई हिंसा | 90 प्रतिशत से अधिक अंक प्राप्तकर्ताओं को विशेष पुरस्कार, 60 झूठ, चोरी, अश्लीलता और अंडा-मांस शराब सेवन जैसी बुरी प्रतिशत से अधिक प्राप्तकर्ताओं को पुरस्कार एवं 60 प्रतिशत से आदतों का उन्मूलन कर हम स्वयं को नैतिक और चारित्रिक रूप से | कम अंक पाने वालों को भी प्रमाण पत्र के साथ पुरस्कार जैन समाज सुदृढ़ बनाएँ। एवं वर्षा योग समिति, शिवपुरी की ओर से दिया गया। धार्मिक आयोजनों, धर्मस्थलों और धर्मगुरूओं में निरन्तर बढ़ते सर्वोदय शिक्षण शिविर के प्रारम्भ में 11 अक्टूबर से पंडित आडम्बर और दिखावे के बीच हम धर्म की तर्कसंगत, वैज्ञानिक और श्री रतनचंद्र जी, भोपाल के प्रवचनों का लाभ तीन दिन एवं अंतिम सही समझ विकसित करें और आत्मशांति पाने की विनम्र कोशिश | तीन दिन जैन गजट के प्रधान संपादक, महासभा के शीर्षस्थ विद्वान करें। इस तरह अपनी गुणवत्ता के द्वारा अपने यौवन का शृंगार करें | शास्त्री परिषद के अध्यक्ष, ओजस्वी वक्ता प्राचार्य श्री नरेन्द्र प्रकाश और आनेवाली पीढ़ी को श्रद्धा-प्रेम और सदाचरण का मानवीय-संदेश जी, फिरोजाबाद के प्रवचनों का लाभ मिला। प्रतिदिन शिविरार्थियों दें। हमें विश्वास है कि इस समारोह के प्रतिभाशाली सहभागी और | के लिये मुनिद्वय क्षमासागर जी एवं भव्यसागर जी का उद्बोधन, इस विनम्र प्रस्तुति के पाठक मुनि श्री क्षमासागर जी की भावनाओं | आशीर्वाद दोनों समय मिलता रहा। को साकार करेंगे और मैत्री का सुखद संदेश सबको देते रहेंगे। शिविर समापन पर सम्मान के समय ब्र. बहिन मैना दीदी, . पूज्य क्षमासागर जी ने इस अवसर पर युवा प्रतिभाशाली छात्रों | शिवपुरी ने कहा कि मेरी 12 वर्ष की तपस्या आज सफल हो गई, के व्यक्तित्व में श्रेष्ठ आचार-विचार एवं गुरुजनों के प्रति श्रद्धा का | मेरे साथ की अधिकांश ब्र, बहिनें, भैया कहते हैं कि हमारे नगर में छोटा सा पौधा रोपित किया है। उनमें परस्पर-आत्मीयता और | अमुक महाराज, माताजी का वर्षायोग चल रहा है तब मुझे लगता निस्वार्थ-सेवा की भावना विकसित करने का पावन प्रयास किया है। | था कि हमारे यहाँ पता नहीं, कब किसका वर्षायोग होगा। आज बड़ी उनमें अच्छा सोचने, अच्छा करने और सादगी से रहने की प्रवृत्ति ही प्रसन्नता है कि परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी के शिष्य विकसित करने की विनम्र कोशिश की है। मुझे विश्वास है कि मुनि | मुनिश्री क्षमासागर जी का वर्षायोग हमारे नगर में हो रहा है। मैं यही श्री क्षमासागर जी के व्यक्तित्व रूपी प्रकाश स्तम्भ की किरणों से | भावना करती हूँ कि आप सभी लोग मुनिद्वय की वैयावृत्ति एवं श्रद्धा इन छात्रों का मंगलपथ सदैव आलोकित होता रहेगा और वे सरलता | से सम्मान करे, यही मेरा सम्मान है। वर्षायोग समिति