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प्रवृत्ति नहीं थी। उस वक्त वैदिक मत में यज्ञ की जैसी प्रवृत्ति थी | स्तंभन, मारण, उच्चाटन आदि कर्म लिखे हैं, जिनमें साधक को मन्त्र उसे भी उन्होंने आध्यात्मिक रूपक में ढाल कर उस तरह के यज्ञ करने | का जाप्य करना पड़ता है और हवन भी करना पड़ता है। हवन अलगका आदेश दिया है।
अलग मन्त्रों में अलग-अलग पदार्थों का होता है। विद्यानुशासन में इसी तरह वैदिकों के यहाँ देवाराधना में जिस प्रकार यज्ञ, स्वाहा, | लिखा है कि - आहुति शब्द प्रयुक्त हुए हैं उसी प्रकार हमारे यहाँ जैनधर्म में भी ये कनेर के फूलों के हवन से स्त्रियों का वशीकरण होता है। सुपारी शब्द प्रयुक्त हुए हैं, किन्तु इनका अर्थ हमारे यहाँ वैदिकों से जुदा | के फल-पत्तों के होम से राजा लोग वश में होते हैं। घृत मिले आम्र है। जल गंध अक्षतादि अष्टद्रव्यों से भगवान् की पूजा करने को हमारे फलों के होम से विद्याधरी वश में होती है। घृत सहित तिलों के होम यहाँ यज्ञ कहा है।
से धनधान की वृद्धि होती है। इत्यादि' और लिखा है - होम से उस द्रव्यस्य शुद्धिमधिगम्य यथानुरूपं,
मंत्र का अधिष्ठाता देवता तृप्त होकर साधक के आधीन हो जाता भावस्य शुद्धिमधिकामधिगंतुकामः। आलंबनानि विविधान्यवलंब्य वल्गन्,
जपादविकलो मंत्र: स्वशक्ति लभते पराम्। भूतार्थयज्ञपुरुषस्य करोमि यज्ञम्।।
होमार्चनादिभिस्तस्य तृप्ता स्यादधिदेवता।।
- नित्यनियम पूजा अर्थ - अविकल जप करने से मंत्र में उत्कृष्ट शक्ति पैदा होती पूजन के वक्त इष्टदेव के आगे स्वाहा शब्द बोलकर हमारे यहाँ । है और हवनपूजादि से उस मंत्र का अधिष्ठाता देवता तृप्त हो जाता द्रव्य अर्पण किया जाता है और पूजा के अन्त में जो अर्घ दिया जाता है वह पूर्णाहुति कहलाती है। इस पूर्णाहुति शब्द का प्रयोग पं. आशाधर ये सब बातें मंत्रशास्त्रों से संबंध रखती हैं। इनका धार्मिक ने स्वरचित प्रतिष्ठापाठ में अनेक जगह किया है। इससे फलितार्थ | पूजापाठों के साथ कोई सरोकार नहीं। भगवान् पंचपरमेष्ठी की यही निकलता है कि जैनमत में भी यज्ञ करना बताया है परन्तु वह आराधनारूप मंत्रों में मंत्रों के अधिष्ठाता देव पंचपरमेष्ठी हैं, वे ब्राह्मणों की तरह अग्नि में आहुतियाँ देने रूप नहीं बताया है, किन्तु वीतरागी हैं। उनका होम से तृप्त होने का और साधक के आधीन होने पूज्य के आगे द्रव्य अर्पण करने रूप बताया है।
का कोई प्रश्न ही नहीं है। अतः धार्मिक अनुष्ठान में हवन की कोई यशस्तिलकचम्पू आश्चास 4 पृ.105 पर दिगम्बर धर्म पर ऐसे | आवश्यकता नहीं है। सोमदेव ने भी यशस्तिलकचंपू उत्तरखंड आक्षेप का उल्लेख किया है -
पृष्ठ-109 में 'षट्कर्मकार्यार्थ' इत्यादि श्लोक में स्तंभन, मोहन आदि न तर्पणं देवपितृद्विजाना,
षट्कर्म के कार्य में ही होम को माना है, धर्मकार्यों के लिये नहीं। इससे स्नानस्य होमस्य न चास्ति वार्ता।
यही सिद्ध होता है कि हवन का संबंध सिर्फ लौकिक मंत्र विद्या के श्रुतेः स्मृतेर्बाह्यतरे च धीस्ते
साथ है। हवन की क्या, मंत्र विद्या के साथ तो दिशा, काल, मुद्रा, धर्मे कथं पुत्र दिगंबराणाम्।
आसन, पल्लव, माला आदि अन्य भी कई बातों का विचार रखना अर्थ- जिस धर्म में देव-पितृ-द्विजों का तर्पण नहीं है, न स्नान पड़ता है। किसी-किसी मंत्रसाधना में तो घृणित वस्तुओं का उपयोग (जैन साधु स्नान नहीं करते) और न होम की जहाँ वार्ता है और जो | भी बताया है। इसके लिये देखिये 'भैरव पद्मावतीकल्प' नामक मंत्र श्रुति-स्मृति से अत्यंत बाह्य है ऐसे दिगम्बरों के धर्म में हे पुत्र, तेरी | ग्रन्थ। बुद्धि क्यों है?
