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दीपावली
कार्तिक कृष्णा अमावस्या के सुप्रभात में पावापुरी के उद्यान से भगवान् महावीर प्रभु ईस्वी सन् 527 वर्ष पूर्व संपूर्ण कर्म शत्रुओं को जीतकर अनन्त ज्ञान, अनन्त आनंद, अनंत शक्ति आदि अनन्त गुणों को प्राप्त कर मुक्ति धाम को पहुँचे थे। उस आध्यात्मिक स्वतंत्रता की स्मृति में प्रदीप पंक्तियों के प्रकाश द्वारा जगत् भगवान महावीर प्रभु के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करता हुआ अपनी आत्मा को निर्वाणोन्मुख बनाने का प्रयत्न करता है हरिवंश पुराण से विदित होता है, कि भगवान महावीर ने सर्वज्ञता की उपलब्धि के पश्चात् भव्यवृन्द को तत्त्वोपदेश दे पावानगरी के मनोहर नामक उद्यानयुक्त वन में पधारकर स्वाति नक्षत्र के उदित होने पर कार्तिक कृष्णा के सुप्रभात की संध्या के समय अघातिया कर्मों का नाशकर निर्वाण प्राप्त किया। उस समय दिव्यात्माओं ने प्रभु की और उनके देह की पूजा की।
उस समय अत्यंत दीप्तिमान जलती हुई प्रदीप पंक्ति के प्रकाश से आकाश तक को प्रकाशित करती हुई पावा नगरी शोभित हुई। सम्राट श्रेणिक (विम्बसार) आदि नरेन्द्रों ने अपनी प्रजा के साथ महान् उत्सव मनाया था। तब से प्रतिवर्ष लोग भगवान् महावीर जिनेन्द्र के निर्वाण की अत्यंत आदर तथा श्रद्धापूर्वक पूजा करते हैं।
आज भी दीपावली का मंगलमय दिवस भगवान् महावीर के निर्वाण की स्मृति को जागृत करता है। समग्र भारत में दीप मालिका की मान्यता भगवान् महावीर के व्यक्तित्व के प्रति राष्ट्र के समादर के परंपरागत भाव को स्पष्ट बताती है।
इतिहास का उज्ज्वल आलोक दीपावली का सम्बन्ध भगवान् महावीर के निर्वाण से स्पष्टतया बताता है। दीपावली का मंगलमय पर्व आत्मीय स्वाधीनता का दिवस है। उस दिन संध्या के समय भगवान् के प्रमुख शिष्य गौतम गणधर को कैवल्य लक्ष्मी की प्राप्ति हुई थी। इससे दिव्यात्माओं के साथ मानवों ने केवल ज्ञान- लक्ष्मी की पूजा की थी इस तत्त्व को न जानने वाले रुपया पैसा की पूजा करके अपने आपको कृतार्थ मानते हैं। वे यह नहीं सोचते कि द्रव्य की अर्चना से क्या कुछ लाभ हो सकता है? वे यह भूल जाते हैं कि
'उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी
दैवेन देयमिति कापुरुषा वदन्ति ।'
दीपावली के उत्सव पर सभी लोग अपने-अपने घरों को स्वच्छ ★ करते हैं और उन्हें नयनाभिराम बनाते हैं। यथार्थ में वह पर्व आत्मा को राग, द्वेष, दीनता, दुर्बलता, माया, लोभ, क्रोध आदि विकारों से बचा, जीवन को उज्ज्वल प्रकाश तथा सद्गुण- सुरभि संपन्न बनाने में है। यदि यह दृष्टि जागृत हो जाए तो यह मानव महावीर बनने के प्रकाशपूर्ण पथ पर प्रगति किये बिना न रहे।
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स्व. पं. सुमेरुचन्द्र जी दिवारकर
दीपावली के दिन से वीरनिर्वाण संवत आरंभ होता है। यह सर्व प्राचीन प्रचलित संवत्सर प्रतीत होता है। मंगलमय महावीर के निर्वाण को अमंगल नाशक मानकर भव्य लोभ अपने व्यापार आदि का कार्य दीपावली से ही प्रारंभ करते हैं।
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दीवाली
मुनि श्री चन्द्रसागर (आचार्य श्री विद्यासागर के शिष्य)
दीवाली आई दीवाली गई दीप जले आँगन रोशनी अँधेरे से उजाला
पर कोई
न जला
न जला
'जैनशासन' से साभार
दीवाली आई दीवाली गई कई बार आई
कई बार गई आँगन उजयारा मन अँधा
तन दुखयारा पर ये शकलें
न बदली न बदलीं
नवम्बर 2001 जिनभाषित
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