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________________ सम्पादकीय ___ धर्म का भावकाण्ड नदारद श्रावकधर्म चार काण्डों का समूह है : कर्मकाण्ड, ज्ञानकाण्ड, | कब्जा कर लेती हैं, साथ ही अपनी बहन, ननद, भाभी और सहेलियों व्रतकाण्ड और भावकाण्ड। के लिए भी रेलगाड़ी या बस के समान आसपास की जगह सुरक्षित कर्मकाण्ड : पूजा-भक्ति, विधान, हवन, पंचकल्याणक, कर लेती हैं, ताकि देर से आने पर भी उन्हें अच्छा स्थान मिल जाए। गजरथ, प्रतिष्ठा, जप, पाठ, साधुसन्तों की सेवा, तीर्थ-वन्दना, जन्म उस पर वे किसी अन्य स्त्री-पुरुष को नहीं बैठने देती। यदि कोई जिद जयन्ती, निर्वाणमहोत्सव, क्षमावाणी पर्व आदि का मनाया जाना। करके बैठ जाता है तो उनका क्रोध उमड़ पड़ता है, वाग्युद्ध छिड़ ज्ञानकाण्ड : शास्त्रों का अध्ययन, उपदेश-श्रवण, शंकास- जाता है। इस प्रकार कर्मकाण्ड के लिए भावकाण्ड (न्याय, सहिष्णुता, माधान, धर्मग्रन्थ-लेखन, प्रवचन, शोधकार्य, संगोष्ठियों में शोध- | विनय वात्सल्य आदि) की बलि चढ़ा दी जाती है। पत्रवाचन, शिक्षण-प्रशिक्षण-शिविरों का संचालन आदि। ___मुनियों को आहार हेतु पड़गाहने के लिए जब मंदिर या धर्मशाला व्रतकाण्ड : अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षव्रत, एकाशन, उपवास, के विशाल परिसर में चौकेवाले लाइन से खड़े होते हैं, तब अनेक रविवार, सुगन्धदशमी, सोलहकारण आदि व्रत-नियमों का पालन, चौके वाले अपना स्थान छोड़कर दूसरों के आगे आ जाते हैं, ताकि श्रावक-प्रतिमाओं का अंगीकरण। मुनि महाराज की नजर उनपर ही पड़े, और उन्हें ही आहारदान का भावकाण्ड : विनय, वात्सल्य, मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, अवसर मिल जाए। इस प्रकार आहारदान की पुण्यक्रिया करते समय माध्यस्थ्य, क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच (निर्लोभ), हितमितप्रिय- | भी दूसरों की आहारदानक्रिया में विघ्न उपस्थित करने का कुत्सित वचन, नि:कांक्षितत्व, औदार्य आदि आत्मगुणों का विकास। भाव मन में आ जाता है। तथा जिस चौके में मुनिश्री की पड़गाहना इनमें से श्रावकों के जीवन में कर्मकाण्ड पहले नम्बर पर दिखाई | होती है, उसमें बाहर के श्रावक आकर घुस जाते हैं और अपने हाथ देता है, ज्ञानकाण्ड दूसरे नम्बर पर है, व्रतकाण्ड तीसरे नम्बर पर | से उठा-उठा कर आहार देने लगते हैं तथा वहाँ से टस से मस नहीं और भावकाण्ड प्रायः नदारद है। इसके दर्शन विरले ही श्रावकों में | होते। इस प्रकार जिन्होंने चौका लगाया है उन्हें आहार देने का मौका होते हैं। ही नहीं मिल पाता। वे विषादग्रस्त होकर दूर खड़े-खड़े देखते रहते कर्मकाण्ड हैं। अन्त में एकाध अंजली जल देने का उन्हें मौका मिल जाता है वर्तमान में श्रावकों का धर्म कर्मकाण्ड-प्रधान बन गया है। आये तो वे अपना अहोभाग्य समझते हैं। इस तरह चौकेवालों को आहारदान दिन विभिन्न प्रकार के विधानों, यज्ञों, पंचकल्याणकों और गजरथों से वंचित कर उनके पुण्य पर डाका डालने का जो काम किया जाता का आयोजन हो रहा