Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 06
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवाँ भाग । अंक ९ हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः । जैनहितैषी । न हो पक्षपाती बतावे सुमार्ग, डरे ना किसीसे कहे सत्यवाणी । बने है विनोदी भले आशयोंसे, सभी जैनियोंका हितैषी 'हितैषी ' ॥ Pass सहानुभूति' । ( अनु०-श्रीयुक्त ठा॰ कल्याणसिंह बी. ए. 1) जब तुम अपनी आत्माको देखो तो कड़ी और तीव्र दृष्टिके साथ देखो; परन्तु जब दूसरोंको देखा तो अनुकम्पासे देखो । जैसे दलदल भूमिसे काई निकलती है उसी प्रकार साधारण मनुष्यों के मुँहसे गालियाँ और उलने निकलते हैं। उन्हें तुम मत निकालो । - इला व्हीलर विलकाक्स । पीडित मनुष्यसे मैं यह नहीं पूछता कि तुम्हारी पीड़ा कैसी है, बल्कि मैं स्वयं पीडित बन जाता हूँ और पीड़ाका अनुभव करने लगता हूँ । - वाल्ट व्हाइटमेन । हमने जितना आत्म-दमन प्राप्त कर लिया है उतना ही हम दूसरोंसे सहानुभूति रख सकते १ जेम्स एलेनकृत Byways of Blessedness ( आनन्दको पगडंडियाँ) नामक पुस्तकका 'एक अध्याय । यह पुस्तक हिन्दी ग्रन्थ- रत्नाकर कार्यालयकी ओरसे हाल ही प्रकाशित हुई हैं। ९-१० आषाढ़ २४४६ जून १९२० हैं । जब तक हम अपने पर ही दया करते रहें और अपने से ही सहानुभूति रखते रहे तब तक दूसरोंका विचार नहीं कर सकते हैं । यदि ह स्वयं अपनी ही प्रशंसा, अपनी ही रक्षा, अपनी ही सम्मतिका विचार करें तो दूसरोंके साथ प्रेमका व्यवहार नहीं कर सकते । दूसरोंका विचार करना और अपना विचार भूलना इसीको सहानुभूति कहते हैं । दूसरोंके साथ सहानुभूति रखने के लिये पहले हमें उनकी दशा समझनी चाहिये और उनकी दशा समझनेके लिये हमें उनके विषयमें पहलेहीसे बुरे विचार नहीं बाँध लेने चाहिये-जैसे वे हैं उनको उसी प्रकार देखना चाहिये । हमें दूसरोंकी आन्तरिक दशाके अन्दर प्रविष्ट होना चाहिये और उनके नेत्रोंसे देखकर तथा उनके अनुभवके अनुक्रमको समझकर उन जैसा हो जाना चाहिये । निस्सन्देह ऐसा व्यवहार हम ऐसे मनुष्य के साथ तो कर ही नहीं सकते जिसकी बुद्धि और अनुभव हमसे बढ़कर हैं और न ऐसे के साथ ऐसा व्यवहार कर सकते हैं जिससे For Personal & Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' २५० जैनहितैषी [भाग १४ हम अपने आपको उन्नत और उच्च समझते हैं। उनकी स्थितिको ग्रहण करो । केवल इसी प्रकार क्योंकि सहानुभूति और स्वार्थ एक स्थानपर तुम उनके साथी होकर उनके जीवन और अनुस्थिर नहीं रह सकते। परन्तु हम ऐसे मनु- भवको पूर्णतासे समझोगे और जब' किसीको व्योंके साथ सहानुभूति रख सकते हैं जो उन समझ लोगे तो फिर उसको निन्दित और दूषित पापों और क्लेशोंमें फंसे हुए हैं जिनसे हमने नहीं ठहराओगे। मनुष्य एक दूसरेको दूषित सफलताके साथ अपने आपको मुक्त कर लिया और अपराधी बताकर इसी वास्ते दूरसे टालते है। जिस पुरुषकी महत्ता हमसे बढ़कर है उसको हैं कि वे एक दूसरेको भलेप्रकार समझते नहीं। । हम अपनी सहानुभूतिकी छायासे ढंक नहीं और जब तक वे अपने आप पर विजय ने प्राप्त सकते हैं, परन्तु उसके साथ हम अपनेको इस कर लें और शुद्ध न बन लें तब तक समझ भी प्रकार रख सकते हैं कि उसकी महत्तरा सहा- कैसे सकते हैं ? नभतिका सहारा ले सकें और उन पापों और वृद्धि. परिपक्वता, और विस्तरताको जीवन । दुःखोंसे मुक्त हो सकें जिनमें हम अब भी फँसे कहते हैं और एक प्रकारसे देखा जाय तो पापी ___ और पुण्यात्मामें विशेष अन्तर नहीं है, केवल पक्षपात और दुष्कामनायें सहानुभूतिके श्रेणी और क्रमका अन्तर है। पुण्यात्मा किसी मार्गकी बड़ी भारी रुकावटें हैं और अहंकार समयमें पापी था और पापी भविष्यमें पुण्यात्मा सहानभति ग्रहण करनेमें बाधा डालता है। होगा। पापी बच्चा है और पुण्यात्मा वृद्ध है । तम उसके साथ सहानुभूति नहीं रख सकते जो पापियोंको दुष्ट समझकर उनसे अपने आपको जिसके लिये तुम्हारे मनमें पूर्वहीसे घृणा है पृथक रखता है वह उस परुष की नाई है जो और उस मनुष्यकी सहानुभूति तुम अपने छोटे बच्चोंको निर्बाध, अनाज्ञाकारी और खिलोंपर रखना नहीं चाहते जिसके लिये तुम्हारे नोंसे खेलनेवाले समझकर उनसे दूर हटता है। मनमें पूर्वहीसे द्वेष है । जिस मनुष्यसे तुम घिन करते हो उसके जीवनको तुम समझ . ____ जीवन समान है, परन्तु देखने में इसके कई नहीं सकते और जिनके प्रति तम अपनी पाश- भेद हैं । पुष्प वृक्षसे कोई पृथक् पदार्थ नहीं है। विक बुद्धिसे ईर्ष्या करते हो उसको भी नहीं यह उसी वृक्षका एक अंग है बल्कि पत्तीका एक समझ सकते, किन्तु जैसे तुमने उसके लिये दूसरा भेद है । भाप पानीसे कोई पृथक् वस्तु अपने हृदयमें अपूर्ण और कच्चे विचार बाँध नहीं है, वह पानीका रूपान्तर है । पुण्यात्मा स्वखे हैं उन्हींके अनुसार समझोगे । अपनी परिपक्व और परिणत पापी है। अशुद्ध और कारणशून्य सम्मातिके द्वारा तुम पापी वही है जिसकी बुद्धि अपरिपक्व केवल उसकी बुराईको देख सकोगे, भलाई नहीं। है और जो अज्ञानताके कारण अशुद्ध कार्य-प्रणा- यदि तुम्हें दूसरोंकी यथार्थता समझनी है लीमें रुचि रखता है । पुण्यात्मा वह है जिसकी तो उनके और अपने बीचमें रुचि या अरुचि, बुद्धि परिपक्व है और जिसकी कार्य-प्रणाली ३पक्षपात तथा स्वार्थिक वासनाओंको मत आने शुद्ध और सत्य है। एक पापी दूसरे पापीको "दो; उनके कार्योंका विरोध न करो और उनके दूषित बताता है, क्यों कि दूषित बताना कार्यकी मतों और विश्वासोंको दूषित न ठहराओ । थोड़े अशुद्ध प्रणाली है। पुण्यात्मा पापीको दूषित समयके लिये तुम अपने आपको पृथक् रखकर नहीं ठहराता, क्यों कि उसको स्मरण रहता है For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ९ ] कि एक बार स्वयं भी उसी दशा में था, बल्कि उसको अपना लघुभ्राता या मित्र समझ कर उसके साथ गंभीर सहानुभूति रखता है, क्यों कि सहानुभूति रखना कार्य की शुद्ध और उज्ज्वल प्रणाली है। परिपक्व महात्माको जो सबसे सहानुभूति - रखता है - दूसरों से सहानुभूति पाने की आवश्यकता नहीं है । क्यों कि वह पाप और क्लेशको जीत चुका है और आनन्दमें मग्न रहता है । परन्तु जो क्लिष्ट हैं उनको सहानुभूतिकी आवश्यकता है और जो पाप करते हैं वे क्लेश पाते हैं। जब मनुष्य यह समझने लगता है कि प्रत्येक पापके लिये ( चाहे वह मानसिक हो या कायिक ) उसको अवश्य क्लेश उठाना पड़ेगा तब वह दूसरों पर दोष लगाना छोड़ देता है और पापसे उत्पन्न हुए उनके क्लेशोंको देख कर उनके साथ सहानुभूति रखना आरम्भ करता है । ऐसा वह तब समझने लगता है जब अपने आपको ★ पवित्र और शुद्ध बना लेता है । सहानुभूति । जब मनुष्य अपने मनके विकारोंको शुद्ध कर लेता है, स्वार्थिक इच्छाओं को बदल देता है और अहंकारको पैरके नीचे कुचल देता है तब वह सर्व प्रकार के मानुषिक अनुभवोंको, अर्थात् समस्त पाप, दुःख, शोक, विचार और उद्देशोंको • संपूर्णतासे माप लेता है और धर्मनीतिको सुप्रकार समझ लेता है । सम्पूर्ण आत्मदमन और सम्पूर्ण ज्ञान सहानुभूति हैं। जो मनुष्य दूसरोंको अपने पवित्र हृदयकी स्वच्छ दृष्टिसे देखता है वह उनपर अवश्य करुणा करता है, उनको अपने ही देह भाग समझता है, उनको पतित और पृथक नहीं किन्तु अपनी ही आत्मा मानता है और उनके विषयमें यह समझता है कि " जैसे मैंने पहले पाप किया था, , वैसा ही ये भी कर रहे हैं, जैसे मैने क्लेश उठाया था, वैसा ये भी उठा रहे हैं, और जैसे मैं अन्तमें शान्तिको प्राप्त हुआ वैसे ही ये भी प्राप्त जायेंगे । " २५१ यथार्थमें भला और धीमान् वह है जो प्रबल पक्षपाती नहीं है, जो सबसे सहानुभूति रखता है, जो दूसरोंमें दोष नहीं देखता, जो पापीके उस पापको पहिचान लेता है जिससे वह अज्ञानताके कारण प्रसन्न हो रहा है और यह नहीं जानता कि अन्तमें मुझे इस पापके हेतु दुःख और पीड़ा उठानी पड़ेगी । जितनी दूर मनुष्यकी बुद्धि पहुँचती है उतनी ही दूर वह अपनी सहानुभूति विस्तृत कर सकता है; उससे अगाड़ी नहीं और मनुष्य जितना नम्र और दयावान् होता जाता है उतना ही अधिक वह बुद्धिमान होता जाता है । सहानुभूति संकुचित होनेसे हृदय संकुचित होता है और जी धुंधला तथा कटु होता है । सहानुभूतिको विस्तृत करना जीवनको प्रकाशित और हर्षित करना है और दूसरोंके लिये प्रकाश और आनन्दका मार्ग सुगमतर बनाना है । दूसरे के साथ सहानुभूति रखना उसके शरीरको अपने शरीर में धारण करना और उसके. समान भाव करना है, क्योंकि स्वार्थशून्य प्रेम बहुत शीघ्र ऐक्य उत्पन्न करता है । वह मनुष्यजिसकी सहानुभूति समस्त प्राणधारियों के साथ है उन सबमें तन्मय है और संसार के सर्वव्यापक प्रेम, नीति और बुद्धिको समझता है । स्वर्ग, शांति और सत्य मनुष्यसे उतने ही दूर हैं जितने दूसरे मनुष्योंको वह अपनी सहानुभूतिसे दूर रखता है । जिस सीमापर उसकी सहानुभूति समाप्त होती है वहींसे अन्धकार, दुःख और हलचल आरम्भ होती है, क्योंकि दूसरोंको अपने प्रेमसे दूर रखना मानों स्वयंको प्रेमके आनन्दसे दूर रखना है और स्वार्थक अन्धेरे कारागार में पड़े पड़े सुकड़ना है । जब मनुष्यकी सहानुभूति असीम होती है। तब ही उसको सत्यका अनन्त प्रकाश दृष्ट होता है । असीम प्रेममें ही असीम आनन्द मिलता है । For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२५२ जैनहितैषी [भाग १४ सहानुभूति आनन्द है । इसमें सर्वोत्तम और वह अपने आपको सर्वमय देखता है और पवित्र आनन्द दृष्टिगत होता है । सहानुभूति समझता है कि सब मनुष्य मेरे दूसरे देह हैं और स्वर्गीय है, क्योंकि इसके प्रकाशमें सब तरहके उनकी प्रकृतियाँ भी मुझ जैसी हैं, केवल उनमें स्वार्थिक विचार. नष्ट हो जाते हैं और सबके न्यूनाधिकताका अन्तर है । अगर उसे दूसरोंके साथ एक भाव अर्थात् आध्यात्मिक समानताका हृदयोंमें पाप-प्रवृत्तियाँ काम करती दिखती हैं दृढ संग रखनेसे पवित्र आनन्द मिलता है। तो वह अपने हृदयको टटोलता है और देखता जब मनुष्य सहानुभूति रखना छोड़ देता है तो है कि ऐसी ही प्रवृत्ति है तो मेरे मनमें भी, परन्तु उसका जीवन, दृष्टि और ज्ञान वृथा हो जाता है। उसने पापकी ओर झुकना छोड़ दिया है । यदि ___ मनुष्य जबतक दूसरोंके प्रति स्वार्थिक विचार वह दूसरोंमें पुण्य प्रवृत्ति देखता है तो उसको अपने नहीं छोड़े तबतक उनके साथ सच्ची सहानुभूति मनमें भी वैसी ही पुण्यप्रवृत्ति दिखती है जो अभी नहीं रख सकता। जो सच्ची सहानुभूति रखता उतनी शक्ति और परिपक्वताको नहीं पहुँची है। है वह दूसरोंको जैसे वे हैं वैसा देखनेका प्रयत्न एकका पार सबका पाप है और एकका करता है, उनके विशेष पाप, वासनाएँ, दुःख, पुण्य सबका पुण्य है । एक मनुष्य दूसरे मनुविश्वास, पक्षपात इत्यादिको यथार्थतासे जान ष्योंसे पृथक् नहीं है । प्रकृतिका कोई अन्तर नेकी चेष्टा करता है। वह अन्तमें जान लेता है । नहीं है, केवल स्थितिका या दशाका अन्तर है। कि वे लोग अपनी आध्यात्मिक उन्नतिमें किस यदि कोई मनुष्य अपनेको किसी दूसरे मनुष्यसे श्रेणी तक पहुँचे हुए हैं, उनका अनुभव कहाँ इस विचारसे पृथक् समझे कि वह मुझसे अधिक तक है और वे अपनी दशाको अभी बदल पवित्र है तो उसका ऐसा विचारना उसका सकते हैं या नहीं। वह जान लेता है कि उनका अज्ञान है। वह पृथक् नहीं है। मनुष्यत्व जैसा ज्ञान है उसीके अनुसार वे विचार और सब एक है । सहानुभूतिके पवित्र मन्दिरमें कार्य करते हैं। वह यह भी जान लेता है कि पुण्यात्मा और पापी मिलते हैं और एक होते हैं। उनकी हीन बुद्धि और ज्ञान अच्छे उदाहरणों के जीसिस क्राइस्टके विषयमें कहा जाता है द्वारा सहायता और उन्नति पा सकते हैं, परन्तु कि उसने अखिल संसारके पाप. अपने ऊपर वे तत्क्षण नहीं बदले जा सकते । विवेक और लिये-अर्थात् उसने अपनेको पापियोंसे पृथक् प्रेमके पुष्पोंको बढ़ने और विकसनके लिये सम नहीं गिना बल्कि अपने आपको उन जैसा ही यकी आवश्यकता है और ईर्ष्या तथा मूर्खताकी जाना । प्राणीमात्रके साथ उसका ऐसा समभाव बाँझ टहनियाँ शीघ्र नहीं काटी जा सकतीं। उसके जीवन में स्पष्टतासे सबको दृष्टिगत हुआ। ऐसा मनुष्य उससे परिचित जितने भी मनुष्य उसने उन पापियोंको-जिनको लोगोंने उनके हैं उनके प्रत्येकके आभ्यन्तरिक जगतका द्वार भयंकर पापोंके कारण दूर फेंक दिया था-अपनी ढूँढ लेता है, उसको खोलता है, उसके अन्दर छातीसे लगाया और उनके साथ घनिष्ठ सहाचला जाता है और उनके जीवनके पवित्र मन्दिरमें निवास करके उन सबके साथ एकमेक नुभूति दिखाई। हो जाता है । फिर उसको धिक्कारने, क्रोध करने सहानूभूतिका सबस आधक आवश्यकता और देष करनेको कोई भी स्थान नहीं दिखता किसको है ? पुण्यप्रतापी, ज्ञानी, या महात्माको और उसके हृदयमें अधिकतर अनुकम्पा, धैर्य इसकी आवश्यकता नहीं है । ज्ञानरहित और तथा प्रेम रहने लगते हैं। अपरिपक्क पापी मनुष्यको ही इसकी आवश्य For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क९) सहानुभूति । २५३ कता है । जो जितना अधिक पापी है वह पापोंको और उनसे जो जो दुःख और क्लेश उतना ही अधिक दुःखी है, इसलिये उसको समुपस्थित होते हैं उनको. जानता है । वह सहानुभूतिकी भी उतनी ही अधिक आवश्यकता निद्रासे जाग कर, ज्ञानका प्रकाश