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जीविकोपार्जन का मन बनाया। कहीं बाहर जाने की समस्या आई, तो सभी ने उन्हें पूना जाने की सलाह दी। पूना में उनकी ननिहाल थी। जब वे अपने बैग में आवश्यक वस्त्रादि लेकर प्रस्थान करने लगे, उस समय का दृश्य बड़ा ही हृदय विदारक हो गया। माँ-बेटे दोनों ही रुदन करने लगे। उनके कण्ठ इतने हिलहिला उठे कि दोनों की बोलती ही बंद हो गयी। माँ चाहती थी कि बेटा घर से बाहर न जाये, किन्तु उसे रोकना क्या उसके लिये सम्भव था ? माँ ने ललाट पर रोरी का तिलक लगाया, उस पर अक्षत चिपकाये, जेब खर्च दिया, रोते-रोते अनेक प्रकार के आदेशउपदेश दिये नाश्ते का बैग पकड़ाया और मुँह छिपाकर फफक-फफक कर रुदन करने लगी। उस समय का कारुणिक दृश्य कैसा रहा होगा ? भुक्तभोगी ही इसका अनुभव कर सकता है।
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नौकरी खोजने में उनके मामा ने बड़ा प्रयत्न किया। संयोग से उन्हें वहाँ की आर्डिनेंस फैक्टरी (आयुधशाला) में 47-1/2 रुपये मासिक की नौकरी मिल गई और वहाँ के नियमों के अनुसार गले में परिचय पट्टिका डालकर कार्यव्यस्त हो गये। अंग्रेज अफसर 'शाबाश सुरिन्दर, शाबाश
सुरिन्दर टुम अच्छा काम करता हटा' कहकर उसकी बहुत प्रशंसा करने लगे। माँ को जब यह समाचार मिला, तो वह इतनी प्रमुदित हुई कि मानों उसके लिये बड़ा भारी राज्य मिल गया हो।
माता की मनोकामना थी कि वह शीघ्र ही आयुधशाला का बड़ा अफसर बने, किन्तु सुरेन्द्र तो स्वतन्त्र विचारों का युवक था। भविष्य के गर्भ में कुछ और ही था ।
एक दिन ऐसा आया कि उसने दिगम्बर दीक्षा धारण कर ली और निर्मम होकर घरबार सबको बिलखता हुआ छोड़कर तपोवन की ओर चल दिया।
किन्तु इस पुण्य - प्रसंग पर विवेकशील माता सरस्वती अम्मा रोई नहीं । उसने गहन विचार किया, धैर्य धारण किया और अपने प्रिय
'को आशीर्वाद दिया 'बेटे, तुम जहाँ भी रहो, सदैव हँसते रहो, विहँसते रहो, प्रसन्न रहो, अपने संकल्प को पूरा करो, धवल यश के भागी बनो। मेरा वात्सल्य भरा यही आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ रहेगा।'
बहुत उथली हो रही हैं सोच की गहराइयाँ आदमी को खा रही हैं आज फिर परछाइयाँ ।
26 नवम्बर 2001 जिनभाषित
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सोच ने जिस आदमी को शब्द देकर दी कथाएँ सोच अब उस आदमी को हाशिये पर ला रही हैं। हाशिये की एक दुनिया एक जंगल को समेटे इस तरफ से, उस तरफ से, हर तरफ से आ रही है। दूर तक घिरने लगी हैं आज फिर वीरानियाँ ॥
धन्य है यह कर्नाटक की पुण्य भूमि और उस पर जन्म लेने वाली वह प्रातः स्मरणीया माता, जिसने शुभ-मुहूर्त में ऐसे पुत्ररत्न को जन्म दिया। उस माता को
बहुत उथली हो रही हैं सोच की गहराइयाँ
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आदमी की सोच देखो हाथ में बारूद लेकर अब मकानों की छतों से, खिड़कियों से झाँकती है।
अनेकशः प्रणाम, जिसने अपने पुत्र को पावन-संस्कार दिये। आज यह उसी का सुफल है कि उसका वही बेटा महामनीषी राष्ट्र सन्त आचार्य विद्यानन्द के नाम से सर्वत्र विख्यात है।
इस प्रकार प्रस्तुत निबंध में मैंने कर्नाटक की कुछ जैन यशस्विनी सन्नारियों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया। जैन संस्कृति एवं इतिहास के क्षेत्र में उनके बहुआयामी संरचनात्मक योगदानों के कारण उन्होंने जैन समाज को जो गौरव प्रदान किया, वह पिछले लगभग 1300 वर्षों के इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय है, जिसे कभी भी विस्मृत नहीं किया जा सकेगा। आवश्यकता इस बात की है कि यदि कोई स्वाध्यायशीला विदुषी प्राध्यापिका इस धैर्यसाध्य क्षेत्र में विश्व विद्यालय स्तर का विस्तृत शोध कार्य करे, तो मध्यकालीन जैन महिलाओं के अनेक प्रच्छन्न ऐतिहासिक कार्यों को तो प्रकाश-दान मिलेगा ही, भावी पीढ़ी को भी अपने जीवन को सार्थक बनाने हेतु नई-नई प्रेरणाएँ मिल सकेंगी।
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महाजन टोली नं. 1, आरा- 802301 (बिहार)
अशोक शर्मा
घुट रही हैं फिर हवाएँ उठ रहा काला धुंआ समझदारी एक वृद्धा बीमार सी, फिर खाँसती है पीतवर्णी हो रही हैं अब तरुण- अरुणाइयाँ ॥
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सोच ने इस आदमी को क्यों तराशा सोचता हूँ आदमी का डर समेटे आदमी डरने लगे हैं इस जगह से उस जगह तक फैलकर नंगे कथानक आज गँदला हर नदी के नीर को करने लगे हैं ढूँढी अमराइयों को आज फिर अमराइयाँ ||
अभ्युदय निवास, 36-बी, मैत्री विहार, सुपेला, भिलाई (दुर्ग) छत्तीसगढ़
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