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________________ द्वितीयांश वनवासी और चैत्यवासी स्व. पं. नाथूराम जी प्रेमी पाँच जैनाभास देवसेन ने दर्शनसार (वि.सं. 990) | के मनि भूमि आदि का प्रबन्ध करते थे। | दूसरा उल्लेख आल्तम (कोल्हापुर) में मिले में पाँच जैनाभासों की उत्पत्ति का कुछ 2. चल्लग्राम के वयिरेदेव मंदिर में | हुए श.सं. 411 (वि.सं. 546) के दानपत्र इतिहास दिया है। उनमें से पहले के दोश.सं. 1047 का एक शिलालेख है जिसमें में मिलता है, जिसमें मूलसंघ का कोपल श्वेताम्बर और यापनीय - तो हमें छोड़ देने इन्हीं द्राविडसंघीय वादिराज के वंशज श्रीपाल आम्नाय के सिद्धनन्दि मुनि को अलक्तक चाहिए, क्योंकि आचार के अतिरिक्त उनके योगीश्वर को होय्सलवंश के विष्णुवर्द्धन नगर के जैनमंदिर के लिए कुछ गाँव दान किये साथ दिगम्बरों का सिद्धान्त भेद भी है। परन्तु पोय्सलदेव ने वसतियों या जैनमंदिरों के गये हैं। सिद्धनन्दि के शिष्य का नाम शेष तीन द्राविड़, काष्ठा और माथुर संघ के जीर्णोद्धार और ऋषियों के आहार-दान के लिए चिकाचार्य था, जिनके कि नागदेव, जिननन्दि साथ कोई बहुत महत्त्व का सिद्धान्त भेद नहीं शल्य नामक ग्राम दान दिया अर्थात् उन्होंने आदि 500 शिष्य थे और दान देने वाले मालूम होता। इन तीनों जैनाभासों का बहुतजैन-मंदिरों का जीर्णोद्धार भी कराया और पुलकेशी प्रथम (चालुक्य) के सामन्त सा साहित्य उपलब्ध है और दिगम्बर आहार-दान का प्रबंध भी किया। सामियार थे। सम्प्रदाय में उसका पठन-पाठन भी बिना 3. लाट-बागड़ संघ काष्ठासंघ की ही परन्तु यदि यह बात मान ली जाय कि किसी भेद-भाव के होता है, परन्तु उसमें ऐसी कोई बात नहीं पाई जाती जिससे उन्हें द्राविड़ संघादि को चैत्यवासी होने के कारण एक शाखा है, जो देवसेन के मत से जैनाभास जैनाभास कहा जाए। मोर के पंखों की पिच्छि था। दुबकुण्ड (ग्वालियर) के जैनमंदिर में जैनाभास बतलाया गया होगा, तो प्रश्न होता के बदले गाय के बालों की पिच्छि रखना या है कि देवसेन का दर्शनसार वि.सं. 990 की वि.सं. 1145 का एक शिलालेख मिला है। रचना है, इसलिए जिस शिथिलाचार के कारण पिच्छि बिल्कुल ही न रखना, खड़े होने के इस संघ के विजयकीर्ति मुनि के उपदेश से उन्होंने द्राविड़ संघ, काष्ठ संघ आदि को बदले बैठकर भोजन करना अथवा सूखे चनों दाहड़ आदि धनियों ने उक्त मंदिर बनवाया को प्रासुक मानना या रात्रि भोजन-विरति नाम जैनाभास बतलाया है, वही शिथिलाचार और कच्छपघात या कछवाहे वंश के राजा मूलसंघी मुनियों में भी तो था, क्योंकि विक्रम का छठा अणुव्रत भी मानना, ये सब बातें विक्रमसिंह ने उसके निष्पादन, पूजन, संस्कार और कालान्तर में टूटे - फूटे की इतनी संगीन नहीं हैं कि इनके कारण- ये सब की पाँचवीं छठी सदी तक के ऐसे अनेक लेख मरम्मत के लिए कुछ जमीन, वापिका के मिले हैं जिनसे मालूम