द्वारा शिविर 30 नवम्बर 2001 जिनभाषित Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सुदर्शनोदय' क्षेत्र से पदयात्रा संघ के समापन पर विद्वान अतिथि, ब्र. भैया, ब्र. बहिनों का वस्त्र एवं | एकरूपता में निहित है एवं उनको गुरु के रूप में प्राप्त करना सर्वाधिक शास्त्र भेंट कर सम्मान किया गया। | बड़ा पुण्य है। क्षुल्लक श्री मोतीसागर जी ने पूज्य माताजी के वैराग्य सुरेश जैन मारौरा, शिवपुरी | एवं धर्म दृढता का सभी को परिचय प्रदान किया। विविध वक्ताओं ने पूज्य माताजी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का वर्णन करते हुए उनको आज के युग की इतिहास निर्मात्री एवं बहुमूल्य वरदान बताया। सभाध्यक्ष के रूप में साहू श्री रमेशचन्दजी जैन एवं विशिष्ट श्री शान्तिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र "सुदर्शनोदय" क्षेत्र अतिथियों के रूप में श्री राजकुमार जैन (अध्यक्ष-श्वेताम्बर जैन मूर्ति आँवा (टोंक) से 21 सदस्यीय पदयात्रा संघ ने आँवा से औद्योगिक पूजक समाज), डॉ. एम.पी. जैन, श्री सलेकचन्द जैन कागजी, श्री नगरी कोटा में विराजमान परमपूज्य मुनि पुंगव सुधासागर जी महाराज पुनीत जैन (न.भा.टा.), श्री स्वराज जैन इत्यादि महानुभाव उपस्थित एवं संघ के दर्शनार्थ दिनांक 5.8.2001 को प्रातः 7 बजे प्रस्थान थे। कर्मयोगी ब्र. श्री रवीन्द्र कुमार जैन ने सभा का सफल संचालन किया। क्षेत्र कमेटी के प्रचार मंत्री अशोक धानोत्या ने बताया कि किया। पदयात्रा संघ गोठड़ा, धोवड़ा, आलोद, बॅन्दी, तालेडा होते हुए श्री ब्र. कु. स्वाति जैन (संघस्थ) मुनिसुव्रतनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र केशवराय पाटन होते हुए दिनांक 8.8.2001 को सायं 7 बजे औद्योगिक नगरी कोटा में डॉ. भागचन्द्र जैन 'भागेन्दु' अखिल भारतीय नयापुरा स्थित श्री आदिनाथ दिगम्बर जैन मंदिर पहुंचा। वहाँ पर स्थानीय कमेटी ने सभी पदयात्रियों का माल्यार्पण कर स्वागत किया। सर्वश्रेष्ठ साहित्य पुरस्कार से सम्मानित दिनांक 9.8.2001 को पदयात्रा संघ नयापुरा कोटा से 6 किलोमीटर दमोह। 4 नवम्बर 2001 को दिल्ली के चिन्मयानन्द चलकर प्रातः 7 बजे सी.ए.डी. चौराहा दादाबाड़ी कोटा पहुँचा, वहाँ आडीटोरियम में अन्तरराष्ट्रीय संस्था "अहिंसा इंटरनेशनल'' द्वारा वर्ष पर चातुर्मास कमेटी के सदस्यों ने सभी पदयात्रियों का माल्यार्पण 2000-2001 के सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार पुरस्कार से दमोह के प्रख्यात कर स्वागत किया और बैण्डबाजों के साथ जय-जयकार बोलते हुए | मनीषी डॉ. भागचन्द्र जैन “भागेन्दु" को एक भव्य समारोह में पदयात्रा संघ ने परमपूज्य मुनिपुंगव सुधासागरजी महाराज एवं संघ | सम्मानित किया गया। के दर्शन किये। सभी