प्राप्त कर है। महात्मा क्राइस्टने कहा है-“मैं पुण्या- और स्वार्थताको छोडकर सबको जैसे वे हैं त्माओंको नहीं बल्कि पापियोंको पश्चात्ताप वैसे देखता है और उन सबसे पवित्र सहानुभूति कराने आया हूँ ।" पुण्यात्माओंको तुम्हारी रखता है । ऐसे मनुष्यको यदि लोग दोष लगाते सहानुभूतिकी आवश्यकता नहीं, केवल पापि- हैं, उसकी बुराई करते हैं या उससे घृणा करते योंको है । जो दूषित कर्मोंसे बहुत समय तक हैं, तो वह बुराईके बदले उनके साथ सहानुभूति दुःख और क्लेश उठानेके लिये पाप संचय कर प्रकट करता है और विचार करता है कि ये मनुष्य रहा है उसीको सहानुभूतिकी आवश्यकता है। अपनी अज्ञानताके कारण मुझसे घृणा करते हैं, - एक प्रकारका पाप कर्म करनेवाला दूसरे इन्हें अपने बुरे कर्मोंका फल भोगना पड़ेगा। प्रकारके पाप करनेवालेको बुरा, अपराधी और आत्मदमन और ज्ञानवृद्धिके द्वारा जो तुमसे अधम बताता है । वह यह नहीं सोचता कि घृणा करें उनसे स्नेह करना सीखो । उनके मेरे और उसके पाप यद्यपि भिन्न प्रकारके हैं, बुराई करनेकी ओर दृष्टि न डालो, प्रत्युत अपने परन्तु अन्तमें वे हैं पाप । वह यह नहीं देखता मनको टटोलो; कदाचित् तुम्हारे मनमें भी कोई कि सर्व प्रकारके पाप एक ही हैं, केवल उनके रू- बुरी बात होगी । यदि तुम अपने दोषों और पोंमें अन्तर है । मनुष्य स्वयं जितना पापी है उतना अपराधोंको समझ लोगे तो दूसरोंकी निन्दा ही दूसरोंको पापी ठहराता है । जब उसको करना छोड़कर अपने आपको धिक्कारने लगोगे। सद्ज्ञान होता है और वह अपने पापसे मुँह साधारण प्रकारसे जिसको सहानुभूति कहते फेरता है तथा उससे बचनेका यत्न करने लगता हैं वह सहानुभूति नहीं है, किन्तु वह एक प्रकाहै, तब दूसरोंको भी पापी बतानेसे रुकने लग रका शारीरिक स्नेह है । जो हमसे स्नेह-करे जाता है और उनके साथ सहानभति जताने उससे हम भी स्नेह करें. यह एक मानषिक स्वभाव लगता है। परन्तु यह एक अटल सांसारिक और प्रकृति है। परन्त जो हमसे स्नेह नहीं करें 'नियम है कि इन्द्रियोंके वशीभूत पापी मनुष्य उनसे हम स्नेह करें, यह पवित्र सहानुभूति है । आपसमें एक दूसरेको दूषित समझते हैं और सहानुभूतिकी आवश्यकता दुःख और क्लेशके घृणा करते हैं । वह मनुष्य-जिसको सब बुरा कारण है । क्योंकि ऐसा कोई प्राणी नहीं है और दोषी बताते हैं और जिससे घृणा करते हैं- जिसको दुःख न हुआ हो । दुःखहीसे सहानुयदि उन लोगोंके धिक्कारनेको अच्छा समझे और भूति उत्पन्न हुई है । एक वर्ष या एक ही जीवविचार करे कि मेरे अपराधोंके कारण वे मुझे बुरा नमें मानुषिक हृदय दुःख पाकर पवित्र और बताते हैं तो उसकी उन्नति होने लगती है और स्वच्छ नहीं बन सकता, किन्तु बारंबार जन्म वह स्वयं दूसरोंकी बुराई करना छोड़ देता है। लेकर और दुःख पाकर ही मनुष्य अपने अनु___ जो वास्तवमें सच्चा और भला मनुष्य है वह भवोंकी सुनहरी फसलको काटता है और प्रेम दूसरोंकी निन्दा नहीं करता। ऐसा मनुष्य और ज्ञानकी परिपक्क और अमूल्य फलियाँ प्राप्त स्वार्थता और अन्धे उद्वेगको दूर रख कर प्रेम करता है । इस प्रकार जन्मजन्मान्तरके पश्चात् और शान्तिके साथ रहता है और सर्व प्रकारके वह समझने लगता है और सहानुभूति रखने For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ जैनहितैषी [भाग १४ लगता है । नियमोंका उल्लंघन ही पाप है। रक्षा करना है, न कि नाश करना । जीवन मनुष्य अज्ञानतासे नियमोंका उल्लंघन करते हैं। छोटे जीवोंकी रक्षासे सफल होता है उनके जो पाप है वहीं क्लेश है । एक पापके बार बार नाशसे नहीं। करनेसे उसका फल अर्थात् क्लेश बारंबार भोगना जीवन सब एक है । छोटेसे छोटा प्राणी पड़ता है और बारंबार कष्ट भोगनेसे उस निय- महत्से महत् प्राणीसे केवल शक्ति और बुद्धिकी मका ज्ञान हो जाता है और जब ज्ञान हो न्यूनाधिकतामें भिन्न है, नहीं तो सब प्राणी जाता है तो सहानुभूतिके पवित्र और सुन्दर एक हैं । जब हम दया और रक्षा करते हैं तो कुसुम खिल उठते हैं। हमारा ऐश्वर्य और हर्ष बढ़ता है और प्रकट सहानुभूतिका अंश दया है। संसारमें दुःखित होता है। इसके विपरीत जब हम अविवेकता और क्लिष्टोंका दुःख दूर करनेके लिये और और कठोरतासे प्राणियोंको दुःख और क्लेश उनको धैर्य दिलानेके लिये दयाकी बड़ी आव- पहुंचाते हैं तो हमारा ऐश्वर्य आच्छादित होता.. श्यकता है । “दया अशक्तोंके लिये संसारको और हर्ष बुझ जाता है। एक प्राणीका दूसरा कोमल बनाती है, और शक्तिमानोंके लिये प्राणी चाहे आहार करे, और एक उद्वेग चाहे संसारको उन्नत बनाती है।" - दुसरे उद्वेगको नष्ट करे; परन्तु मनुष्यकी क्रूरता, अकृपा, दोषारोष और क्रोधको हटा- सात्विक प्रकृति केवल दया, प्रेम, सहानुभूति नेसे दया बढ़ती है। जो मनुष्य किसी पापीको और स्वार्थशून्य पवित्र कर्मोसे ही वृद्धिङ्गत, पापका फल पाते देखकर अपने हृदयको कठोर सुरक्षित और परिपक्क होती है। करता है और कहता है कि "यह अपने उचित दूसरों के प्रति सहानुभूति रखनेसे हम अपने पापोंका फल पा रहा है" वह दया नहीं लिये दूसरोंकी सहानुभूति बढ़ाते हैं । किसीके कर सकता है । मनुष्य जब जब प्राणियोंपर साथ की हुई सहानुभूति नष्ट नहीं होती। कमीकठोरता करता है और उन पर आवश्यक सहा- नेसे कमीना प्राणी भी सहानुभूतिके स्वर्गीय नुभूति प्रकट नहीं करता है, तब तब ही वह स्पर्शसे भला मानेगा, क्यों कि सहानुभूति एक अपनेको संकीर्ण बनाता, अपने आनन्दको न्यून ऐसी विश्वव्यापक भाषा है । जिसको सब प्राणी करता और क्लेश भोगनेके बीज बोता है। समझते हैं। अमेरिकाके डारटमूर नगरमें एक सहानुभूतिका दूसरा अंश यह है कि अपनी अत्यंत अत्याचारी अपराधी मनुष्य था जिसको अपेक्षा दूसरोंकी अधिकतर सफलता देखकर हर्ष कितने ही अपराधोंके कारण चालीस वर्षसे भी मनाना और समझना कि उनकी सफलता मेरी ऊपर तक कई नगरोंमें कैद रहना पड़ा था। ही है । निस्सन्देह वह मनुष्य धन्य है जो उसको सब लोग बहुत भयानक, कठोर और ईर्ष्या, द्वेष और कुढ़नसे मुक्त है और जो उन अन्यायकारी समझते थे और कारागारोंके पहरेलोगोंके शुभ समाचार सुनकर-जो उसको दार इत्यादि उसके सुधारकी कोई आशा नहीं अपना वैरी समझते हैं-हर्षित होता है। रखते थे। एक दिन जिस कोठरीमें वह रक्खा अपनेसे न्यूनतर और हीनतर प्राणियोंकी जाता था वहाँ एक गरीब भूखा और अस्वस्थ रक्षा करना भी सहानुभूतिका एक अंश है। चूहा आ निकला । उसकी असहाय और दुर्बल बेजबान जानवरोंकी रक्षाके लिये बड़ी गहरी दशाको देखकर उस पापीके भी हृदयमें दयाकी सहानुभूतिकी आवश्यकता है । शक्तिकी शोभा बिजलीका संचार हो गया और वह अपनी और For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यप्रवर अमृतचन्द्र। २५५ उस चूहेकी एक ही प्रकारकी दशा समझकर आचार्यप्रवर अमृतचन्द्र । उसपर सहानुभूति प्रकट करने लगा। उसने उस चूहेको अपने एक बूटमें वासस्थान दे दिया और अपने भोजन और जलमेंसे वह उसको खाने (लेखक-श्रीयुत नाथूराम प्रेमी।) पीनेके लिये देने लगा। जिस अत्यंत कठोर और आध्यत्मिक विद्वानोंमें भगवत्कुन्दकुन्दाचादुषित हृदयमें किसी भी मनुष्यके लिये दया र्यके बाद यदि किसीका नाम लिया जा सकता नहीं थी, उसी हृदयमें एक चूहेके हेतु सहानु- है तो वे श्रीअमतचन्द्रसूरि हैं । दुःखकी बात है भूतिका स्वर्गीय दीपक जलने लगा । अपनेसे " कि इतने बड़े सुप्रसिद्ध आचार्यके विषयमें हम शक्तिहीनोंकी ओर उसकी दया और प्रेम बढ़ने A हुने सिवाय इसके कुछ भी नहीं जानते हैं कि उनके T लगा और अपनेसे अधिक शक्तिमानोंसे उसकी । बनाये हुए तत्वार्थसार, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, समघृणा कम होने लगी । वह पहरेदारोंकी पूर्ण , वह पहरदाराका पूर्ण यसार टीका, पंचास्तिकाय टीका और प्रवचनआज्ञा मानने लगा । वे लोग इस बातको अद्भुत सार टीका, ये पाँच ही ग्रन्थ उपलब्ध हैं। उनकी समझने लगे कि इतना कठोर मनुष्य इतना गुरुपरस्परा, और समयादिसे हम सर्वथा अन सिरहामा अ-- नम्र कैसे बन गया। उसकी आकृति भी बदल भिज्ञा हैं। इस छोटेसे लेखमें हम उन्हीके विषगई । नेत्रों और होठों आदिकी भयंकरता धीरे । यमें कुछ बातें सूचनिकारूपमें उपस्थित करना ना मनात धीरे कोमलता और प्रेममें परिणत हो गई। चाहते हैं:अब वह दूषित और पापी कैदी नहीं रहा, उसका प्रायश्चित्त हो गया और उसका मन १-पण्डितप्रवर आशाधर अपने अनगारपुण्यमें रत हो गया। अन्तमें यह समस्त वृत्तान्त । - धर्मामृतकी भव्यकुमुदचन्द्रिका टीकामें (पृष्ठ अधिकारियों तक पहँच गया । उन्होंने उसको १६० मे ) लिखते हैःस्वतन्त्र कर दिया । जब वह जाने लगा तो उस “ एतदनुसारेणैव ठक्कुरोपीदमपाठीत्चहेको भी साथ ले गया। लोके शास्त्राभासे समयाभासे च देवताभासे। इस प्रकार दूसरोंपर सहानुभति प्रकट करनेसे नित्यमपि तत्त्वरुचिना कर्तव्यममूढदृष्टित्वम् ।।" 'इसका भंडार स्वयं हमारे हृदयमें बढ़ता है और यह श्लोक पुरुषार्थसिद्धयुपायका है, इसमें हमारा जीवन सफल होता है । सहानुभातिके किसी प्रकारका सन्देह नहीं किया जा सकता, दानसे आनन्दका पुरस्कार मिलता है और अतएव पं० आशाधर अमृतचन्द्रसूरिको ही ठक्कुर सहानुभतिका दान न देनेसे हमारा अनन्द नष्ट नामसे अभिहित करते हैं । इससे मालूम होता होता है। मनुष्य जितनी अधिक सहानुभति है कि या तो वे गृहस्थावस्थामें ठक्कुर उपनामसे रखता है उतना ही वह आदर्श जीवन अर्थात् पुकारे जाते होंगे, या फिर मुनि अवस्थामें ही सत्यानन्दके समीप पहुंचता है। जब उसका हृदय यह उनका दूसरा नाम होगा। इतना कोमल हो जाता है कि उसमें कोई भी अनगार धर्मोमृतमें अमृतचन्द्रके और भी कठोर, कटु या निर्दय विचार उत्पन्न नहीं होता अनेक श्लोकादि उक्तं च' रूपमें उद्धृत और उसके माधुर्यको न्यून नहीं करता तब वह किये गये हैं, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता मनुष्य सचमुच सत्य आनन्दमें मग्न हो जाता है। कि पूर्वोक्त श्लोकको आशाधरजीने भ्रमसे ठक्कुर नामक किसी दूसरे विद्वानका समझकर उद्धृत For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ जैनहितैषी - [ भाग १४ परिचित जान पड़ते हैं । कर दिया है । पुरुषार्थ सि० से तो वे बहुत ही षार्थसि ० की आर्यायें दी हैं । इससे मालूम होता है कि मेघविजयजी पु० सि० को श्रावकाचार कहते हैं । और ' संघो कोविन तारइ ' को भी श्रावकाचारकी गाथा लिखी है । यह चिन्त्य है । 1 २-महोपाध्याय मेघविजयगणि नामक श्वेताबराचार्यका बनाया हुआ एक स्वोपज्ञसंस्कृतटीकायुक्त प्राकृत ग्रन्थ है । उसकी सातवीं गाथाकी टीकामें लिखा है- "श्रावकाचारे अमृतचन्द्रेोप्याहसंघो कोविन तारइ कट्टो मूलो तहेव निप्पिच्छो । अप्पा तारइ अप्पा तम्हा अप्पा दु झादव्वो ॥ १ ॥ " इससे मालूम होता है कि अमृतचन्द्रका बनाया हुआ कोई श्रावकाचार भी है और वह प्राकृत में है । उक्त गाथा तत्त्वानुशासनादिसंग्रह ' ढाढसी गाथा' नामक ग्रन्थमें भी है और उसका २० वाँ नम्बर है । ढाढसी गाथायें किसकी बनाई हुई हैं यह अबतक मालूम नहीं हुआ है । आश्चर्य नहीं जो उसके कर्त्ता अमृतचन्द्र ही हों । ३- यदि उक्त 'संघो कोवि' आदि गाथा अमृतचन्द्रकी ही है तो इससे उनके समय निर्णयमें बहुत कुछ सहायता मिल सकती है । इसमें काष्ठासंघ और नि:पिच्छिकका उल्लेख है । यदि ! देवसेनका बतलाया हुआ समय ठीक है तो वि० सं० ९५३ में निःपिच्छिकों ( माथुरसंघ ) की उत्पत्ति हुई है और इसलिए अमृतचन्द्र इसके पीछे के ग्रन्थकर्त्ता सिद्ध होते हैं । यदुवाच अमृतचन्द्रः - (सातवीं गाथाकी टीका) सव्वे भावा जम्हा पचक्खाई परित्ति नाऊण । तम्हा पञ्चक्खाणं गाणं नियमा मुणेयव्वं ॥ १ ॥” यह गाथा प्राभृतत्रयमें तो है नहीं, इसलिए मालूम होता है कि यह भी अमृतचन्द्र के किसी प्राकृत ग्रन्थसे ली गई है । 66 ५ - युक्तिप्रबोध ( पत्र १५ ) में एक जगह — श्रावकाचारे अमृतचन्द्राचार्योक्तिरपि दिगम्बरनये ' लिखकर ' या मूर्च्छानामेयं' आदि पुरु ६ - राजवार्तिक सूत्र २२ की टीका ( पृष्ठ २८४ ) में नीचे लिखी गाथा ' उक्तं च ' रूपमें दी गई है: ४-युक्तिप्रबोधमें नीचे लिखी गाथा भी आमास्वपि पक्वास्वपि विपच्यमानासु मांसपेशी॑षु । अमृतचन्द्र के नाम से दी हैं: सातत्येनोत्पादस्तज्जातीनां निगोतानाम् ॥ ६६ ॥ आमां वा पक्वां वा खादति यः स्पृशति वा पिशितपेशीम् । स निहन्ति सततनिचितं पिण्डं बहुजीवकोटीनाम् ॥६७॥ रागादीणमणुप्पा अहिंसकत्तेति देसिदं समये । तेसिं चेदुप्पत्ती हिंसेति जिणेहिं णिद्दिा || इसी आशयका श्लोक पुरुषार्थसिद्धुपायमें भी है— अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥ इसी तरह प्रवचनसारकी तात्पर्यवृत्ति में दो गाथायें हैं: . पक्केसु अ आमेसु अ विपश्च्चमाणासु मांसपेसीसु । संत्तत्तियमुववादो तज्जादीणं णिगोदाणं ॥ जो पक्कमपक्कं वा पेसी मंसस्स खादि पासदि वा । सो किल हिदि पिंड जीवाणमणेगकोडीणं ॥ ( पृष्ठ ३१३ ) इन गाथाओं की टीका अमृतचद्रसूरिने नहीं की है, इससे मालूम होता है कि ये मूल प्रवचनसारकी नहीं हैं । इनकी बिलकुल छाया पुरुषार्थसिद्धयुपायमें देखिए: इनसे मालूम होता है कि या तो अमृतचन्द्रसूरिने स्वयं कोई श्रावकाचार प्राकृतमें बनाया है और उसीका अनुवाद संस्कृत में भी किया है और या अन्य किसीके प्राचीन ग्रन्थकी छाया लेकर पुरुषार्थसि० को रचा है । मेघविजयजीके उल्लेखोंसे तो यही मालूम होता है कि प्राकृतमें भी उनका कोई ग्रन्थ है । For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लायब्रेरी। २५७ यदि राजवार्तिकोक्त गाथा अमृतचन्द्रकी हा लायब्रेरी । है तो वे अकलंकदेवजीसे भी पहलेके ठहरते हैं । ७-राजवार्तिक पृष्ठः ३६१ में 'उक्तं च' रूपसे (ले०-श्रीयुक्त नाथूराम प्रेमी।) नीचे लिखा श्लोक दिया है: चन्दननगरमें 'नृत्यगोपालस्मतिमन्दिर' नाम " दग्धे बीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्कुरः। की एक लायब्रेरी खुली है। उसके खोलनेके समय कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवाङ्कुरः।" बंगालके सुप्रसिद्ध विद्वान महामहोपाध्याय पं० यह श्लोक अमृतचन्द्रसूरिकृत तत्त्वार्थसारके हरिप्रसाद शास्त्री एम० ए० ने एक बड़ा ही महत्त्वमोक्षतत्त्वप्रकरणका ७ वाँ श्लोक है। इससे पूर्ण व्याख्यान दिया था । हमारे पाठक लायब्रेभी मालूम होता है कि वे अकलंकभट्टसे रियोंके इतिहाससे परिचित हो जावें और उनके पहलेके ग्रन्थकर्ता हैं। मालूम नहीं राजवातिकके महत्त्वको समझने लगें, इसलिए हम उसके सारसंशोधक पं० गजाधरलालजीने इस श्लोकको भागका अनुवाद यहाँ प्रकाशित करते हैंप्रक्षिप्त कैसे समझ लिया है और यह निर्णय " यह सभी जानते हैं कि जितने प्रकारके कैसे कर लिया है कि अमृतचन्द्र अकलंकदेवसे दान हैं उनमें विद्यादान सबसे बड़ा है । इसी पीछे हुए हैं। लिए आज कल अनेक लोग स्कूल आदि ८-इसी तरह तत्त्वार्थसारके मोक्षतत्त्व प्रकरण- स्थापित करके विद्यादान किया करते हैं। की भी ३२ कारिकायें राजवार्तिककारने ग्रन्था- सुसभ्य जातियोंको छोड़कर दूसरे लोग इस न्तमें उद्धृत की हैं। उनसे भी मालम होता दानके माहात्म्यको नहीं समझ सकते । जो है कि राजवार्तिकसे तत्त्वार्थसारके कर्ता पहले सुसभ्य नहीं हैं वे अन्नदान, भूमिदान, जलदान आदिसे ही सन्तुष्ट रहते हैं । वे नहीं समझते हुए हैं । इन कारिकाओंकों भी प्रक्षिप्त मान कि विद्यादानसे अन्य सब दान अपने आप ही लेनेका कोई कारण नहीं है। हो जाते हैं। विद्यादानमें लायब्रेरी-दान और तत्त्वार्थाधिगम भाष्यके अन्तमें भी-जो स्वयं भी श्रेष्ठ है। क्यों कि लायबेरियाँ विद्याकी मूल उमास्वातिका बनाया हुआ कहा जाता है ना जाता हैं। विद्याकी यदि वृक्षके साथ तुलना की जाय तत्त्वार्थसारके पूर्वोक्त ( मोक्षतत्त्ववर्णनके नं० . तो लायब्ररी उसकी जड़ है । विद्याकी यदि नदीके साथ तुलना की जाय तो लायब्रेरी उसका २० नं० से ५५ तककी ) कारिकायें दो चार चार उद्गमस्रोत-अनन्त जलराशिका आधार है। शलोंके हेर फेरसे दी गई हैं। कई श्वेता० इसलिए जो लोग लायब्रेरी-दान करते हैं वे टीकाकारोंने इनकी टीका भी लिखी है । फिर श्रेष्ठसे श्रेष्ठ दान करते हैं। स्कूलोंमें जो विद्यादान भी जब तक यह सिद्ध न हो जाय कि तत्त्वा- होता है वह लड़कोंके लिए; परन्तु लायबेरीका धिगमभाष्य स्वयं उमास्वातिका है, तब दान बालक-बूढ़े सबके लिए होता है । स्कूलोंका तक यह कैसे कहा जा सकता है कि पर्वोक्त जो विद्यादान होता है उसे लड़के नियमित वर्षों कारिकायें अमृतचन्द्रकी नहीं हैं। ५-८-२० । तक ही ग्रहण कर सकते हैं; परन्तु लायब्रेरीमें जो विद्यादान होता है उसे मनुष्य जब तक जीता है-बारह मास तीन सौ साठ दिन–लिया For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ जैनहितैषी- [भाग १४ करता है। स्कूलोंमें जो विद्यादान होता है, इसमें सन्देह करनेको जरा भी जगह नहीं है। उसकी सीमा है, बालविद्याका ही दान हुआ "ये सब लायबेरियाँ मन्दिरोंमें ही होती थीं। करता है; परन्तु यह दान असीम, अनन्त है- मन्दिरोंके पुरोहित ही पढ़ते पढ़ाते और यत्न. इसकी सीमा भी नहीं है और अन्त भी नहीं है। पूर्वक उन्हें रखते थे । मिसरकी यह लायब्ररी पृथिवीमें जो कुछ ज्ञान है, प्रायः सभी पुस्तकोंमें ईसाके जन्मसे ४-५ हजार वर्ष पहले बनी थी। लिपिबद्ध है । इसलिए लायब्रेरीमें जब सभी. उसके वाद मिसरमें बराबर लायबेरियाँ बनती तरहकी पुस्तकें रहती हैं तब जितने तरहकी रही हैं । उस समय ये पत्थरोंकी पुस्तकें कितनी विद्यायें हैं, जितने तरहका ज्ञान है सभीका बनी थीं, इसका कुछ ठिकाना नहीं है। उसके द्वारा दान होता है। अत एव लायब्रेरी “सन् १८५० में लेयार्ड साहबने निनिवा खोलना बड़े ही पुण्यका कार्य है। नामक नगरमें खुदाई आरम्भ की थी। ३० फुट ___“ लायबेरियोंका इतिहास बहुत लम्बा है। खोदनेके बाद उन्हें एक बड़ा भारी कमरा मनुष्य जबसे सभ्य हुआ है, जबसे उसने मिला । उस कमरेका सारा मध्यभाग एक फुट अपने मनके भाव बाहर अंकित करने सीखे हैं, ऊँची पत्थरकी लादियोंसे (पत्थरके चौकोर तभीसे लायब्रेरियोंकी उत्पत्ति हुई है । ' अंकित टुकड़ोंसे ) सजाया हुआ था और लादिकरना' कहनेका कारण यह है कि लिखनेके योंमें आदिसे अन्ततक तिकौने अक्षर लिखे लिए वर्णमालाकी आवश्यकता होती है। हुए थे । पण्डितोंका अनुमान है कि यह परन्तु वर्णमालाकी उत्पत्तिके पहले भी मनुष्य असुरराज ( असीरियाके राजा ) सार्डे नापोमनके भाव प्रकट करता था और वे वर्णमालाके लासकी लायब्ररी थी। इसमें लगभग २०,००० द्वारा नहीं किन्तु चित्र अंकित करके, जीव-जन्तु पृथक् पृथक् ग्रन्थ थे जिनमें कितने ही कोष, और वृक्षपत्र आदि अंकित करके । उस समय अनेक महाकाव्य, इतिहास और ज्योतिषके ग्रन्थ छापेखाने नहीं थे, कागज नहीं था, तालपत्र और थे । अर्थात् एक बड़े राजाकी लायब्रेरीमें जो भोजपत्रोंका भी व्यवहार नहीं था। उस समय कछ रहना चाहिए था वह सभी था । नि मनके भाव प्रकट करनेके लिए चित्र अंकित इतनी बड़ी लायबेरीका पता लगने पर यूरोपके करना पड़ते थे पत्थरोंपर और मिठीके ईटोपर- लोगोंको बड़ा कुतूहल हुआ और इस शोधके और वे भी पकाई हुई नहीं किन्तु धूपमें सुखाई काममें उनका उत्साह बढ़ गया। अब वे मेसपटमें हुई ईटें । पत्थरोंपर लिखी हुई एक लायब्रेरी जहाँ कहीं कोई बड़ासा टीला दिखा वहीं खोदने मिसर देशमें जमीनके बहुत नीचे पाई गई है। लगे। फल यह हुआ कि इस खुदाईमें उन्हें उस समय मिसरके पिरामिडों ( समाधिस्तूपों) न जाने कितने मकान, कितनी मूर्तियाँ और का बनाना शुरू हुआ था या नहीं, इसमें सन्देह कितने ग्रन्थालय मिले ! यह सब देख सुनकर है । जिन लोगोंने बड़े बड़े पिरामिड बनाये और पढ़ कर सबका यह विश्वास हो गया है कि थे, उन लोगोंसे तो पहलेकी यह अवश्य ही ईसाके जन्मके ४००० वर्ष पहले मेसपटमें सुमेर है । उसके पत्थरोंपर केवल चित्र बने हुए और आकाद नामकी दो जातियोंका निवास हैं । इस लायबे में जितनी पुस्तकें थीं, था। सुमेर जातिके लोग दादीकी हजामत बनदीवालपर उन सबकी एक सूची दी हुई है। वाते थे, पर आकाद नहीं बनवाते थे। सुमेर इसलिए वे सचमुच ही लायब्रेरीकी पुस्तकें हैं सबसे पहले सभ्य हुए थे। वे पत्थरकी मूर्तियाँ For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ९] लायब्रेरी। गढ़ते थे, पत्थरके मकान तैयार करते थे, दूर देशोंकी पुस्तकें संग्रह करते थे । मिसरकी पुस्तकें दूर तक वाणिज्य करते थे और लिखना पढ़ना भी वे संग्रह करते थे और हिब्रू लोगोंकी भी भी जानते थे। इन्हें मार कर आकाद लोग वहाँ- करते थे । वे बड़े बड़े पण्डितोंको तलाश करके के राजा हुए। सुमेरोंकी बहुत कुछ सभ्यता उन्हें लायब्रेरीके अध्यक्ष बनाते थे । किसीआकादोंने ले ली थी, इस लिए उन्हें सुमेरोंकी किसीका मत है कि वहाँ ७ लाख पुस्तकें थी! भाषा सीखने के लिए कोषकी आवश्यकता हुई। बहुतोंका खयाल है कि जब खलीफा उमरने आखिर उन्होंने सुमेर और आकाद दोनों ही अलेकजेण्ड्रिया पर अधिकार किया, तभी उक्त भाषाओंका कोश बनाया । वह कोष भी उक्त लायब्रेरी जला दी गई थी और बहुतोंका कथन लायब्रेरीमें प्राप्त हुआ है । एक महाकाव्य भी इन है कि खलीफाके बहुत पहले अनेक गड़बड़ोंके सब लायबेरियोंमें मिला है । उसका नाम है- कारण वह नष्ट हो गई थी। एक उदाहरण लीजिए। 'ईस्तर और ईसदुबाल' । इस काव्यका अँग- इस लायब्रेरीके दो भाग थे। एक समुद्रके बहुत रेजी अनुवाद हो गया है और उसे मैंने पढ़ा निकट था और वही बड़ा था । जूलियस सीजरने है । बड़े ही आश्चर्यकी बात है कि जितने जब अलेकजेण्ड्रियाकी नौकाओंके बेड़ेमें आग प्राचीन महाकाव्य हैं वे सभी बहुत लम्बे हैं- लगा दी, तब उसी आगसे उक्त बड़ा भाग जल रामायण, महाभारत, इलियड, ओडेसी आदि गया। सीजरके बाद उसका परम मित्र एण्टोनी सभी; परन्तु ईस्तर और ईसदुबाल इस समयके इस हानिको पूर्ण करनेके लिए बहुत ही चिन्तित महाकाव्योंके-रघुवंश, मेघनादवध आदिके- हुआ। उसने यह किया कि पार्गामस : समान हैं और सर्गबद्ध है । इसमें भी बीज- स्थानमें जो एक विशाल लायब्ररी थी उसीको बिन्दु-पताका सब हैं और वर्णन भी बहुत लाकर क्लिओपेट्रा (मिसरकी रानी) को दान कर सुन्दर है । इसमें स्वर्ग, नरक, समुद्र, पर्वत, दी। तव क्लिओपेट्राने इस बड़ी लायब्रेरीमें युद्धविग्रह, किले आदि सभी बातोंका वर्णन पार्गामसकी पुस्तकें रख दीं। है । एक अद्भुत वस्तु है। "रोममें भी बड़ी बड़ी लायबेरियाँ थीं। ये. “यवन या ग्रीस देशमें अनेक बड़ी बड़ी सब लायबेरियाँ सर्वसाधारणके हाथमें रहती लायबेरियाँ थीं । बादशाह सिकन्दरके गुरु थीं, सब ही लोग उनमें जाकर पढ़ सकते अरस्तू (अरिस्टाइल ) की एक विशाल लायब्ररी थे। इस प्रकारकी पब्लिक लायब्रेरी या सर्व थी। वे उसे अपने एक छात्रको दे गये थे। साधारणका पाठागार सबसे पहले आगस्टसने एथेन्समें यूक्लिडकी एक लायब्रेरी थी । किन्तु खोला था। ईस्वी सन् ४ में रोमनगरमें इस सिकन्दरिया (अलेकण्ड्रिया ) की लायब्रेरी प्रकारकी २९ पब्लिक लायबेरियाँ थीं। इनके पृथिवीकी सभी लायबेरियोंसे बढ़ गई थी। सिवाय प्रायजसभी बड़े बड़े नगरोंमें लायबेरियाँ महावीर सिकन्दरके सेनापति टालेमीने मिसर थीं। जब रोमकी राजधानी कस्तुस्तुनियामें चली देश विजय किया था । इसी टालेमीने सिक- गई, तब वहाँ भी खूब बड़ी बड़ी लायबेरियाँ न्दरियाकी लायब्रेरी स्थापित की थी। उस समय बनाई गई । वहाँकी एक लायब्रेरीमें एक टेपिरास नामक एक झाड़की छालपर लिखना लाखसे भी आधिक पुस्तकें थीं । रोम साम्राआरंभ हो गया था । वर्णमालाका भी प्रचार ज्यके नष्ट होने पर पोपोंने भी बड़ी बड़ी हो गया था । टालेमी और उसके अनुचर सभी लायबेरियाँ बनाई थीं । जहाँ बड़े बड़े मठ For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैर्षा [भाग १४ या विहार थे, वहाँ बिशप रहते थे और उनमें लोंसे लौटते थे तब एक एक लायब्रेरी बनकर बड़ी बड़ी लायबेरियाँ रहती थीं ! बड़े बड़े लौटते थे । वेद लिखे तो जा ही नहीं सकते थे, राजा भी उस समय लायब्रेरी रखते थे। पहले क्योंकि जो लिखता उसके लिए घोर नरक पहले लोग लायबेरियोंमें बैठ कर पढ़ते थे, निश्चित था ! प्रसिद्ध मुसलमान इतिहासज्ञ पीछे पुस्तकें घर ले जा कर पढ़नेकी भी व्यवस्था अलबेरुनी लिख गये हैं कि ईसवी सन् ९५० में कर दी गई थी। सबसे पहले काश्मीर देशमें वेद लिपिबद्ध हुए। __“यह तो हुई प्राचीन अन्धयर्गकी बात । वर्त- थे। इस समय वेदोंकी हस्तप्रतियाँ बहुत कम/ मान समयमें तो लायब्रेरियोंकी गिनती ही नहीं उपलब्ध होती हैं । मोक्षमूलरने जितनी प्रतियों है । सभी नगरोंमें बड़ी बड़ी पब्लिक लायबेरियाँ । परसे ऋग्वेदका संस्करण प्रकाशित किया था, हैं । यूनीवर्सिटियोंमें लायबेरियाँ हैं और राजमह उनमेंसे कोई भी १६ वीं शताब्दिसे पहलेका लोंमें भी । इनमें जो एक सबसे बड़ी लायब्रेरी है नहीं है। हम लोगोंने उनसे भी कई पुरानी प्रतियाँ उसका हाल आप सब लोगोंको अवश्य जान पाई हैं उनमें एक ईसवी सन १३४२ की लिखी लेना चाहिए। यह लायब्रेरी अमेरिकाके वाशिंग हुई है। शुरूसे अब तक वेद कण्ठस्थ ही चले टन नगरमें खुली है। उसमें एक करोड़ पुस्तकें आते हैं । यही हाल बौद्धोंका भी रहा है। रखनेकी व्यवस्था की गई है और आवश्यकता ईसवी सन् ४०० में चीनका प्रसिद्ध यात्री फाहिहोने पर उसमें और भी स्थान बढ़ाया जा सकता यान यहाँ पुस्तक संग्रह करनेके लिए आया है ! लायब्रेरीके अध्यक्ष कोई भी पुस्तक नहीं छोड़ते था । परन्तु उसे कहीं भी ग्रन्थ नहीं मिले । वह हैं; कोई भी पुस्तकका पता लगा कि वे उसका । एक तरहसे हताश हो गया था, किन्तु उससे संग्रह किये बिना नहीं रहते । इस समय यूरो एक आदमीने कहा-“ यहाँ वैसे पुस्तकें नहीं पमें लायबेरियन होनेके लिए एक कठिन परीक्षा मिलेंगी। बूढ़े बूढ़े भिक्षुकोंके पास जाओ और देनी पड़ती है-आलमारियोंमें पुस्तकें किस तरह उनके मुखसे ग्रन्थ सुन सुनकर लिख ले जाओ।" सजाना और किस तरह लायब्रेरीके सूचीपत्र फाहियानने आखिर ऐसा ही किया और वह बनाना इन सब बातोंको सिखानेवाली वहाँ एक बौद्धधर्मकी समस्त पुस्तकें लिख ले गया। जुदा साइन्स ही बन गई है। वहाँ केवल लाय- “वेद और धर्मग्रन्थोंके सम्बन्धमें यहाँ यही ब्रेरियनोंके ही उपकारके लिए अनेक मासिकपत्र हाल था, परन्तु अन्यान्य विषयोंके ग्रन्थ बराबर निकलते हैं और अनेक सोसायटियाँ हैं। लिखे जाते थे। लायबेरियाँ भी थीं। प्रायः प्रत्येक "अब अपने देशकी लायबेरियोंकी बात सुनिए। ब्राह्मण