होता है कि वे भी मंदिरों जैनाभास ठहरा दिये जाएँ और इनके प्रवर्तकों सहित एक बगीचा और मुनिजनों के को पापी, मिथ्याती बतलाया जाए। इसलिये की मरम्मत आदि के निमित्त गाँव-जमीन शरीराभ्यंजन (तैल-मर्दन) के लिए दो कर | आदि का दान लेने लगे थे। तब उन्हें जैनाभास आश्चर्य नहीं, जो ये तीनों चैत्यवासी ही हों और इसी कारण देवसेन ने जो चैत्यवासी नहीं घटिकाएँ दीं। ये बातें भी स्पष्ट रूप से क्यों नहीं बतलाया? थे, इन्हें जैनाभास बतला दिया हो। द्राविड़ इसका समाधान इस तरह हो सकता चैत्यवासियों के आचार को प्रकट करती हैं। है कि देवसेन ने दर्शनसार में जो गाथाएँ दी संघ के उत्पादक वज्रनन्दि के विषय में उन्होंने लिखा है कि 'उसने कछार, खेत, वसति हैं, वे स्वयं उनकी नहीं, पूर्वाचार्यों की बनाई पूर्वोक्त जैनाभासों को छोड़कर शेष (जैनमंदिर) और वाणिज्य से जीविका निर्वाह | हुई हैं। और चूँकि पूर्वाचार्य स्वयं वनवासी दिगम्बर सम्प्रदाय को मूलसंघ कहा जाता है। करते हुए और शीतल जल से स्नान करते थे, इसलिये उनकी दृष्टि में द्राविड़ संघादि के परन्तु हमारा ख्याल है कि यह नामकरण बहुत साधु जैनाभास होने ही चाहिए। हुए प्रचुर पाप का संग्रह किया। पुराना नहीं है। अपने से अतिरिक्त दूसरों को इससे बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि अमूल-जिनका कोई मूल आधार नहीं - पुराने और नये चैत्यवासी द्राविड़ संघ के साधु वसति या जैन मंदिरों बदलाने के लिये ही यह नामकरण किया गया गरज यह कि द्राविड़ संघ के स्थापक में रहते थे और उन मंदिरों के लिए दान मिली होगा और यह तो वह स्वयं ही उद्घोषित कर वज्रनन्दि आदि तो पुराने चैत्यवासी हैं, जिन्हें हुई जमीन में खेती - बाड़ी आदि कराते थे। रहा है कि उस समय उसके प्रतिपक्षी दूसरे पहले ही जैनाभास मान लिया गया था और इसके कुछ ऐतिहासिक प्रमाण भी हैं - दलों का अस्तित्व था। मूलसंघी उनके बाद के नये चैत्यवासी हैं, 1. 'न्यायविनिश्चयविवरण', 'पार्श्व- हमें मूलसंघ का सबसे पहला उल्लेख जिन्हें देवसेन ने तो नहीं, परन्तु उनके बहुत नाथ चरित' आदि प्रसिद्ध ग्रन्थों के कर्ता नोणमंगल के दानपत्र में मिलता है, जो पीछे के तेरहपंथ के प्रवर्तकों ने जैनाभास वादिराज इसी संघ के थे। उनके गुरु श.सं. 347 (वि. 482) के लगभग का है बतलाया। मतिसागर की आज्ञा के अनुसार जो दान-पत्र । और विजयकीर्ति के उरनूर के अर्हत्मन्दिर को श्वेताम्बर सम्प्रदाय में जिस अर्थ में लिखा गया उससे मालूम होता है कि इस संघ | कोंगुणिवर्मा महाराज ने दिया है। इसके बाद | सुविहित या विधि-मार्ग का प्रयोग होता है, मूलसंघ 10 नवम्बर 2001 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524257
Book TitleJinabhashita 2001 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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