पदयात्रियों को महाराजश्री ने आशिर्वाद दिया उन्हें इस पुरस्कार स्वरूप रुपये 31,000/- की राशि, शाल, तथा चातुर्मास कमेटी द्वारा सभी पदयात्रियों को एक-एक चित्र मुनिश्री श्रीफल, अंगवस्त्र, प्रतीकचिह्न एवं प्रशस्ति से सम्मानित किया गया का एवं एक-एक पुस्तक “नग्नता क्यों और कैसे" भेंट की। है। समारोह के मुख्य अतिथि दिल्ली उच्च न्यायालय के माननीय अशोक जैन | न्यायाधीश श्री आर.सी. जैन ने समारोह को सम्बोधित किया। वीरेन्द्र कुमार इटोरिया पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का अध्यक्ष, जैन पंचायत, दमोह जन्म दिवस एवं स्वर्ण संयमदिवस सानन्द सम्पन्न पं. शिवचरणलाल जी जैन मैनपुरी गणिनी जैन समाज की साध्वी पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का 68वाँ जन्म दिवस एवं 50वाँ (स्वर्ण) संयमदिवस हर्षोल्लास __ आर्यिका ज्ञानमती पुरस्कार से सम्मानित पूर्वक शरदपूर्णिमा - 1 नवम्बर को जैन हैप्पी स्कूल, निकट शिवाजी . नई दिल्ली। दिनांक 25.10.2001 की ऐतिहासिक अविस्मस्टेडियम, कनॉट प्लेस, दिल्ली में भारी जनसमूह के बीच सम्पन्न रणीय बैठक में तथा पू. 105 गणिनी प्रमुख आर्यिका रत्न ज्ञानमति हुआ। ज्ञातव्य है कि सन् 1934 में पूज्य माताजी का जन्म टिकैत माताजी के पावन ससंघ सान्निध्य में समारोहपूर्वक वर्ष 2000 का नगर (बाराबंकी) में श्रेष्ठी छोटेलालजी की धर्मपत्नी मोहिनी जी की "आर्यिका रत्न ज्ञानमती माताजी पुरस्कार" देश के मूर्धन्य विद्वान पवित्र कुक्षी से शरदपूर्णिमा को हुआ था एवं 18 वर्ष की अल्प आयु सरस्वतीपुत्र पं. शिवचरणलालजी जैन मैनपुरी, यशस्वी अध्यक्ष में पूज्य माताजी ने शरदपूर्णिमा के दिन ही आजन्म ब्रहाचर्य व्रत एवं विद्वत् महासंघ को प्रदान किया गया। इस पुरस्कार में एक लाख रुपये गृहत्याग का नियम लेकर व्रतिक जीवन का प्रारंभ किया था। की नगद राशि, शाल, श्रीफल, प्रशस्तिपत्र प्रदान किया गया। पं. इस अवसर पर पूज्य माताजी ने कहा कि लोक प्रभावना के शिवचरणलालजी जैनागम की आर्य परंपरा के सफलतम प्रवचनकार लिए नहीं, वरन् आत्मा में जो असीम आनन्द भरा हुआ है उसे प्राप्त तथा माँ जिनवाणी एवं देवशास्त्र गुरु के परमभक्त हैं। करने के लिये ही दीक्षा ली जाती है, अत: आप सबको भी आज आप "अखिल भारत वर्षीय शास्त्रिपरिषद" के वरिष्ठ कोई ना कोई संयम अवश्य ग्रहण करना चाहिए। पूज्य माताजी ने कोषाध्यक्ष तथा तीर्थंकर ऋषभदेव विद्वत महासंघ के यशस्वी अध्यक्ष महिलाओं को बालिकाभ्रूण की हत्या न करने का संकल्प लेने की प्रेरणा | हैं। इसके पूर्व आप फिरोजाबाद में "श्रुतसंवर्धन पुरस्कार" से भी भी प्रदान की। प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी ने इस सम्मानित हो चुके हैं। अवसर पर पूज्य माताजी के प्रति अपनी विनयांजलि में कहा कि पूज्य पं. खेमचंद्र जैन शास्त्री माताजी के व्यक्तित्व की महानता उनकी कथनी एवं करनी की रायल हास्पिटल गढ़ारोड जबलपुर (म.