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और क्षमावाणी पर्व पर वैरी अपने वैरियों से आँखें चुराते रहते हैं | के पाठ से ही हमारा दैनिक कार्य आरंभ होना चाहिए और दैनिक कार्य अथवा उनका क्षमा माँगना मात्र मायाचार बन कर रह जाता है। कुछ | की समाप्ति पर 'मेरी भावना' का स्मरण किया जाना चाहिए। जब प्रतिमा-धारियों के हृदय में भी विनय, वात्सल्य, मार्दव आदि के अंकुर | दैनिक कार्य 'मैत्रीभाव जगत में मेरा सब जीवों से नित्य रहे' इत्यादि नहीं फूटते अर्थात् व्रतकाण्ड को भी भावकाण्ड का आशीर्वाद प्राप्त | भावों के साथ आरंभ होना जरूरी है, तब पूजा, विधान, स्वाध्याय, नहीं है।
आदि का आरंभ तो इन भावों के साथ होना अनिवार्य ही है। भावकाण्ड प्राण है, नदारद क्यों?
किन्तु कर्मकाण्डीय ग्रन्थों में केवल व्यवहार साधनों और भावकाण्ड तो कर्मकाण्ड, ज्ञानकाण्ड और व्रतकाण्ड तीनों का
व्यवहारविधियों का ही वर्णन मिलता है, उन्हीं के अनुसरण पर बल प्राण है। विनय, वात्सल्य, मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, क्षमा आदि भावों
दिया जाता है और उन्हीं का ज्ञान कराने के लिये शिक्षण शिविर के होने पर ही कर्मकाण्डादि में धर्मत्व का संचार होता है। ये सम्यग्दर्शन
आयोजित किये जाते हैं। कर्मकाण्ड में विनय, वात्सल्य, क्षमादि भावों के अंगों में गर्भित हैं और सम्यग्दर्शन के बिना कोई भी कर्मकाण्ड
की अनिवार्यता का न तो किसी कर्मकाण्डीय ग्रन्थ में निर्देश है, न या व्रतकाण्ड सम्यक् नहीं होता। विनय, वात्सल्य, क्षमादिभावों की
उन पर प्रतिष्ठाचार्य आदि जोर देते हैं, न ही किसी प्रशिक्षण शिविर अभिव्यक्ति ही कर्मकाण्डादि का लक्ष्य है और कर्मकाण्डादि-सम्पादन
में उनका प्रशिक्षण दिया जाता है, न ही उनका उल्लंघन करने पर के ये माध्यम भी हैं। विनय-वात्सल्य-क्षमादिभावपूर्वक ही कर्मका
किसी प्रायश्चित का विधान किया गया है। गोया भावकाण्ड को सर्वत्र ण्डादि का सम्पादन होना चाहिए। ये भाव कर्मकाण्डादि के निश्चय
उपेक्षित रखा गया है। यही कारण है कि श्रावकों की धार्मिक प्रवृत्तियों साधन हैं और अष्टद्रव्यादि व्यवहारसाधन। भावकाण्ड कर्मकाण्डादि
में भावकाण्ड नदारद है। और उसके अभाव में अन्य तीनों काण्ड का आरंभ बिन्दु भी है, केन्द्रबिन्दु भी और अन्त्य बिन्दु भी, क्योंकि
निष्प्राण, नीरस और अनुर्बर बने हुए हैं। भावशून्य क्रियाएँ कैसे यही मोक्ष का निश्चय मार्ग है। 'मेरी भावना' रचकर स्व. पं.
प्रतिफलित हो सकती हैं? 'यस्मात्क्रियाः प्रति फलन्ति न जुगलकिशोर जी मुख्तार ने यह बात स्पष्ट कर दी है। 'मेरी भावना' | भावशून्याः ।'
रतनचन्द्र जैन
नमोऽस्तु
मैं न आदमी रख पाया न कुत्ता
प्रो. (डॉ.) सरोज कुमार
फिर भी मेरे यहाँ कोई नहीं घुसा!
घर में कुत्ते न घुसें इसलिये मेरे पड़ोसी ने एक आदमी रख छोड़ा।
और घर में आदमी न घुसें इसलिये दूसरे ने एक कुत्ता रख छोड़ा!
घुसने वालों ने सोचा होगाकि ऐसे के यहाँ भी क्या घुसना जिसके दरवाजे पर न आदमी है, न कुत्ता!
मैं न आदमी रख पाया
न कुत्ता ,
'मनोरम' 37, पत्रकार कॉलोनी
इन्दौर-452001 (म.प्र.)
8
नवम्बर 2001 जिनभाषित
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