ब्राह्मणके यहाँ एक एक छोटी मोटी लायब्रेरी रहती जब हमारे ब्राह्मणगण वेदमंत्रोंको कण्ठ रखते थे थी। जिसके जितनी बड़ी लायब्रेरी होती थी, वह ', उतना ही बड़ा पण्डित समझा जाता था-क्यों तब-उस प्राचीन कालमें-लायबरियोंकी जरूरत कि “ ग्रन्थी भवति पण्डितः ।" नहीं थी । ब्राह्मण लोग अपने पाँच वर्षके ' बच्चेको घरसे ले जाकर गरुगहोंमें रख आते थे। ... "चौद्धोंके प्रत्येक विहार या मठमें लायब्रेरी उस समय वे वेदोंको मुखस्थ किया करते थे। रहती थी । जैनोंके उपाश्रयों और मन्दिरोंमें ९-१८-२७ या ३६ वर्ष केवल वेद कण्ठस्थ शास्त्रभाण्डार होते थे। राजाओंके यहाँ भी पुस्तकरना पड़ते थे । इस लिए जब ब्राह्मण गुरुकु. कालय रहते थे । मुसलमानोंकी विजयके समय For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ९] लायब्रेरी। बौद्धोंके अनेक बड़े बड़े पुस्तकालय नष्ट हो गये। गई। किन्तु अबसे कोई ५०-६० वर्ष पहले यह बात मुसलमानोंके ही इतिहाससे सुव्यक्त राणा जंगबहादुरके समयसे फिर पुस्तकालय होती है कि तदन्तपुरी-विहारके पुस्तकालयको बनाया जा रहा है। उसमें लगभग १६ हजार बख्तियार खिलजीने जला दिया था। इसी तरह पुस्तकें हैं और लगभग २००० पुस्तकें ताड़पत्रों नालन्द और विक्रमशीलके पुस्तकालय भी नष्ट पर लिखी हुई हैं । वे प्रायः बंगालविहारके हो गये । बंगालके प्रधान गौरव जगद्दल विहारकी भागे हुए भिक्षुओं द्वारा ही वहाँ गई थीं। यह भी यही दशा हुई और जान पडता है. भोज -पुस्तकालय बड़ी सावधानीसे रक्खा जाता है। महाराजके पुस्तकालयकी भी यही गति हुई। उसके लिए महाराजा वीर शमशेरजंग राणाने सौभाग्यसे उस समय अनेक बौद्ध भिक्षु पुस्तकें एक टाबर बनवा दिया है। उसका एक विशाल लेकर नेपाल और तिब्वतको भाग गये थे। इसके कमरा और उसके चारों ओरकी दालाने पोथिसिवाय इसके पहले भी भूटानके लोग जमद्दल योंसे ठसाठस भरी हुई हैं । उसमें अँगरेजी विहारसे १० हजार ग्रन्थ अनुवाद करके ले गये पुस्तकोंका भी संग्रह है। १६००० ग्रन्थ संस्कृथे। इसीसे हमें इस समय पता लगता है कि तके हैं । भूटान देशके लगभग १०००० और बंगाल एक समय बौद्ध देश था। चीन देशके ३-४ हजार ग्रन्थ हैं । चित्र भी बहुत ___“बंगालके सेनवंशीय राजा बल्लालसेनकी भी र हैं और वे तरह तरहके हैं;-विशेषतः तन्त्रएक लायब्ररी थी। उस समयके भी ब्राह्मणोंके यहाँ । " साहित्यके । यह पुस्तकालय महाराजका अक्षय पुस्तकालय थे, क्योंकि उनमें अनेक ग्रन्थोंके : - यश है। इनके सिवाय नेपालमें और भी अनेक कोटेशेन ( उद्धरण ) पाये जाते हैं । यदि । लोगोंके यहाँ अनेक ग्रन्थ हैं, जिनका पता पाना ग्रन्थ न होते तो इस प्रकारके कोटेशन कैसे न दिये जाते ? वे सब पुस्तकालय कहाँ गये? "महाराजा रणजीतसिंहके पुरोहित मधुसूदनने हमारा देश बड़ा बुरा है । हमारे यहाँ पुस्तकें पुस्तकोंका बड़ा संग्रह किया था। उनके पुत्रोंके नहीं रहती-अग्नि है, वृष्टि है, जल है, नदियोंके उत्तराधिकारियोंने उन पुस्तकोंका क्या किया, पूर हैं और सबसे बड़े शत्रु चूहे और दीमक कुछ पता नहीं। . . हैं-और एक शत्रु हैं पण्डितोंके मूर्ख पुत्र । इन __“ राजपूतानेके प्रायः सभी राजाओंके किलोंमें सबके द्वारा अनेक प्राचीन पुस्तकालय नष्ट हो । गये । पर इस समय भी जो जो हैं, उनका कुछ। एक एक पोथीखाना ' है। उनमेंसे अनेक वर्णन सुन लीजिए। पुस्तकालयोंमें २००० से सेकर ६००० तक ___“ नेपालमें मुसलमानोंका उपद्रव नहीं हुआ। पुरु , पुस्तकें हैं । जब अलाउद्दीन खिलजीने देश पर वहाँके निवार राजे बहुत काल तक पुस्तकसंग्रह अधिकार किया तब गुजरातके जैन लोग अपने करते रहे हैं। उनके पुस्तकालयमें १४०० ग्रन्थोंको लेकर जैसलमेरे भाग गये। वे सब १५०० वर्षके पुराने ग्रन्थ हैं। उस देशमें थोड़ेसे . ग्रन्थ वहाँ अब भी बचे हुए हैं । मैसूर और त्रावप्रयत्नसे पुस्तकें बहुत समय तक टिकती हैं। णकोरमें भी बहुत ग्रन्थ हैं । वहाँके राजाओंके. जब गोरखा राजाओंने नेपालपर अधिकार किया भी बड़े बड़े पुस्तकालय हैं । तंजौरकी लायब्रेरी सब निवार राजाओंके पुस्तकालयकी लूट हो बहुत पुरानी है । छत्रपति शिवाजीके पिता For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ • साहूजीने जब उक्त देश पर अधिकार जमाया और तंजौरको राजधानी बनाया तब इस लायबेरी की खूब उन्नति हुई । इसमें १८००० से अधिक ग्रन्थ हैं। जैनहितैषी - 66 लगभग ३०० वर्ष पहले एक बड़े भारी संन्यासी गोदावरी तीरसे काशीवास करने के लिए आये थे और उन्होंने वरुणाके तीर पर एक लायब्रेरी स्थापित की थी । उसमें चुने हुए लगभग ३००० ग्रन्थ थे । उसकी एक सूची इस समय भी उपलब्ध है । संन्यासीका नाम था—सर्वविद्यानिधान कवीन्द्राचार्य सरस्वती । 66 मुसलमान बादशाहोंमें अनेक बादशाह लायब्रेरी रखते थे । उनके अमीर उमरावों की भी लायब्रेरियाँ थीं । वे केवल अरबी और फारसीके ही नहीं, भारतीय ग्रन्थ भी संग्रह करके रखते थे । मुसलमानों को लायब्रेरी में बैठकर पुस्तकें पढ़नेका बड़ा शौक था । हुमायूँने लायब्रेरी के जीने से गिरकर ही प्राणत्याग किया था । " अँगरेजी शिक्षा के प्रभाव से इस समय तो सर्वत्र ही लायब्रेरियाँ खुल रही हैं । बंगालमें सबसे पुरानी लायब्रेरी रायल एशियाटिक सोसाइटीकी है। लार्ड वेल्सलीने फोर्ट विलियम कालेमें बड़े ठाठसे एक लायब्रेरी खोली थी । पीछेसे इस लायब्रेरीकी सब पुस्तकें एशियाटिक सोसाइटीको दे दी गई । ” दिन कब प्राचीन ग्रन्थों का संग्रह और उनकी रक्षा। [ भाग १४ 吸 ( लेखक -श्रीयुत नाथूराम प्रेमी । ) धर्म धर्म चिल्लाया करते हैं—यह बात मालूम नहीं हमारे जैनी भाइयोंको-जो रात सूझेगी कि धर्मकी रक्षा और उसके स्वरूपज्ञानके साधनभूत ग्रन्थोंकी रक्षा करने की भी जरूरत है । लोग थोड़ा बहुत प्रयत्न सभी प्रकारकी संस्थाओंके लिए कर रहे हैं, पर इस सबसे मुख्य कार्यकी ओर किसीका भी ध्यान नहीं जाता है कि देशके किसी मुख्यस्थान में एक विशाल सरस्वती - मन्दिर स्थापित किया जाय और उसमें जितने ग्रन्थ मिल सकें, उन सबका एक बड़ा भारी संग्रह किया जाय । For Personal & Private Use Only यह कोई भी नहीं सोचता है कि अन्य संस्थायें तो अभी नहीं दस पाँच वर्ष पीछे भी खोली जायेंगी तो हर्ज नहीं; पर इस संस्थाकी तो सबसे पहले एक दिनका भी विलम्ब किये बिना — जरूरत है । जितने दिन जा रहे हैं, उतने ही ग्रन्थ नष्ट हो रहे हैं और उनके बचनेकी संभावना नष्ट हो रही है। यदि जान-बूझकर हमारे इस प्रमादसे जैनसाहित्यका एक भी पत्रएक भी वाक्य- नष्ट होता है जो फिर किसी तरह भी प्राप्त नहीं हो सकता है, तो हम एक बड़ा भारी अपराध कर रहे हैं— जैनधर्मको विकलाङ्ग करनेका पाप सिरपर लाद रहे हैं । और यह बिलकुल स्पष्ट है कि हमारी इस लापरवाहीसे प्रतिदिन और प्रतिक्षण जगह जगह अनेक अनमोल और दुर्लभ ग्रन्थ किसी न किसी तरह से हो रहे हैं । कहीं वे चूहे और दीमकों का भक्ष्य बन रहे हैं, कहीं लोगोंकी अज्ञानतासे वे Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ९] प्राचीनग्रन्थोंका संग्रह और उनकी रक्षा। वास-फूसकी तरह पड़े हुए हैं और कहीं स्वार्थी होता था। ऐसे पुस्तकालय-अवश्य ही जीर्णशीर्ण लोगोंने उन्हें छुपा रक्खा है। अवस्थामें-तलाश करनेसे अब भी सैकड़ोंकी ___ अब भी समय है। हमें विश्वास है कि यदि संख्यामें मिल सकते हैं । इनके सिवाय अनेक अब भी इस विषयमें काफी उद्योग किया जायगा गृहस्थोंके घरोंमें भी—जिनके पूर्वजोंमें कोई तो अकेले दिगम्बर सम्प्रदायके ही इस समय विद्याव्यसनी थे- दस दस बीस बीस ग्रन्थोंके अधिक नहीं तो जदा जदा दस हजार ग्रन्थोंका संग्रह मिलना कोई बड़ी बात नहीं है । संग्रह किया जा सकता है और हमारा विशाल अजैन लोगोंके गृहपुस्तकालयोंमें और राजा साहित्य अनेक अंशोंमें प्रकाशमें आ सकता है। महाराजाऑकी लायब्रेरियोंमें भी तलाश करनेसे - बम्बईकी गवर्नमेण्टने अबसे लगभग ३०-३५ हजारोंकी संख्यामें जैनग्रंथ मिल सकते हैं । वर्ष पहले इस विषयमें थोड़ासा प्रयत्न किया था। जिस तरह जैनपुस्तकालयोंमें सैकड़ों अजैन जिसके फलसे डेक्कन कालेजकी लायबेरीके ग्रन्थ मिलते हैं उसी तरह अजैन पुस्तकालयोंमें लिए लगभग ६ हजार श्वेताम्बरी और डेड़ दो : जैनग्रन्थ भी रहते हैं । जो सच्चे विद्याव्यसनी हजार दिगम्बरी ग्रंथोंका संग्रह हो गया था-जो होते हैं, उनकी जिज्ञासा केवल अपने ही बड़ा ही मूल्यवान् संग्रह समझा जाता है और " ग्रन्थोंके पठन-पाठनसे नहीं मिट सकती है-वे जो इस समय डा० भाण्डारकर ओरियण्टल रिचर्स । अपने पास सभी प्रकारके ग्रन्थ रखते हैं। इन्टिटयूटकी शोभा बढ़ा रहा है । कहा जाता। ग्रन्थोंके सिवाय जैनसाहित्य और इतिहास पर प्रकाश डालनेवाले और भी अनेक साधन है कि जैनग्रन्थोंका इतना अच्छा और महत्त्वपूर्ण संग्रह देशके किसी भी पुस्तकालयमें नहीं है। जैनग्रंथोंकी खोज और उनका संग्रह करते समय मिल सकते हैं । खेद है कि इस विषयमें अवश्य ही यदि बम्बईसरकारका उक्त प्रयत्न दिगम्बर सम्प्रदायकी ओरसे कुछ भी प्रयत्न नही अभीतक जारी रहता तो यह संग्रह इससे भी किया गया है। प्रसिद्ध प्रसिद्ध ऐतिहासिक पुरुकई गुणा बड़ा हो जाता । परन्तु दुर्भाग्यकी षोंके और पुराण-पुरुषों के चित्र, चिटी पत्रियाँबात है कि आगे उसने इस कार्यको बन्द जो साध और विद्वान् एक दसरोंको लिखा कर दिया। करते थे और जिनसे तत्कालीन अनेक घटनाइससमय हमारे ईडर, नागौर, श्रवणबेलगोला, ओंका ज्ञान हो सकता है-विद्वानोंकी लिखी मूडबिद्री, आमेर (जयपुर ), कारंजा, सोना- हुई तरह तरहकी याददाश्तें, तीर्थों और गिर, ग्वालियर, डूंगरपुर, प्रताबगढ़ आदि प्राचीन मन्दिरोंसम्बन्धी दस्तावेजें, आज्ञापत्र, दानपत्र भाण्डारोंमें जो कुछ संग्रह है वह तो सभीको आदि चीजें भी, बहुलताके साथ पुराने संग्रहोंमें मालूम है; परन्तु इसके सिवाय छोटे छोटे ग्रामों मिल सकती हैं । इनका संग्रह करना बहुत और नगरोंमें भी-जो किसी समय अच्छे स्थान थे ही आवश्यक है। और अब समयके फेरसे ऊजड़ हो गये हैं- देशभाषाओंके ग्रन्थोंके संग्रह करनेकी भी हजारों ग्रन्थ पड़े हुए हैं । भट्टारकोंके शिष्य बहुत आवश्यकता है । भाषाविज्ञान और इतिपाँडे और पण्डित पहले प्रायः सभी मध्यम हासकी दृष्टिसे उनका भी कम महत्व नहीं है। श्रेणीके कस्वों और गाँवोंमें रहा करते थे और उनका भी एक एक पत्र और पत्रका टुकड़ा उन सबके पास एक एक छोटा मोटा पुस्तकालय संग्रह करनेसे न चूकना चाहिए । For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जैनहितैषी [भाग १४ यद्यपि यह काम बड़े खर्चका है परन्तु जो किये जा सकते हैं । प्राचीन ग्रन्थ पब्लिककी समाज केवल मन्दिरों और मूर्तियोंकी प्रतिष्ठामें सम्पत्ति हैं । उन्हें कोई आधिकार नहीं है कि वे प्रतिवर्ष कई लाख रुपये खर्च करता है उसके उनके ज्ञानसे सर्वसाधारणको वंचित रक्खें । लिए तो यह, यदि वह चाहे तो, जरा भी डा० बुल्हर आदि पाश्चात्य विद्वानोंने इसी कठिन नहीं है। न्यायसूत्रपर राजपूतानेके अनेक प्राचीन पुस्तकायह संग्रह दो तरहसे किया जाना चाहिए। लयोंका निरीक्षण किया था और उनकी सूची एक तो जो ग्रन्थादि खरीदनेसे मिल सकें उन्हें बनाई थी । इस काममें उन्हें कहते हैं कि खरीदकर और दूसरे जो इस तरह न मिल ब्रिटिश सरकारसे और देशी रियासतोंसे काफी / सकते हों उनकी प्रतिलिपि या कापी कराके। सहायता मिली थी । यदि हमारे भाई भी इस यदि तीन चार अच्छे विद्वान् और अनुभवी कामको अच्छे और प्रभावशाली ढंगसे उठायँगे आदमी इस कार्यके लिए नियत कर दिये जायँ तो उन्हें भी इस प्रकारकी सहायता मिल सकती, और वे जगह जगह जाकर ग्रन्थोंकी खोज करें है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। - तो ऐसे हजारों ग्रन्थ खरीद किये जा सकते हैं पाठकोंको स्मरण होगा कि लगभग २० वर्ष और हजारों ग्रन्थोंकी प्रतिलिपि करानेका प्रबन्ध पहले मडबिद्रीके जयधवलादि सिद्धान्तग्रन्थोंकी कर सकते हैं । बाँकीपुरकी सुप्रसिद्ध खुदावख्श द्वितीय प्रति करानेके लिए दिगम्बरजैनसमाजने लायब्रेरीके लिए इसी तरह ग्रन्थोंका संग्रह किया कोई १०-१२ हजार रुपयका चन्दा किया था। गया था । उसके कर्मचारी ईराण, तूरान, और चार पाँच वर्ष हुए कि उक्त कापी करानेका कार्य तुर्कस्तान आदि तक ग्रन्थोंकी खोजके लिए घूमे समाप्त हो गया; परन्तु उन ग्रन्थोंका दर्शन थे । इसी लिए आज उर्दू, अरबी और फारसी सर्वसाधारणके लिए अब भी दुर्लभ है । विद्वान् साहित्यका इतना अच्छा संग्रह कहीं भी नहीं है। लोग तरसते हैं कि देखें उनमें क्या लिखा हुआ बहुतसे भाण्डार ऐसे हैं जो ऐसे लोगोंके है; परन्तु वे ग्रन्थ वहाँके स्वार्थी मठाधीशके धन हाथों में हैं जिन्हें साक्षात् ज्ञानावरणीय कर्म कहना कमानेके साधन बने हुए हैं और हमसे कुछ भी नहीं चाहिए । इन लोगोंको राह पर लानेके लिए भी बन पड़ता है । एक दिन आयगा कि जिस तरह अब प्रयत्न करनेका समय आ गया है। पहले हम अपने सैकड़ों ग्रन्थरत्न नष्ट कर चुके हैं उसी तो चार छह अच्छे अच्छे प्रतिष्ठित पुरुषोंका डेप्य- तरह ये सिद्धान्त भी लुप्त हो जायेंगे क्योंकि टेशन भेजकर उन्हें समझाना चाहिए और उनके संसार भरमें इनकी कोई दूसरी प्रति नहीं