प्र.) - नवम्बर 2001 जिनभाषित 31 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ट दिवसीय विधान एवं पूजन शीतलचंद जैन प्राचार्य ने अपने विचार रखते हुए कहा कि आपने जो शिविर में सीखा, उसे जीवन में आचरित करना चाहिये। जो भी शिविर सानंद संपन्न संस्कार आप सभी में डाले है उन संस्कारों को धूमिल नहीं करना। नरसिंहपुर (कंदेली)। भगवान श्री महावीर स्वामीजी की । मेरठ समाज से हम सभी यही अपेक्षा रखते है कि आगे भी आप 2600वीं जन्म जयंती जो कि अहिंसा वर्ष के रूप में संपूर्ण विश्व | इसी प्रकार के धार्मिक शिविरों का आयोजन कराते रहे ताकि आपके में मनायी जा रही है उसके तारतम्य में विगत दिवस पार्श्वनाथ दिगम्बर | बच्चे सुसंस्कारित होकर कर्तव्यों का पालन कर सके। जैन मंदिर, कंदेली में परमपूज्य 108 संत शिरोमणि आचार्य इस अवसर पर ब्र. संजीव भैया कटंगी, भारतीय जैन मिलन विद्यासागर महाराज के परम शिष्य 105 पूज्य एलक दयासागर जी के राष्ट्रीय महामंत्री सुरेश जैन ऋतुराज ने भी अपने विचार रखे। महाराज के मंगल चातुर्मास के अंतर्गत धार्मिक एवं सांस्कृतिक तत्पश्चात विद्वानों का परम्परागत तरीके से श्रीफल एवं वस्त्रादि से आयोजनों की श्रृंखला में दिनांक 5 अक्टूबर से 12 अक्टूबर तक सम्मान किया गया। शिविर में 1050 शिविरार्थियों ने 25 कक्षाओं 8 दिवसीय पूजन शिविर का आयोजन सानंद संपन्न हुआ। में भाग लिया। सभी कक्षाओं में प्रथम एवं द्वितीय स्थान प्राप्त करने डॉ. सुधीर सिंघई| वाले शिविरार्थियों को विशेष पुरस्कार तथा प्रशस्ति पत्र देकर कंदेली, नरसिंहपुर, म.प्र. सम्मानित किया गया। समारोह के अन्त में उपा. श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने अपनी श्रमण संस्कृति संस्थान सांगानेर-विद्वद्वर्ग पीयूषवाणी द्वारा कहा कि ज्ञान यज्ञ का यह कार्य निश्चित ही आप सभी द्वारा दशलक्षण पर्व पर प्रवचन प्रभावना के अंतस् में छाये अंधकार को दूर करने में माध्यम बनेगा तथा बना होगा। आज शिविरों की महती आवश्यकता है क्योंकि जब तक आपके सांगानेर (जयपुर)। प्रातः स्मरणीय पूज्य आचार्य श्री बच्चे संस्कारित नहीं होंगे, तब तक आपके जीवन में अशान्ति रहेगी। विद्यासागरजी के शुभाशीर्वाद एवं पूज्य मुनिवर श्री सुधासागरजी की चूँकि आज आप सभी की शिकायत रहती है कि मेरे बच्चे मेरी बात मंगल प्रेरणा से गत 5 वर्ष पूर्व आरंभ हुये श्री दि. जैन श्रमण संस्कृति नहीं मानते, बुराइयों की ओर कदम बढ़ा रहे है, क्या करें, रात दिन संस्थान- (आचार्य ज्ञानसागर छात्रावास) सांगानेर (जयपुर) राज. के आप