उक्त स्तंभन, मोहन आदि षट्कर्मों के साथ शान्ति, पुष्टि इस आक्षेप से क्या यह सिद्ध नहीं होता है कि प्राचीन काल | मिलाने से 8 कर्म भी मंत्रशास्त्रों में माने गये हैं। इस शांतिकर्म के में दिगम्बर मत में कतई हवन की प्रथा नहीं थी? साधारण तौर पर | लिये भी दिशा, काल, मुद्रा आदि के नियम लिखे हैं। जैसे लिखा भी सोचा जाये कि किसी का पूजा सत्कार करने में जो चीजें उसे | है कि - मुख पश्चिम में रहे, समय अर्द्धरात्रि का हो, पद्मासन, ज्ञानमुद्रा, भेट में देनी हैं उन चीजों को उसे न देकर उसके आगे अग्नि में जलाकर स्फटिक की माला, स्वाहा पल्लव, आसन सफेद, मध्यमांगुली से उन्हें भस्म कर देना क्या कोई बुद्धिमानी है और ऐसा भी क्या कोई माला फेरना, अग्निकुण्ड चौकोर, होम की समिधा 9 अंगुल की हो। पूजा का तरीका है?
यह मांत्रिक, शांतिकर्म है। इस मान्त्रिक शांतिकर्म से जुदा एक धार्मिक वैदिक मत में 'अग्निमुखा वै देवाः' ऐसा श्रुति वाक्य है। | शान्तिकर्म भी होता है जिसमें पंचपरमेष्ठी सम्बन्धी मंडल पूजा जिसका अर्थ होता है 'देवगण अग्निमुख वाले होते हैं।' यानी जो चीजें | विधान, जाप्य, स्तुति, (सहस्रनाम स्तोत्र का पाठ) अभिषेकादि रूप
अग्नि में हवन की जाती हैं वे देवताओं को पहुँच जाती हैं। ऐसा | धार्मिक अनुष्ठान किया जाता है। इस धार्मिक शांतिकर्म में दिशा, सिद्धान्त वैदिक मत का है अतः वैदिक लोग इस सिद्धान्त के माफिक | काल, मुद्रा, आसन आदि नियमों का कोई प्रतिबन्ध नहीं है। न इसमें अग्नि में हवन करते हैं। किन्तु जैनों का तो ऐसा सिद्धान्त नहीं है, | होम करने की जरूरत है। भगवज्जिनसेन ने आदि पुराण में ऐसे ही फिर वे क्या समझ कर अग्नि में हवन करते हैं, जैनमत में तो देवों शांतिकर्म का उल्लेख किया है। जिस वक्त भरत चक्री को अशुभ को अमृतभोजी लिखा है उनको हमारे खाद्यपदार्थों से प्रयोजन ही क्या स्वप्न आये थे तो उनके दोष निवारणार्थ उन्होंने शांतिकर्म किया था। है? यही बात सोमदेव ने भी हवन का निराकरण करते हुए यशस्तिलक उसका कथन करते हुए आदिपुराण में लिखा है किउत्तरखंड पृ. 109 में इन शब्दों में लिखी है
शांतिक्रियामतश्चक्रे दुःस्वप्नानिष्टशांतये। _ 'सुधांधसः स्वर्गसुखोचितांगा:
जिनाभिषेकसत्पात्रदानाद्यैः पुण्यचेष्टितैः।। खादति किं वह्निगतं निलिम्पाः।'
अर्थ - जिनेन्द्र का अभिषेक, सत्पात्रों को दान इत्यादि अर्थ- स्वर्गीय सुखों में पलने वाले अमृतभोजी देवता क्या | पुण्यकार्यों से भरत ने दुःस्वप्नों और अरिष्ट (अशुभसूचक उत्पात) अग्नि में प्राप्त हुए खाद्य पदार्थों को खाते हैं? नहीं खाते हैं। की शान्ति के लिये शान्तिकर्म किया। लौकिक कार्यों के साधनार्थ मन्त्रशास्त्रों में वश्य, आकर्षण, | जो लोग शान्तिकर्म में हवन को मुख्य स्थान देते हैं। उन्हें
-नवम्बर 2001 जिनभाषित 13
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