है भाण्डारोंको खुलवाना चाहिए । यह आवश्यक और इनके साथके कई सिद्धान्त ग्रन्थ-जो लगनहीं है कि उनकी बिना इच्छाके ग्रन्थ लिये भग १०० वर्ष पहले मौजूद थे-उक्त मठाधीशोंजायँ; परन्तु वे इस बातके लिए अवश्य मजबूर की कृपासे, नष्ट हो भी चके हैं। किये जाने चाहिए कि ग्रन्थोंकी सूची बना लेने यदि हम लोगोंमें अपने प्राचीन ग्रन्थोंपर दें और जो ग्रन्थ अन्यत्र अलभ्य हाँ उनकी जरा भी भक्ति हो और ग्रन्थोंकी रक्षा करना कापी करा लेने दें। हम अपने धर्मका अंग समझें तो इन ग्रन्थोंकी ___ जो लोग बहुत हठी दुराग्रही और स्वार्थसाधु एक नहीं पचास प्रतियाँ छह महीने के भीतर ही हैं, वे सरकारी और राजाओंकी सहायतासे ठीक कराई जा सकती हैं और वे जुदा जुदा पचास For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ९] ., प्राचीन ग्रन्थोंका संग्रह और उनकी रक्षा। . २६५ स्थानोंके मन्दिरोंमें विराजमान कराई जा सकती. महासभामें कुछ लोग तो अवश्य ऐसे उपस्थित हैं । हमको चाहिए कि हम वहाँके भट्टारकको होंगे जो और नहीं तो इस कार्यकी आवश्य. मजबूर करें कि वे सिद्धान्तग्रन्थोंकी-प्रतिलिपियाँ कताका अनुभव करते हैं और जिन्हें बातूनी कर लेने दें और यदि वे न मानें तो इसके लिए जमाखर्चके बदले कुछ ठोस काम करनेकी सरकारसे सहायता मांगी जावे । हमारा विश्वास इच्छा उत्पन्न हो गई है। है कि सरकार हमें इस काममें बिना किसी अन्तमें इस सम्बन्धमें हम अपने पाठकोंका विलम्बके सहायता देवेगी। ध्यान इस ओर आकर्षित करना आवश्यक ___ एक फोटोग्राफरको कुछ महीनोंके लिए रख समझते हैं कि श्रीमान् ऐलक पन्नालालजीने झाललेनेसे यह काम बहुत आसानीसे हो जाता है। रापाटनमें एक 'सरस्वतीभण्डार' स्थापित करबिलकुल मूल प्रतिके समान चाहे जितनी नेका प्रारंभ किया है और उसके लिए वे कई प्रतियाँ कराई जा सकती हैं और उक्त सिद्धान्त वर्षोंसे चन्दा कर रहे हैं । कहते हैं कि यह ग्रन्थ सदाके लिए अमर किये जा सकते हैं। चन्दा पचास हजारके लगभग हो गया है पूनेके भाण्डारकर इन्स्टिट्यूटमें बारहवीं और शीघ्र ही एक लाख हो जायगा । यह शताब्दिकी लिखी हुई एक आवश्यकसत्रकी बड़ी खुशीकी बात है। यह भी सुना है कि टीका है। ताडपत्र पर इससे पहलेकी लिखी त्यागीजी इस संस्थाका ट्रस्डीडरानेवाले हुई कोई भी प्रति अब तक कहीं भी उपलब्ध हैं । इस विषयमें हमारा नम्र निवेदन यह है कि . नहीं हुई है । इस प्रतिकी तीन चार प्रतियाँ झालरापाटन स्थान ऐसी विशाल संस्थाके योग्य फोटू लेकर ही कराई गई हैं । हमनें उन्हें देखा नहीं है । यह संस्था बम्बई, कलकत्ता, दिल्ली, " है। बड़ी ही अच्छी हैं और खर्च भी ऐसा. . . और काशी जैसे स्थानोंमें ही शोभा देगी और कुछ बहुत अधिक नहीं पड़ा है। अलभ्य - वहीं इसका यथेष्ट उपयोग हो सकेगा। इस लिए ग्रन्थोंकी कापी करानेका यह बहुत ही अच्छा ऐलकजीसे प्रार्थना करना चाहिए कि वे सर्वऔर सुगम उपाय है। सम्मतिसे उसे झालरापाटनसे हटा दें और उसे - सना है अबकी बार कानपरमें दिगम्बर- तमाम दिगम्बर समाजकी संस्था बना दें। यदि जैनमहासभाका जल्सा बड़े ठाठ और उत्साहसे इस संस्थाको सुव्यस्थित पद्धतिसे चलाया होनेवाला है। जल्सेके समय एक जैनसाहि- जायगा, अच्छे योग्य पुरुष इसके कार्य-सम्पात्यकी प्रदर्शिनी खोलनेका भी प्रबन्ध किया दनके लिए रक्खे जावेंगे और उसमें जिस रीतिसे जा रहा है। क्या हम आशा करें कि महा- मैं पहले लिख चुका हूँ उस रीतिसे ग्रन्थसंग्रह सभामें इस विषय पर कुछ विचार किया किया जावेगा तो जैनसमाजकी एक बड़ी भारी जायगा ? यद्यपि इस बातकी संभावना बहुत जरूरत रफा हो जायगी। ही कम है कि उसे तीर्थक्षेत्रोंकी मुकद्दमेबाजी, हम अपने सहयोगियोंसे प्रार्थना करते हैं कि । पण्डितों और बाबुओंके झगड़ों, धर्मके डूब वे भी इस चर्चाको उठा लेनेकी कृपा करें और जानेके भयोंसे बचनेके उपायों और ऐसे ही दिगम्बरजैनसमाजके माथेसे इस कलंकके दसरे अनेक कामोंकी चिन्ताओंके मारे इस टीकेको मिटानेका प्रयत्न करें किसने बड़े कामकी ओर ध्यान देनेका अवकाश मिलेगा; धनी समाजमें उसका कोई निजका अच्छा फिर भी इस आशासे यह चर्चा उठाना पुस्तकालय नहीं है। -बम्बई ५-८-२० आवश्यक समझा है कि इतने दिनोंके बाद 3- ११-१२ For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [भाग १४ विद्यावतीकी मृत्युके सम्बन्धमें बाबू साहबका विद्यावती-वियोग। जो पत्र आया है, उसे पढ़ कर हृदय भर आता है। वे लिखते हैं-“विद्यावतीकी यादसे + छाती भर भर आती है । उसकी इस दो ढाई रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातं वर्षकी छोटी अवस्थामें, बड़े आदमियों जैसी भास्वानुदेष्यति हसस्यति पङ्कजश्रीः। समझकी बातें, सबके साथ 'जी' की बोली, इत्थं विचिन्तयति कोषगते द्विरेफे, दयापरणति, उसका सन्तोष, उसका धैर्य और हा हन्त हन्त नलिनी गजमुज्जहार ॥ उसकी अनेक दिव्य चेष्टायें अपनी अपनी -भतृहरि। स्मृतिद्वारा हृदयको बहुत ही व्यथित करती हैं। पाठक यह जान कर अवश्य दुखी होंगे वह कभी साधारण बच्चोंकी तरह व्यर्थकी जिद्द कि हितैषीके सुयोग्य सम्पादक सज्जनोत्तम करती अथवा रोती-रड़ाती हुई नहीं देखी गई। बाबू जुगलकिशोरजीकी एकमात्र शिशुकन्या ऐसी बीमारीकी हालतमें भी कभी उसके कूल्हने विद्यावती गत ता० २८ जूनको एकाएक या कराहने तककी आवाज नहीं सुनी गई, देहान्त हो गया । विद्यावती अभी लगभग बल्कि जब तक वह बोलती रही और उससे ढाई वर्षकी ही थी । ७ दिसम्बर सन् १९१७ पूछा गया कि तेरा जी कैसा है तो उसने बड़े को उसका जन्म हुआ था और जन्मसे प्रायः धैर्य और गाम्भीर्यके साथ यही उत्तर दिया कि सवा तीन महीने बाद ही, १६ मार्च सन् १९१८ 'चोखा है। ' वितर्क करने पर भी इसी आशको उसकी माताका देहान्त हो गया था, इससे यका उत्तर पाकर आश्चर्य होता था ! स्वस्थाउसका पालन-पोषण एक धाय रख कर कराया वस्थामें जब कभी कोई उसकी बातको ठीक गया था । लड़की इतनी गुणवती और होन- नहीं समझता था या समझनेमें कुछ गलती हार थी कि उसके बाल्यसुलभ क्रीड़ा कौतुकोंमें करता था तो वह बराबर उसे पुनः पुनः कहबाबू साहब अपनी सहधर्मिणीक वियोगजन्य कर या कुछ अते-पतेकी बातें बतलाकर समझाकष्टको भूल गये थे । मोहवश उन्होंने उससे नेकी चेष्टा किया करती थी और जब तक वह बड़ी बड़ी आशायें बाँध रक्खी थीं और उन यथार्थ बातको समझ लेनेका इजहार नहीं कर दुर्बल आशातन्तुओंके आधार पर वे अपने देता था तब तक बराबर 'नहीं' शब्दके कठोर भविष्यको गढ़ रहे थे; परन्तु मनुष्य द्वारा उसकी गलत बातोंका निषेध करती रहती सोचता कुछ है और हो कुछ और ही जाता थी। परन्तु ज्यों ही उसके मुंहसे ठीक बात है। दुर्भाग्यके एक ही झकोरेसे वे आशातन्तु निकलती थी तो वह 'हाँ' शब्दको कुछ ऐसे टूट गये विद्यावतीका प्राण-पखेरू उड़ गया लहजेमें लम्बा खींच कर कहती थी, जिससे ऐसा और भविष्यकी कठोरता भीषणरूपमें स्पष्ट मालूम होता था कि उसे उस व्यक्तिकी समझ हो गई! पर अब पूरा संतोष हुआ है । वह हमेशा सच For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ९ ] बोलती थी और अपने अपराधको खुशीसे स्वीकार कर लेती थी । विद्यावतीके ऊपर मैंने बहुतसी आशायें बाँध रक्खी थीं और अनेक विचारोंको कार्यमें परिणत करनेका उसे एक आधार समझ रक्खा था ! मेरी हमेशा यह कोशिश रहती थी कि उसकी स्वाभाविक इच्छाओंका विघात न होने पावे और अपनी तरफसे कोई ऐसा कार्य न किया जाय, जिससे उसकी शक्तियों के विकाशमें किसी प्रकारकी बाधा उपस्थित हो या उसके आत्मा पर कोई बुरा संस्कार पड़े । मैं उसे एक आदर्श कन्या और स्त्रीसमाजका उद्धार करनेवाली एक आदर्श स्त्रीके रूपमें देखना चाहता था । परन्तु मेरा इतना भाग्य कहाँ कि वह दिव्यमूर्ति मेरी आँखोंके सामने रह कर मुझे कुछ शान्ति, तृप्ति तथा धैर्य प्रदान करती और इस तरह मेरे भी दिलके कुछ अरमानोंको निकलनेका अवसर मिलता ! अब सब बातें कोरी ख्वाबखयाल तथा स्वमजाल हो गई हैं, अथवा कहानी मात्र रह गई हैं । अब विद्यावतीकी सूरत दुर्लभ हो गई ! वह ऐसी जगह नहीं गई जहाँसे जल्दी लौट आयगी ! उसे मैंने अपनी आँखों के सामने चिता पर भस्म होते देखा है !! मुझे नहीं मालूम था कि वह इतनी थोड़ी आयु लेकर आई है ! " विविध-प्रसङ्ग । सूझ नहीं पड़ता कि बाबू साहबको किस तरह समझाया जाय और किस तरह धैर्य बँधाया जाय । सच मुच यह दुःख दुःसह है और इसे सहन करने के लिए बड़ी शक्ति चाहिए । हमारी एकान्त कामना है कि जिनेन्द्रदेवका शासन उन्हें वह शक्ति प्रदान करे । . विविध प्रसङ्ग । १- वैद्यजीका तर्क । जैनमित्रके गत २९ अप्रेलके अंकमें किसी अज्ञातनामा वैद्यजीने, घूँघट निकालकर, जैनहितैषी और सत्योदयसे स्त्रीपुरुषों की समानता पर कुछ प्रश्न किये हैं । यद्यपि इन प्रश्नोंका जैनहितैषी से कोई खास सम्बन्ध नहीं, हितैषीने कभी स्त्रीपुरुषोंके सर्वथा समान होनेका प्रतिपा"दन नहीं किया और इस लिये वह उनका उत्तर देना अपने लिये कोई जरूरी नहीं समझताउन सब प्रश्नों का उत्तर उन्हें किसी वैद्य, हकीम या डाक्टर आदि की सेवा करनेसे ही प्राप्त होगातो भी जैनहितैषी संक्षेप में इतना जरूर कहना चाहता है कि “ स्त्री पुरुष अनेक अंशों में परस्पर समान हैं और अनेक अंशोंमें समान नहीं हैं । अर्थात्, वे समान भी हैं और असमान भी। दोनों एक नहीं हैं - स्त्री स्त्री है और पुरुष पुरुष है । रही रीतिरिवाजों पर उनके अधिकारकी बात, सो रीतिरिवाज सदा एक अवस्थामें नहीं रहा करते- उनमें देशकालानुसार बराबर परिवर्तन हुआ करता है, परिवर्तन पाया जाता है " और इस लिये उनके आधार पर किसी विषका कोई अटल सिद्धान्त नहीं बन जाता । परंतु इन प्रश्नोंके अनन्तर ही वैद्यजीने कुछ पंक्तियाँ दी हैं, जिनसे आपके नये तर्कशास्त्रका परिचय मिलता है । वे पंक्तियाँ इस प्रकार हैं: देकर सिद्ध करें कि पुरुष " यदि उक्त प्रश्नोंके १६७ और स्त्री समान है तो महानुभाव सयुक्तिक उत्तर उनकी बातें सच हैं नहीं तो लोगोंको धोखा देने के - नाथूराम प्रेमी । लिये जाल हैं— बिलकुल झूठ हैं । " For Personal & Private Use Only पाठको, देखा, कैसा बढ़िया युक्तिवाद है ! शायद आपको किसी भी न्यायशास्त्रमें इससे Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ जैनहितैषी । [भाग १४ अच्छा युक्तिवाद देखनेको न मिला होगा! . २-ब्राह्मणविधवाकी उदारता । बात यह है कि यदि हम स्त्रीपुरुषोंकी समानता नीलकटरा, देहलीके पंडित दीनानाथजी सिद्ध कर दें तो वैद्यजी हमारी उलटी सीधी सभी जैतली ( सारस्वत ) की विधवाने अपनी सारी बातोंको सच माननेके लिये तय्यार हैं, और संपत्ति, जो प्रायः एक लाख रुपयेकी मालियतअदि सिद्ध न कर सकें या करना न चाहें तो फिर की है, एक सनातनधर्म-कन्यापाठशाला, एक हमारी बातें चाहे कितनी भी अच्छी,. सत्यता- पुस्तकालय और एक प्याऊ स्थापित करनेके पूर्ण और शास्त्रसम्मत क्यों न हों परंतु वैद्यजी लिये लिख दी है । महामहोपाध्याय पं०. उन्हें बिलकुल झूठ और जाल समझेंगे ! है बांकेराय नवल गोस्वामी, लाला राधामोहन, कोई वीर महानुभाव जो वैद्यजीके हृदयका मि० ताराचंद वकील आदि कई सज्जन उसके यह काँटा निकाल देवे, उनकी विकलता दूर कर- ट्रस्टी नियत हुए हैं । हम उक्त विधवाबाईकी इस देवे और उन्हें लटकंतमें लटकनेसे बचा लेवे ? उदारता और समयोपयोगी दानशीलताकी. हमारी तो शक्तिसे यह काम बाहर मालूम होता हृदयसे सराहना करते हुए अपनी उन जैनविहै । हम यदि अनेक अवयवोंसे स्त्रीपुरुषों की धवाओंका ध्यान इस ओर आकर्षित करते हैं समानता सिद्ध भी कर देवें तो वैद्यजी यही जिन्हें रथयात्रा, मेले ठेले, मंदिरप्रतिष्ठा और कहेंगे कि हम सर्वथा समानता चाहते हैं यद्यपि उत्सवादिके सिवाय दूसरा कोई पुण्यकर्म ही उनके उपर्युक्त प्रतिज्ञावाक्यमें 'सर्वथा ' मालूम नहीं होता । उन्हें एक ब्राह्मणविधवाके शब्द नहीं है । इस पर हमारा यह कहना इस समयोपयोगी दानसे कुछ सबक सीखना । होगा कि यदि संपूर्ण अवयवोंकी सर्वथा समा- चाहिये और अपने समाजकी वर्तमान अवश्यनता पर ही कोई समानाधिकार निर्भर है और ताओंको मालूम करके उनके पूरा करनेका यत्न स्त्रीपुरुषोंके संपूर्ण अवयवोंमें सर्वथा समानता करना चाहिये । समयोपयोगी कार्यों में व्यय नहीं है तो फिर उनका कोई भी अधिकार किया हुआ धन ही अधिक फलदायक और समान न होना चाहिये । उन्हें खाने पीने, विशेष पुण्यजनक होता है। उठने बैठने, सोने जागने, रोने धोने, सोचने ३-सेठजीका वेश्यानृत्यसे प्रेम । विचारने, देखने सुनने, दुख सुखका अनुभव भारतवर्षीय दिगम्बर जैनमहासभाके सभापति, करने, जीने मरने और आत्मरक्षा आदिके जो सरकारसे रायबहादुर' 'सर' और 'नाइट' समान अधिकार मिले हुए हैं वे सब रद्द होने की उपाधियाँ प्राप्त, इन्दौरके धनकुवेर सेठ चाहिये । नहीं हालूम इस पर वैद्यजी क्या उत्तर हुकमचंदजी वेश्यानृत्यके बड़े ही प्रेमी मालूम देंगे। इस लिये हमसे उनका समाधान नहीं हो होते हैं । यद्यपि आपने अपने अनेक व्याख्या.. सकेगा। अस्तु । नोंमें, वेश्यानृत्यका जोरके साथ निषेध किया है ___ यहाँ किसीको यह कहनेका साहस न करना और पालीताणामें दि० जैन प्रान्तिक सभा बम्बचाहिये कि वैद्यजीने, न्यायशास्त्रमें गति