सभी चिंतित रहते हैं आगे कैसे क्या होगा? अगर इन सभी विद्वद्वर्ग द्वारा दशलक्षण पर्व 2001 के पावन प्रसंग पर नि:स्पृह समस्याओं से आप समाधान पाना चाहते हैं तो आज धार्मिक संस्कारों भाव से प्रवचन-विधानादि विधाओं के द्वारा सम्यवज्ञान का प्रचार के बीजारोपण की महती आवश्यकता है। प्रसार करते हुए अनुपम धर्म प्रभावना की गयी। चातुर्मास समिति के चेयरमेन श्री प्रेमचंद जी जैन ने अंत में __ संस्थान के सम्यक्ज्ञान के प्रचार प्रसार में सम्यक् समर्पण को | शिविरार्थियों, शिक्षकों तथा प्रत्यक्ष-परोक्ष में शिविर की सफलता में देखते हुए भारत वर्षीय दि. जैन समाज के 15 प्रान्तों से लगभग | योगदान करने वालों का धन्यवाद ज्ञापित किया। 200 निमंत्रण इस सत्र में प्राप्त हुए थे लेकिन 150 विद्वान ही संस्थान प्रद्युम्न कुमार जैन शास्त्री द्वारा उपलब्ध कराये जा सके हैं। आगे और भी अधिक विद्वान उपलब्ध व्याख्याता कराने का प्रयास जारी है। इस पुनीत प्रसंग में भारतवर्षीय विभिन्न स्थानों की दि. जैन समाज द्वारा विद्वानों की नि:स्पृह भावना को भोपाल में शिक्षण शिविर सम्पन्न दृष्टिगत करते हुये अधिकाधिक सहयोग राशि संस्थान को प्रदान की है। एतदर्थ समाज के आभारी हैं। आचार्य श्री विद्यासागर जी की परम विदुषी शिष्या आर्यिकारत्न प्रद्युम्न कुमार जैन 'शास्त्री' | पूर्णमती जी और उनके संघ के सान्निध्य में श्री दि. जैन मंदिर टिन शेड, टी.टी. नगर में दिनांक 21.10.2001 से 28.10.2001 धार्मिक एवं नैतिक शिक्षण शिविर का तक जैनधर्म शिक्षण शिविर का आयोजन किया गया। इसके कुलपति समापन सम्पन्न पं. रतन लाल जी बैनाड़ा थे। लगभग 500 शिक्षार्थियों ने बालबोध पूर्वार्द्ध एवं उत्तरार्द्ध, छहढाला, रत्नकरण्डश्रावकाचार और पूजनविधि मेरठ (उ.प्र.)। 25.10.2001 पू. उपा. 108 श्री की शिक्षा प्राप्त की। शिक्षण कार्य दि. जैन श्रमण संस्कृति संस्थान, ज्ञानसागरजी महाराज ससंघ के सान्निध्य में महावीर जयन्ति भवन के विशाल प्रांगण में धार्मिक एवं नैतिक शिक्षण शिविर के समापन सांगानेर (जयपुर) के ब्रह्मचारी बन्धुओं ने किया। पं. रतनलाल जी का शुभारम्भ मंगलाचरण से हुआ। शिविर के संचालक पं. प्रद्युम्न बैनाड़ा रत्नकरण्डश्रावकाचार की कक्षा लेते थे। उनकी समझाने की कुमार शास्त्री ने 18 अक्टूबर से 25 अक्टूबर 2001 तक लगाये शैली विनम्र और मधुर थी जो श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किये रहती थी। गये शिविर की उपलब्धि पर प्रकाश डालते हुए कहा कि जो बच्चे रात्रि में बैनाड़ा जी द्वारा शंका समाधान का ज्ञानवर्द्धक कार्यक्रम होता कभी मंदिर नहीं जाते थे वे आज मंदिर में प्रवचन में दिख रहे हैं। | था। आर्यिकारत्न श्री पूर्णमती जी 'समयसार' के पुण्यपापाधिकार पर