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________________ अङ्क ९ ] कि एक बार स्वयं भी उसी दशा में था, बल्कि उसको अपना लघुभ्राता या मित्र समझ कर उसके साथ गंभीर सहानुभूति रखता है, क्यों कि सहानुभूति रखना कार्य की शुद्ध और उज्ज्वल प्रणाली है। परिपक्व महात्माको जो सबसे सहानुभूति - रखता है - दूसरों से सहानुभूति पाने की आवश्यकता नहीं है । क्यों कि वह पाप और क्लेशको जीत चुका है और आनन्दमें मग्न रहता है । परन्तु जो क्लिष्ट हैं उनको सहानुभूतिकी आवश्यकता है और जो पाप करते हैं वे क्लेश पाते हैं। जब मनुष्य यह समझने लगता है कि प्रत्येक पापके लिये ( चाहे वह मानसिक हो या कायिक ) उसको अवश्य क्लेश उठाना पड़ेगा तब वह दूसरों पर दोष लगाना छोड़ देता है और पापसे उत्पन्न हुए उनके क्लेशोंको देख कर उनके साथ सहानुभूति रखना आरम्भ करता है । ऐसा वह तब समझने लगता है जब अपने आपको ★ पवित्र और शुद्ध बना लेता है । सहानुभूति । जब मनुष्य अपने मनके विकारोंको शुद्ध कर लेता है, स्वार्थिक इच्छाओं को बदल देता है और अहंकारको पैरके नीचे कुचल देता है तब वह सर्व प्रकार के मानुषिक अनुभवोंको, अर्थात् समस्त पाप, दुःख, शोक, विचार और उद्देशोंको • संपूर्णतासे माप लेता है और धर्मनीतिको सुप्रकार समझ लेता है । सम्पूर्ण आत्मदमन और सम्पूर्ण ज्ञान सहानुभूति हैं। जो मनुष्य दूसरोंको अपने पवित्र हृदयकी स्वच्छ दृष्टिसे देखता है वह उनपर अवश्य करुणा करता है, उनको अपने ही देह भाग समझता है, उनको पतित और पृथक नहीं किन्तु अपनी ही आत्मा मानता है और उनके विषयमें यह समझता है कि " जैसे मैंने पहले पाप किया था, , वैसा ही ये भी कर रहे हैं, जैसे मैने क्लेश उठाया था, वैसा ये भी उठा रहे हैं, और जैसे मैं अन्तमें शान्तिको प्राप्त हुआ वैसे ही ये भी प्राप्त जायेंगे । " Jain Education International २५१ यथार्थमें भला और धीमान् वह है जो प्रबल पक्षपाती नहीं है, जो सबसे सहानुभूति रखता है, जो दूसरोंमें दोष नहीं देखता, जो पापीके उस पापको पहिचान लेता है जिससे वह अज्ञानताके कारण प्रसन्न हो रहा है और यह नहीं जानता कि अन्तमें मुझे इस पापके हेतु दुःख और पीड़ा उठानी पड़ेगी । जितनी दूर मनुष्यकी बुद्धि पहुँचती है उतनी ही दूर वह अपनी सहानुभूति विस्तृत कर सकता है; उससे अगाड़ी नहीं और मनुष्य जितना नम्र और दयावान् होता जाता है उतना ही अधिक वह बुद्धिमान होता जाता है । सहानुभूति संकुचित होनेसे हृदय संकुचित होता है और जी धुंधला तथा कटु होता है । सहानुभूतिको विस्तृत करना जीवनको प्रकाशित और हर्षित करना है और दूसरोंके लिये प्रकाश और आनन्दका मार्ग सुगमतर बनाना है । दूसरे के साथ सहानुभूति रखना उसके शरीरको अपने शरीर में धारण करना और उसके. समान भाव करना है, क्योंकि स्वार्थशून्य प्रेम बहुत शीघ्र ऐक्य उत्पन्न करता है । वह मनुष्यजिसकी सहानुभूति समस्त प्राणधारियों के साथ है उन सबमें तन्मय है और संसार के सर्वव्यापक प्रेम, नीति और बुद्धिको समझता है । स्वर्ग, शांति और सत्य मनुष्यसे उतने ही दूर हैं जितने दूसरे मनुष्योंको वह अपनी सहानुभूतिसे दूर रखता है । जिस सीमापर उसकी सहानुभूति समाप्त होती है वहींसे अन्धकार, दुःख और हलचल आरम्भ होती है, क्योंकि दूसरोंको अपने प्रेमसे दूर रखना मानों स्वयंको प्रेमके आनन्दसे दूर रखना है और स्वार्थक अन्धेरे कारागार में पड़े पड़े सुकड़ना है । जब मनुष्यकी सहानुभूति असीम होती है। तब ही उसको सत्यका अनन्त प्रकाश दृष्ट होता है । असीम प्रेममें ही असीम आनन्द मिलता है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522882
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages32
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size5 MB
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