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छत्रछाया में चातुर्मास संपन्न कर रहा था। आचार्य श्री का आचार्य | समर्थ होंगे। माननीय 'मुख्तार' जी का 'भवाभिनन्दीमुनि और पद विभूषित रूप 'जल में भिन्न कमल' के सदृश ही था। 'अर्वाग् | मुनिनिन्दा' लेख झूठे मुनियों से बचकर सच्चे मुनियों के प्रति भक्ति विसर्ग वपुषा एवं मोक्षमार्ग निरूपयन्तम्' की मुद्रा देखते ही भूले | को अक्षुण्ण बनाये रखने की दिशा में मार्गदर्शन करता है। भटके कई भव्यजीवों ने भवतारक काष्ठ नौका का आश्रय लिया था।
अरविन्द फुसकेले ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे जे आचारहिं ते नर न घनेरे' ऐसी स्व पर
ई.डब्ल्यू.एस.-541, कोटरा,
भोपाल-462003 । उद्धारकचर्यारत आचार्यश्री अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग में लीन रहते थे। संघस्थ साधु-साध्वियों का स्वाध्याय, तत्त्वचर्चा, भक्तिपाठ, सूक्ष्म अध्ययन-अध्यापन मैंने प्रत्यक्ष देखा, अनुभव किया है। बीसवीं सदी
धार्मिक एवं वैवाहिक अनुष्ठान तथा के प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर जी के अनंतर प्रथम पट्टाधीश आचार्य
सात्त्विक संगीत नृत्य श्री वीरसागर जी, पू. शिवसागर जी, पू. धर्मसागर जी, पू.
सुरेश जैन, आई.ए.एस. अजितसागर जी, श्री वर्धमान सागर जी, पू. अभिनंदन सागर जी, जिनभाषित के सितम्बर, 2001 के अंक में 'वैराग्य जगाने आचार्यकल्प श्रुतसागर जी, विदुषी आर्यिका माताजी गणिनी ज्ञानमती | के अवसरों का मनोरंजनीकरण' एवं अक्टूबर, 2001 के अंक में जी, सुपार्श्वमतीजी, विशुद्धमतीजी, स्व. जिनमतीजी संघस्थ | 'विवाह एक धार्मिक अनुष्ठान' शीर्षक से प्रकाशित जिनभाषित के शताधिक माताजी और विद्यमान आचार्य प.पू. 108 विद्यासागर जी | दोनों संपादकीय हमारी ज्वलंत धार्मिक एवं सामाजिक समस्याओं की अन्य परंपरा के स्व. देशभूषण जी (एलाचार्य जी) प्रायः सभी महान | ओर प्रभावी ढंग से प्रत्येक पाठक का ध्यान आकर्षित करते हैं और साधुवृंद का पावन दर्शन, आहारदान, स्वाध्याय द्वारा उद्बोधन आदि हमें गहन मनन और चिंतन कर ठोस निर्णय करने और उनका का परिसंस्पर्श होकर मेरा भी जीवन धन्य हुआ, संतृप्त हुआ है। आ. | कार्यान्वयन करने के लिये प्रेरित करते हैं। यह आवश्यक ही नहीं, श्री स्व. चंद्रमती माताजी (मेरी पूर्वाश्रमीय जन्मदा) के दीक्षा गुरु थे। प्रत्युत अनिवार्य हो गया है कि ऐसे धार्मिक एवं सामाजिक अवसरों प्रायः उनके मोहवश मैं हर साल संघदर्शनार्थ चौमासा में राजस्थान पर हमारे युवक/युवतियों का व्यवहार संयमित, शालीन एवं परिष्कृत के सभी नगरों में जाया करती थी। आहारदान, तत्त्वसंगोष्ठी, | हो। स्वाध्याय, वैयावृत्यादिक का लाभ लिया करती थी। सोलापुर | संपादक महोदय ने अपने दोनों संपादकीय आलेखों में इन श्राविकासंस्था की स्व. ब्र. सुमतीबाई जी तथा बहन प्रभावती जी | महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं को प्रस्तुत किया है, उन्हें लीड बनाया और साथ थीं। आज श्री 105 प.पू. सुपार्श्वमती माताजी की संघस्था 105 जनसरोकार की चिंता को मीडिया के केन्द्र में स्थापित किया है। इस (आर्यिका सुप्रभावती जी अंतिम धर्मसाधना में अमूल्य क्षण बिता रही | प्रकार उन्होंने महत्त्वपूर्ण प्रश्नों को मुख्य धारा में लाकर जैन पत्रकारिता
