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________________ जैनधर्म और हवन स्व. पं. मिलापचन्द्र जी कटारिया धर्म के दो भेद हैं- मुनि धर्म और श्रावक के गुरु क्षीरकदंब भी अजैन ब्राह्मण ही थे। धर्म। हवन करना यह श्रावकों की क्रिया है, विद्वान् लेखक का प्रस्तुत शोधपूर्ण पद्मपुराण और हरिवंशपुराण में लिखा है कि वे मनियों की नहीं। परन्त श्रावकाचार ग्रन्थों- [आलेख विचारणीय है। यह 201 शिष्यों को आरण्यक ग्रन्थ पढाते थे। आरण्यक रत्नकरण्ड श्रावकाचार, पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, | नवम्बर 1964 के 'जैन सन्देश | यह वैदिकमत का ग्रन्थ है। हाँ, यह हो सकता चारित्रसार, वसुनन्दि श्रावकाचार, अमितगति | शोधांक' में प्रकाशित हो चका है। है कि जैन दीक्षा लेकर क्षीरकदंब जैन हो गये श्रावकाचार आदि में यहाँ तक कि पं. आशाधर 'हों। महाभारत शान्तिपर्व मोक्षाधिकार अ. 334 के सागारधर्मामृत में भी श्रावकों के लिए हवन करने का विधान कहीं । में बताया है कि - नहीं बताया गया है। इन ग्रन्थों में पूजा के प्रकरण में भी हवन का 'एक बार ऋषियों और देवताओं के बीच अज शब्द पर विवाद कोई उल्लेख नहीं है। अगर हवन करना श्रावक का धर्म होता या चला। ऋषियों का पक्ष था धान्य से यज्ञ करने का और देवों का पक्ष जिनपूजाविधि का कोई अंग विशेष होता तो उसका कथन श्रावकाचार था पशु बलि से यज्ञ करने का। राजा बसु से निर्णय माँगा गया, उसने के ग्रन्थों में अवश्य आता। पक्षपात से अज का अर्थ बकरा बताया जिससे पशुबलि की प्रथा ___किसी लौकिक कार्य की सिद्धि के लिये कोई मन्त्रविद्या साधी | चली। ऋषिशाप से वसु नरक गया।' जाती है, उसमें भिन्न-भिन्न विद्याओं के लिए भिन्न-भिन्न पदार्थों का । शान्तिपर्व 269 श्लोक 25, 26 तथा पर्व 271 श्लोक 1हवन करना मन्त्र शास्त्रों में बताया है, परन्तु धार्मिक अनुष्ठान में जपे | 13 में बताया है कि 'यज्ञों में प्रारंभ में हिंसा नहीं होती थी। क्योंकि जाने वाले मन्त्रों के साथ हवन का कोई नियम नहीं है। ज्ञानार्णव में | मनु ने अहिंसा को ही परमधर्म कहा है। सच्चा ब्राह्मण तो वह यज्ञ बहुत से उत्तमोत्तम मन्त्रों के जाप्य करने का वर्णन है, परन्तु वहाँ उनकी | करता है जिसमें किसी भी प्राणी की हिंसा न हो।' आहुतियाँ देने का कोई कथन नहीं है। शास्त्रों में पदस्थध्यान के वर्णन इससे भी यही सिद्ध होता है कि 'अजैर्यष्टव्यं' का विवाद वैदिकों में परमेष्ठीवाचक मन्त्रों का जाप्य तो बताया है पर उन मन्त्रों से हवन | में ही आपस का था। करना नहीं बताया है। जप-तप ध्यान से तो बड़ी-बड़ी सिद्धियाँ होती ब्राह्मण मत में अग्नि को देवताओं का मुख माना है इसलिये हैं इसलिये जैन शास्त्रों में जहाँ तहाँ इनकी तो बहुत महिमा लिखी उनके यहाँ अग्नि में डाली वस्तु देवताओं को मिल जाती है। इसी है, हवन की नहीं। श्री समन्तभद्राचार्य ने भी 'दयादमत्यागमसमा- माफिक उत्तर-पुराण पर्व 67 श्लोक 329 से 331 में कहा है कि धिनिष्ठ' इत्यादि कारिका में जैन मत को अद्वितीयमत इसी कारण 'तीन वर्ष के पुराने धान्य की बनी वस्तुओं से अग्निरूप मुख में देवता से बताया है कि उसमें दया, इन्द्रियसंयम, त्याग और ध्यान की की पूजा करना- आहुति देना यज्ञ कहलाता है। ऐसा अर्थ 'अजै.