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________________ पूर्वांक से आगे जैन संस्कृति और साहित्य के विकास में कर्नाटक का योगदान प्रो. (डॉ.) राजाराम जै बीसवीं सदी को भी कम सार्थक नहीं | विवेकी ने उसे एकाग्रमन से सुना, उसे संसार | किया है, यही कारण है कि उनके प्रवचन बड़े बनाया है कर्नाटक ने। पिछले कुछ सदियों से के क्षणिक सुखों की असारता का भान हो गया ही रोचक, तुलनात्मक एवं शोधपरक होते हुए दिगम्बर जैन मुनि-परम्परा अनेक अज्ञात और उसने तत्काल ही मुनि-मुद्रा धारण कर | भी सरल भाषा एवं शैली में होने के कारण दुखद कारणों से लगभग समाप्त प्राय थी, ली। सर्वभोग्य होते हैं। किन्तु धन्य हैं वे पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर चारित्र-चक्रवर्ती महामनीषी राष्ट्रसन्त जन-जागरण, नैतिक उत्थान के बिन जी महाराज, जिन्होंने अनेक प्रतिकूलताओं के आचार्य श्री विद्यानन्द जी सम्भवतः उसी सम्भव नहीं और इसके लिये अनेक उपायो मध्य भी श्रमणोचित आध्यात्मिक निर्भीकता वातावरण से ऊर्जस्वित होकर लगभग चार में से एक उपाय धर्मोत्सव, शलाका तथा कठोर दिगम्बर-चर्या का विधिवत् दशक पूर्व उत्तर-भारत में पधारे और उन्होंने महापुरुषों अथवा शलाकेतर महापुरुषों की पालन कर नये प्रेरक आदर्श प्रस्तुत किये। जिनवाणी के उद्धार तथा जैनधर्म के प्रचार- शताब्दी या सहस्राब्दी समारोह का आयोजन अनेक असामाजिक तत्त्वों द्वारा किये गये प्रसार के लिये जो कार्य किये, वे सभी बड़े विशेष महत्त्व रखता है। अतः आचार्य भीषण उपसर्गों को भी उन्होंने धैर्यपूर्वक सहा, ही अभूतपूर्व मौलिक, प्रभावक, प्रेरक एवं विद्यानन्द जी ने इस विषय में गम्भीर चिन्तन फिर भी, शास्त्रविहित मार्ग से वे कभी भी ऐतिहासिक हैं। स्थानीय समाजों तथा न्यास- किया, समय की नाड़ी टटोली और सामाजिक विचलित न हुए और दिगम्बर जैन साधुओं धारियों को प्रेरित कर गुणवत्ता के आधार पर समस्याओं को ध्यान में रखते हुए भगवान का एक संघ भी तैयार कर दिया, जो वर्तमान वरिष्ठ विद्वानों को नोबल पुरस्कार के समान महावीर का 2500वाँ परिनिर्वाण वर्ष समामें वृद्धिंगत है। षट्खण्डागम साहित्य के पुरस्कारों से सम्मानित कराने की परम्परा रोह, गोम्मटेश का सहस्राब्दि वर्ष समारोह प्रकाशन में आने वाली अनेक विघ्न बाधाओं उन्हीं ने प्रारम्भ करायी। इसी प्रकार विश्ववि- तथा उसके साथ ही महासेनापति वीरवर को उन्होंने दूर किया और आज उनकी कृपापूर्ण द्यालयों में प्राकृत एवं जैन-विद्या के विभागों श्रावक-शिरोमणि चामुण्डराय एवं उनके प्रतिदृष्टि से उक्त समग्र साहित्य प्रकाशित होकर | की स्थापना कराना, शौरसैनी-प्राकृत साहित्य ष्ठाचार्य गुरु आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त घर-घर में सुशोभित है। के प्रचार-प्रसार, उनके प्रामाणिक संस्करणों के चक्रवर्ती-सहस्राब्दि-समारोह, अ.