न ईके सभापतिकी हैसियतसे ये शब्द कहे थे:होते हुए, व्यर्थ ही उसमें हाथ डालकर अपनी इस ( वेश्यानत्य ) के द्वारा हमारा धन ही नष्ट! और उसकी मिट्टी खराब की है, नहीं तो वैयजी नहीं होता, बल्कि हमारी संतान भी इससे नष्ट रुष्ट हो जायँगे और उनकी बातोंको भी बिल- होती है । सुकुमार संतानके हृदय पर जैसी शिक्षाका कुल झूठ समझने लगेंगे! प्रभाव डाला जाता है वह आगामी सदैवके लिये For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ९ विविध-प्रसङ्ग । २६९ स्थिर हो जाता है। महफिलोंमें अपनी संतानको विवाहमें भी, जोकि अजमेरके रायबहादुरसेठ साथ बिठाकर वेश्यानृत्य दिखलाना मानों उनको टीकमचंदजी सोनीके पुत्रके साथ हुआ है, बड़ी वेश्याव्यसनकी शिक्षा देना है । इस लिये सज्जनो ! धमधामके साथ फिर वेश्यानृत्य कराया है ! इन कुरीतियोंको दूर कर. जातिको निर्मल बनाइये। और बडे तमाशेकी बात यह हुई कि आपको यहाँ यह कहना ठीक होगा कि कुरीतियों या उन्नतिके अपना यह नृत्य उस वक्त बंद करना पड़ा उपायोंके सबसे ज्यादा प्रचार करनेवाले जातिके जब कि बारात आई; क्योंकि ऐसी हालतमें सेठ मुखिया ही हैं। क्योंकि जातीय मुखियोंकी देखादेखी ही अन्य सामान्य लोगोंकी वैसी ही प्रवृत्ति होती है। यदि टीकमचंदजी शामिल नहीं होते थे, उनके वेशाजातीय मुखिया अपने अपने घरोंसे इन कुरीतियोंको नृत्यके न देखने. तककी प्रतिज्ञा थी और निकाल दें तो जातिसे कुरीतियाँ दूर होनेमें कुछ भी उन्होंने स्वयं अपनी ओरसे इस विवाहमें कतई · देरी नहीं है । अतएव जातिकी उन्नति और वेश्यानृत्य नहीं कसया; जैसा कि 'जैनमित्र' और - अधोदशाका श्रेय या अश्रेय जातीय मुखियों पर ही 'दिगम्बर जैन' के हालके समाचारोंसे प्रकट है *। है। इस लिये जातीय मुखियोंको इन कुरीतियोंके दूर करनेके लिये पूर्ण प्रयत्न करना चाहिये।" इन सब बातोंसे पाठक भले प्रकार समझ . सकते हैं कि सेठ हुकमचंदजी वेश्यानृत्यके परंतु इतने पर भी आपने, उक्त कथनसे अथवा प्रकारान्तरसे वेश्याके कितने बड़े प्रेमी कुछ ही वर्ष बाद, अपने पुत्रके विवाहमें बड़े और भक्त हैं। उनका नैतिक बल, इस विषयमें जोर शोरके साथ वेश्याओंका नृत्य कराया था सेठ टीकमचंदजीके नैतिक बलके सामने, निःसऔर उसकी सामाको यहाँ तक बढ़ाया था कि न्देह, पराजित हुआ है। उन्हें इस बातका जरा नृत्यकी एक स्पेशल महाफल अपने अन्तःपुरमें भी खयाल नहीं आया कि संसारमें मेरा क्या भी लगवाई थी और इस तरह अपने कुटुंब पदस्थ है. जैनसमाज मुझे किस गौरवकी दृष्टिसे परिवार, रिश्ते नाते, गलीमहोल्ला और नगरकी देखता है, देश तथा समाजमें वेश्यानृत्यके स्त्रियोंको भी खास तौरसे रंडीका नाच दिखलाया सम्बंधमें कैसी हवा बह रही है, मैं स्वयं उसके था। इसपर समाजके तथा दूसरे अनेक पत्रोंमें विरुद्ध भरी सभाओंमें क्या कुछ कह चुका है सेठजीपर बहुत कुछ फटकारें पड़ी थीं और और वेश्यानृत्यके करानेवाले आजकल किस यह आशा की गई थी कि आगामीको सेठजी हीन दृष्टिसे देखे जाते हैं। हमें सेठजीकी इस फिर वेश्यानृत्यका नाम नहीं लेंगे, बल्कि 'दिगम्बर नीची प्रवृत्ति और परिणतिपर बहत खेद जैन' का तो यहाँतक कहना है कि तब सेठ- होता है। जान पड़ता है आपके सलाहकार जीने इन्दौर में एक सभामें खास प्रतिज्ञा ली थी भी अच्छे नहीं हैं। उन्हें, अपनी अदुरदृष्टिके कि मैं अबसे वेश्यानृत्य नहीं कराऊँगा । परंतु कारण. . इस बातका जरा भी ध्यान नहीं है • जान पड़ता है सेठजी पर उस फटकार-वर्षाका कि सेठजीका गौरव वास्तवमें किन बातोंसे कुछ भी असर नहीं हुआ। और यदि सचमुच बढता और किन बातोंसे घटता है। अच्छा ही उस वक्त आपन; अपनी उस कृति पर पश्चा- होता यदि सेठजी इस विवाहके अवसर पर नाप करके, उक्त प्रकारकी कोई प्रतिज्ञा ली थी कुछ भी दान न करते परंतु वेश्यानत्य न तो वह वेश्यानृत्यके प्रेमोद्रेकमें विस्मरण अथवा उसके भक्तिरसमें निमग्न हो गई मालूम होती " * देखो ‘जैनमित्र' अंक ३१ और 'दिगम्बर है । इसी लिये हालमें आपने अपनी पुत्रीके जैन ' अंक २।। For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭૦ जैनहितैषी [भाग १४ कराते । वेश्यानृत्य कराकर और उसके द्वारा वेश्यानृत्य दिखलाकर क्या आपने उन्हें नष्ट अपनी तथा दूसरोंकी संतानको व्यभिचार व करनेका प्रयत्न नहीं किया और उन्हें वेश्यापाप-प्रचारका उपदेश दिलाकर तथा अन्य व्यसनकी शिक्षा नहीं दी ? अपनी उस सुकुप्रकारसे भी उसके नष्ट भ्रष्ट हो जानेका बीज मार कन्याको, जिसके विवाहमें वेश्या नचाई बोकर, आपने अपनी घरू संस्थाओं आदिको गई है, आपने इसके द्वारा क्या सिखलाया जो कुछ दान दिया है उसका क्या अर्थ है, है ? यह जाननेकी हमारी बड़ी उत्कंठा है। यह कुछ समझमें नहीं आता । एक ओर तो इसके सिवाय हम इतना और पूछना चाहते पापप्रचारको खूब उत्तेजन देना और पापि- हैं कि क्या आप जातिके मुखिया नहीं हैं ? योंको सहायता देकर उन्हें गलेसे लगाना, यदि हैं तो जातिके मुखियोंको लक्ष्य करके दूसरी ओर दानके नामसे कुछ धार्मिक कामोंकी आपने जो कुछ अपने व्याख्यानमें कहा था भी पीठ ठोकना, यह किस नीति पर अवल- उसका पालन क्या इसी तरह किया जाता म्बित है ? क्या सेठजी इसके द्वारा अपने , है ? क्या इसे हम 'परोपदेशकुशलता' ही आचरण पर पर्दा डालना चाहते हैं या अथवा 'खुदरा फजीहत दीगरांरा नसीहत ; उसके विरुद्ध उठनेवाली आवाजको दबानेकी न समझें ? क्या यह समझें कि आपके विचार फिकरमें हैं; अथवा पबलिकको यह समझानेकी अब बदल गये हैं और आप इस समय रखते हैं कि इस तरह पर हमने अपने दुष्क- वेश्यानृत्यको ही जैनजातिके उत्थानका र्मका प्रायश्चित्त किया है। कुछ भी हो; हमें प्रधान साधन समझते हैं; इसीसे आप वेश्याइस विषयमें आपकी समझ ठीक मालूम नहीं नृत्यके प्रचारमें लगे हुए हैं और स्वयं अगुआ होती और न आपका वह दान धार्मिक- बनकर दूसरोंके सामने उसका उदाहरण रखते भावोंसे प्रेरित होकर दिया हुआ जान पड़ता हैं । आशा है सेठजी इन सब बातोंका उत्तर है। जो वेश्यायें स्वभावतः ही-अपनी वृत्तिके देकर हमें संतुष्ट करनेकी अवश्य कृपा करेंगे अनुसार-संसारमें अनेक प्रकारके अंमगलोंको और यदि उन्हें अब भी अपनी भूल मालूम मनानेवाली हैं उन्हें विवाह जैसे मांगलिक पड़े तो उसे प्रकाश्य रूपसे सर्व साधारण पर कार्यों में बुलाकर नचाना कभी भी आजकलके प्रकट करनेकी उदारता दिखलाएँगे । साथ ही सुदूरदर्शी विद्वानों तथा धार्मिक पुरुषोंकी दृष्टिमें आगेको वेश्यानत्य न करानेकी ही नहीं, बल्कि अच्छा नहीं समझा जा सकता । किसी कविने उसके प्रचारको रोकनेकी दृढ प्रतिज्ञा धारण ठीक कहा है: करेंगे। अन्यथा हमें इस बातका बड़ा भय है ब्याह समय सौभाग्यका, रांड नचावें भूर। कि सेठजीके इस वेश्यानृत्यप्रेमसे इन्दौरमें आपकी मंगलमें असगुन करें, पड़ी बुद्धिपै धूर ॥ कहीं स्थायी नृत्यशाला कायम न हो जाय । हम सेठजीसे, उन्हींके ( ऊपर उद्धृत किये हुए ) शब्दोंकी याद दिलाकर, पछते ४-विलायत न जाना अपराध । हैं कि आपने वेश्यानृत्यमें जो धन खर्च किया महात्मा गाँधीजी, नवजीवनमें, अपनी विलाहै वह क्या किसी सुकृतमें व्यय हुआ है ? यत यात्राके विचारका स्पष्टीकरण करते हुए, अथवा उसे वैसे ही व्यर्थ नष्ट हुआ समझना लिखते हैं कि, “ किसी भी प्रसंगसे. विलायत न चाहिये ? अपनी और दूसरोंकी संतानको जाना, ऐसी मेरी मान्यता कभी नहीं हुई । मैं For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ९.) विविध-प्रसङ्क। २७१ अनेक ऐसे प्रसंगोंकी कल्पना कर सकता हूँ ५ नागपुरमें ३०-३१ मईको कोल्हापुर जब कि विलायत न जाना अपराध गिना महाराजके सभापतित्वमें 'आल इंडिया कांग्रेस जायगा।" दूसरे शब्दोंमें यों कहना चाहिये आफू डिप्रेस क्लास' (नीच समझी जानेवाली कि विलायतयात्रासे यदि किसी भारी लाभकी जातियोंकी सभा ) का जो जल्सा हुआ है उसमें संभावना हो तो उसके लिये जरूर प्रस्तुत होना अछूत जातियोंके साथ किये जानेवाले सामाचाहिए । अन्यथा, केवल सैर-सपाटेके लिये नहीं। जिक और राजनैतिक अन्यायोंकी बड़ी निन्दा इसीसे महात्माजीने खिलाफत मामलेमें विलायत की गई और उसे देशके लिये घातक बतजाना स्वीकार किया था और अपने भेजे या न लाया गया। भेजे जानेका अन्तिम निर्णय मुसलमान भाईयोंके ६ मि० बी० बोसने कहा है कि नई कौंसिऊपर छोड़ा था। लोंका सबसे पहला कार्य यह होना चाहिये कि ५-अछूत तथा नीच जाति- वह उन संपूर्ण अन्यायोंको दूर करनेका उद्योग योंका सौभाग्य । .. करे जो नीचोंके साथ किये जाते हैं । सहयोगी 'भविष्य' आदि पत्रोंसे मालूम ___ ७ कोचीनके दीवानने कुछ छोटी जातियोंके होता है कि आजकल अछूत तथा नीच जाति मंदिरमें जानेके अधिकारको स्वीकार कर योंके उत्थानका अनेक स्थानोंपर अच्छा प्रयत्न लिया है। जारी है, जिसके कुछ उदाहरण इस प्रकार है:-- ये सब बातें अछूत तथा नीच जातियों के १ थैया सम्प्रदायके धर्मगुरु श्रीनारायण सौभाग्योदयको सूचित करती हैं । इन जातियों गुरु स्वामीने, जिनके शिष्योंकी संख्या १७ पर पिछले जमानेमें बहुत कुछ अन्याय और लाख है; मंदिरोंमें परिया और दूसरी अछूत अत्याचार हुए हैं। जान पड़ता है अब इनके जातिवालोंको घुसनेकी आज्ञा दे दी है। परि भी कुछ दिन फिरे हैं और इनके सौभाग्यका या जाति मद्रास प्रांतमें एक बहुत नीची कौम सितारा भी चमकेगा। महात्मा गाँधी जैसे देशसमझी जाती है। ": नेता भी इनके उद्धारमें लगे हुए हैं। इस विषयमें . . २ कालीकटके जमोरिन कालिजमें अभीतक उनके विचारोंको हमने अन्यत्र प्रगट किया हैं। सिर्फ ऊँची जातिके लड़के ही दाखिल हो सकते ६-विना नामके लेख-पत्र । थे परंतु अब अछूत लड़के भी दाखिल हो सकेंगे। 'नवजीवन में एक विना नामके लेखको उद् ३ कोचीनकी 'कांग्रेस' नामकी सभाने धृत करके उस पर टीका करते हुए, महात्मा प्रस्ताव पास किया है कि अछूत जातियोंको गाँधी लिखते हैं किवर्तमान दशाके अनुसार उचित' अधिकार दिये “मैं अनेक बार लिख गया हूँ कि जवाबजाने चाहिये। दारी (जिम्मेदारी ) वाले लेख किसीको भी ४ मैसूर राज्यमें अछूत जातियोंके उद्धारके विना नामके नहीं लिखने चाहिये । विना नामके लिये कई वर्षसे प्रयत्न जारी है। वहाँ उन्हें लेखपत्र लिखनेकी हमारी आदत दूसरे देशोंकी आरंभिक शिक्षा मुफ्त दी जाती है। इस वर्ष अपेक्षा मुझे बढ़ी हुई मालूम होती है । हमें अपने राजसभामें उच्च शिक्षाको भी मुफ्त किये विचारोंको प्रकट करते हुए क्यों डरना चाहिये ? जानेका प्रस्ताव हुआ है। . - शरमाना चाहिये ? सच्चे विचारोंको प्रकट कर For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ inranianusas.nibanahunchaana. - २७२ जैनहितैषी [भाग १४ नेमें डर किसका ? और शरम किसकी ? विना ८-अंत्यजोंके उद्धारसम्बंधमें नामके लेख-पत्र लिखनेवालोंको अब भी मेरी महात्मा गाँधीके विचार । यह शिक्षा है कि तुम इस आदतको छोड़ दो। जिन विचारोंकी, जिस भाषाकी जवाबदारी ___ अंत्यजों को, अस्पृश्य मानना पाप है। उठानेके लिये हम तय्यार नहीं हैं उन विचारोंको काठियावाड़की किसी प्रसिद्ध, धर्मपरायण बतलाने अथवा वैसी भाषा प्रयोग करनेका हमें और विदुषी बहनने, एक पत्रके द्वारा, · महात्मा अधिकार नहीं है।" गाँधीजीसे दो बातें पूछी थीं, जिनमेंसे एक - विना नामके लेखों तथा पत्रोंमें अक्सर भाषा बात अंत्यजोंके सम्बंधकी थी और उसका प्रश्न इस प्रकारसे किया गया थाकटुक हो जाती है और नम्रता जाती रहती है, ___ "मैं एक दूसरी जरूरी बात पूछती हूँ। यह इसलिये महात्मा गाँधीजी आगे सूचित करते हैं दुर्भागी हिन्दुस्तान उग्रभागी कब होगा, यह बात कि इस तरह पर विवेक छोड़कर लिखनेका हमें कभी अधिकार नहीं है। जिन्हें किसी विषय आप तो जानते होंगे पर क्या दूसरोंको भी बतलाओगे? बहुतसी कौमोंकी अपेक्षा आप पर टीका. टिप्पण करनेका विचार हो उन्हें अंत्यज कौमको अधिक उत्तेजन देते हो, इसका विवेक न छोड़कर हिम्मतके साथ अपना नाम विशेष रहस्य क्या है ? हिन्दुस्थानमें बहुतसी देते हुए उसे कार्यमें परिणत करना चाहिये। कौमें (जातियाँ) दुर्बल स्थितिमें हैं उनमेंसे . आशा है हमारी जैनसमाजके लेखक भी अंत्यजोंकी कौमके ऊपर आपकी अधिक लगन महात्माजीकी इस शिक्षाको ध्यानमें रक्खेंगे। ( तवज्जह ) है ऐसा मालूम होता है। मेरी यह ७-दुअन्नीका मूल्य । मानता ठीक नहीं होगी, क्योंकि आपने 'आत्महालमें 'अखिल भारतवर्षीय एकादश वैद्य वत्सर्वभूतेषु' के सिद्धान्तको मानकर सत्याग्रह सम्मेलन'का जो जल्सा इन्दोरमें हुआ था उसमें पकड़ा है।" एक दिन प्रयागमें विद्यापीठ महाविद्यालय खोल- महात्मा गाँधीजीने, अपने ३० मईके 'नवनेके लिये चंदेकी अपील की गई थी। इस अपी- जीवन में, उक्त बहनकी दोनों बातोंका उत्तर लका परिचय देते हुए सहयोगी वैद्य, अपने ४ देते हुए अंत्यज्ञोंके उद्धार विषयमें अपने विचार थे नम्बरकी संख्यामें लिखता है कि चंदेमें इस प्रकारसे प्रकट किये हैं:"पंजाबके एक साधुने एक दुअन्नी दी थी, जो . “अब मैं अंत्यजोंके विषयका उत्तर देता नीलाम की गई । अन्तमें वह दुअन्नी १०२५)रु. हूँ। हिन्दुस्तानके मंदभाग्यका प्रश्न इसमें समाया में बम्बईके डा० पोपट प्रभुरामने खरीद ली।" हुआ है । अंत्यजोंका प्रश्न करके यह बहन शंका जिस