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लिखते हुए प्रसन्नता है कि अंकों में चयनित प्रायः सभी लेख धर्म हित में समाज में जागृति हेतु होने से प्रशंसनीय हैं। आप द्वारा लिखित सम्पादकीय समाज में व्याप्त धर्म के नाम पर होने वाली विकृतियों के परिमार्जन हेतु ध्यान देने योग्य हैं। जिज्ञासाओं का समाधान भी अत्यंत आवश्यक होने से अभिनंदनीय है। परम पूज्य आचार्यों एवं मुनि वृन्दों के लेख ज्ञानवर्धक और मार्गदर्शक हैं। सभी दृष्टियों से पत्रिका का भविष्य उज्ज्वल प्रतीत होता है। यह समाज का मार्गदर्शक, आदर्श पत्र बने, इसी शुभकामना के साथ |
'जिनभाषित' के अंक मिल रहे हैं। आपकी विद्वत्तापूर्ण प्रतिभा से सम्पादित इस पत्रिका ने अल्प समय में ही पत्रजगत् में शीर्ष स्थान प्राप्त कर लिया है जो हर्षद आक्षर्य का विषय है।
नाथूराम डोंगरीय जैन 549, सुदामा नगर, इंदौर (म.प्र.)
नवोदित मासिक पत्रिका 'जिनभाषित' के दो अंक पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जिनमें महत्त्वपूर्ण जैनतत्त्व ज्ञान को सुबोध शैली में उद्घाटित किया गया है। 'शंका-समाधान' जो स्थायी स्तम्भ है। इससे शास्त्रों का अवलोकन करने वाले स्वाध्यायार्थियों को अत्याधिक लाभ होगा। जैसा कि पत्रिका का नाम 'जिनभाषित' है, इससे जिनवाणी का रहस्य उद्घाटित होगा 'शोध सम्भावनाओं से भरा जैन साहित्य
डॉ. कपूरचन्द्र जैन का लेख पठनीय है। इसी प्रकार "जैन संस्कृति एवं साहित्य का मुकुट मणि कर्नाटक और उसकी कुछ श्राविकाएँ" ज्ञानवर्धक सामग्री प्रस्तुत करता है।
विश्वास है, उक्त पत्रिका भविष्य में जैन धर्म और साहित्य की सेवा करने वाली पत्रिकाओं में अग्रणी होगी सम्पादन, प्रकाशन एवं साज-सज्जा आकर्षक है। पत्रिका के द्वारा जैन साहित्य और समाज का महान उपकार होगा।
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अरुण कुमार शास्त्री सेठजी की नसियाँ, ब्यावर (राज.) -305901
Jain Education International
'जिनभाषित' पत्रिका जैन धर्म के सिद्धान्त को जन-मानस तक पहुँचाने का अद्भुत प्रयास है। गुरुणां गुरु आचार्य श्री शांति सागर जी की स्मृति में समाधि दिवस पर प्रकाशित जुलाई-अगस्त अंक पढ़ा। मुनि श्री क्षमासागर जी द्वारा लिखित आचार्य श्री शांतिसागर जीवन यात्रा एवं वचनामृत" लेख पढा, मन हर्ष से ओत-प्रोत हो गया। आचार्य श्री विद्यासागर जी ने बहुत अच्छा लिखा कि दीक्षा दिवस का अर्थ है- संकल्प दिवस। इस दिवस के माध्यम से अपने संकल्प को दृढ़ बनाया जा सकता है। 'एक वृक्ष की अन्तर्वेदना' पढ़कर तो मन द्रवित हो उठा। ऐसी संवेदनशील कथाएँ कहीं मन को छू लेती हैं और आवरण पृष्ठ पर छपी श्रद्धेय क्षमासागर जी की ये पंक्तियाँ भी हृदयस्पर्शी है
श्रद्धा से झुककर गलाते जायें
नवम्बर 2001 जिनभाषित
विजय कुमार शास्त्री एम.ए. आचार्य, श्री महावीर जी
अपना मान मद पर्त दर पर्त निरन्तर ताकि
कम होता जाये हमारे और प्रभु के बीच का अंतर । उन्हें मेरा शत-शत प्रणाम। एक निवेदन है, एकीभाव स्तोत्र का हिन्दी अर्थ क्षमासागर जी द्वारा प्रस्तुत दो-दो, तीन-तीन काव्य यदि प्रत्येक अंक में क्रमबद्ध प्रकाशित हों, तो जनमानस इसका पूरा लाभ उठा सकेगा, क्योंकि 'एकी भाव -स्तोत्र' लोग उतना नहीं पढ़ते, जितना 'भक्तामर स्तोत्र' । 10 अक्टूबर को मुनिश्री ने जब 'एकीभावस्तोत्र' पढ़ा, तो ऐसा लगा जैसे यह हमारे घट तक पूरा का पूरा, ज्यों का त्यों उतर रहा है।
'जिनभाषित' के अंक 2.3 (संयुक्तांक) और अंक 4 सामने हैं। निश्चित रूप से आपके सम्पादन में यह पत्रिका जैन पत्रकारिता जगत में अपना स्थान शीघ्र ही बना लेगी। आपका एवं प्रकाशक संस्थान का अभिनन्दन। बधाई स्वीकारें।
अरुणा जैन 92/20/2 : 4 से. 16, वाशी नगर, नवी मुम्बइ
है।
'जिनभाषित' के जून 2001 के अंक के लिये कृतज्ञ हूँ। यह अंक मुनिपुंगव विद्यासागर जी पर विशिष्ट सामग्री प्रस्तुत करता है।
एवं इतर सामग्री भी पर्याप्त उपादेय है। आपके अग्र लेख भी परम्परा और प्रगति के साथ व्यक्तित्व की छाप से अभिषिक्त रहते हैं। यह विशिष्ट आकर्षण होता है, इस पत्रिका का ।
कृपया नवोदित लेखकों को अधिक प्रोत्साहन दें, कल उनका
कुसुम जैन संपादिका 'णायसायर सचिव, सहजानन्द फाउन्डेशन, बी-5/263, यमुना विहार, दिल्ली-110053
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डॉ. रवीन्द्र कुमार जैन 13, शक्ति नगर, पल्लवरम्, चेन्नई- 43
सितम्बर 2001 का 'जिनभाषित' प्राप्त हुआ। प्रातः स्मरणीय प.पू. 108 आचार्य श्री वीरसागर जी की पद्मासनी प्रतिमा का मुखपृष्ठ छायाचित्र अतीत क्षणों को स्मृति पटल पर तरंगित कर रहा है। साक्षात् वर्तमान के रूप में अतीत ने अर्धशतकापरांत मुझे पावन किया था।
आचार्य श्री की छत्रछाया में जयपुर (खानिया) चातुर्मास में प्रथम पट्टाधीश के रूप में कुंथलगिरी से चारित्र्य चक्रवर्ती 108 आ.श्री शांतिसागर जी द्वारा आचार्य पदासीन कमंडलु पिछी स्वीकारने का भव्य समारोह चतुर्विध संघ का सुदर्शनीय था। प्रथम पट्टाधीश के मानसपुत्र, संघ संचालक प्रतिष्ठाचार्य, बंधु ब्र. सूरजमलजी के भव्य आयोजन का अर्धशतकपूर्व ऐतिहासिक घटनाओं का 'चित्रपट' दिखाई पड़ा। विशाल चतुर्विध ( मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका) संघ लगभग 50 से ज्यादा संख्या में आचार्य श्री की वात्सल्यमयी
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