यह सब सन्तों तथा शिविरों का ही प्रभाव है। शिविरों के माध्यम प्रवचन करती थीं, जिससे श्रावकों ने पुण्यपाप की समानता और से जीवन में संस्कारों का बीजारोपण होता है अत: आज के | भिन्नता के अनेकान्तात्मक स्वरूप को युक्तिसंगत ढंग से हृदयंगम भौतिकवादी युग में इनकी उपादेयता और भी अधिक बढ़ गयी है। | किया। इस प्रकार शिविर अत्यंत लाभप्रद रहा। शिविर के एवं श्रमण संस्कृति संस्थान सांगानेर के निदेशक डॉ. श्रीपाल जैन 'दिवा' 32 नवम्बर 2001 जिनभाषित Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानस दर्पण में मिट्टी की दीपमालिका जलाते बालक बालिका आलोक के लिये ज्ञात से अज्ञात के लिये किन्तु अज्ञात का / अनुभूति का/ अदृष्ट का नहीं हुआ संवेदन/अवलोकन वे सुंदरतम दर्शन उषा वेला में गात्र पर पवित्र चित्र विचित्र पहन कर वस्त्र सह कलत्र पुत्र युगवीर चरणों में तमो, रजो गुण तजो सतो से जिन भजो गुण तभी मँजो / तभी मँजो जलाओ हृदय में जन जन दीप ज्ञानमयी करुणामयी आलोकित हो / दृष्टिगत हो / ज्ञात हो ओ सत्ता जो समीप वे सजल लोचन करते केवल जल विमोचन उपासना के मिष से वासना का, रागरंगिनी का उत्कर्षण हा ! दिग्दर्शन नहीं नहीं कभी नहीं महावीर से साक्षात्कार सबने किया मोदक समर्पण किन्तु खेद है, अच्छा स्वच्छ औ' अतुच्छ कहाँ बनाया मानस दर्पण ? आचार्य श्री विद्यासागर 'नर्मदा का नरम कंकर' से साभार Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग्योदय तीर्थ प्राकृतिक चिकित्सालय के उत्पादन प्राकृतिक चाय : प्रचलित चाय के बदले गुणकारी तथा वात, पित्त, कफ, सर्दी, खाँसी, जुकाम, श्वास, सिरदर्द, मानसिक व शारीरिक कमजोरी एवं पाचन में लाभदायक है। स्वादिष्ट व निरापद है। मिश्रण : ब्राह्मी शंखपुष्पी, अर्जुन छाल, डौंढा, काली मिर्च, सौंठ, सौंफ, लालचंदन आदि। वजन : 100 ग्राम, मूल्य : 20 रुपये। त्रिफला चूर्ण : पाचन, गैस, कब्ज में गुणकारी चूर्ण है। स्वास्थ्य संतुलन रखता है। आँखों व बालों के लिये लाभदायक हैं। मिश्रण : हर्र, बहेरा, आँवला। वजन : 100 ग्राम, मूल्य : 12 रुपये। 3. रक्त शुद्धि काढ़ा : इसका काढ़ा पीने से लीवर, तिल्ली व पाचन में सुधार होता है। रक्त के सभी प्रकार के विकार व चर्म रोग शोषित होते हैं। पीलिया, मौसमी बुखार से बचाव होता है। मिश्रण : चिरायता पत्ती। वजन : 100 ग्राम, मूल्य : 20 रुपये। मधुमेहारी चूर्ण : मधुमेह के रोगियों की रक्त शर्करा को नियंत्रित करने में तथा लीवर, पेनक्रियाज को सुधार कर शर्करा सामान्य करने में बहुत गुणकारी योग्य, अचूक व लाभप्रद है। मिश्रण : अंकुरित मैथी, गिलोय, कुटकी, चिरायता पत्ती, नीम पत्ती। वजन : 100 ग्राम, मूल्य : 20 रुपये। पाचक चूर्ण : गैस, कब्ज, अजीर्ण अफरा के लिए लाभप्रद