साधुकी एक दुअन्नीकी इतनी कदर की गई उठाती है कि क्या अंत्यजोंको अंत्यजतामेंसे और इतना मूल्य दिया गया वह कैसा प्रतिष्ठित, निकाल कर हम हिन्दुस्तानको उग्रभागी बना प्रभावशाली और लोकप्रिय होगा, इसे पाठक सकेंगे ? मैं समझता हूँ जरूर ऐसा परिणाम स्वयं समझ सकते हैं । परंतु खेद है सहयोमीने निकाला जा सकता है; क्यों कि जिस शक्तिके उसका नाम नहीं दिया और इस तरह अपने द्वारा हम एक महा पापसे मुक्ति प्राप्त करेंगे उसी पाठकोंको उसका नाम जाननेके लिये उत्कंठित शक्तिके द्वारा दूसरे पापोंमेंसे भी अपनेको निकाल . ही रक्खा । । तर सकेंगे। और मेरी यह दृढ मान्यता है कि जन For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ९] विविध-प्रसङ्ग। २७३ तक हम कुछ पापकर्मों में पड़े हुए हैं तबतक तो अन्यायसे भरा हुआ, विवेकरहित और हिन्दुस्तान मंदभागी ही रहेगा । मैं अंत्यजोंकी अधार्मिक ही मालूम होता है । इसीसे अंत्यजको सेवा करके संपूर्ण कौम (जातिसमूह ) की सेवा कर मैं अपनेको पवित्र हुआ मानता हूँ और करता हूँ, ऐसी मेरी मान्यता है । जिस प्रकार अनेक रीतिसे मर्यादामें रहनवाले हिन्द-संसाअंत्यज दुखी हैं उस प्रकार दूसरे भी हैं परंतु रको इस दोषसे निकल जानेकी विनती ही अन्त्यजॉके ऊपर हम तो धर्मके नामसे डाका किया करता हूँ। इस बहनसे भी. जिसने सरल डाल रहे हैं । अतः इस अधर्ममेंसे निकल जाना और दूसरोंको निकल जानेकी सूचना _भावसे ऊपरका पत्र लिखा है, मेरी विनती है करना, यह एक चस्त हिन्दके तौर पर मैं कि वह अपनी 'उत्तम शक्तिको और अपने अपना विशेष कर्तव्य मानता हूँ । अंत्यजोंके परिचितोंके प्रयत्नको पूरी तौरसे लगाकर हिन्दू दुःखका मुकाबला प्रजाके दूसरे किसी भी संसारको इस अस्पृश्यताके पापबोझमेंसे छुड़ानेमें विभागके दुःखके साथ हम नहीं कर सकते। भागीदार बने।" .. अंत्यज अस्पृश्य हैं, ऐसा धर्म हम कैसे मानते हैं, यह मेरी बुद्धि ग्रहण नहीं कर सकती । और ९-समयोपयोगी कार्य। . जब मैं इसका विचार करता हूँ तब मेरा हृदय सहयोगी भारतमित्रसे मालूम हुमा कि काँपता है । यह अस्पृश्यता हिन्दूधर्मका अंग हालमें खंडेलवाल महासभाका जो अधिवेशन कभी नहीं हो सकती, ऐसा मेरा आत्मा साक्षी दिल्लीके रईस ला० रघुमलजीके सभापतित्वमें देता है । इतने वर्षोंतक अज्ञानतावश उन्हें हुआ है उसमें १५४ परिवारों ( कुटुम्बों) को ( अंत्यजोंको ) अस्पृश्य गिनकर हिन्दू संसारने जो प्रायः १३२ वर्षसे जातिच्युत थे, जातिमें पापका एक बड़ा भारी पुंज जमा किया शामिल कर लिया गया है, बोर्डिंग हाउसोंके है, जिसको दूर करनेके लिये संपूर्ण जीवन अर्पण लिये सभास्थानपर ही एक लाख पंद्रह हजारका करना यह मुझे जरा भी अधिक मालूम नहीं पड़ता चंदा हुआ जिसमें एक लाख रुपया सभापतिसाऔर मैं केवल इसी एक कार्यके अंदर अपनेको हबने दिया है, और एक स्त्री श्रीमती नारायणी नहीं रोक सकता, इतनी बातका मुझे दुःख रहा बाईको, स्त्रीशिक्षापर एक सुन्दर निबन्ध पढ़नेके करता है । इसमें अंत्यजोंके साथ जीमन (भोजन)- उपलक्षमें १५०) रुपये पुरस्कारस्वरूप दिये व्यवहार तथा बेटीव्यवहार रखनेका सवाल गये। इन सब समयोपयोगी कार्योंको मालूम जरा भी उत्पन्न नहीं होता, केवल छूने और नहीं । करके हमें बहुत प्रसन्नता हुई। आशा है हमारे छूनेका ही प्रश्न है । अंत्यज मुसलमान हो जाय जैनसमाजकी भी भिन्नभिन्न सभाएँ इससे कुछ तो मैं छूऊँ, ईसाई हो जाय तो मैं उसे सलाम शिक्षा ग्रहण करेंगी और खासकर अपने चिरकरूँ, जिस ईसाई अथवा मुसलमानको वह छूवे कालसे बिछुड़े हुए (जातिच्युत किये हुए) उसके छूनेमें पाप न मानें परंतु उस अंत्यजको भाईयोंको फिरसे गले लगाने और उन्हें अपनी छूनेमें मुझे संकोच होता है ! यह विचार मुझे जातिमें शामिल करनेकी उदारता दिखलाएँगी, For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ जैनहितैषी . [भाग १४. १०-आँखें बंद कर लो, देखो मत ! सकता तो अब उससे भी वंचित हो जाता है और अपनेको अनायास ही दूसरोंके हाथोंमें कलकत्तेकी दिगम्बर जैनसभाको ‘सत्योदय' समर्पण कर देता है। ठीक ऐसी ही दशा, और 'जातिप्रबोधक' से बड़ा भय मालूम इस समय, कलकत्ता जैनसभाके सभासदों होता है। उसकी श्रद्धा-कुटी इन पत्रोंके वाग्वा और उनके अनुयायियोंकी जान पड़ती है, वे णोंसे छिन्न भिन्न हुई जाती है; नहीं नहीं, बल्कि भी किंकर्तव्यविमूढ मालूम होते हैं और इनके हुंकार मात्रसे उड़ी जाती है ! उसे अपने समीपमें स्थित जैनधर्म इतना लचर और पोच इसी कबूतर जैसी नीतिका अनुसरण किये हुए हैं। परंतु वीरपुरुषोंकी ऐसी नीति नहीं दिखलाई देता है कि वह इन पत्रोंकी कुटिल हुआ करती, वे आक्रमणकारीके मुकाबले में दृष्टिके सामने ठहर नहीं सकता ! साथ ही, उसे खम ठोककर आते हैं। आँखें बंद कर लेना यह भी अनुभव हुआ जान पड़ता है कि दूसरे या पीठ देकर बैठ रहना, यह कायरों तथा काजैनी भाईयोंकी श्रद्धा-कुटियोंकी हालत भी उसी जैसी है-वे भी फूंक मारते ही उड़ जानेवाली हैं। पुरुषोंका चिह्न है । और इस लिये, जो लोग और इस लिये उसने अपनी, जैनधर्मकी, और ऐसा आचरण करते हैं वे संसारमें अपनी निर्बलता अपने दूसरे जातिभाईयोंकी रक्षाके लिये एक और अकर्मण्यताको सर्वसाधारणके सामने उन्न बहुत बड़ा रामबाण उपाय खोज निकाला है, स्वरसे उद्घोषित करते हैं । जान पड़ता है कलऔर वह आँखें बंद कर लेना है ! इसीसे वह । कत्तेकी उक्त सभाको जैनधर्म पर विश्वास नहीं दूसरोंको भी यही उपदेश देती है अथवा आदेश है अथवा उसने जैनधर्मका वास्तविक स्वरूप करती है कि 'आँखें बंद कर लो देखो मत' ' नहीं समझा और न उसके रहस्यका ही उसे कुछ अर्थात्, इन पत्रोंको मत पढ़ो ! उसके खयालसे बोध है । वह कुछ अस्थिर रूढ़ियोंके समूहको ही इसीमें सारा रक्षातत्त्व छिपा हुआ है। परंतु जैनधर्मका शरीर कल्पित किये हुए है और हमारी समझमें यह तो वही बात हुई कि जैसे इसीसे जैनधर्म उसे इतना लचर तथा पोच दिखकिसी बिलावको सामनेसे आता हुआ देख लाई देता है कि उसके चलायमान हो जानेकी एक कबूतर उसके तेजको न सह सकनेके . उसके हृदयमें हर वक्त आशंका बनी रहती है ! कारण किंकर्तव्यविमूढसा होकर अपनी आँखें " नहीं तो, मूल जैनधर्मकी दीवारें ऐसी वज्रकी बंद करके बैठ जाता है और समझता है । बनी हुई हैं और इतने मजबूत तथा सुदृढ पायेके कि इस तरह मेरी रक्षा हो जायगी-मैं उसे . ऊपर खड़ी हैं कि उन्हें जरा भी कोई हिला नहीं देखता तो मानों वह भी मुझे नहीं देखता-' ", नहीं सकता । परंतु खेद है कि सभाको इसका परंतु पाठक समझ सकते हैं कि क्या इस . 6 कुछ भी अनुभव नहीं है । यदि सभा जैनधर्मके " .वास्तविक स्वरूपको जानने, उसके रहस्यको तरह पर उस कबूतरकी रक्षा हो जाती है ? .. कभी नहीं । आँखें खुली रहनेकी हालतमें यदि समझनेकी कोशिश करे और साथ ही समय पर ___ अपनी आत्मशक्तियोंका यथार्थ प्रयोग करना वह उड़-उड़ाकर अपनी कुछ रक्षा कर भी सीखे तो उसके लिये भयका कोई स्थान न रहे १ इस विषयका जो प्रस्ताव उक्त सभाने पास और न फिर, व्यर्थकी घबराहटसे उत्पन्न हुए, किया है उसे हमने अपने विचारोंके साथ अन्यत्र इस प्रकारके निष्फल तथा हानिकर प्रयत्नों द्वारा प्रकाशित किया है। उसे विद्वत्समाजमें हँसीका ही पात्र बनना पड़े। For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अङ्क ९] विविध-प्रसङ्ग। ११-सेठीजी जाति और बीसा हुमड़ोंमें भी परस्पर एक दो सम्बन्ध च्युत किये गये। हो गये हैं और वे थोड़ेसे ही विरोध आदिके. ___ बाद एक तरहसे जायज समझ लिये गये हैं। गत अंकमें यह समाचार प्रकाशित किया खण्डेलवाल पंचायती अपने रीति-रवाजोंको जा चुका है कि बम्बईमें खंडेलवालजातीय है और जातिनियमोंको अपनी इच्छानुसार जारी श्रीयुक्त पं० अर्जुनलालजी सेठी बी. ए. ने . अपनी मँझली कन्याका विवाह एक हूमड़ नेका किसी दूसरेको अधिकार नहीं हो सकता; रखमेके लिए स्वतन्त्र है । उसमें हस्तक्षेप कर. जातीय जैन युवकके साथ कर दिया है । जहाँ , तक हम जानते हैं जैनधर्म इस प्रकारके विवा । फिर भी उसे ऐसे मामलोंमें अब विशेष सोचहाँका निषेध नहीं करता । जब जैन न समझस काम लेना चाहिए । समय बदल अनुसार चक्रवर्ती जैन राजा म्लेच्छ देशकी . रहा है, • लोगोंके दृष्टिकोण बदल गये हैं और सामाजिक अत्याचारोंसे लोग इतने पीडित कन्याओं तकसे विवाह करते थे, और द्विज . न हो रहे हैं कि यदि उनकी न्याय्य आकांजातियोंमें-ब्राह्नण क्षत्रिय और वैश्यवर्गों में क्षाओंके प्रति सहानुभूति प्रकट न की जायगी परस्पर विवाहसम्बन्ध होनेके सैकड़ों उदाहरण जैनकथासाहित्यमें भरे हुए हैं, तब यह एक ही तो वह समय दूर नहीं है जब पंचायति योंकी अवाधित सत्ताके नँएको लोग अपने वैश्यवर्णकी और एक ही दिगम्बर जैनधर्मको माननेवाली दो जातियोंका सम्बन्ध तो किसी कन्धोंसे उतार कर फेंक देंगे और उससे जो थोड़ा बहुत लाभ होता था उससे भी वंचित हो प्रकार भी ऐसा नहीं हो सकता कि इसका विरोध किया जाय । परन्तु न जाने क्या सोच जायँगे । हमारी छोटीसी समझमें यह ढंग कर बम्बईकी खण्डेलवाल जैनपंचायतने सेठी अच्छा नहीं है । इनसे स्वेच्छाचार घटेगा नहीं ' जैसी कि आशा की जाती है, उलटा बढ़ेगा। जीको जातिच्युत करनेकी आज्ञा जारी कर दी है ! इस आज्ञाको सुनकर बड़ा भारी आश्चर्य १२-एक कदम और आगे। इस कारण हुआ कि यहाँकी पंचायतके अग्रणी- सत्यवादीके भूतपूर्व सम्पादक पं० उदयप्रधाननेता-पं० धन्नालालजी काशलीवाल हैं और लालजी काशलीवाल भी खण्डेलवाल जातिके हैं। वे जैनधर्मके धुरन्धर पण्डित हैं । वे उन उनकी उमर इस समय लगभग ३६ वर्षकी है। लोगोंमेंसे हैं जो जैनशास्त्रोंको अक्षर अक्षर कई वर्षसे वे प्रयत्न कर रहे थे कि किसी खण्डेमानते हैं। हम नहीं समझते कि उन्होंने लवाल जातिकी कन्याके साथ शादी कर लेवें । इस जैनधर्मसे सर्वथा अनुकूल विवाहको इस कार्य के लिए उन्होंने ४-५ हजार रुपये तकक्यों अवैध समझा और उसका विरोध कर- का प्रबन्ध कर लिया था । वे अपने एक धना नेकी क्यों आवश्यकता समझी। मित्रके साथ नागोर आदि प्रान्तोंमें कन्याकी इस बम्बई पंचायतसे तो शोलापुरकी हमड़ शोधमें घूमे भी; परन्तु जब उनका कार्य सिद्ध पंचायत ही विचारशील निकली। सनते हैं, नहीं हुआ और वे इस ओरसे निराश हो गयेउसने अभी तक इस विवाहके विरुद्ध कोई उन्हें अपनी चरित्ररक्षाका और कोई उपाय भी प्रयत्न नहीं किया है और न वह करना नहीं सूझ पड़ा तब उन्होंने एक सच्चरित्र बालही चाहती है । इसके पहले शोलापुरमें दसा विधवाको जो जातिकी ब्राह्मणी है, बुला लिया For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ और अब वे उसके साथ बहुत जल्दी विवाह करनेवाले हैं । इस बातकी खबर पाकर खण्डेलवाल पंचायती चौंक पड़ी और उनले प्रक्षय उदयलालजीको जन्मभर के लिए जातिसे खारिज कर दिया और साथ ही यह आज्ञा भी जारी कर दी कि उनका मन्दिरसम्बन्ध भी बन्द है, अर्थात् वे अब जैनमन्दिरमें दर्शनादि भी न कर सकेंगे !. जैनहितैषी - [ भाग १४ रिवाजका दिगम्बर सम्प्रदायकी एक बहुत ही प्रतिष्ठित जाति अनुकरण कर रही है । किसीका देवदर्शन बन्द कर देना, उसकी आत्मोन्नति के एक प्रचलित मार्गमें रुकावट डालदेना, और फलतः उसे जैनधर्मके आश्रयसे दू फेंकनेकी कोशिश करना कहाँ तक उचित और शास्त्रविहित है तथा इसका कौनसा अच्छा परिणाम होगा इसका उत्तर तो जैनधर्म के धुरन्धर विद्वान ही दे सकेंगे; परन्तु हमारी समझ में बम्बईकी खंडेलवाल पंचायतने इस आज्ञाके जारी करनेमें कुछ जल्दी अवश्य की है । जिस मन्दिरसे पंडित उदयलालजी बन्द किये गये हैं, उसमें दक्षिण के सेतवाल, चतुर्थ और पंचम आदि जाति के लोग ' बराबर दर्शन करनेके लिए आते हैं और उनमें कई सौ वर्षों से विधवा-विवाह की प्रथा जोरों के साथ जारी है और सेतवाल जातिका तो यह हाल है कि उसमें तलाक तकका रिवाज जारी है, अर्थात् उनमें बहुतसी स्त्रियाँ अपने पतियोंके जीते जी भी - उनसे न बनने पर – दूसरोंके यहाँ चली जाती हैं ! क्या पंचायतीने इस बात पर विचार करने का कष्ट उठाया है ? क्या वह पंडितजीकी विधवाविवाहकी तैयारीको उक्त जातियोंके विधवाविवाह और तलाक ( छोड़छुट्टी ) के रिवाज से भी बुरा समझती है ? अथवा उसको यह सच्चा ज्ञान हो गया है कि जो रिवाज पुराने हो जातें हैं और जिनको जातिके एक से अधिक सभ्य स्वीकार कर लेते हैं, वे जायज हो जाते हैं - उनमें दोषकल्पना नहीं हो सकती ? जब पण्डितजींने विधवाको बुला लिया है और वे उसके साथ विवाह करनेकी तैयारीमें हैं। तब यह आशा तो कोई भी समझदार नहीं कर सकता था कि वे जातिच्युत न किये जावेंगे । वह दिन अभी इतने निकट नहीं मालूम होता जब कुरीतियों के कीचड़ में फँसी हुई ये पंचायतियाँ एक आपद्धर्मके रूपमें भी विधवाविवाहके प्रति स्वेच्छापूर्वक सहानुभूति प्रकट करने लगेंगी । उनमें अभी इतनी समझ ही कहाँ है ? इतना हृदय ही कहाँ है ? अतः पण्डितजीको जातिच्युत करना पंचायतका एक बहुत ही मामूली काम हुआ है, इसके विषय में हम कुछ भी नहीं कहा चाहते; परन्तु उसने जो उन्हें मन्दिर भी बन्द कर दिया है यह खंडेलवाल जातिके इतिहास में बिलकुल नई बात है - इस विषय में वह एक कदम और भी आगे बढ़ गई है । यह मन्दिर बन्द करनेका दण्ड परवार