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________________ जैसा नाम वैसा काम है मुनि श्री सुधासागर का डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन 'भारती हमारा देश संतपरम्परा और संतों के विचारों-कार्यों से सदैव । मुनि श्री सुधासागर जी के प्रिय विषय हैं - तीर्थ जीर्णोद्धार, सम्पोषित होता रहा है। संत यहाँ लेते कम और देते अधिक हैं। उनकी तीर्थ सृजन, सत्साहित्य का अध्ययन और प्रकाशन, आत्मविद्या से सन्निधि ही नवस्फूर्ति, नवचेतना और नयी ऊर्जा प्रदान करती है। संतों | संपृक्त शिक्षा और शिक्षालयों का विकास, अनुसंधान और को चलते-फिरते तीर्थों की उपमा दी जाती है जिसे निरर्थक नहीं कहा | विद्वद्-गुणानुराग, जीव रक्षा और निःशक्त जनों को संबल देना। उनके जा सकता, क्योंकि वे जहाँ जाते है वहाँ तीर्थों जैसा माहौल पैदा हो | लिए अपने आवश्यक ध्यान और अध्ययन अनिवार्य हैं, अपरिहार्य जाता है और तीर्थदर्शन की प्रेरणा, वैराग्य के भाव भी जाग्रत होते | हैं। विरासत का संरक्षण और संरक्षित को आधुनिक सीढ़ी से जोड़ना हैं। वे परमोपकारी हैं, क्योंकि निस्वार्थभाव से भूले भटके जनों को | उनका अभीष्ट है। देवगढ़ तीर्थ क्षेत्र का जीर्णोद्धार, अशोक नगर में सन्मार्ग से जोड़ते हैं। बीसवीं शती में आचार्य श्री शान्तिसागर जी | | त्रिकाल चौबीसी का निर्माण, सांगानेर के संघीजी मंदिर का जीर्णोद्धार महाराज की परम्परा में आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के रूप एवं समुन्नयन, श्रमण संस्कृति संस्थान (सांगानेर) की स्थापना, में विद्वान संत का अभ्युदय समाज पर महान उपकार सिद्ध हुआ रैवासा के जैनमंदिर को भव्यरूप प्रदान कर भव्योदय तीर्थ के रूप जिनकी जयोदय, वीरोदय महाकाव्य जैसी कृतियाँ तो पूज्यता को में विकास, ज्ञानोदय तीर्थ-नारेली के रूप में राजस्थान की मरुभूमि प्राप्त हुई ही, उनकी जीवन्त कृति आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज | में नवतीर्थ का अवदान, शताधिक गोशालाओं की स्थापना, विकलांगों ने तो मानो साधुता को मूर्तिमान ही कर दिया। वे आज के आदर्श | को कृत्रिम अंग प्रदान कर सीकर जिले को विकलांगमुक्त करवाना, संत हैं, परमप्रिय हैं और संतत्व को जीते हैं। उन्हीं प.पू. आचार्य तीन सौ से अधिक शोध - खोजपूर्ण साहित्यिक कृतियों का प्रकाशन, श्री विद्यासागर जी की मूल्यवान कृति हैं मुनिश्री सुधासागर जी महाराज, विद्वत्संगोष्ठियाँ आदि कार्य उनके प्रेरणा से सहज सम्पन्न हुए हैं। वे जिनके पास विचार-सुधा का अमित भण्डार है, जिनके पास मानव- बिना समाज की प्रार्थना के स्वयं आगे होकर कोई कार्य नहीं करते, हित-साधक प्रेरणायें हैं, जिनके पास कर्तृत्व का अविरल प्रवाह है न करवाते हैं, किन्तु यदि कोई व्यक्ति या समाज कुछ अच्छा करना जिनके स्पर्श से कुछ न कुछ या कहें सब कुछ पावन हो जाता है। चाहता हो तो उसे आशीर्वाद भी भरपूर देते हैं। इतना आशीर्वाद देते उनके दादागुरु की दो प्रेरणायें उनमें सहज ही दृष्टिगोचर होती हैं। | हैं कि फिर भक्त को किसी बात की जीवन में कमी नहीं होती, उसके 1. वे रोटी के स्वार्थ के अभिशप्त नहीं, मनुष्यता के परमार्थ से | यश में वृद्धि होती है। आखिर हो भी क्यों न, संत की सन्निधि प्राप्त आपूरित हैं। 