तव्यं' मुख्यता है। का नारद ने करके पर्वत को सुनाया था। इससे भी त्रिवर्षे धान्य से बहुत पुराने जमाने में घृत, मेवा, मिष्टान्न से हवन नहीं किया | हवन करने का विधान वैदिक मत का ही जाहिर होता है। क्योंकि अग्नि जाता था, क्योंकि ये मानव के पौष्टिक खाद्य हैं, किन्तु उस धान्य | को देवों का मुख मानना, ऐसा जैनों का मत नहीं है। इस प्रकार जैनधर्म से हवन किया जाता था जो तीन वर्ष का पुराना हो जाने से न तो में तो तीन वर्ष के पुराने धान्य से भी हवन करने का विधान नहीं वह मानव के काम का रहता था और न कृषि के योग्य, क्योंकि खेत | है। में बोने से वह उग नहीं सकता था। ऐसे निकम्मे, फालतू धान्य को पद्मपुराण पर्व 11 श्लोक 248 में कहा है कि "ज्ञानाग्नि, इस काम में लिया जाता था। उस वक्त की वह रस्म भी वैदिकमत | दर्शनाग्नि और जठराग्नि ये तीन अग्नियाँ इस शरीर में ही हैं। विद्वानों की थी, न कि जैनमत की। क्योंकि 'अजैर्यष्टव्यं' इस वाक्य को लेकर | को उन्हीं में दक्षिणाग्नि आदि तीनों अग्नियों का संकल्प करना चाहिए।" नारद और पर्वत के बीच जो विवाद हुआ था उसमें नारद कहता था इस कथन से सिद्ध होता है कि रविषेण के वक्त तक जैनधर्म में कि तीन वर्ष के पुराने धान्य जो बोने पर उगे नहीं वे अज कहलाते | दक्षिणाग्नि, गार्हपत्य और आहवनीय इन तीन अग्नियों की कल्पना हैं, उन अजों से हवन करना ऐसी वैदिकमत की मान्यता है। इसके | तीर्थकर-गणधर-सामान्य केवलियों के दग्ध शरीरों की अग्नियों में नहीं विरुद्ध पर्वत का कहना था कि अज कहिये बकरों से हवन करना ऐसी | हुई थी। मान्यता वैदिकमत की है। यहाँ दोनों ही ने वैदिकमत की मान्यता पर पद्मपुराण के इसी 11वें पर्व के श्लोक 241 से 244 में कहा विवाद किया था। जैनमत का तो यहाँ कोई प्रसंग ही नहीं है। जैनधर्म है- "प्रथम तो यज्ञ की कल्पना ही निरर्थक है। दूसरे यदि कल्पना करनी तो दयाप्रधान धर्म है, ऐसा आबाल-गोपाल प्रसिद्ध है, तब उसमें ही है तो विद्वानों को हिंसायज्ञ की कल्पना नहीं करनी चाहिए। उन्हें बकरों से होम करने की बात कोई कहेगा ही क्यों और उसकी यह | धर्मयज्ञ ही करना चाहिए। वह इस तरह की आत्मा यजमान है, शरीर बात चलेगी भी कैसे? इसके लिये राजा बसु की साक्षी की भी कोई | वेदी है, सन्तोष साकल्य है, त्याग होम है, मस्तक के केश कुशा जरूरत नहीं थी। हैं, प्राणियों की रक्षा दक्षिणा है, शुक्लध्यान प्राणायाम है, सिद्धिपद तीन वर्ष के पुराने धान्य से हवन करने की रीति जैनमत की | की प्राप्ति फल है, सत्य बोलना स्तम्भ है, तप अग्नि है, चंचलमन होती तो आचार्य जिनसेन स्वामी आदिपुराण में गर्भाधानादि संस्कारों | पशु है और इन्द्रियाँ समिधायें हैं। यही धर्मयज्ञ कहलाता है।' म हवन के लिए तीन वर्ष का पुराना धान्य बताते। इसलिये पर्वत | पद्मपुराण के इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि रविषेण के और नारद दोनों ही का विवाद वैदिकमत की मान्यता पर ही था। दोनों | वक्त तक भी जैनधर्म में अग्नि में आहुतियाँ देने रूप यज्ञ की कोई 12 नवम्बर 2001 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524257
Book TitleJinabhashita 2001 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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