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________________ उन्होंने जैनधर्म एवं जैन-जागरण का अलख जगाया है और अपने ओजस्वी व्यक्तित्व से अतीतकालीन महामहिम आचार्यों के सारस्वत युग को स्मरण करने के लिये आज की पीढ़ी को ऊर्जस्वित एवं उत्तेजित होने के लिये बाध्य किया है। यही नहीं, आचार्य श्री रहस्यवादी कवि होने के साथ-साथ एक महान् दार्शनिक चिन्तक एवं निबन्धकार भी है। उनकी निबन्ध- शैली देखकर यह अनुभव होता है। कि हिन्दी निबन्धों के पूर्व निर्धारित मानकों - में भी उनकी शैली ने एक नया आयाम जोड़कर उस दिशा में भी एक नया वैशिष्ट्य प्रदान किया है। पूज्य आचार्य विद्यासागर जी ने दक्षिणापथ से विहार कर उत्तरापथ के उस अंचल में जागृति की लहर उत्पन्न की है, जो युगों-युगों से अथवा भद्रबाहुकाल से वह यद्यपि जैन धर्म का केन्द्र रहा था किन्तु कुछ अज्ञात विषम परिस्थितियों और विदेशीआक्रमणों के कारण, जहाँ की एकाग्रता भंग हो चुकी थी, वहाँ के निवासी यद्यपि श्रावकोचित आस्था, विश्वास, सरलता एवं जिनवाणी- प्रेम से सुसंस्कृत थे, फिर भी जनजागृतिहासमान थी। ऐसे समय में पूज्य आचार्यश्री ने अपने दिगम्बर सम्मत कठोर आचार एवं प्रवचनों की अमृत स्रोतस्विनी प्रवाहित कर उस भूमि- बुन्देलखण्ड एवं बघेलखण्ड के प्रक्षेत्रों में जैनधर्म की प्रभावना कर सर्वजनहिताय सर्वजनसुखाय विविध विकासात्मक योजनाओं को साकार करने की प्रेरणाएँ देकर अनेक ऐतिहासिक कार्य किये हैं। · श्रवणबेलगोल की पुण्यधरा के प्रतिष्ठाता पूर्व भट्टारकों का इतिहास तो हमें ज्ञात नहीं, किन्तु वर्तमान कालीन कर्मयोगी पूज्य भट्टारक चारुकीर्ति जी के विषय में हमें कुछ जानकारी है क्योंकि उसकी प्रवर समिति ने उन्हीं के द्वारा संस्थापित 'प्राकृत ज्ञान भारती एजुकेशन ट्रस्ट' की ओर से आयोजित 'फर्स्ट नेशनल प्राकृत कान्फ्रेंस के बैंगलोर अभिवेशन (दिसम्बर 1990 ) में वरिष्ठ 10 विद्वानों के साथ मुझे भी पुरस्कृत किया था। उस समय उनके साथ की बैठकों में कुछ विचार-विमर्श करने का सुअवसर भी मिला था। उस समय हमने यह अनुभव किया था कि कन्नड़, हिन्दी एवं अंग्रेजी पर समाना 16 नवम्बर 2001 जिनभाषित Jain Education International धिकार रखने वाले वे (भट्टारकजी) जैनविद्या के प्रचार-प्रसार के लिये कितने चिन्तित हैं। यही नहीं, अपने स्तर से जैन समाज की नवीन पीढ़ी के भविष्य निर्माण के लिये भी वे उतने ही चिन्तित हैं, जितने कि राष्ट्र की समस्याओं के समाधान के प्रति इसके लिये उन्होंने अनेक योजनाओं पर तहेदिल से विचार किया है तथा उनमें से अनेक को साकार भी कर दिखाया है। पूज्य भट्टारक जी के सामाजिक एवं राष्ट्रीय विचारों से प्रभावित होकर ही भारत की तत्कालीन लोकप्रिय प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने 'कर्मयोगी' की उपाधि से विभूषित कर उन्हें सार्वजनिक सम्मान प्रदान किया था। आरा नगर (बिहार) से भी कर्नाटक का घना सम्बन्ध रहा है। इस प्रसंग में मैं प्रातः स्मरणीय ब्रह्म नेमिसागर जी वर्णों तथा श्री स्व. पं. के. भुजबली शास्त्री का सादर स्मरण करता हूँ। क्योंकि पूज्य वर्णी जी ने सन् 1903 में आरा (बिहार) के जैन सिद्धान्त भवन का शिलान्यास कर कुछ समय वहाँ व्यतीत किया था तथा श्री पं. के. भुजबली जी ने वहाँ के ग्रन्थालयाध्यक्ष के पद को स्वीकार कर वहाँ सुरक्षित सहस्रों की संख्या में ताड़पत्रीय पाण्डुलिपियों