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________________ आदिपुराण के इस कथन पर ध्यान देना चाहिए। अगर शांतिकर्म में | है कि - हवन एक मुख्य चीज होती तो आचार्य जिनसेन उसका नाम दिये । “तीनों प्रकार की अग्नियों में मन्त्रों के द्वारा पूजा करने वाला बिना नहीं रहते। उन्होंने तो पूजा, दान को प्रधानता दी है। अर्हद्भक्ति | द्विजोत्तम कहलाता है और जिसके घर इस प्रकार की पूजा नित्य होती और त्याग, यही तो जैनधर्म के प्राण हैं और सच्ची व स्थायी शांति | रहती है वह अग्निहोत्री कहलाता है। घर में बड़े यत्न के साथ इन भी इन्हीं से मिल सकती है। साथ ही बड़े-बड़े विघ्नों और उपद्रवों तीनों अग्नियों की रक्षा करनी चाहिये। जिनका कोई संस्कार नहीं हुआ के मिटाने का भी ये ही अमोघ उपाय है। पं. आशाधर जी ने भी अपने | है, ऐसे अन्य लोगों को कभी नहीं देनी चाहिये। ब्राह्मणों को व्यवहारनय प्रतिष्ठा पाठ में इसी प्रकार का शान्तिकर्म लिखा है। लिखते हैं | की अपेक्षा ही अग्नि की पूज्यता इष्ट है। इसलिये जैन ब्राह्मणों को कि - भी आज यह व्यवहारनय उपयोग में लाना चाहिये।" 'अष्ट दल के कमल के मण्डल में लघुशान्तिकर्म की विधि और | आदिपुराण के इन सब कथनों से साफ तौर पर यही प्रकट होता 81 कोठों के मण्डल में बृहत् शान्तिकर्म की विधि करनी चाहिए। है कि श्री जिनसेनाचार्य ने दो जगह हवन करना बताया है। एक तो ध्यान के माफिक ही उसका फल समझना चाहिए। विघ्नों की शान्ति | गर्भाधान-विवाह आदि लौकिक कार्यों में और दूसरे जैन ब्राह्मणत्व के के लिये दोनों शान्तिकर्म यथायोग्य, यथाविधि करने चाहिए।' इन दोनों | लिये। इनके सिवा जिनालय में मण्डल पूजा विधान आदि अन्य धार्मिक शान्तिकर्मों में उन्होंने सिर्फ पञ्चपरमेष्ठी व जयादि देवी-देवों की अनुष्ठानों में हवन किये जाने का अभिप्राय जिनसेन स्वामी का ज्ञात आराधना पूजा (जैसी कि उनकी आम्नाय थी) और भगवान् का नहीं होता है। और यह अग्निहवन भी गृहस्थ के घर पर ही होना चाहिये, अभिषेक करना बताया है। हवन करने का कथन नहीं किया है। सिद्धचक्र न कि जिन मन्दिर में। विवाह में तो आमतौर पर हवन घर पर होता मण्डल-विधान भी इसी तरह का शान्तिकर्म है। इसमें अनेक कवियों ही है और ब्राह्मणों के लिये स्वयं आचार्य श्री ने स्पष्टतया घर पर हवन की संस्कृत रचनाओं का संग्रह है। इसका संकलन भट्टारक शुभचन्द्र | करने को कहा ही है। अन्य गर्भाधानादि संस्कार भी लौकिक होने से ने किया है। इसमें कहीं भी हवन करने का नाम निशान नहीं है। तथापि उनका हवन भी घर पर ही होना योग्य है। रही मूर्ति प्रतिष्ठा और वेदी वर्तमान में हर अष्टाह्निका में जैन समाज में कई जगह इस पुस्तक प्रतिष्ठा में हवन की बात, सो लौकिक में नये घर में प्रवेश करते से सिद्धचक्र मण्डल विधान किया जाता है। उसमें हजारों की सामग्री समय हवन किया जाता है। उसी की देखा-देखी नूतन मंदिर में श्री अग्नि में फूंक दी जाती है। इसे हम उत्सूत्रप्रवृत्ति ही कह सकते हैं। जी को पधराते वक्त भी हवन की प्रथा चल पड़ी है, इससे इसकी यहाँ तक हमने इस लेख में शास्त्राधार से यह दिखाने का प्रयत्न गणना भी लौकिक विधान में ही जायेगी। इसे भी करना ही है तो संक्षिप्त किया है कि जैनधर्म में धार्मिक अनुष्ठान करने के लिये हवन करने रूप से कर लेना चाहिये। शान्तिमन्त्र का जितनी संख्या में जाप्य हुआ का कहीं कोई विधान नहीं है। अब हम आदिपुराण में उल्लखित हवन | है उसके दसवें हिस्से की आहुतियाँ देना ऐसा यहाँ कोई नियम नहीं पर विचार करते हैं - है। ऐसा नियम तो किसी मन्त्र विद्या के साधनों में कहा गया है। एक वक्त ऐसा गुजरा था कि हमारे इस देश में ब्राह्मण धर्म हवन यह जैन धर्म की मूल संस्कृति नहीं है। जैन धर्म की मूल का प्राबल्य