है। इनमें भाग लने के लिये लोग बहुत उत्साह है, वह धर्मकार्य के प्रसंग में भी हमारी सांसारिक स्वार्थवृत्ति के प्रकट दर्शाते हैं। चक्रवर्ती, इन्द्र-इन्द्राणी, कुबेर आदि के पद धारण करने होने का प्रमाण है। के लिए होड़ सी मच जाती है। यह शुभ लक्षण है। इस रागरंगमय इसी प्रकार सिद्धचक्रादि विधानों की पूजा में बैठे हुए श्रावकों भोगप्रधान युग में धार्मिक अनुष्ठानों में रुचि होना इस बात का सूचक को जो लोग द्रव्य वितरित करते हैं उनकी दृष्टि स्वपर-भेदविज्ञान से तो है ही कि मनुष्य सर्वथा नास्तिक नहीं हुआ है, धर्म में उसकी आस्था प्रभावित हो जाती है। अपने परिचितों को जब पूजाद्रव्य वितरित करते जीवित है और वह पुष्ट हो रही है। हैं तब उनके हाथ में बादाम, लौंग, छुहारे आदि बहुमूल्य पदार्थ आते किन्तु हम पाते हैं कि यह कर्मकाण्ड भावकाण्ड से प्रायः शून्य हैं, किन्तु अपरिचितों को वितरित करते समय उनकी मुट्ठी केवल होता है। लोग प्रतिदिन पूजा-भक्ति करते हैं, विधानों और हरसिंगार से रँगे चावल ही ग्रहण करती है। पंचकल्याणकों में इन्द्र-इन्द्राणी बनकर भगवान् को पूजते, नाचते-गाते । सामूहिक भोजनशाला में भी भोजन परोसते समय स्वपरभेद हैं, तीर्थवन्दना के लिये जाते हैं, साधु सन्तों की सेवा करते हैं, विज्ञान काम करता है। मित्रों और सम्बन्धियों की थाली में भोज्य पदार्थ आहारदान देते हैं, किन्तु उनमें जनसामान्य के प्रति विनय, वात्सल्य, पंक्तिक्रम का उल्लंघन करते हुए जल्दी-जल्दी आकर विराजमान हो मैत्री, कारुण्य, उदारता आदि आत्मिक गुणों का अस्तित्व दिखाई जाते हैं, जबकि अन्यों की थाली उपेक्षा की पीड़ा से सिसकती हुई नहीं देता। उक्त कर्मकाण्ड करते समय भी उनके हृदय के अनौदार्य, परोसनेवालों को याचनाभरी निगाहों से निहारती रहती है। मिष्टान्न अवात्सल्य, अविनय, असहिष्णुता आदि कुत्सितभाव प्रकट हो जाते परोसते समय तो स्वपर भेद विज्ञान चौदहवें गुणस्थान में पहुँच जाता हैं। उदाहरणार्थ, जब वे कर्मकाण्ड में प्रवृत्त होते हैं तब लौकिक पदार्थों है। किसी की थाली में लड्ड या बरफी का टुकड़ा एक बार भी नहीं के समान कर्मकाण्ड के अवसरों और सुविधाओं को भी स्वयं ही अधिक आता, जबकि किसी-किसी की थाली में बिना बुलाये बार-बार महमान से अधिक हथिया लेने का प्रयत्न करते हैं और इस बात की परवाह बनता रहता है। यहाँ भी हमारी रागद्वेषवृत्ति काम करने लगती है। नहीं करते कि दूसरे उनसे वंचित रह जायेंगे। जैसे कोई विधान चल हमने देखा है कि जो लोग सिद्धचक्रादि विधानों में इन्द्र-इन्द्राणी रहा होता है तो स्त्रियाँ पहले से आकर पूजा के लिए अच्छे स्थान पर बनकर भक्तिभाव से पूजा करते हैं, रातदिन साधुसन्तों की वैयावृत्य में लगे रहते हैं वे अपने शासकीय कार्यालयों में घूसखोरी के अवसरों -नवम्बर 2001 जिनभाषित 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524257
Book TitleJinabhashita 2001 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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