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________________ आचार्यप्रवर अमृतचन्द्र। २५५ उस चूहेकी एक ही प्रकारकी दशा समझकर आचार्यप्रवर अमृतचन्द्र । उसपर सहानुभूति प्रकट करने लगा। उसने उस चूहेको अपने एक बूटमें वासस्थान दे दिया और अपने भोजन और जलमेंसे वह उसको खाने (लेखक-श्रीयुत नाथूराम प्रेमी।) पीनेके लिये देने लगा। जिस अत्यंत कठोर और आध्यत्मिक विद्वानोंमें भगवत्कुन्दकुन्दाचादुषित हृदयमें किसी भी मनुष्यके लिये दया र्यके बाद यदि किसीका नाम लिया जा सकता नहीं थी, उसी हृदयमें एक चूहेके हेतु सहानु- है तो वे श्रीअमतचन्द्रसूरि हैं । दुःखकी बात है भूतिका स्वर्गीय दीपक जलने लगा । अपनेसे " कि इतने बड़े सुप्रसिद्ध आचार्यके विषयमें हम शक्तिहीनोंकी ओर उसकी दया और प्रेम बढ़ने A हुने सिवाय इसके कुछ भी नहीं जानते हैं कि उनके T लगा और अपनेसे अधिक शक्तिमानोंसे उसकी । बनाये हुए तत्वार्थसार, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, समघृणा कम होने लगी । वह पहरेदारोंकी पूर्ण , वह पहरदाराका पूर्ण यसार टीका, पंचास्तिकाय टीका और प्रवचनआज्ञा मानने लगा । वे लोग इस बातको अद्भुत सार टीका, ये पाँच ही ग्रन्थ उपलब्ध हैं। उनकी समझने लगे कि इतना कठोर मनुष्य इतना गुरुपरस्परा, और समयादिसे हम सर्वथा अन सिरहामा अ-- नम्र कैसे बन गया। उसकी आकृति भी बदल भिज्ञा हैं। इस छोटेसे लेखमें हम उन्हीके विषगई । नेत्रों और होठों आदिकी भयंकरता धीरे । यमें कुछ बातें सूचनिकारूपमें उपस्थित करना ना मनात धीरे कोमलता और प्रेममें परिणत हो गई। चाहते हैं:अब वह दूषित और पापी कैदी नहीं रहा, उसका प्रायश्चित्त हो गया और उसका मन १-पण्डितप्रवर आशाधर अपने अनगारपुण्यमें रत हो गया। अन्तमें यह समस्त वृत्तान्त । - धर्मामृतकी भव्यकुमुदचन्द्रिका टीकामें (पृष्ठ अधिकारियों तक पहँच गया । उन्होंने उसको १६० मे ) लिखते हैःस्वतन्त्र कर दिया । जब वह जाने लगा तो उस “ एतदनुसारेणैव ठक्कुरोपीदमपाठीत्चहेको भी साथ ले गया। लोके शास्त्राभासे समयाभासे च देवताभासे। इस प्रकार दूसरोंपर सहानुभति प्रकट करनेसे नित्यमपि तत्त्वरुचिना कर्तव्यममूढदृष्टित्वम् ।।" 'इसका भंडार स्वयं हमारे हृदयमें बढ़ता है और यह श्लोक पुरुषार्थसिद्धयुपायका है, इसमें हमारा जीवन सफल होता है । सहानुभातिके किसी प्रकारका सन्देह नहीं किया जा सकता, दानसे आनन्दका पुरस्कार मिलता है और अतएव पं० आशाधर अमृतचन्द्रसूरिको ही ठक्कुर सहानुभतिका दान न देनेसे हमारा अनन्द नष्ट नामसे अभिहित करते हैं । इससे मालूम होता होता है। मनुष्य जितनी अधिक सहानुभति है कि या तो वे गृहस्थावस्थामें ठक्कुर उपनामसे रखता है उतना ही वह आदर्श जीवन अर्थात् पुकारे जाते होंगे, या फिर मुनि अवस्थामें ही सत्यानन्दके समीप पहुंचता है। जब उसका हृदय यह उनका दूसरा नाम होगा। इतना कोमल हो जाता है कि उसमें कोई भी अनगार धर्मोमृतमें अमृतचन्द्रके और भी कठोर, कटु या निर्दय विचार उत्पन्न नहीं होता अनेक श्लोकादि उक्तं च' रूपमें उद्धृत और उसके माधुर्यको न्यून नहीं करता तब वह किये गये हैं, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता मनुष्य सचमुच सत्य आनन्दमें मग्न हो जाता है। कि पूर्वोक्त श्लोकको आशाधरजीने भ्रमसे ठक्कुर नामक किसी दूसरे विद्वानका समझकर उद्धृत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522882
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages32
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size5 MB
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