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मानस दर्पण में
मिट्टी की दीपमालिका जलाते बालक बालिका आलोक के लिये ज्ञात से अज्ञात के लिये
किन्तु अज्ञात का / अनुभूति का/ अदृष्ट का नहीं हुआ संवेदन/अवलोकन
वे सुंदरतम दर्शन उषा वेला में
गात्र पर पवित्र
चित्र विचित्र
पहन कर वस्त्र
सह कलत्र पुत्र
युगवीर चरणों में
तमो, रजो गुण तजो सतो
से जिन भजो
गुण तभी मँजो / तभी मँजो
जलाओ हृदय में जन जन दीप
ज्ञानमयी करुणामयी
आलोकित हो / दृष्टिगत हो / ज्ञात हो ओ सत्ता जो समीप
वे सजल लोचन
करते केवल जल विमोचन उपासना के मिष से वासना का, रागरंगिनी का उत्कर्षण हा ! दिग्दर्शन नहीं नहीं कभी नहीं महावीर से साक्षात्कार
सबने किया मोदक समर्पण किन्तु खेद है,
अच्छा स्वच्छ औ' अतुच्छ कहाँ बनाया मानस दर्पण ?
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आचार्य श्री विद्यासागर
'नर्मदा का नरम कंकर' से साभार
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