था, तब हवन आदि क्रिया-कांडों का प्रचलन जोर-शोर | चीज है अन्तरंग में राग-द्वेषादि कषायों की विजय और बाह्य में पर था। उस वक्त जिनके हवनादि पूर्वक गर्भाधानादि संस्कार होते जीवदया का पालन। ये दोनों ही हवन में घटित नहीं होते हैं। हवन थे वे आर्य कहलाते थे और उच्च श्रेणी के माने जाते थे। ऐसी परिस्थिति से अग्निकायिक जीवों की विराधना होती है। दूर-दूर तक फैलने वाली में जैनधर्म की रक्षा और उसकी प्रतिष्ठा रखने के लिये हमारे आचार्य अग्नि की गरम-गरम धुएँ से वायुकाया आदि जीवों का विघात एवं जिनसेन को भी आधानादि संस्कारों और उनके सम्पादनार्थ हवनादि | मक्खी-मच्छर आदि उड़ने वाले छोटे-छोटे त्रस जीवों को बाधा आदि क्रिया-काण्डों की सृष्टि करनी पड़ी है। जिसका वर्णन आदिपुराण में तो प्रत्यक्ष ही दिखती है। साथ ही उसके काले धुएँ से मंदिर की सफेद लिखा मिलता है। उस वर्णन को गम्भीरता से अध्ययन करने पर ऐसा दीवारों के सुन्दर चित्रों, छत्र-चामरों और बहुमूल्य चन्दोवों की भी प्रतिभासित होने लगता है कि जब जिनसेन स्वामी को ऐसा नजर खासी मिट्टी पलीद हुये बिना नहीं रहती है। इससे कभी-कभी आग आया कि ब्राह्मण धर्म का असर जैनधर्म के मूल आचार-विचारों पर | लगने की भी संभावना रहती है। इस प्रकार हवन से सिवाय हानि तो नहीं पड़ रहा है। किन्तु जैनी लोग अपने पड़ौसी वैदिक मतवालों | के कोई लाभ नहीं दिखता है। अहिंसामय जैनधर्म में यह निरर्थक सावध की देखा-देखी विवाह, जातकर्म, शिलान्यास, नूतन गृह प्रवेश आदि | क्रिया कैसे पनप रही है? आज के जमाने में धृत, मेवा, मिष्टान्न फलादि लौकिक कार्यों को ब्राह्मण रीति से कराने लग गये हैं। यह भी चीज पदार्थ वैसे ही मँहगाई की पराकाष्ठा तक पहुँच कर जनसाधारण के जैनधर्म के लिये अवज्ञा की है। इसके लिए भी जैन जनता क्यों लिये अत्यन्त दुर्लभ हो गये हैं। उनको अग्नि में जला कर धर्म मानना परमुखापेक्षी रहे? और क्यों वैदिक मत का सम्पर्क करे? यही सब इससे बढ़कर अन्य क्या अज्ञानता हो सकती है? सिद्धचक्रादि विधानों सोचकर आचार्यश्री ने लौकिक क्रियाकाण्डों का जो प्रवाह चल पड़ा | में हजारों रुपयों की सामग्री जला कर खाक की जाती है। अगर ये था उसे रोकना मुश्किल समझ कर उसके विधिविधानों में वैदिक | ही रुपये दीन-अनाथों के भी काम में लगाये जायें तो कितना पुण्य आम्नाय के अनुसार देव, गुरु, अग्नि की साक्षी का उपयोग किया | हो। यह भी तो सोचना चाहिये कि अग्नि में घृतादि जलाने के साथ जा रहा था उनकी जगह उन्होंने जैन आम्नाय के अनुरूप देव, गुरु, | धर्म का सम्बन्ध कैसे है? अविचारपूर्ण क्रियाओं का कोई फल मिलने अग्नि के समक्ष में विधि विधान किये जाने की योजना चालू की। | वाला नहीं है। धर्म का असली तत्त्व छिपा जा रहा है और थोथे तदर्थ उन्होंने पीठिकादि हवन मन्त्रों, गार्हपत्यादि अग्नियों, तीर्थंकरादि क्रियाकाण्डों का जोर बढ़ता जा रहा है। विवेकी विद्वान मन में सब अग्निकुण्डों और गर्भाधानादि संस्कारों का प्रतिपादन किया है। साथ | कुछ जानते हुए भी अल्पज्ञ लोगों की रुख के विरुद्ध कदम उठाने ही इन कामों के कराने वाले ब्राह्मण भी चाहिये तो इसके लिये उन्होंने | का साहस नहीं कर रहे, यह बड़े ही परिताप का विषय है। जैन ब्राह्मण बनाने के उपाय भी बताये हैं। उन जैन ब्राह्मणों को खास 'जैन निबन्ध रत्नावली' तौर से हवनादि करने का आदेश देते हुए आदिपुराण पर्व 40 में लिखा | (प्रथमभाग) से साभार 14 नवम्बर 2001 जिनभाषित प्रतिभासित बाह्मण धर्म का ना लोग अपने पतन गृह प्रवेशाज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524257
Book TitleJinabhashita 2001 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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