2. आत्महित के अनुकूल आचरण को मनुष्यता मानते | करके वह संत सौरभ की सुगन्ध से वंचित कैसे रह सकता है? वे हैं। आज का परिदृश्य भले ही ऐसा है कि - ऐसे दिगम्बर साधु हैं जो स्वयं परीक्षार्थी हैं और स्वयं परीक्षक हैं। स्वरोटिकां मोटयितुं हि शिक्षतेजनोऽखिल: सम्बलयेऽधुना क्षितेः। वे निर्भय रहते हैं क्योंकि उनमें भय नहीं है। उनमें भय भी इसलिये न कश्चनाप्यन्यविचारतन्मना नृलोकमेषा ग्रहते हि पूतना।। नहीं है क्योंकि वे सब जीवों को अभय प्रदान करते हैं। जो लोग उनके (वीरोदय महाकाव्य 9/9) विरोधी हैं, दरअसल उन्हें विकास कार्यों से डर लगता है, क्योंकि अर्थात् आज भूतल पर सभी लोग अपनी-अपनी रोटी को मोटी | वे पुरानी पीढ़ी के द्वारा प्रदत्त विरासत को भोगना तो चाहते हैं, किन्तु बनाने में लगे हुए हैं। कोई भी किसी अन्य की भलाई का विचार नहीं नयी पीढ़ी को कोई विरासत सौंपना नहीं चाहते। ऐसे लोगों को उनका कर रहा है। आज तो यह स्वार्थ परायणता रूपी पूतना (राक्षसी) सारे आशीर्वाद पहले है - सद्धर्मवृद्धिरस्तु। यदि उनमें सद्धर्म का विकास मनुष्य लोक को ही ग्रस रही है। इस परिदृश्य में भी अविचल भाव नहीं हुआ, तो उनका उत्थान कैसे होगा? से जो संत आत्मभाव की आभा से मंडित हैं और जिसे आराम का परमपूज्य मुनिपुंगव श्री सुधासागर जी महाराज आतंकवाद के अर्थ आ+राम = राम (परमात्म) सहित है, का नाम सुधासागर है दौर में आतंकित नहीं होते। उनकी चर्या आतंकित नहीं करती, अपितु जो मानते हैं कि - श्रद्धालु बनाती है। उनकी सब चर्या अमृत-तत्त्व से आपूरित है, मनुष्यता ह्यात्महितानुवृत्तिर्न केवलं स्वस्यसुखे प्रवृत्तिः। इसलिये वे सुधीजनों के लिए सुधासागर के रूप में पूज्य है। उनमें आत्मा यथा स्वस्य हिता परस्य विश्वैक संवादविधिर्नरस्य।।। 'दिनकर' की ये पंक्तियाँ प्रतिभासित होती हैं (वीरोदय महाकाव्य 17/6) कौन बड़ाई चढ़े शृंग पर अपना एक भार लेकर? अर्थात् आत्महित के अनुकूल आचरण का नाम ही मनुष्यता कौन बड़ाई पार गए जो अपनी एक तरी खेकर? है, केवल अपने सुख में प्रवृत्ति का नाम मनुष्यता नहीं है, अतः सुधा गरल वाली यह धरती उसको शीश झुकाती है, विश्वभर के प्राणियों के लिए हितकारक प्रवृत्ति करना ही मनुष्य का खुद भी चढ़े, साथ ले चलकर गिरतों को बाँहे देकर।। धर्म है। एल-65, न्यू इंदिरा नगर ए, बुरहानपुर (म.प्र.) 450331 नवम्बर 2001 जिनभाषित 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524257
Book TitleJinabhashita 2001 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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