को नई ऊँचाई प्रदान की है। निश्चित ही यह जिनभाषित का उल्लेखनीय, मैंने आचार्य श्री जी की प्रेरणा से 'सप्तम प्रतिमा' का व्रत धारण असाधारण, साहसिक और स्वागत योग्य अवदान है। किया और उज्ज्वल दिशा जीवन की पग डंडियो पर हूँ। आचार्य श्री हमें सर्वसम्मति से यह निर्णय करना चाहिए कि भक्ति और के 42 वें पुण्यतिथि के पावन अवसर पर त्रिदिवसीय तत्त्वचर्चा में | वैराग्य का वातावरण बनाने के लिए मंदिरों में हम केवल धार्मिक/ जयपुर में आक्टो, 99 में उपस्थिती का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। शास्त्रीय राग-रागिनियों का ही प्रयोग करें। पवित्र वाद्यों के द्वारा आचार्य श्री विद्यासागर जी के पट्टशिष्य पं. रतनलाल जी बैनाड़ा ने | सात्त्विक/संयमित नृत्य एवं संगीत का सृजन करें। धार्मिक नृत्य एवं 'जिनभाषित' के अंक नियमित पढ़ने का सुअवसर दिया है। अंक के | गीत सात्त्विक संगीत पर ही आधारित हों। सुनहरे पन्नों द्वारा मैं खूब प्रभावित होकर अगले अंक की प्रतीक्षा करती जिनभाषित के संपादकीय से प्रभावित होकर दैनिक भास्कर,
भोपाल ने 2 नवम्बर 2001 को प्रकाशित अपने संपादकीय में ब्र.कु. विद्युल्लता हिराचन्द शहा , संपादिका-'श्राविका' |
महाकवि सूरदास के पद 'नाच्यो बहुत गुपाल' के माध्यम से सम्पूर्ण श्राविका संस्थानगर, 197, बुधवार पेठ, श्राविका चौक,
समाज का ध्यान आकर्षित करते हुए विवाह एवं बारातों में दूल्हे के सोलापुर (महा.)
आगे पाश्चात्य तर्ज पर युवक/युवतियों द्वारा किये जा रहे नृत्य को
संयमित करने की आवश्यकता प्रतिपादित की है। "जिनभाषित' सितम्बर 2001 में आपके सम्पादकीय आलेख जिनभाषित के संपादकीय आलेख से प्रेरणा लेते हुए 'पूज्य 'वैराग्य जगाने के अवसरों का मनोरंजनीकरण' ने हृदय को छू लिया। | सिंधी पंचायत, भोपाल' ने औपचारिक रूप से युवतियों को सलाह मिथ्यात्व किस-किस रूप में धर्म में प्रवेश पा रहा है, इसका लेख | दी है कि वे बारात के अवसर पर बीच सड़क पर नाच नहीं करें। में तथ्यात्मक मनोवैज्ञानिक विवेचन किया गया है। सचमुच फिल्मी धार्मिक एवं वैवाहिक अनुष्ठानों में ध्वनि प्रदूषण को प्रतिबंधित संगीत कड़वी दवा के लिये चाशनी के समान नहीं, बल्कि मदिरा करना भी आवश्यक है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश पारित की बूंदों के समान है। हम जितनी जल्दी इस सच को समझ सकें, | किया है कि धर्म के नाम पर भी किसी को यह अधिकार नहीं है कि उतनी जल्दी धर्म के नाम पर व्याप्त इस विष से छुटकारा पाने में | वह अपनी पूजा और प्रार्थना के माध्यम से दूसरों की शांति भंग करे।
-नवम्बर 2001 जिनभाषित
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