और गोलापूरब आदि दो एक बुन्देलखण्डकी जातियोंमें प्रचलित है। इसे सुनकर हमारे कई खंडेलचाल मित्र बड़ा आश्चर्य करते थे और इस प्रथा के विषयमें उक्त जातियोंका परिहास भी किया करते थे; परन्तु हम समझते हैं अब उन्हें वह आश्चर्य न होगा और न परिहास करनेका ही साहस होगा । क्यों कि इस दण्डविधिको अब स्वयं उनकी खण्डेलवाल सभाने जायज करार दिया है । परवार भाइयों को इस समाचार से अवश्य ही -सन्तोष होगा कि उनकी जातिके एक अद्वितीय १३ जैनहितैषी भी जैनपत्र नहीं है ! कलकतेकी दिगम्बर जैनसभाने आखिर अपनी भूल सुधार ली । पहले उसने ' जातिप्रबोधक ' और 'सत्योदय ' को ही अतर एक सहरमा For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ९] त्रुवल्लुव नायनार त्रुकुलर। . २७७ था; परन्तु अब उसने फिर दूसरी आज्ञा जारी त्रवल्लव नायनार करल। की है कि नहीं, जैनहितैषी भी क्यों जैन बना रहे ? उसको भी जैन बनाये रखनेमें लाभ नहीं है । जैनी भाइयोंको चाहिए कि इसे. भी अजैन (लेखक-स्वर्गीय बाबू दयाचन्दजी गोयलीय) समझें और इसके ग्राहक न बननेकी और न . (अंक ४-५ से आगे). पढ़नेकी प्रतिज्ञा कर लें! सभाको उसकी इस . ५-गृहस्थाश्रम। उदारता और गुणज्ञताके लिए अनेक धन्यवाद! ४१-गृहस्थसे ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और सन्या१४ महात्मा तिलकका स्वर्गवास। सी तीनों अवस्थाओंके लिये सहायता मिलती है। पूनेके सुप्रसिद्ध देशभक्त महात्मा तिलकका ४२-अनाथों, दरिद्रों और असहाय मतक (?) ता० ३१ जुलाईकी रातको बम्बईमें स्वर्गवास , मनुष्योंके लिये गृहस्थ अवलम्ब है। हो गया । राजनीतिके क्षेत्रमें काम करनेवालोंमें ४३-पितरोंका श्राद्ध (?) करना, देवताओंका आज तक उनके समान सम्मान और प्रतिष्ठा किसीको भी प्राप्त नहीं हुई। उस दिन उनके यज्ञ करना अतिथियोंका सत्कार करना, सम्बंअन्तिम संस्कारके समय जनताकी जैसी भीड़ । धियोंकी सहायता करना और आत्म-रक्षा हुई थी वैसी आज तक किसी भी नेता. महात्मा करना ये पाँच गृहस्थके कर्तव्य हैं। और धर्माचार्यके लिए तो क्या किसी राजा ४४-उसका वंश कभी नहीं नाश होता जो महाराजाके लिए भी नहीं हुई थी! एक समा- धर्मानुकूल आजीविका प्राप्त करता ह और सुपा-- चारपत्रके कथनानुसार उस समय ५-६ लाख त्रोंको दान देकर भोजन करता है। मनुष्य उपस्थित थे ! वह दृश्य अपूर्व था । उससे ४५-जिस घरमें धर्म और प्रेमका बाहुल्य है पता लगता था कि इस समय देशमें देशप्रेमकी' अर्थात् जहाँ पति और पत्नीमें गाढ प्रेम है, वहीं महिमा कितनी बढ़ गई है। महात्मा तिलक घर सुखी है और उसका प्रत्येक कार्य उत्तम प्रतिभा, साहस, धैर्य, निर्भयता, कष्टसहिष्णुता, रीतिसे सिद्ध होता है। राजनीतिज्ञता और एकनिष्ठता आदि सभी गणोंमें ४६-जो मनुष्य गृहस्थाश्रमके धर्मका समीअद्वितीय थे । ज्योतिष और पुरातत्त्वके भी वे . चान रूपसे पालन करता है उसके लिये वानधुरन्धर पण्डित थे। उनके देहावसानसे देशकी प्रस्थ या संन्यासाश्रममें जानेकी क्या आवजो महती हानि हुई है वह जल्दी मिटनेवाली श्यकता है? नहीं । उनके कट्टरसे कट्टर विरोधियोंको भी ४७-जो मनुष्य गृहस्थाश्रममें शास्त्रानुकूल उनकी इस असमयमृत्युसे शोक हुआ है । सभीकी यह राय है कि देशका एक महान् रत्न धर्माचरण करता है वह वानप्रस्थोंसे भी बढ़कर है। लुप्त हो गया। देश कंगाल हो गया। महात्मा . ४८-जो मनुष्य गृहस्थाश्रममें रहता हुआ गाँधीके शब्दोंमें लोकमान्य तिलक मरकर भी इस बातका ध्यान रखता है कि तपस्वी लोग हमें जीनेका मंत्र सिखा गये हैं। साथही देशके निर्विघ्नतासे अपनी तपस्या कर रहे हैं, अर्थात् हृदयमें वे अमर हो गये हैं। * उन्हें कोई कष्ट नहीं है और जो स्वयं धर्मानुकूल जीवन व्यतीत करता है वह तपस्वियोंसे * पिछले चार नोट प्रकाशकके लिखे हुए है। बढ़कर है। . For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ जैनहितैषी [भाग १४ ४९-वास्तवमें गृहस्थ जीवन ही धर्म जीवन अपने घरकी प्रतिष्ठाको सुरक्षित रखती है वही है। अन्य आश्रम भी यदि वे निर्दोष हैं तो स्त्री वास्तवमें सच्ची गृहिणी है । ऐसे पति"उत्तम हो सकते हैं। पत्नीमें जो प्रेम होता है वह अक्षय और ५०-जो गृहस्थ गृहस्थाश्रमके नियमोंका पूर्ण स्थायी होता है। • रूपसे पालन करता है वह इस लोकमें, मनुष्योंमें ५७-स्त्रीको अपने धर्म और शीलकी रक्षा देवताओंके सदृश है। आप करनी चाहिए। उसके लिये किसी प्रका६-गृहिणी-सुख । रके परदेकी या रोककी आवश्यकता नहीं है। ( लोगोंका यह विचार कि स्त्रियोंको पर५१-वही स्त्री गृहिणी होनेके योग्य है, जिसमें देमें रखनेसे और उन्हें घरसे बाहर न निकगृहिणीके समस्त गुण हों और जो अपने पतिकी , " लने देनेसे उनके धर्मकी रक्षा होगी, भ्रम है। भागले अनसार व्यय करती हो । (गुरुभाक्त, जिन स्त्रियोंको अपने शीलकी रक्षाका विचार अतिथिसत्कार, निर्धन और निराश्रित जनोंके होता है, वे खुले मुँह बाजारमें फिरकर भी अपने प्रति दया-अनुकम्पाका व्यवहार तथा आवश्य शीलकी रक्षा कर सकती हैं, परन्तु जिन्हें इस कतानुसार सामग्रीका संचय करना और पाक बातका ध्यान नहीं है उन्हें चाहे सात तालोंके विधिमें चातुर्य इत्यादि गुण गृहिणीमें होने अंदर बंद करके रख दिया जाय, फिर भी वे चाहिए।) सुरक्षित नहीं रह सकती। ५२-जिस घरकी गृहिणीमें उपर्युक्त गुण न हों तो चाहे जितनी धन सम्पदा होने पर भी _ ५८-जो स्त्री अपने पतिकी शुद्ध अन्त:उस घरमै प्रकाश नहीं हो सकता। करणसे भक्ति करती है अर्थात जो स्त्री सनी ५३-जिस घरमें गृहिणी में उपर्युक्त गण हैं पतिव्रता है उसकी देवता तक भी पूजा "करते हैं। उसमें फिर किस बातकी कमी है ? अर्थात् किसी . ५९-जिस पुरुषकी स्त्री अपने धर्म और बातकी कमी नहीं । परंतु जिस घरमें गृहिणीमें . कुलकी प्रतिष्ठाको सुरक्षित नहीं रख सकती है उक्त गुण नहीं हैं उसमें क्या धरा है ? अर्थात् । वह अपने शत्रुओं और द्वेषियोंके सामने सिंहके उसमें कुछ भी नहीं है। समान निर्भय होकर खड़ा नहीं हो सकता है। ५४-जिस मनुष्यके घरमें पतिव्रता विदुषी ६०-घरकी प्रतिष्ठा पतिव्रता विदुषी गृहिणीसे स्त्री है उसके लिये उससे बढ़कर फिर संसारमें है और उसकी शोभा गुणी और सदाचारी और कौन वस्तु है ? सन्तानसे है। ५५-जो स्त्री नित्य प्रातःकाल उठकर पति के चरणारविन्दोंको नमस्कार करती है और पतिको ७-सन्तान । छोड़कर अन्य किसी देवी देवताके आगे ६१-चतुर और सद्गुणी सन्तानसे बढ़कर सिर नहीं झुकाती है, वह यदि यह कहे कि संसारमें कोई सुख नहीं है । वर्षा हो तो तत्काल वर्षा होने लगेगी । (पाति- ६२-जिस मनुष्यके ऐसी सुंदर, सुशील व्रत धर्मकी ऐसी ही महिमा है।) और सद्गुणी सन्तान है कि जिसमें किसीको । ५६-जो स्त्री अपने धर्म और शीलकी रक्षा कोई दोष दिखलाई नहीं देता, उसको सात करती है, पतिभक्तिमें लीन रहती है, और जन्म तक भी कोई दुख नहीं हो सकता। For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७९ अङ्क ९] त्रुवल्लुव नायनार त्रुकुरल। ६३-विद्वानोंका कथन है कि सन्तान माता ७२-जिन मनुष्योंमें प्रेम नहीं है वे स्वार्थी पिताका धन है, कारण कि जो धन संतान हैं और अपने लिये जीते हैं, परंतु जिनमें प्रेम पैदा करती है और उससे जो सत्कार्य माता- है वे दूसरोंके लिये अपने प्राण तक न्योछावर पिताके लिये करती है उनका फल माता करनेको तैयार रहते हैं। पिताको पहुँचता है। , ७३-विद्वानोंका कथन है कि आत्माने इस ६४-बच्चोंके नन्हें नन्हें हाथोंसे स्पर्श कारण स्थूल शरीरको धारण किया है कि जिससे किया हुआ और इधर उधर फैलाया हुआ जीवधारियोंमें प्रेमका संचार हो। । भोजन अमृतसे भी बढ़कर स्वादिष्ट होता है। ७४-प्रेमसे जीवमात्रके प्रति मनमें दयाका ६५-बच्चोंके स्पर्श करनेसे शरीरको सुख भाव होता है और दयालुतासे मनुष्यकी इतनी मिलता है और उनकी तोतली बोलीके सुननेसे इज्जत होती है कि सब लोग उसको अपना मित्र कानोंको। कहते हैं। ६६-जिन्होंने अपने बच्चोंकी तोतली और ७५-प्रेमके शांतिमय जीवनसे मनुष्यको इस मीठी बोलीको नहीं सुना है केवल वे ही लोक और परलोकमें दोनों जगह सुख मिलता है। ' लोग यह कहा करते हैं कि वीणा और बाँसु- दसरा सगे। . रीका स्वर मधुर होता है। • ६७-पुत्रके प्रति पिताका यही कर्तव्य है । ३९-राजाके सगुण ।* कि वह उसको विद्वानोंकी सभामें उच्च आसन ____३८१-जिस राजाके पास सैन्य, मनुष्य, पर बैठनेके योग्य बना दे। द्रव्य, मंत्री और दुर्ग ( किला) ये छहों चीजें ६८-पुत्रको पितासे अधिक उन्नति करते हैं वह राजाओंमें सिंहके समान है। हुए देखकर सम्पूर्ण संसारको आनंद होता है। ३८२-साहस, उदारता, बुद्धिमत्ता और ६९-माताको पुत्रकी उत्पत्तिसे बडा आनन्द उत्साह ये चार गुण ऐसे हैं कि राजामें सदैव ये जाने चाहि होता है, परंतु उसका आनन्द उस समय और भी अधिक बढ़ जाता है, जब वह संसारमें ३८३-राजामें निरन्तर कार्यतत्परता, विद्या उसके गुणों और विद्याकी प्रशंसा सनता है। और हढता ये तीन गुण भी रहने चाहिये। ७०-पुत्रसे पिताको क्या लाभ है ? अर्थात . ३८४-यदि राजा धर्मसे च्युत नहीं होता है, प्रजाको पापकर्म करनेसे रोकता है और पुत्रको पिताके लिये क्या करना उचित है ? . अपनेमें साहस रखता है तो उसका गौरव सुरइसका उत्तर यह है कि पुत्रको ऐसा सुशील और । सदाचारी होना चाहिए कि लोग उसे देखकर क्षित रहता है। स्वतः यह कहने लगे कि तपस्या करनेसे उक्त . ३८५-राजा वह है जो द्रव्योपार्जन करता है, उसका संचय करता है, उसकी रक्षा करता मनुष्यको ऐसे पुत्ररत्नकी प्राप्ति हुई है। . है और फिर उसे धर्मकार्यों में व्यय करता है। ८-प्रेम। ___३८६-जिस राज्यमें प्रजा आसानीसे राजा७१-क्या कोई वस्तु ऐसी है जो प्रेमको के पास पहुँच सकती है और जहाँ पर राजा प्रकट हानेस रोक सके ? प्रेमीकी आँखाक छोटे इनके पहलेके ३०५ पदोंके अनवादकी कापी छोटे आँसू ही उसके प्रेमको प्रकट कर देते हैं। खो गई है। . . For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280 ..जैनहितैषी- [भाग 14 कठोर वचनोंका प्रयोग नहीं करता उस राज्य- ३९५-जिस प्रकार भिक्षुक धनिकोंके सामने की सम्पूर्ण संसार प्रशंसा करता है। उनके नीचे खड़े रहते हैं उसी प्रकार मूर्खजन __ ३८७-जो राजा मीठी वाणीसे उदारताके ज्ञानी पुरुषोंसे नीचे खड़े रहते हैं। . साथ प्रजाकी सहायता करता है और अपने बल ३९६-रेतीले मैदानको जितना अधिक पराक्रमसे उसकी रक्षा करता है, उसकी सेवा गहरा खोदते हैं पानीके सोते उतने ही अधिक करनेके लिए सम्पूर्ण जगत् तैयार रहता है। निकल आते हैं, उसी प्रकार जितनी अधिक . / ३८८-जो न्यायसे शासन करता है और तुम विद्या प्राप्त करोगे उतने ही अधिक ज्ञानके प्रजाके दुःखोंको दूर करके उनकी सहायता सोते तुम्हारे अन्दरसे निकलेंगे। करता है उसे प्रजा उसके कामोंके करण देव ३९७-जब विद्यावानोंके लिए प्रत्येक देश ताके समान समझती है यद्यपि वह जन्मसे स्वदेशके समान और प्रत्येक गृह स्वगृहके समान मनुष्य होता है। ३८९-योग्य और उत्तम राजा वह है जो जो हो जाता है तब समझमें नहीं आता कि बहुतसे हा ऐसे कड़वे बचनोंको भी समझकर सहन कर मनु मनुष्य बिना कुछ सीखे अपना जीवन कैसे व्यर्थ लेता है जिन्हें कान सहन नहीं कर सकते। खा दत है। (क्रमशः) ऐसे राजाकी छत्रछायामें सम्पूर्ण संसार सुखचै.. नसे रहता है, अर्थात् वह सम्पूर्ण जगत पर विनामूल्य। शासन करता है। 1 जो लोग इस सूचनाके निकलनेके बादसे. ३९०-दान, दया, उत्तम शासन और प्रजा- छह महीनेके लिये, इसी अंकसे, जैनहितैषीके के आनन्दकी चिन्ता ये चार बातें राजाके ग्राहक होंगे और 6 महीनेके मूल्यकी बाबत प्रकाशको प्रकट करती हैं। 11) रु. मनीआर्डर द्वारा भेज देवेंगे, अथवा पूरे सालके लिये ग्राहक होंगे और पिछले ४०-विद्या। अंकोंको भेजे जानेकी स्वीकारता देकर साल ३९१-इस प्रकार विद्या प्राप्त करो कि जिससे भरके लिये 2) रुपये मूल्यका मनीआर्डर तुम्हें पूर्ण और निदोष ज्ञानकी प्राप्ति हो और रवाना करेंगे ऐसे सब नवीन ग्राहकोंको 'विधवा फिर ठीक प्राप्य ज्ञानके अनुकूल आचरण करो। कर्तव्य' नामकी एक डेढसौ पृष्ठोंसे ऊपरकी ३९२-जिस प्रकार दोनों आँखें मनुष्यको पुस्तक विना मूल्य भेट की जायगी।। मार्ग प्रदर्शित करती हैं उसी प्रकार संख्याज्ञान __2 जिनभाईयोंको अपने तथा अपने इष्टमित्रादि और (गणित ) शब्दज्ञान (व्याकरण) ये दो कोंके लिये 'मेरी भावना' की दो चार कापियोंकी विद्यायें इस संसारके समस्त प्राणियोंके लिए जरूरत हो वे डाक खर्चके लिये आधा आनेका मार्गप्रदर्शक हैं। टिकट भेजकर हमसे विनामूल्य मँगा सकते हैं। ३९३-कहा है कि जिन मनुष्योंने विद्या संपादक / सरसावा (सहारनपूर ) लाभ कर लिया है, वे ही वास्तवमें नेत्रधारी हैं। मूर्खजन नेत्रहीन अर्थात् हियेके अन्धे हैं / चर्चा-समाधान / ____३९४-ज्ञानवान् पुरुषोंका यह गुण है कि वे यह सुप्रसिद्ध ग्रन्थ हाल ही छपकर तैयार बड़ी उत्सुकतासे उस समयकी प्रतीक्षा करते हैं हुआ है। मूल्य 2 // 3) जब उन्हें फिरसे विद्वानोंकी संगतिका आनन्द - जैन ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय प्राप्त हो। हीराबाग, बम्बई। For Personal & Private Use Only