है। स्वादिष्ट तथा गुणकारी है। मिश्रण : अजवाइन, कालानमक, अजमोठ, शाहीजीरा, हर्र, बेहरा, आँवला। वजन : 100 ग्राम, मूल्य : 20 रुपये। मंजन : शुद्ध मिश्रण के योग से तैयार किया गया है। दाँत दर्द, पायरिया, मसूढे, मुख तथा जीभ के रोगों में लाभदायक है। मिश्रण : सोप स्टोन, लौंग, कपूर, पिपरमेंट, माजूफल, फिटकरी। वजन : 100 ग्राम, मूल्य : 18 रुपये। बेल पाउडर : पेट व पाचन संबंधी रोगों में गुणकारी हैं। आँव, दस्त पेचिश में लाभकारी है। मिश्रण : बेल का चूर्ण, मूल्य : 15 रुपये। 8. दर्दनाशक तेल : धूप में बैठकर इसकी मालिश करने से गठिया, जोड़ों का दर्द, साइटिका, लकवा व सूजन में आराम मिलता हैं। मालिश के बाद हल्का सेंक कर सकते हैं। मिश्रण : प्रसारणी, कुचला, दशमूल, मजीठ, हल्दी, अदरक तथा अनेक दर्दनाशक जड़ी-बूटियों से मिश्रित। वजन : 50 मिलीग्राम, मूल्य : 30 रुपये। केश निखार : बालों की रूसी को हटाता है। बाल काले, लम्बे व स्वस्थ रहते हैं। मिश्रण : आँवला, रीठा, कृष्ण शृंगराज, शिकाकाई, नागरमोथा, मजीठ आदि, वजन: 100 ग्राम, मूल्य: 18 रुपये 10. मुलतानी मिट्टी साबुन : मुल्तानी मिट्टी विशेष मिश्रण से बनाया गया नहाने का हर्बल साबुन, यह चर्मरोगों में लाभदायक है तथा त्वचा को मुलायम, साफ व चिकना रखता है। मूल्य : 8 रुपये। 11. हर्बल फेश पैक : कील, मुहाँसे, नीम पैक, रंगनिखार पैक, चंदन पैक, आरेंजपैक, लेमन पैक, रोज पैक आदि मुहाँसे, कील, दाग व चेहरा साफ कर रंग निखारते हैं। मूल्य : 10 रुपये। 12. हिना : इसके बालों में लगाने से बाल काले, सुन्दर घने होते हैं। बालों की रुसी तथा झड़ना कम होता है। मिश्रण : मेंहदी, आंवला, रीठा कृष्ण भृगराज, शीकाकाई, नागरमोथा, मजीठ आदि। वजन : 100 ग्राम, मूल्य : 15 रुपये। 13. मैथीचूर्ण : इसके खाने से डायबिटीज कन्ट्रोल होता है। मिश्रण : अंकुरित मैथी, काला नमक, मूल्य : 12 रुपये। 14. चर्मरोग की दवा : दाद, खाज, खजली, अपरस तथा किसी भी प्रकार के चर्मरोग के लिये लाभदायक हैं। मिश्रण : फिटकरी, सुहागा आदि। मूल्य : 15 रुपये। ___ भाग्योदय तीर्थ प्राकृतिक चिकित्सालय में सभी प्रकार की चिकित्सा सुविधा के साथ व्यक्तिगत उपयोग हेतु कटि स्नान, रीढ़ी स्नान टब, एनिमा पॉट सेट, रबर की थैलियाँ (गर्म, बर्फ) रबर नेति व कैथेटर, नेतिलोटा, आई वाश कप, भाप लेने का यंत्र, मिट्टी पट्टी के साँचे, सभी प्रकार की सूती, ऊनी लपेट, एक्यूप्रेशर के उपकरण, पुस्तकें, चार्ट आदि विक्रय के लिए उपलब्ध हैं। स्वास्थ्य लाभ हेतु अवश्य पधारें। खुरई रोड करीला, सागर-470002 (म.प्र.) फोन (07582)46271, 46671 स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, जोन-1, महाराणा प्रताप नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित।