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________________ .२५२ जैनहितैषी [भाग १४ सहानुभूति आनन्द है । इसमें सर्वोत्तम और वह अपने आपको सर्वमय देखता है और पवित्र आनन्द दृष्टिगत होता है । सहानुभूति समझता है कि सब मनुष्य मेरे दूसरे देह हैं और स्वर्गीय है, क्योंकि इसके प्रकाशमें सब तरहके उनकी प्रकृतियाँ भी मुझ जैसी हैं, केवल उनमें स्वार्थिक विचार. नष्ट हो जाते हैं और सबके न्यूनाधिकताका अन्तर है । अगर उसे दूसरोंके साथ एक भाव अर्थात् आध्यात्मिक समानताका हृदयोंमें पाप-प्रवृत्तियाँ काम करती दिखती हैं दृढ संग रखनेसे पवित्र आनन्द मिलता है। तो वह अपने हृदयको टटोलता है और देखता जब मनुष्य सहानुभूति रखना छोड़ देता है तो है कि ऐसी ही प्रवृत्ति है तो मेरे मनमें भी, परन्तु उसका जीवन, दृष्टि और ज्ञान वृथा हो जाता है। उसने पापकी ओर झुकना छोड़ दिया है । यदि ___ मनुष्य जबतक दूसरोंके प्रति स्वार्थिक विचार वह दूसरोंमें पुण्य प्रवृत्ति देखता है तो उसको अपने नहीं छोड़े तबतक उनके साथ सच्ची सहानुभूति मनमें भी वैसी ही पुण्यप्रवृत्ति दिखती है जो अभी नहीं रख सकता। जो सच्ची सहानुभूति रखता उतनी शक्ति और परिपक्वताको नहीं पहुँची है। है वह दूसरोंको जैसे वे हैं वैसा देखनेका प्रयत्न एकका पार सबका पाप है और एकका करता है, उनके विशेष पाप, वासनाएँ, दुःख, पुण्य सबका पुण्य है । एक मनुष्य दूसरे मनुविश्वास, पक्षपात इत्यादिको यथार्थतासे जान ष्योंसे पृथक् नहीं है । प्रकृतिका कोई अन्तर नेकी चेष्टा करता है। वह अन्तमें जान लेता है । नहीं है, केवल स्थितिका या दशाका अन्तर है। कि वे लोग अपनी आध्यात्मिक उन्नतिमें किस यदि कोई मनुष्य अपनेको किसी दूसरे मनुष्यसे श्रेणी तक पहुँचे हुए हैं, उनका अनुभव कहाँ इस विचारसे पृथक् समझे कि वह मुझसे अधिक तक है और वे अपनी दशाको अभी बदल पवित्र है तो उसका ऐसा विचारना उसका सकते हैं या नहीं। वह जान लेता है कि उनका अज्ञान है। वह पृथक् नहीं है। मनुष्यत्व जैसा ज्ञान है उसीके अनुसार वे विचार और सब एक है । सहानुभूतिके पवित्र मन्दिरमें कार्य करते हैं। वह यह भी जान लेता है कि पुण्यात्मा और पापी मिलते हैं और एक होते हैं। उनकी हीन बुद्धि और ज्ञान अच्छे उदाहरणों के जीसिस क्राइस्टके विषयमें कहा जाता है द्वारा सहायता और उन्नति पा सकते हैं, परन्तु कि उसने अखिल संसारके पाप. अपने ऊपर वे तत्क्षण नहीं बदले जा सकते । विवेक और लिये-अर्थात् उसने अपनेको पापियोंसे पृथक् प्रेमके पुष्पोंको बढ़ने और विकसनके लिये सम नहीं गिना बल्कि अपने आपको उन जैसा ही यकी आवश्यकता है और ईर्ष्या तथा मूर्खताकी जाना । प्राणीमात्रके साथ उसका ऐसा समभाव बाँझ टहनियाँ शीघ्र नहीं काटी जा सकतीं। उसके जीवन में स्पष्टतासे सबको दृष्टिगत हुआ। ऐसा मनुष्य उससे परिचित जितने भी मनुष्य उसने उन पापियोंको-जिनको लोगोंने उनके हैं उनके प्रत्येकके आभ्यन्तरिक जगतका द्वार भयंकर पापोंके कारण दूर फेंक दिया था-अपनी ढूँढ लेता है, उसको खोलता है, उसके अन्दर छातीसे लगाया और उनके साथ घनिष्ठ सहाचला जाता है और उनके जीवनके पवित्र मन्दिरमें निवास करके उन सबके साथ एकमेक नुभूति दिखाई। हो जाता है । फिर उसको धिक्कारने, क्रोध करने सहानूभूतिका सबस आधक आवश्यकता और देष करनेको कोई भी स्थान नहीं दिखता किसको है ? पुण्यप्रतापी, ज्ञानी, या महात्माको और उसके हृदयमें अधिकतर अनुकम्पा, धैर्य इसकी आवश्यकता नहीं है । ज्ञानरहित और तथा प्रेम रहने लगते हैं। अपरिपक्क पापी मनुष्यको ही इसकी आवश्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522882
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages32
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size5 MB
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