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________________ शंका समाधान पं. रतनलाल बैनाड़ा शंकाकार - देवेश जैन, सागर भावार्थ - तिर्यंचों में 21 मोह प्रकृति के सत्व वाले जीव का शंका - क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव उत्तम भोगभूमि में ही जन्म | तात्पर्य क्षायिक सम्यक्दृष्टि तिर्यंच से है अर्थात् तिर्यंचगति में क्षायिक लेता है या जघन्य में भी? सम्यक्दृष्टि जीव कितने समय तक रहता है उसके उत्तर में कहा है समाधान - क्षायिक सम्यकदृष्टि मनुष्य को क्षायिक सम्यक्त्व कि जघन्य से पल्य का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्टतः तीन पल्य। हो जाने के बाद यदि आयुबंध होता है, तो वह देव आयु का ही होता यहाँ जघन्य से असंख्यातवाँ भाग से तात्पर्य जघन्य भोगभूमि की है। परन्तु यदि क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त होने से पूर्व उसने मनुष्य आयु जघन्य आयु से और तीन पल्य का तात्पर्य उत्तम भोगभूमि की उत्कृष्ट या तिर्यंच आयु बाँध ली हो, तो ऐसे बद्धायुष्क मनुष्य अगले भव | आयु से है। निष्कर्ष यह है कि श्री जयधवला के आधार पर भी क्षायिक में भोग भूमि के तिर्यंच या मनुष्य ही होते हैं, कर्म भूमि के नहीं। | सम्यक्दृष्टि जीव जघन्य, मध्यम और उत्तम तीनों भोगभूमि में पैदा ऐसे जीव के लिये यह नियम नहीं है कि वह क्षायिक सम्यक्त्वी होने हो सकता है। के कारण उत्तम भोग भूमि में ही जन्म लेगा अन्य में नहीं, वह उत्तम- यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि चौदहवें राजा नाभिराय की आयु मध्यम या जघन्य किसी में भी जन्म ले सकता है। ति.प. अधिकार एक समय अधिक एक करोड़ पूर्व माननी चाहिए, न कि एक करोड़ 511/515 में इस प्रकार कहा है पूर्व। क्योंकि भोगभूमियों की जघन्य आयु करोड़ पूर्व एक समय है। एदे चउदस मणुओ, पडिसुद पहुदि हु णाहिरायंता। शंकाकार- ब्रह्मचारी अरुण, मथुरा पुव्व भवम्हि विदेहे, रायकुमारा महाकुले जादा।। शंका- विपुलमतिमनःपर्ययज्ञान का विषय क्षेत्र कितना है। यह कुसला दाणादीसु, संजमतव णाणवंत पत्ताण। कितने क्षेत्र की बात को जानता है? णिय जोग्ग अणुट्ठाणां, मद्दव मज्जव गुणेहि संजुत्ता।। समाधान- विपुलमतिमनः पर्ययज्ञान का विषय क्षेत्र श्री मिच्छत्त भावणाएं, भोगाऊं बंधिऊण ते सव्वे। सर्वार्थसिद्धि में इस प्रकार कहा है - क्षेत्र तो जघन्यतः योजनपृथक्त्वं, पच्छा खाइय सम्मत्तं, गेण्हति जिणिंद चरण मूलम्हि।। । उत्कर्षेण मानुषोत्तरशैलस्याभ्यंतरं, न बहिः । णिय जोग्गसुदं पडिदा, खीणे भउम्मि, ओहि णाण जदा। अर्थ- क्षेत्र की अपेक्षा (विपुलमतिमनःपर्ययज्ञान) जघन्य से उप्पज्जिदूण भोगे, केइ णरा ओहि णाणेण।। योजन पृथक्त्व और उत्कृष्ट से मानुषोत्तर पर्वत के भीतर की बात जादि भरेणकेई भोग मणुस्साण जीवणोवायं। जानता है, इससे बाहर की बात नहीं जानता। 1/23 टीका। भासंति जेणतेणं मणुणो भणिदा मुणीदेहि।। श्री राजवार्तिक में भी 1/23 की टीका में, ठीक उपरोक्त प्रकार (तिलोय पण्णत्ति 4/511-515) | से ही लिखा है। अर्थ- प्रतिश्रुति आदि नाभिराय पर्यन्त ये 14 ही मनु पूर्व भव | इससे स्पष्ट होता है कि इस ज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र 450000 में विदेह क्षेत्र के अंतर्गत महाकुल में राजकुमार थे। संयम, तप तथा यो. है पर मानुषोत्तर पर्वत के बाहर नहीं। परन्तु इस आशय को स्पष्ट ज्ञान से युक्त पात्रों को दानादि देने में कुशल, स्वयोग्य अनुष्ठान | करते हुए आ. वीरसेन स्वामी ने श्री धवला पु. 9 पृष्ठ 67-68 इस से युक्त तथा मार्दव आर्जव आदि गुणों से सम्पन्न वे सब पूर्व में | प्रकार कहा हैमिथ्यात्व भावना से भोगभूमि की आयु बाँध कर पश्चात् जिनेन्द्र के 'माणुसुत्तर सेलस्स अब्भंतर दो चेव जाणेदि णो बहिद्धा' त्ति पादमूल में क्षायिक सम्यक्त्व ग्रहण करते हैं। अपने योग्य श्रुत को | वग्गण सुत्तेण णिद्धिट्ठादो माणुसखेत्त अब्भंतरट्ठिद सव्व मुत्ति दव्वाणि पढ़कर आयु के क्षीण हो जाने पर भोगभूमि में अवधि ज्ञान सहित | जाणदि णो बाहिराणि त्ति के वि भणति। तण्ण घडदे, मणुस्सुत्तर सेल मनुष्य उत्पन्न होकर इन 14 में से कितने ही अवधि ज्ञान से तथा | समीवे ठइदूण बाहिर दिसाए कओवयोगस्स णाणाणुप्पत्तिप्प संगादो। कितने ही जातिस्मरण से भोगभूमिज मनुष्यों को जीवनोपाय बताते | होदु च ण, तदणुप्पत्तीए कारणा भावादो। ण ताव खओव समाभावे... हैं, इसलिये ये मुनीन्द्रों द्वारा 'मनु' कहे गए हैं। अणिंदियस्स पच्चक्खस्स... माणुसुत्तर सेलेण पडिधादाणु ववत्तीदो। (ऐसा ही प्रमाण - आदि पुराण पर्व 3, श्लोक नं. 207 से 212 | तदो माणुसुत्तर सेलभंतर वयणं ण खेत्तणियामयं, किंतु माणुसुत्तर तक) सेलमंतर पण दालो सजोयण लक्खणियामयं, विउलमदि मदि जयधवल - पु. 2/260 में वीरसेन स्वामी जी लिखते हैं | मणपज्जवणाणुज्जोय सहिद खेत्ते धणागारेण ठइदे पणदाली सजोयण 'तिरिक्ख गईए तिरिक्खेसु एक्कवीस विह केवडिय। जहण्णेण | लक्खमेत्तं चेव होदि त्ति। पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागो, उक्कस्सेण तिण्णि पालिदोवमाणि। अर्थ- 'मानुषोत्तर शैल के भीतर ही स्थित पदार्थ को जानता अर्थ - तिर्यंचगति में तिर्यंचों में 21 मोह प्रकृति के सत्त्ववालों | है उसके बाहर नहीं' ऐसा वर्गणासूत्र द्वारा निर्दिष्ट होने से, मनुष्य क्षेत्र का एक जीव की अपेक्षा कितना काल है? जघन्य से पल्य का | के भीतर स्थित सब मूर्त द्रव्यों को जानता है, उससे बाह्य क्षेत्र में असंख्यातवाँ भाग तथा उत्कृष्टतः 3 पल्य। नहीं, ऐसा कोई आचार्य कहते हैं। किन्तु यह घटित नहीं होता है, क्योंकि 20 नवम्बर 2001 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524257
Book TitleJinabhashita 2001 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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