की सुरक्षाव्यवस्था एवं उनका मूल्यांकन किया था, साथ ही उनकी विवरणात्मक ग्रन्थ सूची भी तैयार कर उनमें छिपे हुए भारतीय सांस्कृतिक वैभव से प्राच्य विद्या जगत को सुपरिचित कराया था। भवन से प्रकाशित जैन सिद्धान्त भास्कर एवं जैन एण्टिक्वेरी का भी उन्होंने दीर्घकाल तक सम्पादन किया और उस माध्यम से जैन संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं कन्नड़ साहित्य के अनेक मौलिक तथ्यों को प्रकाशित कर प्राच्यविद्या जगत को विचारोत्तेजित किया था। a इस प्रसंग में मुझे यह कहते हुए प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है कि जैन सिद्धान्त भवन के संस्थापक श्री बाबू देवकुमार जी जैन ने वर्णी जी की प्रेरणा से ही सहस्रों पाण्डुलिपियों तथा सहस्रों की संख्या में प्रकाशित सन्दर्भ ग्रन्थों का संग्रह कर उसे भारत का श्रेण्यकोटि का ऐसा ग्रन्थागार बनाया कि जिसने महात्मा गाँधी, पं. मालवीय, पं. नेहरू, डॉ. हरमन याकोबी For Private & Personal Use Only आदि को भी आकर्षित किया था। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन, डॉ. के. पी. जायसवाल, डॉ. आर. डी. बनर्जी की तो यहाँ अक्सर बैठकें होती रहती थीं तथा उनकी नई-नई साहित्यिक योजनाएँ यहीं बैठकर बनती थीं। खारवेल - शिलालेख की खोज की योजना जैन सिद्धान्त भवन, आरा में बैठकर ही बनी थी। श्रद्धेय भट्टारक जी के दिगम्बर जैन मठ का सामान्य जनहित में लोककल्याणकारी अनेक रचनात्मक कार्यों के कारण विशेष महत्त्व तो है ही, उन सबसे भी अधिक महत्त्व इस तथ्य में है कि दिगम्बरों के मूल आगम साहित्य - षट्खण्डागम की प्राचीनतम दुर्लभ ताड़पत्रीय पाण्डुलिपियों की सुरक्षा का प्रथम श्रेय इसी मठ को है। बाद में सम्भवतः कुछ कारण- विशेष से उन्हें मूडबिद्री के शास्त्रभण्डार में स्थापित प्रतिष्ठापित कर दिया गया। यदि इन भट्टारक- पीठों ने प्राणपण से उनकी सुरक्षा न की होती तो देश-विदेश के आक्रान्ताओं ने उनकी क्या दुर्गति की होती, उसका विचार करने मात्र से ही रोंगटे खड़े होने लगते हैं और चेहरा भात विकृति धारण करने लगता है। इन पाण्डुलिपियों के प्रतिलिपि एवं नागरीकरण सम्बन्धी कार्यों में पं. गजपति उपाध्याय, विदुषी पण्डिता लक्ष्मीबाई, पं. सीताराम शास्त्री एवं पं. लोकनाथ शास्त्री को लगातार लगभग 1520 वर्षों तक किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा होगा, उनका अनुभव भुक्तभोगी ही कर सकता है। उसके बाद उनके सम्पादन, अनुवाद एवं प्रकाशन में भी लगभग 50 वर्ष लग गये। तब कहीं हम लोग अपने उन आगम ग्रन्थों का दर्शन कर सके हैं। उनके महामहिम सम्पादकों प्रो. डॉ. हीरालाल जैन, प्रो. डॉ. ए. एन. उपाध्ये, पं. देवकीनन्दन जी शास्त्री, पं. हीरालाल जी सिद्धान्त शास्त्री, पं. फूलचन्द्र जी शास्त्री, पं. कैलाशचन्द्र जी शास्त्री एवं पं. लालबहादुर जी शास्त्री के लिये भी विनम्र प्रणाम है जिन्होंने लगभग 19000 पृष्ठों में समाहित इन आगम-ग्रन्थों के सम्पादनादि में अपनी युवावस्था की समस्त ऊर्जाशक्ति को समर्पित कर दिया। उनके इस अथक परिश्रम ने भारतीय प्राच्यविद्या एवं जैन समाज के गौरव को बढ़ाया है। महाजन टोली नं. 1, आरा- 802301 (बिहार) www.jainelibrary.org
SR No.524257
Book TitleJinabhashita 2001 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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