भा. दि. शेडवाल एवं सदलगा ग्राम तो प्रकाशन तथा उच्चस्तरीय शोध कार्यों के जैन मुनि परिषद् का गठन, बाहुबलिकर्नाटक की अन्तरात्मा ही रहे हैं, जो दिगम्बर लिये कुन्दकुन्द भारती शोध संस्थान की कुम्भोज-क्षेत्र-विकासोत्सव, गोम्मटगिरि क्षेत्र मुनियों के जन्मदाता-केन्द्र बन गये। वहाँ के स्थापना, प्राकृतविद्या (त्रैमासिक शोध-पत्रिका) स्थापना-समारोह, शाकाहार, सदाचार एवं जैन समाज ने भारत को जो गुण-गरिष्ठ के प्रकाशन एवं संचालन की प्रेरणा, जैनविद्या श्रावकाचार समारोह, आचार्य कुन्दकुन्दआचार्यरत्न प्रदान किये, उनमें उक्त शान्ति- विषयक शोधार्थियों को शोधानुदानों के लिये सहस्राब्दि-वर्ष समारोह, जैन-विद्या का गौरव सागर जी के अतिरिक्त आचार्य श्री पायसागर समाज को प्रेरणा, जैन-विद्या एवं इतिहास ग्रन्थ 'कातन्त्र-व्याकरण' समारोह, शौरसेनी जी, देशभूषण जी, कुन्थुसागर जी, आचार्य विषयक दुर्लभ ग्रन्थों के प्रकाशन आदि के प्राकृत-साहित्य संसद की स्थापना, श्रुतपंविद्यानन्द जी, आचार्य विद्यासागर जी, लिये प्रेरणा देकर भारत की राजधानी दिल्ली चमी एवं प्राकृत भाषा दिवस समारोह, आचार्य वीरसागर जी. वर्धमानसागर जी | में जैनधर्म का उन्होंने अविस्मरणीय प्रचार- कलिंगाधिपति जैन सम्राट खारवेल-समारोह तथा बाहुबली सागर जी आदि-आदि प्रमुख प्रसार किया/कराया है। प्राकृतभाषा एवं आदि-आदि उसी परिप्रेक्ष्य में उन्हीं के जैनसाहित्य की सेवा के लिये समर्पित विद्वानों सान्निध्य में आयोजित किये गये। प्रतीत होता है कि आचार्य भद्रबाहु के को उनकी गुणवत्ता एवं वरिष्ठता के आधार इन आयोजनों से जैन-समाज की अमृतमय प्रवचनों को दक्षिण भारत के | पर राष्ट्रपति सम्मान पुरस्कार दिलाने हेतु प्रतिष्ठा बढ़ी है, देश-विदेश में जैन-विद्या का प्राकृतिक वातावरण ने पूर्णतया आत्मसात् उनकी बलवती प्रेरणाएँ भी अब साकार होने आशातीत प्रचार-प्रसार हुआ है, जैन इतिहास किया था। कृष्णा, कावेरी एवं गोदावरी के लगी हैं। के अनेक प्रच्छन्न तथ्यों को नया प्रकाश मिला अविरल प्रवाहों एवं उनके जल-प्रपातों में आचार्यश्री ने जैन धर्म के साथ-साथ है और विद्वानों में एक नई जिज्ञासा जाग्रत समाहित द्वादशांग-वाणी के मधुर स्वर, वहाँ यूनानी इतिहास, धर्म दर्शन तथा जैन एवं की वनस्पतियों, निर्झरों, पर्वतों एवं उद्यानों जैनेतर भारतीय धर्मों दर्शनों तथा पुरातत्त्व इस प्रकार अपनी दिगम्बर-मुनिचर्या में उनकी वाणी ऐसी समाहित है कि जिस इतिहास एवं संस्कृति का भी गहन अध्ययन | के प्रभाव, प्रेरणा, प्रवचनों तथा लेखन से - नवम्बर 2001 जिनभाषित 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524257
Book TitleJinabhashita 2001 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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